Saturday, 08 December 2012 12:17 |
अरविंद मोहन स्पष्ट है कि जो सरकार आबादी के आंकड़ों, मरने-जीने के विवरण और इंदिरा आवास या सचमुच के शारीरिक श्रम पर आधारित मनरेगा जैसी योजनाओं के ब्योरों और गड़बड़ियों को दूर नहीं कर पाई हो, उससे हर तरह की सबसिडी को उसके असली हकदारों के खाते में पहुंचा देने की उम्मीद करना बेमानी होगा। बेहतर होता, पहले कुछ चीजों में प्रयोग किया जाता और ऐसे मामलों में सफल होने के बाद धीरे-धीरे अन्य मामलों में भी नगदी भुगतान शुरू होता, जिसकी परिणति खाद-बीज की सबसिडी को भी सीधे किसान या जरूरतमंद किसान के खाते में डाल कर होती। अभी जिन योजनाओं को नगदी भुगतान के दायरे में लाने की तैयारी है, उनमें मातृ-शिशु कल्याण के कई कार्यक्रमों का धन भी है। आंगनबाड़ी और इस तरह की योजनाएं गर्भवती औरतों से लेकर स्कूल जाने से पहले के बच्चों के पोषक आहार, अतिरिक्त पोषक आहार, रोगरोधी टीकों और बच्चों के विकास से जुड़े हैं। इनमें से सब जरूरी हैं और देश के कई राज्यों, जैसे तमिलनाडु में ठीक से लागू होने से इनका बहुत फायदा हुआ है। अब इनमें से किसे चालू रखा जाएगा और किसे हस्तांतरण के दायरे में ले लिया जाएगा इसका साफ पता अभी नहीं चल पाया है। पर इसके एक हिस्से को समाप्त करके सीधे नगदी देने की तैयारी है। जाहिर है, यह लोगों को लाभ देना या बिचौलियों को समाप्त करने से ज्यादा सरकार की विफलता की सार्वजनिक घोषणा है। सरकार से अगर यह काम नहीं हो रहा हो तो उसे हाथ झाड़ लेने की जगह अन्य एजेंसियों से या पंचायतों की मार्फत इसे लागू करने की पहल और अपनी तरफ से सख्त निगरानी करनी चाहिए थी। अस्पताल और डॉक्टर की सुविधा देना, जरूरतमंद बच्चे और मां को पौष्टिक आहार देना ज्यादा जरूरी है। हस्तांतरण से आया नगदी अगर घर वाले की शराब की खुराक बन गया तो वह अभी की 'लूट' से भी ज्यादा नुकसानदेह है। ज्यादा खतरा यही है कि यह धन इसी काम में इस्तेमाल हो। ज्यादा 'उद्यमी' ग्रामीण हुआ तो वह इसका इस्तेमाल जमीन-जत्था खरीदने में करेगा। हर हाल में यह रकम जरूरतमंद महिला और बच्चे तक नहीं पहुंचेगी। कितने घरों में महिलाओं की सुविधा के लिए शौचालय हैं, यह हम देख चुके हैं। जो किसान तत्पर हैं और अच्छी खेती करते हैं उनकी भी प्राथमिकता खेत लिखाना, आलीशान घर बनवाना होती है। बच्चे और औरतों की दुर्गति के कारण सांस्कृतिक भी हैं। और यह भी सच है कि जो सरकार अभी चलने वाली योजनाओं को लागू नहीं करा पा रही है या इसकी गड़बड़ियों को रोक पाने की जगह नगदी भुगतान करने में भरोसा कर रही है वह कल को हर घर में आए धन के दुरुपयोग को रोकने में कितनी कामयाब हो पाएगी! तो यह प्रयास धन लुटाने और वोट पाने से अलग बहुत कुछ करने नहीं जा रहा है। योजना कब और कितने जिलों में जाएगी, यह कहना मुश्किल है। सरकार हड़बड़ी में जरूर है, लेकिन यह भी साफ है कि यह काम उसके लिए मुश्किल है। जिस आधार कार्ड के जरिए वह इसे लागू करने का आधार बना रही है, वही अभी बीस करोड़ लोगों तक नहीं पहुंचा है। और जिनका आधार कार्ड बना है उनके गरीबी के ब्योरे तो उसमें गए नहीं हैं। वह शुद्ध रूप से पक्के और जैविक पहचान वाला कार्ड भर है। तो क्या सबका नया कार्ड बनेगा? और यह नगदी सबसिडी हस्तांतरण है या आधार कार्ड को व्यापक बनाने की रणनीति? कार्ड के प्रचार की बाकी योजनाएं तो फेल हो चुकी हैं। जब उससे सीधे लाभ मिलेगा तो लोग उसे बनवाने के लिए भी लाइन लगाएंगे। यह मुद्दा हो सकता है, पर दो लाख करोड़ रुपए सालाना लुटाने की योजना इतने भर के लिए नहीं बन सकती। यह निश्चित रूप से सरकार द्वारा अपनी विफलता को छिपाने और वोट खरीदने के लिए उठाया गया कदम है। यह काम प्रणब मुखर्जी के राष्ट्रपति बनने के बाद से आए आत्मविश्वास के बाद उठा दूसरा बड़ा कदम है। उदारीकरण के दूसरे चरण के फैसले वोट दिला ही देंगे, यह भरोसा नहीं है। लेकिन करोड़ों गरीबों को सीधे नगदी पाने का लाभ न हो, यह कोई नहीं मानता। पर इस क्रम में सरकार गरीबों के प्रति अपनी जवाबदेही से हाथ झाड़ ले, यह गलत है। |
Saturday, December 8, 2012
जिसका आधार ही कमजोर हो
जिसका आधार ही कमजोर हो
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