Thursday, July 29, 2021

हम ओलंपिक पदक जीतेंगे,टॉप पर भी होंगे।बशर्ते

 न लिखने का वायरस और चन्दोला जी का जन्मदिन।जी रौ सौ बरीस

पलाश विश्वास



ये महाशय हमारे परम् मित्र कैलाश चन्दोला जी हैं और प्रेरणा अंशु के प्राचीनतम सदस्य हैं।मास्साब जब तक सम्पादकीय सम्भाल रहे थे,तब तक हर अंक में लिख रहे थे।लेकिन उनके बाद हम उनसे लिखा नहीं पा रहे।


महाशय अब फेसबुक पर अपना लिखा प्रकाशित कर देते हैं। हम आईटीआई परिसर में उनके क्वार्टर जाकर लिखने का तकादा करके चाय नाश्ता उड़ा आते थे।जनाब पर कोई असर नहीं हुआ। नगीना खान  को भी न लिखने की बीमारी लग गई है। वह भी फेसबुक पर लिख रही हैं।  चन्दोला जी तो चाय नाश्ते की बचत के लिए हल्द्वानी जाकर छुप जातक हैं। 


अच्छे दिन लहलहा रहे हैं।फिरभी?


मित्रों में यह बीमारी अब महामारी हो गयी है। मसलन एम एस के के विजय सिंह।हर अंक में वायदा करके नहीं लिखते। Subir Vandana Das  और  Manoj Ray,साथ में  Subeer Goswamin ..मनोज और सुबीर बेतरीन रंगकर्मी भी हैं। 


सुबीर वन्दना दास फेसबुक पर रोजाना सैकड़ों लाइक बटोरते हैं और प्रिंट के लिए न लिखने की कसम खाई है। मनोज तो कलम पकड़ने की तकलीफ भी नहीं उठाते। रंगकर्म की इतिश्री हो गई। सुबीर गोस्वा मी न रंगकर्म करते हैं और न लिखते हैं।फेसबुक पोस्ट भी नहीं करते।


न लिखने का इस फेसबुकिया वायरस का स्रोत हालांकि चीन नहीं है और न किसी अमेरिकी राष्ट्रपति ने पढ़ने लिखने की संस्कृति खत्म होने के लिए चीन को दोषी ठहराया है। 


फेसबुक से जो बचे हुए हैं,उनमें खासकर युवा और बच्चे पब्जी में निष्णात है। पब्जी अब राष्ट्रीय खेल है,हॉकी नहीं है। उनकी प्रतिभा इसमें खिलखिला रही है।


ओलंपिक में पदकों की कमी तभी पूरी होगी जब नशाखोरी, सट्टा, जुआ,रिश्वत, आपसी फूट, चमचागिरी, घृणा और हिंसा के साथ ही आलस्य और बहाने बाजीबमें अपनी प्रतिभा जाया करने पर भीबपडक मिलेंगे। 


तब शायद पदक तालिका में हम शीर्ष पर होंगे।


लगे रहो मुन्ना भाई का अनुसरण करते हुए कैलाश चन्दोला और अपनी प्रतिभा को ताक पर रखने वाले ऐसे मित्रों के घर पर गुलाब के साथ गोमूत्र और गोबर रखने की जरूरत है।


गोबर और गोमूत्र तो भारत में हारी, बीमारी और महामारी का रामवाण है।जरूर आजमाइए।


हालांकि चन्दोला जी ने लिखा है


अब कल 30 जुलाई ठैरा बल ये हर साल मल्लब साल में एक ही बार आने वाला हुआ बल।

हाँ कल का दिन मेरे लिये भौति महत्व का ठैरा क्योंकि कल ही के दिन मैने इस पावन धरा में पदार्पण किया लोगो को ज्ञान बाटने ,अपने ज्ञान का विस्तार करते हुए कल मुझे पचास वर्ष हो जाएंगे।

हाँ अपने पराक्रम से कल मैं दो जगह मित्रो के साथ रहूँगा स्थानीय मित्र अपनी अपनी सुविधा के अनुसार मुझसे समय मल्लब अपॉइंटमेंट ले सकते है दो जगहों में सुविधानुसार जगह का चुनाव कर ले।

हा फेसबुक के मित्र अभी से आशीर्वाद, शुभकामनाएं,बधाई संदेश प्रेषित कर सकते है।


बधाई जी। जय हो। जी रौ सौ बरीस।


इतनी लंबी शुभकामना सन्देश के बाद क्या कैलाश चन्दोला फिर लिखना शुरू करेंगे और बाकी लोग पढ़ना लिखना?


स्टारपोल पर आप खूब वोट दाल रहे हैं। इनबॉक्स में इस बारे में अपनी राय हां या ना में दर्ज करें।


दिनेशपुर के बाहर के साथी यहां अपने इलाके के अपनी प्रतिभा के साथ ऐसा ही सलूक करने वाले मित्रो के खिलाफ नामजद रपट दर्ज कर सकते हैं ताकि हमें यह मालूम हो सके कि दिनेशपुर से बाहर भी ऐसे मित्र हैं।


लाइक करें या न करें, वोट जरूर डालें।बहुत जल्द नए सुअरों,बंदरों और मुख्यमंत्रियों,मंत्रियों की आमद के लिए आप वोट डालेंगे ही।थोडी प्रैक्टिस कर लेने में बुराई क्या है?

खिलता हुआ इंद्रधनुष।पलाश विश्वास

 खिलता हुआ इंद्रधनुष और भावनाओं की राजनीति


पलाश विश्वास









दफ्तर से बसन्ती पुर लौटते हुए हरिदासपुर से गांव के रास्ते पैदल चलते हुए हल्की बूंदाबांदी और सांझ की धूप में हिमालय की छनव में आसमान के एक छोर से दूसरे छोर तक अर्धचन्द्राकार इंद्रधनुष खिलते दिखा। 


मेरे मोबाइल से ज़ूम नहीं जो सकता।फिर भी सिर्फ दृष्टि के भरोसे नौसीखिए हाथों से खींची ये तस्वीरें। 


रास्ते में खेत का काम करके सुस्त रहे बचपन के मित्र,जबरदस्त किसान प्रभाष ढाली मिल गए।उसके साथ बिल बाडी का भाई बाबू।


 फटाक से फोटू खिंचवा ली। 


प्रभाष के पास गांव में पहले पहल कैमरा आया। तब हम डीएसबी में एमए के छात्र थे और नैनिताल समाचार निकला ही था। राजीव लोचन साह दाज्यू और गिर्दा ने कहा कि नैनीताल समाचार के लिए लिखो। 


तब तराई की खबरें नहीं छपती थी कहीं। हालांकि हाल में दिवंगत रुद्रपुर के पूर्व नगर पालिका अध्यक्ष और पिताजी के मित्र सुभाष चतुर्वेदी हिमालय की पुकार निकाला करते थे। हमारे अग्रज गोपाल विश्वास ने भी तराई टाइम्स निकाला था। लेकिन तराई पर खोजी पत्रकारिता करना जोखिम का काम था।


जगन्नाथ मिश्र जी की पत्रकारिता के चलते गदरपुर बाजार में सरेआम गोली मार दी गई थी। हालांकि 1979 के 13 अप्रैल को पन्तनगर गोलीकांड की रपट शेखर पाठक ,गिर्दा और मैंने नैनिताल समाचार और दिनमान के लिए कर दी थी। 


तभी नैनिताल से दिल्ली आकाशवाणी की रिकार्डिंग के वक्त जाते हुए रास्ते में बस से उतारकर गिर्दा को हमलावरों ने बुरी तरह पीटा था।


हकीकत का सामना पीड़ित पक्ष के लोग भी नहीं करते। भावनाएं भड़काकर उनकी आवाज़ बुलंद करने वालों के खिलाफ हमला करवाना तबभी दस्तूर था।


हमने कब तक सहती रहेगी तराई श्रृंखला लिखनी शुरू की तो दिनेशपुर और शक्तिफार्म में ही भयंकर विरोध झेलना पड़ा।राजनीति प्रबल थी हमारे खिलाफ। 


नैनीताल समाचार और मुझे धमकियां दी गईं।घेरकर मारने की कोशिशें भी होती रही। लेकिन हमने लिखना बन्द नहीं किया।


तब तराई के गांवों और जंगलों में मेरे साथ अपने कैमरे के साथ प्रभाष ढाली हुआ करते थे। उनके पिताजी रामेश्वर ढाली बसंतीपुर को बसाने वालों में थे। उसकी मां का उसके बचपन में ही सेप्टीसीमिया से निधन हो गया था।


आज बसन्ती पुर में उम्र हो जाने के बाद भी रात दिन जमीन पर डटे रहने वाले किसान का नाम प्रभाष ढाली है। मेरे भाई पद्दोलोचन, दोस्त नित्यानन्द मण्डल और गांव के दूसरे किसानों के साथ प्रभाष भी लगातार पन्तनगर कृषि विश्व विद्यालय के निर्देशन में आधुनिक खेती करते हैं। प्रभाष ऑर्गनिक खेती भी कर रहै हैं।


इंद्रधनुष के शिकार के प्रयास में फ्रेम में गांव और खेतों में घुसपैठ करते हुए शहर की झांकियां भी कैद हो गयी।लेकिन अफसोस पहाड़ कैद नहीं कर सका।


 हिमालय की उत्तुंग शिखर बहुत पास होते हुए भी हमसे दूर हैं। यह दूरी उतनी ही है,जितनी उत्तराखण्ड बनने के बाद पहाड़ी और गैर पहाड़ी जनता के बीच बनती जा रही है। अफसोस की भावनाओं की राजनीति अब बेलगाम है और दूरियां बढ़ती जा रही है।


मेरा नैनीताल अब लगता है कि अनजान किसी और आकाशगंगा में है।

Tuesday, July 27, 2021

वजूद से चस्पां

 शिवन्ना का भाई ननिहाल में मस्त।कभी हम भी ऐसे ही रहे होंगे। मेरी माँ बसन्ती देवी,ताई हेमलता,चाची उषा और बड़ी दीदी मीरा के पास जाहिर है कि तराई के घनघोर जंगल में मोबाइल फोन नहीं रहा होगा।






जब बाघ भालू से जिंदा बचने की लड़ाई हो तो फोटो का क्या मतलब? फिर ऐसे कपड़े?

 हम तो मिट्टी कीचड़ से लथपथ रहे होंगे जैसे पलाश के फूल। मेरे पिता पुलिनबाबू तब आंदोलनों की आग में दहक महक रहे थे।

यह तस्वीर साहब की मम्मी गायत्री ने खींची है।

मेरी ताई ज्यादा होशियार थी,नाम के साथ पूरे पर्यावरण की समूची तस्वीर हमारे वजूद के साथ चस्पां कर दी।

फिर दर्द होता है तो चीखना मजबूरी भी है।पलाश विश्वास

 फिर दर्द होता है तो चीखना मजबूरी भी है।

पलाश विश्वास



शायद जब तक जीता रहूंगा मेरी चीखें आपको तकलीफ देती रहेंगी,अफसोस।

जो बच्चे 30-35 साल की उम्र में हाथ पांव कटे लहूलुहान हो रहे हैं,उनमें से हरेक के चेहरे पर मैं अपना ही चेहरा नत्थी पाता हूं।

बत्रा साहेब की मेहरबानी है कि उन्होंने फासिज्म के प्रतिरोध में खड़े भारत के महान रचनाकारों को चिन्हित कर दिया।इन प्रतिबंधित रचनाकारों में कोई जीवित और सक्रिय रचनाकार नहीं है तो इससे साफ जाहिर है कि संघ परिवार के नजरिये से भी उनके हिंदुत्व के प्रतिरोध में कोई समकालीन रचनाकार नहीं है।

उन्हीं मृत रचनाकारों को प्रतिबंधित करने के संघ परिवार के कार्यक्रम के बारे में समकालीन रचनाकारों की चुप्पी उनकी विचारधारा,उनकी प्रतिबद्धता और उनकी रचनाधर्मिता को अभिव्यक्त करती है।

जैसे इस वक्त सारे के सारे लोग नीतीश कुमार के खिलाफ बोल लिख रहे हैं।जैसे कि बिहार का राजनीतिक दंगल की देश का सबसे ज्वलंत मुद्दा हो।

डोकलाम की युद्ध परिस्थितियां, प्राकृतिक आपदाएं,किसानों की आत्महत्या,व्यापक छंटनी और बेरोजगारी, दार्जिंलिंग में हिंसा, कश्मीर की समस्या, जीएसटी, आधार अनिवार्यता, नोटबंदी का असर , खुदरा कारोबार पर एकाधिकार वर्चस्व, शिक्षा और चिकित्सा पर एकाधिकार कंपनियों का वर्चस्व, बच्चों का अनिश्चित भविष्य, महिलाओं पर बढ़ते हुए अत्याचार,दलित उत्पीड़न की निरंतरता,आदिवासियों और अल्पसंख्यकों के खिलाफ नरसंहार संस्कृति जैसे मुद्दों पर कोई बहस की जैसे कोई गुंजाइश ही नहीं है।

गौरतलब है कि मुक्तिबोध पर अभी हिंदुत्व जिहादियों की कृपा नहीं हुई है।शायद उन्हें समझना हर किसी के बस में नहीं है,गोबरपंथियों के लिए तो वे अबूझ ही हैं।

पलाश विश्वास

सत्ता समीकरण और सत्ता संघर्ष मीडिया का रोजनामचा हो सकता है,लेकिन यह रोजनामचा ही समूचा विमर्श में तब्दील हो जाये,तो शायद संवाद की कोई गुंजाइश नहीं बचती।आम जनता की दिनचर्या,उनकी तकलीफों,उनकी समस्याओं में किसी की कोई दिलचस्पी नजर नहीं आती तो सारे बुनियादी सवाल और मुद्दे जिन बुनियादी आर्थिक सवालों से जुड़े हैं,उनपर संवाद की स्थिति बनी नहीं है।

हमारे लिए मुद्दे कभी नीतीशकुमार हैं तो कभी लालू प्रसाद तो कभी अखिलेश यादव तो कभी मुलायसिंह यादव,तो कभी मायावती तो कभी ममता बनर्जी।हम उनकी सियासत के पक्ष विपक्ष में खड़े होकर फासिज्म के राजकाज का विरोध करते रहते हैं।

जैसे इस वक्त सारे के सारे लोग नीतीश कुमार के खिलाफ बोल लिख रहे हैं।जैसे कि बिहार का राजनीतिक दंगल की देश का सबसे ज्वलंत मुद्दा हो।

डोकलाम की युद्ध परिस्थितियां, प्राकृतिक आपदाएं,किसानों की आत्महत्या,व्यापक छंटनी और बेरोजगारी, दार्जिंलिंग में हिंसा, कश्मीर की समस्या, जीएसटी, आधार अनिवार्यता, नोटबंदी का असर , खुदरा कारोबार पर एकाधिकार वर्चस्व, शिक्षा और चिकित्सा पर एकाधिकार कंपनियों का वर्चस्व, बच्चों का अनिश्चित भविष्य, महिलाओं पर बढ़ते हुए अत्याचार,दलित उत्पीड़न की निरंतरता,आदिवासियों और अल्पसंख्यकों के खिलाफ नरसंहार संस्कृति जैसे मुद्दों पर कोई बहस की जैसे कोई गुंजाइश ही नहीं है।

लोकतंत्र का मतलब यह है कि राजकाज में नागरिकों का प्रतिनिधित्व और नीति निर्माण प्रक्रिया में जनता की हिस्सेदारी।

सत्ता संघर्ष तक हमारी राजनीति सीमाबद्ध है और राजकाज,राजनय,नीति निर्माण,वित्तीय प्रबंधन,संसाधनों के उपयोग जैसे आम जनता के लिए जीवन मरण के प्रश्नों को संबोधित करने का कोई प्रयास किसी भी स्तर पर नहीं हो रहा है।

सामाजिक यथार्थ से कटे होने की वजह से हम सबकुछ बाजार के नजरिये से देखने को अभ्यस्त हो गये हैं।

बाजार का विकास और विस्तार के लिए आर्थिक सुधारों के डिजिटल इंडिया को इसलिए सर्वदलीय समर्थन है और इसकी कीमत जिस बहुसंख्य जनगण को अपने जल जंगल जमीन रोजगार आजीविका नागरिक और मानवाधिकार खोकर चुकानी पड़ती है,उसकी परवाह न राजनीति को है और न साहित्य और संस्कृति को।

हम जब साहित्य और संस्कृति के इस भयंकर संकट को चिन्हित करके समकालीन संस्कृतिकर्म की प्रासंगिकता और प्रतिबद्धता पर सवाल उठाये,तो समकालीन रचनाकारों में इसकी तीव्र प्रतिक्रिया हुई है।

बत्रा साहेब की मेहरबानी है कि उन्होंने फासिज्म के प्रतिरोध में खड़े भारत के महान रचनाकारों को चिन्हित कर दिया।

इन प्रतिबंधित रचनाकारों में कोई जीवित और सक्रिय रचनाकार नहीं है तो इससे साफ जाहिर है कि संघ परिवार के नजरिये से भी उनके हिंदुत्व के प्रतिरोध में कोई समकालीन रचनाकार नहीं है।

उन्हीं मृत रचनाकारों को प्रतिबंधित करने के संघ परिवार के कार्यक्रम के बारे में समकालीन रचनाकारों की चुप्पी उनकी विचारधारा,उनकी प्रतिबद्धता और उनकी रचनाधर्मिता को अभिव्यक्त करती है।


गौरतलब है कि मुक्तिबोध पर अभी हिंदुत्व जिहादियों की कृपा नहीं हुई है।शायद उन्हें समझना हर किसी के बस में नहीं है,गोबरपंथियों के लिए तो वे अबूझ ही हैं।अगर कांटेट के लिहाज से देखें तो फासिजम के राजकाज के लिए सबसे खतरनाक मुक्तिबोध है,जो वर्गीय ध्रूवीकरण की बात अपनी कविताओं में कहते हैं और उनका अंधेरा फासिज्म का अखंड आतंकाकारी चेहरा है।शायद महामहिम बत्रा महोदय ने अभी मुक्तबोध को कायदे से पढ़ा नहीं है।

बत्रा साहेब की कृपा से जो प्रतिबंधित हैं,उनमें रवींद्र,गांधी,प्रेमचंद,पाश, गालिब को समझना भी गोबरपंथियों के लिए असंभव है।

जिन गोस्वामी तुलसीदास के रामचरित मानस के रामराज्य और मर्यादा पुरुषोत्तम को कैंद्रित यह मनुस्मृति सुनामी है,उन्हें भी वे कितना समझते होंगे,इसका भी अंदाजा लगाना मुश्किल है।

बंगाली दिनचर्या में रवींद्रनाथ की उपस्थिति अनिवार्य सी है,  जाति,  धर्म,  वर्ग, राष्ट्र, राजनीति के सारे अवरोधों के आर पार रवींद्र बांग्लाभाषियों के लिए सार्वभौम हैं,लेकिन बंगाली होने से ही लोग रवींद्र के जीवन दर्शन को समझते होंगे,ऐसी प्रत्याशा करना मुश्किल है।

कबीर दास और सूरदास लोक में रचे बसे भारत के सबसे बड़े सार्वजनीन कवि हैं,जिनके बिना भारतीयता की कल्पना असंभव है और देश के हर हिस्से में जिनका असर है। मध्यभारत में तो कबीर को गाने की वैसी ही संस्कृति है,जैसे बंगाल में रवींद्र नाथ को गाने की है और उसी मध्यभारत में हिंदुत्व के सबसे मजबूत गढ़ और आधार है।

निजी समस्याओं से उलझने के दौरान इन्हीं वजहों से लिखने पढ़ने के औचित्य पर मैंने कुछ सवाल खड़े किये थे,जाहिर है कि इसपर कोई प्रतिक्रिया नहीं हुई है। 

मैंने कई दिनों पहले लिखा,हालांकि हमारे लिखने से कुछ बदलने वाला नहीं है.प्रेमचंद.टैगोर,गालिब,पाश,गांधी जैसे लोगों पर पाबंदी के बाद जब किसी को कोई फर्क नहीं पड़ा तो हम जैसे लोगों के लिखने न लिखने से आप लोगों को कोई फर्क नहीं पड़ने वाला है।अमेरिका से सावधान के बाद जब मैंने साहित्यिक गतिविधियां बंंद कर दी,जब 1970 से लगातार लिखते रहने के बावजूद अखबारों में लिखना बंद कर दिया है,तब सिर्फ सोशल मीडिया में लिखने न लिखने से किसी को कोई फ्रक नहीं पड़ेगा।

कलेजा जख्मी है।दिलोदिमाग लहूलुहान है।हालात संगीन है और फिजां जहरीली।ऐसे में जब हमारी समूची परंपरा और इतिहास पर रंगभेदी हमले का सिलसिला है और विचारधाराओं,प्रतिबद्धताओं के मोर्टे पर अटूट सन्नाटा है,तब ऐशे समय में अपनों को आवाज लगाने या यूं ही चीखते चले जाना का भी कोई मतलब नहीं है।

जिन वजहों से लिखता रहा हूं,वे वजहें तेजी से खत्म होती जा रही है।वजूद किरचों के मानिंद टूटकर बिखर गया है।जिंदगी जीना बंद नहीं करना चाहता फिलहाल,हालांकि अब सांसें लेना भी मुश्किल है।लेकिन इस दुस्समय में जब सबकुछ खत्म हो रहा है और इस देश में नपुंसक सन्नाटा की अवसरवादी राजनीति के अलावा कुछ भी बची नहीं है,तब शायद लिखते रहने का कोई औचित्य भी नहीं है।

मुश्किल यह कि आंखर पहचानते न पहचानते हिंदी जानने की वजह से अपने पिता भारत विभाजन के शिकार पूर्वी बंगाल और पश्चिम पाकिस्तान के विभाजनपीड़ितों के नैनीताल की तराई में नेता मेरे पिता की भारत भर में बिखरे शरणार्थियों के दिन प्रतिदिन की समस्याओं के बारे में रोज उनके पत्र व्यवहार औऱ आंदोलन के परचे लिखते रहने से मेरी जो लिखने पढ़ने की आदत बनी है और करीब पांच दशकों से जो लगातार लिख पढ़ रहा हूं,अब समाज और परिवार से कटा हुआ अपने घर और अपने पहाड़ से हजार मील दूर बैठे मेरे लिए जीने का कोई दूसरा बहाना नहीं है।

फिर दर्द होता है तो चीखना मजबूरी भी है।

शायद जब तक जीता रहूंगा,मेरी चीखें आपको तकलीफ देती रहेंगी,अफसोस।

अभी अखबारों और मीडिया में लाखों की छंटनी की खबरें आयी हैं।जिनके बच्चे सेटिल हैं,उन्हें अपने बच्चों पर गर्व होगा लेकिन उन्हें बाकी बच्चों की भी थोड़ी चिंता होती तो शायद हालात बदल जाते।

मेरे लिए  रोजगार अनिवार्य है क्योंकि मेरा इकलौता बेटा अभी बेरोजगार है।इसलिए जो बच्चे 30-35 साल की उम्र में हाथ पांव कटे लहूलुहान हो रहे हैं,उनमें से हरेक के चेहरे पर मैं अपना ही चेहरा नत्थी पाता हूं।

अभी सर्वे आ गया है कि नोटबंदी के बाद पंद्रह लाख लोग बेरोजगार हो गये हैं।जीएसटी का नतीजा अभी आया नहीं है।असंगठित क्षेत्र का कोई आंकड़ा उपलब्ध नहीं है और संगठित क्षेत्र में विनिवेश और निजीकरण के बाद ठेके पर नौकरियां हैं तो ठीक से पता लगना मुश्किल है कि कुल कितने लोगों की नौकरियां बैंकिंग, बीमा, निर्माण,  विनिर्माण, खुदरा बाजार,संचार,परिवहन जैसे क्षेत्रों में रोज खथ्म हो रही है।

मसलन रेलवे में सत्रह लाख कर्मचारी रेलवे के अभूतपूर्व विस्तार के बाद अब ग्यारह लाख हो गये हैं जिन्हें चार लाख तक घटाने का निजी उपक्रम रेलवे का आधुनिकीकरण है,भारत के आम लोग इस विकास के माडल से खुश हैं और इसके समर्थक भी हैं।

संकट कितना गहरा है,उसके लिए हम अपने आसपास का नजारा थोड़ा बयान कर रहे हैं।बंगाल में 56 हजार कल कारखाने बंद होने के सावल पर परिव्रतन की सरकार बनी।बंद कारखाने तो खुले ही नहीं है और विकास का पीपीपी माडल फारमूला लागू है।कपड़ा,जूट,इंजीनियरिंग,चाय उद्योग ठप है।कल कारखानों की जमीन पर तमाम तरहके हब हैं और तेजी से बाकी कलकारखाने बंद हो रहे हैं।

आसपास के उत्पादन इकाइयों में पचास पार को नौकरी से हटाया जा रहा हो।यूपी और उत्तराखंड में भी विकास इसी तर्ज पर होना है और बिहार का केसरिया सुशासन का अंजाम भी यही होना है।

सिर्फ आईटी नहीं,बाकी क्षेत्रों में भी डिजिटल इंडिया के सौजन्य से तकनीकी दक्षता और ऩई तकनीक के बहाने एनडीवी की तर्ज पर 30-40 आयुवर्ग के कर्मचारियों की व्यापक छंटनी हो रही है।

सोदपुर कोलकाता का सबसे तेजी से विकसित उपनगर और बाजार है,जो पहले उत्पादन इकाइयों का केद्र हुआ करता था।यहां रोजाना लाखों यात्री ट्रेनों से नौकरी या काराबोर या अध्ययन के लिए निकलते हैं।चार नंबर प्लैटफार्म के सारे टिकट काउंटर महीनेभर से बंद है।आरक्षण काफी दिनों से बंद रहने के बाद आज खुला दिखा।जबकि टिकट के लिए एकर नंबर प्लेटफार्म पर दो खिडकियां हैं।

सोदपुर स्टेशन के दो रेलवे बुकिंग क्लर्क की कैंसर से मौत हो गयी हैा,जिनकी जगह नियुक्ति नहीं हुई है।सात दूसरे कर्मचारियों का तबादला हो गया है और बचे खुचे लोगं से काम निकाला जा रहा है।

आम जनता को इससे कुछ लेना देना नहीं है।

आर्थिक सुधारों,नोटबंदी,जीएसटी,आधार के खिलाफ आम लोगों को कुछ नहीं सुनना है।उनमें से ज्यादातर बजरंगी है।

बजरंगी इसलिए हैं कि उनसे कोई संवाद नहीं हो रहा है।

बुनियादी सवालों और मुद्दों से न टकराने का यह नतीजा है,क्षत्रपों के दल बदल, अवसरवाद जो हो सो है,लेकिन जनता के हकहकूक के सिलसिले में सन्नाटा का यह अखंड बजरंगी समय है।

वीरेनदा ने कहा था,खूब लिखो बसंतीपुर पर

 फिल्मकार राजीव कुमार ने सूचना दी है




Rajkr: साहित्यकार बटरोही ने वीरेन के परिवार के साथ उनके स्मारक का लोकार्पण किया।

साहित्य अकादमी पुरस्कार ‌समादृत कवि वीरेन डंगवाल

 बरेली

धन्यवाद राजीव भाई। फोटो में बटरोही जी के अलावा सुधीर विद्यार्थी जी भी शायद नज़र आ रहै हैं दोनों को नमन।

वीरेन दा का असली स्मारक तो दोस्तों और पाठकों के दिलोदिमाग में बना बनाया है,जिसके लोकार्पण की शायद जरूरत भी नहीं है। न ही वीरेन दा साहित्य अकादमी पुरस्कार पाने के बावजूद ऐसी औपचारिकता के कायल थे।

उनके अवसान के बाद परिवार के लोगों से मिलने का मौका नहीं बना।इसका अफसोस है।

वीरेनदा कहा करते थे कि बसंतीपुर पर खूब लिखो।

विडम्बना यह है कि मैं फिर बसंतीपुर में बस गया,लेकिन उनके जाने के बाद। वे नान भी न सके कि मैं घर लौट आया।

फिर बसंतीपुर के सिवाय मेरे पास लिखने को क्या है?

पलाश विश्वास

Let us live the rural hell!Palash Biswas

 Live in your urban heaven!Let us live in our hell in Indian villages! 


Palash Biswas



Urban people should not shift in the villages as they never considered rural people as human being. If circumstances drive them to their native places,they feel abandoned in the hell.


Where they lived once,even were born, they never longed for the forgotten land. Economy made them run for life and they got shelter in their roots only. But it is very hard to forget the glittering markets and th freedom of purchasing which they lost with the loss of job or position.


They tend to be habitual to maintain their so called class status. They always tried to live with the class and struggle to get the stairs to reach the upper class.


They never tried to go back to the roots but tried their best to get rid of the old memories of misery and poverty amit growing purchasing crowd leaving the society and community as well.


They were never happy as they always wept for more. They never knew happiness .They had been always sad for the missing things they could not afford.


Being quite unsocial,they might not adjust with the cruel realities in rural life.


It is better for them to succumb in their urban heaven. Let us live in the hell.

50 लाख साल बूढ़ी मनुष्यता की कुल उपलब्धि घृणा, हिंसा और पितृसत्ता? पलाश विश्वास

50 लाख साल की बूढ़ी मनुष्यता की कुल उपलब्धि हिंसा,घृणा और पितृसत्ता है?

पितृसत्ता रहेगी, नफरत और मार्केट की सियासत की शिकार स्त्री होगी, जाति के नाम सामूहिक बलात्कार होंगे,तो फूलनदेवी भी होगी

पलाश विश्वास





अन्याय और अत्याचार की दुःखद परिणति यही है। जाति हिंसा किसी महायद्ध से कम नहीं है। 


अंध जातिवाद से पीड़ित मनुष्यता का प्रत्युत्तर भी हिंसा है। यह होती रहेगी।इसका अंत नहीं,क्रमबद्ध है यह।


आजादी के बाद इस महादेश में धर्म,नस्ल, भाषा,क्षेत्र और जाति की अस्मिता से जितनी हिंसा हुई है,जितने निर्दोष लोग मारे गए, वैसा दोनों विश्वयुद्धों को मिलाकर भी नहीं हुआ।


वहां तो फिरभी फौजें एक दूसरे के खिलाफ लड़ रही थीं।


 11 वी सदी से लेकर 15 वीं सदी तक के धर्मयुद्धों और बीसवीं सदी के सांस्कृतिक युद्ध से भी भयानक परिदृश्य से हम गुज़र जाते हैं।इसी भारतवर्ष में। जब घर से निकलना भी मौत को दावत दी सकता है। घर में भी सामूहिक बलात्कार हो सकता है।


इसी  परिदृश्य में सामने आता है ,एक पीड़ित महिला का चेहरा जो जाति के नाम सामूहिक बलात्कार को जायज मानने वाली भीड़ से कुछेक को मौत के घाट उतारकर निजी बदला चुका देती है।


जाति जब तक रहेगी,गैर बराबरी, अन्याय,उत्पीड़न और सामूहिक बलात्कार की व्यवस्था जब तक स्त्री देह को उपनिवेश और युद्ध का मैदान बनाती रहेगी,फिर फिर फूलन देवी का जन्म होगा।


यह कानून व्यवस्था का मामला उतना नहीं है,जितना मनुष्यता और सभ्यता के विकास का मामला है।


 मनुष्यता कितनी आगे बढ़ी है?


 सभ्यता का कितना बिकास हुआ है? 


50 लाख साल बाद भी आदिम मनुष्यों की तरह स्त्री को आखेट का सामान माना जाता है?


50 लाख साल बूढ़ी मनुष्यता की कुल उपलब्धि घृणा और हिंसा की पितृसत्ता है?


हम इक्कीसवीं सदी में हैं।हम अखण्ड भारत के खंडित हिस्सों में हैं।अर्थ व्यवस्था बदल गयी है। स्थानीय रोजगार कदिन नहीं है। रोजगार के लिए विस्थापन अनिवार्य है।


हम अपने हिस्से का देश लेकर स्थानांतर नहीं हो सकते। दूसरे के हिस्से के देश में विस्थापन की वजह से ही विविधता बहुलता का यह लोकतंत्र है।


किसी भी नस्ल,जाति, धर्म,भाषा का विशुद्ध भूगोल नहीं है आज। न विशुद्ध रक्त की तरह स्वतंत्र सम्प्रभु अर्थव्यबस्था है।


अस्मिता की राजनीति से देश का बंटवारा हुआ, जिसके शिकार हम लोग उसकी यातना पीढ़ी दर पीढ़ी भुगत रहे हैं। आज भी कोई भी किसी को यह फरमान जारी कर देता है किसी शहंशाह की तरह,यह देश तुम्हारा नही है।यह जमीन तुम्हारी नहीं है।


 फिर जाति,धर्म,नस्ल,भाषा के नाम पर हिंसा और खून का सैलाब,फिर स्त्रियों से सामूहिक बलात्कार। 


देश के हर हिस्से का यह हाल है।


नफरत और हिंसा की सियासत निरंकुश है।

ऐसे में फूलन देवी के अवतार आते रहेंगे।


इस नफरत,हिंसा और स्त्री विरोधी पितृसत्ता से क्या हमें कभी मुक्ति मिलेगी?


क्या हम मुक्ति चहते हैं?

Saturday, July 24, 2021

We the fodder for tigers and the safe heaven turned into losing hell. By Palash Biswas

 We, the fodders for tigers and the safe heaven turned into losing Hell

Palash Biswas








Not only in 1978,the East Bengal dalit refugees were made fodders for tigers in Marichjhanpi island of Sundarvans in West Bengal, but the have been made fodders for tigers in jungles, hills and islands all over the country, almost in 23 states after partition of India.


It was not their fault that Inda was divided and they were ejected out of history, geography and homeland. 


It was rather the vengeance of the political hegemony which  drew the border line thanks to Redclif commission allied with interested parties who wanted to nullify the election of Babasaheb Dr. BR Ambedkar to the constituent assembly from East Bengal.


 The legacy of the freedom.fight for two hundred years by the peasantry of East Bengal and their political might had to be discarded. They have to be punished for thier freedom struggle to liberate Indian Peasantry.


Unprecedented hate,violence and riots ejected our people from East Bengal. They were put into congested transit camps where they were fed the ration left by British and American military who camped there during second world war. 


Ultadanga and  kashipur were the first refugee camps made in 1947 and later almost every part of West Bengal became refugee camps which were inflicted with pendamic cholera an amaal.pox just because of the rotten food years old, specifically in Ulta danga, Rajaghat and kashipur camps. 


Hundreds died daily in these camp without medical care. It was systematic massacre which continued until sixties up to Madhy Prdesh camps including the Mana camp and other camps around Raipur, now the capital of Chhattisgarh.


West Pakistan refugees were resettle within 1950 on war foot level with compensation and land not less than 10 acres just because entire Punjab stood with them to get rid from the Holocaust. 


 But the Bengali leadership had no sympathy with the refugees nor they ever supported the refugees nor rehabilitated. The refugees stranded in West Bengal face the worst even after seven decades of independence without home,without employment and livelihood. Facing intensive caste bias an persecution.


At least,we the people sent out of Bangla enjoyed the support and fraternity of the local communities ,adminstration and even politician across party line.


The East Bengal refugees who crossed the border in 1946 and onward, were dumped in dense forests in tribal areas, in hills and in the islands ie Andaman Nicobar.


 The East Bengal refugees were made fodders for the tigers as they had to survive in the dense forest until 1954 without any survival kit or support. These marshy lands also inflicted cholera and pox at large scale which stopped the inhabitation for thousand years and tribal people were living there. 


The politics was to pit the refugees against the tribal.people so they should succumb in infights.it ,however,did not happen as we have fraternal relationship with the tribal people countrywide. It was the project to break the tribal cscheduled areas using refugees as human shields.


Pdt Govind Ballabh Pant as the then chief minister of Uttar Pradesh was the man who  helped most the refugees to resettle the West and East Pakistan refugees in the dense forest in the Terai region of Uttar Pradesh specifically in Nainital and Pilibhit districts.


 Whereas Punjabi refugees were rehabilitated within 1950, the East Bengal refugees were stranded in the dense forest since 1949 to 1954,full five years.


In Pilibhit, Beharaich and Lakhimpur district they were settled in the core jungle area and forest land which remains with the forest department even today on lease with five acres of land on which they have no land ownership  right.


 The East Bengal dalit refugees settled in Mala Tiger Project in  Pilibhit district in Uttar Pradesh in fifties have been reduced to fodder for the tigers and they have to sacrifice themselves for the freedom on India ,ironically after full seven decades of independence.


In Nainital district ,the people stranded since 1948 were rehabilitated only after their movements in 1954 and 1956 led by Pulin Babu, Radha kant Roy and others and they got the most eight acres land in the forest which they had to cultivate fighting with the tigers,elephants,bears,buenas and poisonous snakes.


After partition ,our people considered India, a safe heaven which turned into losing hell.


My village Basantipur, named after my mother's name, had the people whose ancestors were the  fighters of the East Bengal peasant uprisings for two hundred years since the war of Plassy in 1757.


 Many of them crossed the border between 1947 to 1950. The were dumped in different camps in West Bengal including kashipur, ulta danga, ghusudi, Rajaghat and kaksha wherefrom they were shifted to Charbetiya camp in Odisha and from there they were sent to Nainital. 


Every family lost their dearest ones in camps and forest,not in the bloodshed during population transfer.


Every family was reduced to brothers, father and son, mother and son uncle and nephew,orphans and so on.They had to reorganize the family.


Phoolchand Mandal now 88 years old crossed Ichhamti river to land in Bashir har in 1946 being scared of the partition because of direct action in kolkata and the riots followed. 


They entered the kaashipurr camp  after 15 August 1947 and lost his grand father, grand mother,mother and a sister. He was only a child Ved below twelve years within 15 days. Only phool chand and his father Chetan Mandal survived.


Phoolchand  says,they were dumped in military barracks od second world order like animals and fed the ration left by British and US military. 


It is the same story of other refugee camp with some variants.


They were later sent to two camps in Vardhaman including  one in kanksha. Fron

kanksha his father Chetan Mandal,Chetan's aunt from native place in Khulna who joined them after the deaths were sent to Charbetia,near Cuttack. 


Within a year they were sent to Nainital. They came by train and the first tented camp in the jungle was kichcha Railway platform.


 They had to live in such tents in kanpur number one and Vijaynagar until the Basnti our,Uday nagar and Panchananpur refugee families sat on hunger strike in Rudrapur in 1954. They lived on jungle fruits, plants and roots for three years until Basantipur village came into being.


Settling in Basantipur ,the villagers arranged his marriage to a ten year girl,geeta,the daughter of Hazarilal  Gaine


Phool chand told that the refugees resettled in kanpur number one, Mohan our number one and Radhakantpur were stranded in Teri jungle since 1948.


My father Pulinbabu lived alike Gandhi with a dhoti only facing the winter of the hills and fought lifelong for the rehabilitation of the refugees. But his life was not enough to reserve the East Bengal refugees. He succumbed to cancer on 12 th June  in 2001. His sustained journey countrywide and across the border,his sacrifice were not enough and we are predestined to inequality and injustice.


The rehabilitation was delayed. The people crossing border in 1947 have not been rehabilitated as yet. 


Late in 1960 the Sanskaran project was launched in 1960. But most of the refugees faced the hell losing without any rehabilitation as yet.


Until 1960 they were resettled with five acres of land which was reduced to three to one acre only within 1971. 


Thereafter they were termed as illegal migrants with the citizenship amendment act 2003.

Thursday, July 22, 2021

पुलिनबाबू,कुर्बानी और बांस।पलाश विश्वास

 हमारे घर से अंत्येष्टि के लिए बांस देते रहने को कहा था पुलिनबाबू ने

पलाश विश्वास



आज बकरीद है।कुर्बानी का त्योहार।गरीबों मुफ़लिसों भूखों की मदद के लिए कुर्बानी। 


मेरे पिता ने ज़िन्दगी भर इन्ही लोगों के लिए कुर्बानी दी। पहनने को धोती और पीने के लिए चाय के अलावा उन्हें कुछ नहीं चाहिए था। जनता के हक हकूक की लड़ाई के लिए जमीन बेच दी।देश के सभी राजनीतिक दलों के नेताओं,राष्ट्रपतियों, प्रधानमंत्रियों,मुख्यमंत्रियों, केंद्र राज्य सरकारों के प्रशासनिक अधिकारियों से निरन्तर सम्वाद में कभी अपने लिए कुछ नहीं मांगा। जायदाद नहीं जोड़ी।


मृत्यु के बाद किसीकी अंत्येष्टि में बांस की गांव देहात में जरूरत होती है।इसलिए पिताजी ने बांस की झड़ी लगाई घर में और कह दिया कि किसी की भी मृत्यु हो तो हमारे घर से बांस दे दिया जाए।


 यह झाड़ी हमारे तालाब से सटा है जो महज छह साल की उम्र में दिवंगत हमारे भतीजे विप्लव की याद ।इन खोदा गया।


ओडिशा से नैनिताल पहुंचने के बाद 1951 से 1954 तक तराई के गहन अरण्य में अपने साथियों के साथ बाघ का चारा बनने से बचते हुए तराई को आबाद किया।


 1954,1956 और 1958 में किसानों और विस्थापित विभाजनपीडितों के आंदोलनों का नेतृत्व किया।


उसके बाद बसंतीपुर गांव बस जाने के बाद गांव प्रधान मंदार बाबू,सेक्रेटरी अतुल शील और कैशियर शिशुवर मण्डल और गांव के अपने साथियों के हवाले गांव कर दिया और तब से शुरू हो गई उनकी यायावरी।


सरहद के आरपार गरीबों,मुफ़लिसों,विस्थापितों की लड़ाई,पूर्वी बंगाल में भाषा आंदोलन, असम के दंगों से लेकर 2001 में  मृत्यु से पहले तक देशभर में हुए तमाम

 दंगों में पीड़ितों को मदद और राहत देने का सिलसिला आखिरी सांस तक जारी रहा। 


हिन्दू मुस्लिम,जाति, धर्म, भाषा,नस्ल का भेद नहीं किया कभी।सबके साथ थे।सबके लिए लड़े।


वे शरणार्थियों के ऐसे नेता थे,जो दंगों के लिए या भारत विभाजन के लिए मुसलमानों को जिम्मेदार नहीं मानते थे। वे हरिचाँद गुरुचांद, जोगेन मण्डल, बाबा साहब अम्बेदकर, ज्योतिबा फुले और महात्मा गौतम बुद्ध के अनुयायी थे। हालांकि भारत विभाजन पर लिखा गया सारा साहित्य, गुरुदत्त के उपन्यासों और संघ परिवार के दस्तावेजों का उन्होंने न सिर्फ खुद अध्धयन किया,बल्कि मुझे भी पढ़ने को दिया। 


सच उन्होंने भोगा, जिया। इसलिए उनके दिल में नफरत नहीं थी। जबकि हमारे लोग अपनी दुर्दशा के लिए आज भी कांग्रेस, मुस्लिम लीग , जोगेन मण्डल और मुसलमानों को जिम्मेदार मानते हैं और हमारे सारे सामाजिक और सांस्कृतिक संगठनों से लेकर दो सौ साल की विरासत वाले मतुआ आंदोलन का राजनीतिकरण हो गया है।सबके सब नफरत की सियासत में शरीक हैं।


पुलिनबाबू के वंशजों की आस्था सत्य, प्रेम , अहिंसा, समता और न्याय में है। हम उन्हीं के मूल्यों को लेकर चलते हैं। नफरत के लहलहाते माहौल में इसकी कीमत अदा करनी होती है।इसका अफसोस नहीं है। कोई हमसे रिश्ता जोड़ना नहीं चाहता। लोग रिश्ता तोड़ देते हैं।हमें इसका भी अफसोस नहीं है।


गम्भीर कुपोषण के के कारण 70 के दशक में टीबी के मरीज बन गए।इलाज चलता रहा। यायावरी नहीं रुकी। फिर 2001 में पता चला कि टीबी से रीढ़ की हड्डी में कैंसर हो गया। हमने भरसक कोशिश की लेकिन हमें पता भी नहीं होता था कि वे कब कहाँ देश विदेश के किस हिस्से में किनकी लड़ाई लड़ रहे हैं।


 डॉक्टरों ने भी हर मान ली। 12 जून को उन्होंने अंतिम सांस ली 2001 में।


उनकी जैसी कुर्बानी हम नहीं कर सकते।

वे दिनेशपुर में एक बड़ा अस्पताल चाहते थे। यह उनकी आखिरी इच्छा थी। हमें जनता का समर्थन नही है क्योंकि हम राजनीति नहीं करते।


उनकी कुर्बानी बेकार होते देखते रहने के अलावा हम क्या कर सकते हैं?


उन्हीं की जमीन पर आखिरी सांस लें,इसके सिवाय हमारी दूसरी ख्वाहिश क्या हो सकती है?


कम से कम यह बांस की झाड़ी है ,जिसके जरिये वे हर मरने वाले के साथ नए सिरे से जीते हैं।

Sunday, July 18, 2021

हमारी अपनी मरी हुई छोटी सी नदी।पलाश विश्वास

 हमारी अपनी मरी हुई छोटी सी नदी की कथा

पलाश विश्वास



हमारे गांव के चारों तरफ इस नदीं की शाखाएं बहती थीं।जिसमें बारहों महीने पानी हुआ करता था। बेशुमार  मछलियां, कछुए और केकड़े,सांप और पक्षी हुआ करते थे।जीव वैचित्र्य और जीवन से भरपूर।


दोनों किनारे जंगल हुआ करते थे। जहां लोमड़ी, हिरन, खरगोश से लेकर बाघ का डेरा होता था।घास,सरकंडे के जंगल हुआ करते थे। आस पास आबाद जंगल के बचे हुए बड़े बड़े पेड़ पलाश के हुआ करते थे।जिनके फूल चटख लाल हुआ करते थे।जब मैं जन्मा तब तराई आबाद हो ही रह था और जंगल के बीचोंबीच जन्मे हम। 


पलाश की बहार को देखकर ओडाकांदी के हरिचाँद गुरुचाँद ठाकुर की परिवार से आई   शायद तीसरी चौथी तक पढ़ी लिखी मेरी ताई हेमलता ने मेरा नाम रख दिया पलाश।


पलाश के पेड़ों के अलावा वट,पीपल,शेमल के विशाल पेड़ खेतों के बीच नदी के किनारे,गांव में भी जहां तहां बिखरे पड़े थे।


बसंतीपुर मतुआ और तेभागा आंदोलनों में,शरणार्थी और किसान आंदोलनों में शामिल आंदोलन के साथियों का गांव है।जहां सारे लोग हिन्दू जरूर थे क्योंकि ये तमाम लोग भारत विभाजन के कारण हिन्दू होने के कारण, भारत में वंचितों की लड़ाई दो सौ साल से लगातार लड़ते रहने के अपराध में पूर्वी बंगाल से खदेड़कर बंगाल के बाहर भारत वर्ष के 22 राज्यों के आदिवासिबहुल पहाड़ों,जंगलों और द्वीपों में छितरा दिए गए ताकि इनकी पहचान,  इनकी मातृभाषा,इनकी संस्कृति और अविभाजित बंगाल और भारत में इनकी नेतृत्वकारी राजनीतिक हैसियत और लगातार संघर्ष करने की क्रान्तिकारी ताकत को खत्म कर दिया जाए। 


बसंतीपुर का नाम आंदोलनकारी बसंतीपुर के पुरखों ने  मेरी मां के नाम पर रख दिया।जबकि इस गांव में हमारे अपना कोई रिश्तेदार नहीं था। कुल मिलाकर 5 परिवार हमारी जाति नमोशूद्र,एक परिवार नाई, दो परिवार ब्राह्मण , दो परिवार कैवर्त और बाकी सभी पौंड्र क्षत्रिय थे। हमारा परिवार और गांव के एक और परिवार के अलावा, दुर्गापुर के जतिन विश्वास और प्रफुल्लनगर के बैंक मैनेजर  Shankar Chakrabartty के परिवार के अलावा ज्यादातर लोग बंगाल के सुंदरवन इलाके के बरीशाल, जोगेन मण्डल का जिला,या खुलना के थे। एक गांव पीपुलिया नम्बर एक के लोग फरीदपुर, हरिचांद गुरुचाँद और मुजीबुर्रहमान के जिले के थे।


 राजवंशियों का एक गांव खानपुर नम्बर एक था। फिर भी दिनेशपुर के 36 गांवों का यह इलाका एक संयुक्त परिवार था।


 बंगालियों के अलावा पहाड़ी,बुक्सा,सिख, देशी गांवों के हर परिवार से हम लोगों का कोई न कोई सम्बन्ध था।


 एकदम मिनी भारत था तराई का पूरा इलाका।विविधता और बहुलता का लोकतंत्र था।मुसलमान गांव भी

 पुराने थे,जिनसे अच्छे ताल्लुकात थे।


हमारे गांव की तरह तराई का हर गांव जंगल के आदिम।गन्ध से सराबोर था और हर गांव की अपनी अपनी नदियां थीं।


सत्तर सालों में तराई अब सीमेंट का जंगल है। जंगल खत्म हैं तो नदियां भी मर गई। इन्हीं नदियों के पानी और मूसलाधार बरसते मानसून से तराई के खेतों से सचमुच सोना उगलता था। अब सिर्फ बिजली का भरोसा है।


खेत सुख रहे हैं और हमारी कोई नदी नहीं है।

न पानी है और न आक्सीजन।


इन्ही नदियों के पार कीचड़ पानी से लथपथ था हमारा बचपन। पैदल हरिदासपुर दिनेशपुर के स्कूल खेतों के मेड़ों से जाते आते थे। अक्सर स्कूल से आते हुए नदी नाले में मछलियां नगर आयी तो उतर जाते पानी में।अपनी।कमीज को थैला बनाकर मछलियां लेकर घर लौटते।खूब डांट पड़ती। पिटाई भी होती। 


नदी से होकर धान के खेतों में हमारी तैराकीं चलती।खेत खेत धान बर्बाद हो जाता।सिर्फ गांव के प्रधान maandaar बाबू से हम डरते।पिताजीसे भी सभी।डरते थे,लेकिन वे अक्सर गांव में होते न थे। 


जिनके खेत बर्बाद होते थे,वे भी।किसीसे शिकायत नहीं करते थे।फिर   रोपते थे धन और हमें प्यार से हिदायत दी जाती- अबकी बार धान के खेत में तैरना मत।


इतना प्यार कहाँ मिलेगा?

इतनी आज़ादी कहाँ मिलेगी?


मेड मेड गांव गांव आते जाते थे। इन्हीं मेड़ों से बारात आती जाती थी।शादी के बाद सबसे पहले दूल्हा दुल्हन मुकुट के साथ,उसके पीछे पीछे बच्चे और बाराती।


 बाज़ार जाते थे खेत खेत होकर बैलगाड़ी में। कभी कभी कीचड़ पानी में बैल भैंस के पांव धंस जाते थे तो पूरे गांव को एकजुट होकर उन्हें निकालना होता था।हर घर में गाय,बैल,भैंस,बकरियां होती थीं।


नदीकिनारे जंगल में हम बच्चों को उनको चराना होता था। पशुओं को चराने और खेती के कामकाज में हाथ बंटाने के साथ हमारी पढ़ाई बहुत मुश्किल थी।


नदी किनारे हम आजाद पंछी थे।उन्ही पक्षियों की तरह बड़े बड़े पेड़ों की डालियों पर हमारा बसेरा था। खेलने कूदने का मैदान भी वही। हमारे सारे सपने नदी से शुरू होते थे।नदी में ही डूब जाते थे।


 इसी नदी की सोहबत में हमने हिमालय के शिखरों को छूना सीखा।पढ़ना लिखना सीखा। 


हमारी दोस्ती,रिश्तेदारी को भी खेतो की तरह सींचती थी यह नदी।


इस मरी हुई नदी में आषाढ़ सावन में भी पानी नहीं है एक बूंद। हमारे खेत बिजली से चलने वाले पम्पसेट सींचते थे।जहां तहां मेड़ों पर बिजली के तार। बिजली की बजह से खेतों के किसीतरह पानी में जाना भी मुश्किल।


भतीजा टूटल खेत फावड़े से तैयार कर रहा है तो ट्रैक्टर भी चल रहा है।पड़ोस के खेत में एमए पास सिडकुल में कामगार,सामाजिक कार्यकर्ता तापस सरकार धान की निराई में लगा है।


खेत के इस टुकड़े में हमारा धान अभी लगा नहीं है। पद्दो गायों के लिए घास काटकर घर गया है और टुटुल खेत में है।


नदी किनारे आज भी बच्चे खेलते हैं,लेकिन न पेड़ है, न जंगल, न चिड़िया है, न मछलियां,न केकड़े, न कछुए और न ही सांप,केंचुए और कीड़े मकोड़े।


इसी नदी को हाईस्कूल में जीवविज्ञान पढ़ते हुए हमने प्रयोगशाला बना रखा था। डिसेक्शन बॉक्स से औजार निकालकर राणा तिगृणा मेंढक को पकड़कर चीड़फाड़ करके हम विज्ञान सीखते थे तो भैंस की पीठ पर सवार होकर सवाल हल करते थे।


आज के बच्चे ऐसा कर सकते है?

Saturday, July 17, 2021

भारत विभाजन की त्रासदी ने उन्हें पागल बना दिया।पलाश विश्वास

 रानाघाट कैम्प में पिता की लावारिश मौत देखनेवके बाद मैट्रिक पास बिरंची बाबू का दिमाग खराब हो गया


भारत विभाजन के बाद कटी फ़टी मनुष्यता को सहेजने में पुरखों ने जो झेला

पलाश विश्वास




आज शाम को टेक्का उर्फ नित्यानन्द मण्डल के साथ हम 10 क्वार्टर ,चित्तरजनपुर नम्बर एक में गए थे।


 एक थे बिरंची मण्डल,जो 1950 से पहले पूर्वी बंगाल से मैट्रिक पास करके रानाघाट आये थे और एक हादसे में उनके पिताजी  की शरणार्थी कैम्प में मृत्यु हो जाने के बाद वे विक्षिप्त हो गए। पिताजी मंत्रसिद्ध थे और पानी पढ़कर महामारी का इलाज करते थे वे शाकाहारी थे।


अविभाजित भारत के खुलने जिले के पाइकगाछा थाने में था उनका गांव। उनकी पत्नी श्रीमती अनिमा मण्डल की स्मृति धुंधली हो चुकी है। 


उनके बेटे श्रीकृष्ण मण्डल और भतीजे प्रह्लाद ने बताया कि लताराबाद उनके गांव का नाम था।


उन्होंने कहा कि भारत विभाजन से पहले ब्रिटिश इंडिया में विरंची बाबू ने मेट्रिक पास की थी। खुलना जिला हिन्दुबहुल था और उसके भारत मे बने रहने की संभावना थी। 15 अगस्त 1947 में खुलना में भारत का तिरंगा झंडा फहराया गया था,जो अगले दिन उतार लिया गया। तब शुरू हुआ हिंसा का तांडव।बिरंची बाबू की आगे की पढाई हमेशा के लिए रुक गयी।


गौरतलब है कि रेडक्लिफ कमीशन की रपट 17 अगस्त को प्रकाशित हुई। खुलना और चटगांव में भारत का झंडा  फहरा दिया गया तो मालदा और मुर्शिदाबाद में पाकिस्ता

न का झंडा। खुलना और चटगांव में अगले ही दिन भारत का झंडा उतारकर पाकिस्तान का झंडा लगा दिया गया।लेकिन मालदा और मुर्शिदाबाद में पाकिस्तानी झंडा

उतारने में हफ्ताभर लग गया। इंग्लैंड से पहलीबार भारत आये रेडक्लिफ ने कांग्रेस और मुस्लिम लीग के नेताओं के साथ मिलकर बिना किसी सर्वेक्षण या रायशुमारी के सरहदें तय कर दी।जिससे अफरा तफरी फैले।तनाव भड़का और दंगे शुरू हो गए।इस पार उस पार दोनों तरफ। लोग विभाजन के हकीकत का सामना करने को तैयार नहीं थे।आम लोगों तक खबरें नहीं ,अफवाहें पहुंचती थी। पढ़े लिखे भद्रजन तो 1946 में ही जमीन जायदाद का बंदोबस्त करके बंगाल में बस गए।आम लोगों का आना 1949 - 50 में शुरु हुआ,जो आज भी जारी है।


बिरंचीबाबू और उनके छोटे भाई हिरण्य पिता और मन के साथ 1950 में सीमा पार करके बंगाल के रानाघाट रिफ्यूजी कैम्प पहुंचे। पता राजेन्द्र नाथ, दादी ज्ञानिदेवी और भाई हिरण्य के साथ आये थे वे।


रानाघाट और दूसरे कैम्पों में भारी अव्यवस्था और भीड़ थी। रोज महामारी से दर्जनों लोग मारे जा रहे थे। जिनकी अंत्येष्टि सामूहिक कर दी जाती थी। परिजनों को अंत्येष्टि में शामिल होने की इजाजत नही थी।


 पिता राजेन्द्र नाथ मण्डल की ऐसी लावारिश मौत देखकर बिरंचीबाबू का दिमाग खराब जो गया। पिता शाकाहारी थे। उनकी इच्छा थी कि उनको जलसमाधि दी जाए मृत्यु के बाद। 


कहते हैं कि वे मंत्रसिद्ध थे और लोकआस्था रही है कि उन्होंने साक्षात श्रीकृष्ण का दर्शन किया था। इसलिए सिर्फ पानी से इलाज करके किसी भी मर्ज का इलाज करके वे मरणासन्न मरीज को ज़िंदा बचा लेते थे। राजेन्द्र नाथ के गुरुजी बांसिराम सरदार थे। 


रानाघाट में राजेंद्र नाथ नेत्रहीन हो गए थे। वे तालाब के किनारे थे कि एक बैलगाड़ी की चपेट मेम आ गए।उनकी मृत्यु हो गयी। लेकिन परिजनों को लाश नहीम दी गयी। बिरंची बाबू यह सदमा ष्ठ नहीं सके। रानाघात में ही उनकी मां ज्ञानी देवी का निधन हो गया।


बहरहाल1952 में बिरंची बाबू भाई हिरण्य और एक बहन के साथ रानघाट से सीधे चित्तरंजनपुर आ गए। यही उनका विवाह हुआ। उन्हें आठ एकड़ जमीन अलाट हुई। हमारे खेत के साथ लगा हुआ उनका खेत। बचपन से हम उनको देखते रहे थे।तब के हिसाब से तराई में बसे बंगाली शरणार्थियों में सबसे ज्यादा पढ़े लिखे,अत्यंत सज्जम बिरंची बाबू को रात दिन सरदर्द से परेशान सर पर लगातार पानी देते रहने के पीछे की त्रासदी तब हमें मालूम न थी।


दिनेशपुर में आये शरणार्थियों में वे अकेले मैट्रिक पास थे।हम बच्चों से उनकी बहुत दोस्ती थी। बंगाली उदवास्तु समिति के अध्यक्ष राधाकांत राय भी मैट्रिक पास थे। वे बेहतर हिंदी जानते थे।लेकिन इंग्लिश में बिरंची बाबू का कोई मुकाबला नहीं था। 


मेरे पिताजी पुलिन बाबू सिर्फ कक्षा दो तक पढ़ सके।ताउजी कक्षा 6 तक। भारत विभाजन की त्रासदी की वजह से शरणार्थियों की कई पीढ़ियों को ज़िन्दगी को पटरी पर लाने,अपनो और अपना सबकुछ खो देने के सदमे से उबरने में बहुत वक्त लगा।पढ़ने लिखने की न सुविधा थी, न फुरसत और न मानसिकता।


बिरंची बाबू तो आखिरी सांस तक उसी त्रासदी के भँवर में डूबते उतरते रहे।न डूब सके  और न तैरकर किनारे तक पहुँच सके। बेहद तकलीफ में होने के बावजूद वे कभी चिड़चिड़े न थे।न गुस्सा करते थे कभी। ऊंची आवाज में बोलते न थे।सिर्फ हंसी गायब थी। अत्यंत भद्र व्यवहार था उनका सबके प्रति।


वे किताबें और दवाएं ढाका और कोलकाता से मंगवाकर इलाके के गांव गांव में बेचते थे। ढाका के मशहूर साधना औषधालय से वे डीपवाएँ मंगाते थे। किताबों  और दवाइयों के बॉक्स लेकर चलते थे। किसानों को सालसा सेहत के लिए बांटते थे। अब न वे किताबे हैं और न दवाइयों का बॉक्स।


उनके सर में असम्भव दर्द होता था।हर वक्त सर पर पानी उड़ेलते थे।नल,नदी नाले का पानी।वे धड़ल्ले से अंग्रेजी बोलते थे। इस क्षण वे कभी सामान्य जीवन जी न सके

भारी शारीरिक मानसिक कष्ट वे बर्दाश्त करते रहे जीवन भर। भारत विभाजन की त्रासदी उनके दिलोदिमाग में नासूर बन गयी थी,जिसका कोई इलाज न था।


उनके बेटे श्रीकृष्ण, पत्नी,भतीजे प्रह्लाद के साथ पूरी शाम बिताई।  प्रहलाद के पिता हिरण्य हमारे खास दोस्त थे।उनके तालाब के सामने एक झोपड़ी में था उनका खाना। तालाब और झोपड़ी वहीं है।जिस क्वार्टर में दिनेशपुर में बिरंची बाबू की ज़िंदगी शुरू हुई थी वह खंडहर है। उसके सामने श्रीकृष्ण का पक्का मकान है।


प्रह्लाद एक जाने माने रंगकर्मी हैं। दिनेशपुर में सेंट्रल पैथोलॉजी उनके भाई दीपंकर चलाते हैं। बिरंची बाबू के श्रीकृष्ण के अलावा चार और बेटे हैं।गोपाल,बंशीराम,प्राण कन्हाई और लक्ष्मी मण्डल।


प्रेरणा अंशु की ओर से भारत विभाजन के शिकार बंगाली शरणार्थियों पर शोध जारी है।इसी सिलसिले में हम खोए हुए,गुमनाम पुरखों की कहानियां बटोर रहे हैं।


बिरंची बाबू का निधन 1998 में हो गया।लेकिन वे हमारे अत्यंत भद्र पढ़े लिखे पुरखे थे,जिनके बारे में नई पीढ़ी

 को अवश्य जानना चाहिए।


 बिजली कटौती जारी है। 


कुछ तस्वीरें। बिरंची बाबू,उनकी पत्नी, प्रह्लाद और श्रीकृष्ण,बसंतीपुर वापसी के रास्ते पर हमारे खेतों के नजारे।

पुरखों की आपबीती इतिहास है,साहित्य नहीं।पलाश विश्वास

 सन्दर्भ बिरंची बाबू की कथा और पुरखों कि आपबीती


पलाश विश्वास



 परशुराम बंगाल के बहुत बड़े लेखक थे। उनके अनुभव का आधार बंगाल था और वे कहानी लिख रहे थे।


यह कहानी नहीं,सत्यकथा है उत्तराखण्ड में बसे विस्थापितों की।


 मंटो के टोबा टेक सिंह की कथा भी बंटवारे की दास्तान है। शायद सबसे महान। 


हमारे लोगों की कथा किसी ने नहीं लिखी है।क्योंकि हमारे पुरखे लिखते नहीं थी। अंग्रेजों के आने से पहले तक मनुस्मृति के मुताबिक ये लोग शिक्षा,सम्पत्ति और शस्त्र के अधिकारों से वंचित थे।


 दो सौ साल पहले शुरू हुए हरिचाँद गुरुचांद के मतुआ आंदोलन और जमींदारों,अंग्रेजों के खिलाफ किसान विद्रोह से हक हकूक की लड़ाई शुरू हुई ही थी,शिक्षा का प्रसार हो ही रहा था,औद्योगिकरण से जाति टूट ही रही थी कि भारत के विभाजन के जरिये इन्हें पूर्वी बंगाल से उखाड़ फेंककर जंगलों,द्वीपो,पहाड़ों में छितरा दिया गया।परिवार और समाज कट फट गया।


 बंगाल के इतिहास भूगोल से खेदड़ दिए जाने के बाद मातृभाषा और संस्कृति से बेदखल होने के बाद दशकों तक हमारी पीढ़ी दर पीढ़ी सिर्फ जीने के लिए ,नए सिरे से ज़िन्दगी,तमाम दुखों और तकलीफों के बीच शुरू करने के लिए खपते रहे। भारतीय साहित्य और इतिहास में इसका लेखा जोखा नहीं है।

 सात दशक बाद अपने जीते जी यह कथा व्यथा सहेजने की कोशिश कर रहा हूँ।

 यह सच का सामना करना है।हम न परशुराम हैं और न मंटो। इस श्रृंखला का साहित्य से कोई लेना देना नहीं है।यह वंचितों की नई पीढ़ी को समर्पित पुरखों की आपबीती है।

Friday, July 16, 2021

जमीन और हवा की रिश्तेदारी। पलाश विश्वास

 जमीन और हवा की रिश्तेदारी

पलाश विश्वास



40 साल के अंतराल के बाद तराई के किसी गांव में जाऊं तो नए लोग नहीं पहचानते। लेकिन नाम से वे सभी जानते हैं।हमारे परिवार के साथ रहे हैं ये लोग।अब भी हैं।


सब्जी बाज़ार गया। तो देशी लौकी लिए गेरुआ वस्त्र पहने एक बुजुर्ग से पूछा कि लौकी ठीक निकलेगी?


वे बोले, ठीक न निकले, में हूँ न? उन्होंने घर का पता बताया।फिर पूछा,बसंतीपुर है न घर? पुलिनबाबू के बेटे हो? पलाश?


मैंने पूछा,40 साल नहीं रहा इलाके में।कैसे पहचान लिया?"


वे बोले,हम आप लोगों को भूले नहींहैं।न भूलेंगे। चेहरा दिल में छपा है।


अमूमन रोज़ यह वाकया फिर फिर दुहरा जाता है।


ठेले वाला, टुकटुकवाला, ऑटो ड्राइवर, सब्जीवाला,दुकानदार सारे के सारे लोग पहचान लेते हैं।जो नहीं पहचानते, उनको वे नाम बताते है तो उमड़ पड़ता है उनका प्यार।


गांवों में हर उम्र की महिलाएं उसी जब्जे के साथ पेश। आती हैं, जैसे 40 साल पहले  आती रही हैं।


सविता जी विवाह के बाद मेरे साथ दुनिया घूमती रही हैं। दिनेशपुर कभी नहीं रही। वे भी हैरत में पड़ जाती हैं कि अनजान लोग उन्हें कैसे पहचान लेते हैं।


जैसेकि समय ठहरा हुआ है।सिर्फ हम लोग बूढ़े हो गए हैं।हमारे अपनों को, तराई की मेहनतकश जनता को ,किसानों, मजदूरों और स्त्रियों के लिए अभी सत्तर का दशक है और में भी सत्तर के दशक का हूँ।


कोलकाता में हमने 27 साल बिताए। बंगाल के कोने कोने में गए हैं। वे तमाम लोग जानते थे। सब्जी बाजार गये तो घेर लेते थे। घर से निकले तो लोगों से बातचीत में घण्टों बीत जाता था।


सविता जी कोलकाता से लेकर आस पास के जिलों में सामाजिक सांस्कृतिक गतिविधियों में हर रोज़ बिजी थी।


तीन साल बीतते न बीतते हम कोलकाता और बंगाल के लिए अजनबी हो गए।


चेहरे पर जब तक माटी का लेप न हो, तब तक रिश्ते इसीतरह खत्म होते हैं।


 जमीन और हवा की रिश्तेदारी असल है।


हम अपने लोगों के प्यार से अभिभूत हैं।

दुनिया बदलने के लिए अपनी जड़ों को खोना बहुत गलत है, यह अब सीख पाया हूँ। शायद बहुत देर हो चुकी है।

Thursday, July 15, 2021

हरेले को आंदोलन बनाने की जरूरत। पलाश विश्वास

 हरेले को आंदोलन बनाने की जरूरत

पलाश विश्वास


प्रकृति और पर्यावरण के लोकपर्व हरेला पर आप सभी को शुभकामनाएं।


आषाढ़ का महीना बीत चला तो आज हरेले के दिन बारिश हो रही है।राहत है।


तराई में धान की रोपाई हो गयी है।बिन पानी खेत के खेत सुख रहे हैं। लगाया हुआ धन जोतकर नए सिरे से रोपाई की नौबत है।


इस सूखे के परिदृश्य में इस लोक पर्व की प्रसंगकीकता समझ में नहीं आई तो फिर क्या होगा भविष्य में,अंदाज भी नहीं लगा सकते।


हम लोग नैनिताल समाचार में बाकायदा हरेले के टिनाडे तैयार करके अखबार के पन्ने पर खोंस कर सभी को हरेला की बधाई देते रहे हैं। चार दशक से नैनिताल समाचार इसी तरह निकल रहा है।


लेकिन पर्यावरण की लोक चेतना अब हरेले तक सीमित है और बाकी सबकुछ दावानल में स्वाहा है।


पशु पक्षी कीट पतंग ही नहीं , हम सभी इस दावानल में झुलस रहे हैं।


रस्म अदायगी नहीं,हरेले को आंदोलन बनाने की जरूरत है।


कल हमने बसंतीपुर के चारों तरफ 1970 तक बहने वाली नदियों की लाशें देखीं।


रात भर सो नहीं सके।बिजली भी नहीं थी।


उमड़ते घुमड़ते बरसते बादल अब सिर्फ समृतियाँ में हैं।

फिरभी हरेले का स्वागत क्योंकि जो भी हो,हम हो न हों, बची रहेगी पृथ्वी।

असमानता की वैक्सीन,कत्लेआम की अर्थ व्यवस्था।पलाश विश्वास

  असमानता की वैक्सीन, कत्लेआम की अर्थव्यवस्था

नई विश्वयवस्था क्या है? अमेरिका का प्राइवेट फेड बैंक कैसे दुनियाभर की विश्वयवस्थाओं को नियंत्रित करती है? उत्पादकों के सफाये से किसतरह मार्किट इकोनामी मरणासन्न पूंजीवाद को बचा रह है?

पलाश विश्वास

करीब तीन चार दिनों से टुसु इस वीडियो को देखने पा जोर दे रहा था।2008 से अमेरिकी आर्व्यवस्था के संकट से शुरू मन्द्री के दौर में असमानता और अन्याय के इंजन के तौर पर अमेरिकी फेड बैंक की भूमिका की पूरी चीरफाड़ है यह। आज के कोरोना काल की विश्व अर्थब्यवस्था,भारतीय अर्थव्यवस्था, पूरी पूंजीवादी मशीनरी का खुलासा है इसमें।


टुसु जैसे विश्लेषक इसे हमसे बेहतर समझते है। ऐसे वीडियो और दस्तावेज जो लोग देखते हैं,वे ज्यादातर मार्किट इकोनॉमी और पूंजीवाद के समर्थक हैं। पूंजीवादी तंत्र के नाभिनाल से जुड़ा है उनका समूच्चा वजूद।इस नरसंहार से उनकी मलाईदार हैसियत है और सबकुछ जानबूझकर वे इसके समर्थक हैं।


भारत का शिक्षित निम्न मध्यवर्ग, मध्य वर्ग भी उच्च मध्यवर्ग और करोड़पति अरबपति पूंजीवादी तबके की तरह चीजों को देखते समझते हैं। इनमें ज्यादातर पढ़े लिखे लोग हैं,जिनमे गरीब , किसान, मजदूर,

दलित, आदिवासी और वंचित पारिवारिक पृष्ठभूमि के लोग भी हैं। धर्म, जाति,नस्ल,क्षेत्र और अस्मिता की राजनीति इस वैश्विक असमानता और अन्याय की व्यवस्था के खिलाफ चुप है बल्कि इसकी समर्थक है।दुनियाभर के मेहनतकश आवाम ,उत्पादकों के कत्लेआम  से मुनाफे की अर्थव्यबस्था व्हेल रही है,महामारी की राजनीति इसका अहम हिस्सा है।


भारत की 130 करोड़ की आबादी में से 30 हजार लोग भी इस सच का सामना करने को तैयार नहीं है। जो जानते समझते हैं,वे दूसरों का अंजाम देखकर मुक्तबाजार की निरंकुश सत्ता के खिलजी ख़ामोश या भावनाओं की अस्मिता राजनीति मेम निष्णात है। ये 30 हजसर लोग भी अकेले द्वीप चसीन।टुसु की तरह। जिनका जड़ों से कोई रिश्ता नहीं है। जनता से कोई सम्वाद  नहीं है।


अंधेर नगरी का यह अंधा युग है।

हम निःशस्त्र हैं।

फिर भी हम लड़ने की कोशिश कर रहे हैं।हम बूढ़े लोग।

जब तक टुसु जैसे समझदार नौजवान हालात और सूरत बदलने का बीड़ा नहीं उठाते, हमारे लिए ज्यादा कुछ कर पाना असंभव है।


बहरहाल यह वीडियो देखें।गरीबी,नरसंहार,बेटोज़गारी,अशिक्षा,भूख और कुपोषण, महामारी और मृत्यु के सामर्जीवादी सरगना अमेरिका का उपनिवेश बने भारतवर्ष को बचाने की जिम्मेदारी नई पीढ़ी की है।


हमारे लिए चलाचली की बेला है।

वतन तुम्हारे हवाले।


यह वीडियो जरूर देखें और इसपर चर्चा भी करें।

[15/07, 9:26 pm] Palash Biswas: https://youtu.be/9RbL8lTsITY

Wednesday, July 7, 2021

पुरखों की यादों पर सांपों का पहरा।पलाश विश्वास

 हमारे पूरब घर और संगीत घर काले नागों के हवाले है

पलाश विश्वास


ये कच्चे घर 70 साल पुराने हैं। 70 साल बाद भी जस के तस।सिर्फ सन का छप्पर बदला है। 


मेरे ताउजी,ताईजी के घर।जो अब सांपों के डेरे है।जो कभी सामाजिक सांस्कृतिक हलचल के केंद्र थे।


कितनी आंधियों, बरसात, लू के थपेड़ों को सहकर भी मिट्टी की दीवारों वाले ये घर अभी सही सलामत हैं। सिर्फ सन के छप्पर बदल गए हैं और एस्बेस्टस की छत डाली गई हैं। हमारे बाकी घरों की जगह पक्की इमारतें बन गयी है। ताउजी ताई जी के एकमात्र बेटे अरुण के करीब चार दशक से दिल्ली में जाकर नौकरी करने की वजह से ये घर जस के तस बने हुए हैं।


यह हमारा,हमारे साझे परिवार का पूरब का घर है। एक घर उत्तर घर था। जहाँ मेरे चाचा डॉ सुधीर विश्वास रहते थे।उनके 60 के दशक में बहत बस जाने के बाद यह उत्तर घर हम बच्चों का डेरा बन गया। उत्तर घर के बगल में raanna घर था।  उससे सटे ढेकी घर।


पूरब घर के दक्षिण में यह छोटा सा घर संगीत घर था। इसी के सामने था चार छप्परों वाला कचहरी घर। 


जहां कोलकाता से आकर हमने घर बनाया ,उहाँ दो गोशालाएं थीं। और इसके ठीक उत्तर में क्वार्टर और हमारी झोपड़ी,जहां मां,पिताजी रहते थे। आंधियों के दौरान या भारी बरसात में यह भारी भरकम परिवार इसी क्वार्टर में आ जाता था।


तब बंगाली गांवों में सड़कें नहीं बनी थी। 

जंगल थे और जंगली जानवर भी थे।


हर गांव छोटी छोटी पहाड़ी नदियों से घिरा होता था। जिनमे हमेशा पानी होता था। 


खूब मछलियां होती थीं और चिड़िया भी खूब।


गांव आने जाने के लिए पगडंडिया थीं और खासतौर पर बरसात में तैरना जरूरी था।


 कीचड़ पानी से लथपथ था हमारा बचपन।


 महानगरों में यही कीचड़ पानी लेकर ही गया था,जिसमें हमेशा मेरे पैर तब भी घुटने तक धंसे होते थे,जब कारपोरेट अखबार वातानुकूलित दफ्तर से कम्प्यूटर नेटवर्क के जरिए निकलता था मैं। 


कुलीन भद्रलोक कभी नहीं बन सका।


दिनेशपुर मटकोटा रोड नहीं बना था। दिनेशपुर आने जाने के लिए दस गांवों के लोग काली नगर, उदयनगर, पंचाननपुर आदि के लोग हमारे घर से होकर आते जाते थे।इसलिये भी बचपन से हर गांव के लोग मुझे बेहद प्यार करते रहे हैं।


घर के बीचोबीच थे दो आम के पेड़।  

 घर के उत्तर और पूरब में थे सैकड़ों पेड़।


यह घर तब तराई में राजनीतिक,सामाजिक और सांस्कृतिक गतिविधियों का केंद्र था।


 घर में चूल्हे की आग कभी बुझती नहीं थी।


 चाय चौबीसों घण्टे बनती रहती थी। 


कभी भी खाना तैयार होता था।


हर साल बांग्ला आश्विन महीने की संक्रांति पर इसी पूरब के घर में गासी उत्सव नई फसल के लिए नवान्न की तर्ज पर मनाई  जाती थी।


 यह बसंतीपुर गांव का साझा उत्सव था। जैसे ललित गुसाई के घर में बारुनी मतुआ महोत्सव तराई भर के लोग मानते थे। 


मेरे दोस्त दिवंगत कृष्ण के चाचा के घर दोल होली पर और फिर चैत्र संक्रांति पर चड़क उत्सव मनाये जाते थे।


मेरे दूसरे दोस्त विवेक दास के पिता विष्णुपद दास वैष्णव थे। उनके घर अष्ट प्रहर नाम संकीर्तन होता था हर साल।


इन उत्सवों के सामूहिक चित्र इसी पूरब घर की कच्ची दीवारों पर फ्रेम में सजे थे। मेरी दादी शांति देवी, मेरे और सभी भाई बहनों की तस्वीरें भी। गांव को बसाने वाले सभी पुरखों की तस्वीरें थीं। इसके साथ पूर्वी बंगाल से ताईजी जो हाथ की कढ़ाई सिलाई की चीजें लाई थी ,वे भी इसी घर में सजी थी।


अचार के डब्बे, मुड़ी के तीन, सरसों की चटनी यानी कासुंदी के डब्बे भी इसी घर में होते थे।


बे तस्वीरे सबके सब उसी तरह नष्ट हो गई जैसे रोज लिखी पुलिनबाबू की डायरियां। 


हम कुछ भी नहीं सहेज सके।जमीन जायदाद भी नहीं। इसीलिये सजा बतौर मेरा अपना लिखा भी कुछ नहीं बचा और न बचेगा। इसीको पोएटिक जस्टिस कहते हैं।


ताउजी बसंतीपुर जात्रा पार्टी के संगीतकार थे। हारमोनियम तबला ढोल आदि वाद्य यंत्र भी इसी कमरे में थे। उत्तर घर के बरामदे पर बैठकर ताउजी हारमोनियम पर और चाचाजी तबले पर रेडियो के संगीत कार्यक्रमों की संगत करते थे। रेडियो का एरियल लम्बे बांस पर लगा होता था।


साहित्य और संगीत के पर्यावरण वाले साझा परिवार के हम बच्चे थे।


संगीत घर में रहते थे बिजनौर घसियाले के ब्रजेन मास्टर। जो बसन्तीपुर जात्रा पार्टी के लिए खास तौर पर बुलाये गए थे। जात्रा में सूत्रधार की तर्ज पर एक विवेकगयक होते थे। मनुष्यता के विवेक के प्रतीक। ब्रजेन बाबु वही विवेक गायक थे। बच्चों को संगीत सिखाते थे। 


ताउजी की बेटी मीरा दीदी,उनकी शादी के बाद वीणा और मेरे चचेरे भाई संगीत के बेहतर छात्र थे।लेकिन मेरा हाल पड़ोसन के सुनील दत्त का था।


मुझसे कभी सारेगामा नहीं सधा।फिर भी ताज्जुब की बात कि इस नालायक छात्र से ही ब्रजेन मास्टर को सबसे ज्यादा प्यार था। वे आखिरी समय देख नहीं सकते थे। दशकों बाद कोलकाता से बिजनौर जाने पर उनसे मिलने गया तो मेरी आवाज सुनते ही उन्होंने पुकार लिया,पलाश। 


संगीत न सीखने का मुझे बहुत अफसोस है।ब्रजेन मास्टर नाच भी सिखाते थे। बसंतीपुर की सबसे मशहूर प्रस्तुति बांगालिर दाबी में हिन्दू मुस्लिम आदिवासी एकता की थीम थी। दशकों तक यह नाटक खेला जाता रहा।इस जात्रा गान में संथाली नृत्य भी था।


फिर एक दिन साझा परिवार टूट गया।

संगीत घर ताईजी की रसोई बन गई।लेकिन उस रसोई में हम सारे बच्चे जमा होते थे।सुबह की चाय वही बनती थी। हम खाना वही खाते थे।


विवाह के बाद ताईजी ने ही सविता का स्वागत किया था।रस्म अदायगी की थी और पूरब के घर में ही उनका पहला के पड़ा था। न जाने किस किसके चरण चिन्ह इस पूरब के घर में हैं। संगीत भी हमेशा की तरह थम गया है।

 


हमारे घर में रात दिन आवाजाही रहती थी।लेकिन सुरक्षा का कोई अलग इंतजाम नही था। हमेशा घर में दो पालतू कुत्ते होते थे। इसके अलावा घर के चप्पे चप्पे पर जहरीले नागों का सख्त पहरा था।


पूरब घर तब भी जहरीले नागों का डेरा था। सैकड़ों की तादाद में वे आकर पूरब घर में जमा हो जाये थे। पूर्वी बंगाल से 1964 के दंगों के बाद ओडाकांदी से आ गयी थी ताईजी की मां प्रभावती देवी,हमारी दीदी मां। 


दादी और दीदी मां बिना घबराए पूरब घर में सफेद थान कपड़े से उनका स्वागत करती थी।उनके लिए दूध केले का भोग लगाया जाता था।


नियत वक्त पर सारे के सारे नाग बगीचों और खेतों में निकल जाते थे एक एक करके। 


वे घर के कोने कोने में कहीं भी कभीं भी मिल जाते थे।नल पर,रसोई में ,बिस्तर पर,मच्छर दानी में,खिड़की और दरवाजे में। 


तराई में सर्पदंश से मृत्यु आम है। 50 से 70 दशक में यह आम बात थी। लेकिन हमारे घर की सीमा में किसीकोनीं काले नागों ने नुकसान नहीं पहुंचाया।


 इन्हीं की वजह से हम सुरक्षित रहे।


अब पूरब घर और संगीत घर इन्ही काले नागों के हवाले हैं।

Tuesday, July 6, 2021

टूट गया भारतीय सिनेमा का आईना ।पलाश विश्वास

 टूट गया भारतीय समाज,सिनेमा और साहित्य का आईना

पलाश विश्वास




नहीं रहे हमारे प्रियतम अभिनेता दिलीप कुमार।सौ साल पूरे वे नहीं कर सके,अफसोस। फिरभी लम्बी ज़िन्दगी जी उन्होंने। वे भारतीय सिनेमा के आईना हैं अपनी कामयाबी और लोकप्रियता के पैमाने पर बहुत कम फिल्में की। लेकिन हर फिल्म भारतीय समाज और संस्कृति की सार्थके अभिव्यक्ति है।जिनके बिना भारतीय फिल्मों की चर्चा ही नहीं की जा सकती।


बिना चीखे चिल्लाए भावनाओं,वेदनाओं, सम्वेदनाओं और प्रेम की अभिव्यक्ति सेल्युलाइड की भाषा के मुताबिक करने वाले दिलीप कुमार को हमारा अंतिम प्रणाम।अफसोस कि उनके अवसान की यह खबर सच है।इससे पहले अफवाहें फैलती रही है।अबकी बार मृत्यु के इस खबर के झूठ बन जाने की कोई संभावना नहीं है।


मैंने और सविता जी ने उनकी कोई फ़िल्म मिस नहीं की। उनके अलावा स्मिता पाटिल, शबाना आज़मी,राज कपूर, शबाना आज़मी, उत्तम कुमार,सुचित्रा सेन,मीना कुमारी,मधुबाला और सुचित्रा सेन ,वैजयंती माला की कोई फ़िल्म हमने मिस नहीं की।ये तमाम लोग भारतीय फिल्मों के जीते जागते मानक हैं।


दिलीप कुमार को याद करते हुए देवदास की याद आती है। शरत के किसी पात्र को,साहित्य के किसी किरदार को इतनी संजीदगी से शायद ही और किसी ने जिया हो। 


 इसीतरह गौरकिशोर घोष के क्लासिक उपन्यास सगीना महतो हो या फिर मुगले आज़म के सलीम। उनके किरदार उनके साथ अमर हैं। जोगन,नया दौर,कोहिनूर,आदमी,यहूदी, गोपी कितनी फॉमें,कितने रंग।गंगा जमुना में ठेठ भोजपुरी में सम्वाद।


फिर विस्तार से लिखेंगे।

शहीदेआजम भगत सिंह की मां जिन पेड़ों के नीचे बैठी थी,हमारे वे पेड़ अब नहीं हैं।पलाश विश्वास

 पेड़ों की छांव में शरण 

मधुमती की तरह बहती थी मेरी दादी

वे दोनों आम के पेड़ नहीं रहे,जिनके नीचे बैठी थी शहीदेआजम भगत सिंह की मां और न जाने कितने खास लोग

पलाश विश्वास



करीब चार दशक के बाद आम के पेड़ों की छांव में शरण ली है। ये पेड़ मेरी ताई ने लगाए थे। ताईजी का निधन मेरे कोलकाता में जाने के सालभर के अंदर 1992 में हो गया था। चालीस साल के प्रवासी पत्रकार जीवन ने मुझे पेड़ों की छांव से बाहर कर दिया। बिना बिजली के जंगल के आदिम गन्ध और खेतों के कीचड़ पानी, हिमालय की गोद से बेदखल हो गया मैँ।जैसे हमारे लोग भारत विभाजन की त्रासदी में अपनी नदियों,खेतों,बगीचों और गांव से बेदखल हो गए थे।


बेदखली का सिलसिला कभी रुकता नहीं है। विस्थापन ही सफरनामा है ज़िन्दगी का।


मेरी दादी शांतिदेवी जैशोर जिले के नडाल के कुमोर डांगा गांव से तीन बेटों अनिल,पुलिन,सुधीर,बेटी सरला और मेरी ताई हेमलता,मां के साथ बसंतीपुर आयी थी। चाचा सुधीर की शादी नेताजीनगर की उषा के साथ हुई थी।


कुमोर डांगा पूर्वी बंगाल की बड़ी नदी मधुमती के किनारे बसा था।इस पार नडाल था तो नदी के उस पार् फरीदपुर का गोपालगंज का ओडाकांदी। हरिचंद गुरुचंद ठाकुर का घर।ताईजी इसी परिवार की बेटी थी। सविता जी का मायका भी ओडाकांदी में ही था।


हमारी दादी ने बहुत संघर्ष किये।दादाजी उमेश जी का निधन तब हुआ,जब वे कक्षा दो में पढ़ते थे। शरीको ने जमीन जायदाद हड़प ली।वे विभाजन के बाद बंगाल में ही बस गए। हमारे दादा चार भी थे जो जमींदारों के खिलाफ किसानों की लड़ाई के योद्धा थे।इस लड़ाई में घर की औरतें भी शामिल थीं।हरिचाँद गुरुचन्द की विरासत के साथ यह परिवार न जाने कहाँ कहाँ से गुजरकर ट्रैन में आकर जंगल को आबाद करके बस गया और दूसरों को भी बसाया।


पिताजी खाली हाथ,नंगे बदन नैनीताल की कड़ाके की सर्दी में विस्थापन और बेदखली के खिलाफ लड़ते रहे जीवनभर और हम वतानुकूलित महत्वाकांक्षाओं की बर्फीली दृवरों में कैद होते चले गए। मौसम और जलवायु के मामूली हेर फेर में हमारी जान निकल जाती है जबकि रीढ़ में कैंसर होने के बावजूद पिताजी की रीढ़ कभी झुकी नहीं।अपने मोर्चे पर आखिरी सांस तक लामबंद थे वे। हम तो भगोड़ा ही निकले।


पिताजी विभाजन से पहले बारासात के दत्त पुकुर में एक सिनेमाहाल में काम करते थे। ताउजी और चाचाजी पुलिस में थे। विभाजन के बाद दत्तपुकुर में परिवार एक जुट हुआ।फिर रानाघाट और कटक के चरबेटिया कैम्प होकर वे नैनिताल आ गए। बंगाल में शरणार्थी आंदोलन की वजह से वे ओडिशा के चरबेटिया कैम्प भेजे गए।वहां भी उनका आंदोलन नहीं थमा तो 1952 में तराई के जंगल में फेंक दिया।उन्होंने अपने जांबाज साथियों की मदद से इस जंगल को आबाद किया। 1954 और 1956 में शरणार्थी आंदोलनों का नेतृत्व किया। 1958 में ढिमरी ब्लॉक किसान विद्रोह के भी नेता थे।पुलिस ने पीटकर हाथ तोड़ दिया। घर की कुर्की जब्ती हुई। जेल गए। दस साल तक उनपर मुकदमा चला।


पूर्वी पाकिसयं जाकर भी वे भाषा आंदोलन में जेल गए,जहां से उन्हें छुड़ाकर लाये अमृत बाजार पत्रिका के सम्पादक तुषार कांति घोष।


देशभर के विस्थापितों पीड़ितों के लिए इन्हीं पेड़ों की छांव से ऊर्जा लेकर निकलते थे पुलिन बाबू।हमारी मां बसंती देवी,दादी शांति देवी और बुआ सरला देवी ने इन्हीं पेड़ों से एक दुर्जेय किले का निर्माण किया था। हमारी ताई हेमलता घर के मामले में सारे फैसले करती थीं।


हमारी दादी अनपढ़ थीं।लेकिन उन्होंने घर में सैकड़ो फलदार और औषधियों के पेड़ लगाए। उन्होंने नल पर कभी नहीं नहाया। बगल में एक। छोटी सी नदी थी,जो उनके लिए मधुमती थी।इसी नदी से एकात्म होकर 1970 तक वे जीती रहीं। मधुमती की तरह निर्बाध बहती रही। 


हमारे घर की पहचान घर के केंद्र में दो आम के पेड़ थे। जहां चौपाल लगती थी।जिसके चबूतरे  पर हम पढ़ते थे।पढ़ते पढ़ते सो जाते थे।पिताजी बाहर से आकर घर के अंदर ले जाते थे।


उन सैकड़ों पेड़ों में अब बीस भी नहीं बचे।

वे दोनों आम के पेड़ भी नहीं बचे,जिसके नीचे आकर बैठी थी शहीदे आजम भगत सिंह की मां 1969 में।


 कितने ही लोग एनडी तिवारी,श्याम लाल वर्मा,कैसी पन्त, क्रान्तिकारी मन्मथ गुप्त, बंगाल के कामरेड अशोक सेन और पिताजी के आंदोलनों के तमाम साथी,इस गांव और तराई को बसाने वाले लोगों की स्मृति से जुड़े दोनों पेड़ पक्के मकान की भेंट हो गए।बचपन की दुपहरी और शाम की सारी यादें फिर दफन हो गईं।


आज बिजली न आने की वजह से घर में तजिक न पाने की वजह से इन पेड़ों की छांव में लगता है कि बचपन लौट आया है। पड़ोस के दो बच्चे साथ हैं जिनके जरिये फिर बचपन की यात्रा में वापसी हो गयी। रोहित और दिशा इनके नाम हैं।

Monday, July 5, 2021

बिना मानसून देवभूमि नरक है।पलाश विश्वास

 बिना मानसून देवभूमि नरक है

पलाश विश्वास



शुभ सकाल। लगातार चौथी रात बिजली कटौती के कारण सो नहीं सके। बारिश न होने से खेतों को पानी चाहिए धन के लिए। बिजली के बिना सिंचाई अब होती नहीं।नदियां मार दी गईं।तालाब,कुंए और नहरें खत्म।


गर्मी बढ़ती जा रही है।बदल बरस नहीं रहे। जलवायु और मौसम की मार से न गांव बचेंगे न खेत।


कोलकाता से आने के बाद इतनी तकलीफ कभी नहीं हुई। मानसून के रूठ जाने से बिजली के भरोसे खेती कैसे होगी? जबकि गांव देहात में भी घर बाहर सारे काम बिजली से है। ऊपर से बिजली वालों की मनमानी।


बीमार और बजुर्गों की शामत है। सांस की तकलीफ वालों के लिए ये हालात बहुत मुश्किल है।


रात को सविता जी की सांसें उखड़ रही हैं।

घर से बाहर खुले में भी भयानक उमस है। मच्छर की वजह से टहल भी नही सकते।


कोरोना की तीसरी लहर के साथ सारी पुरानी महामारियां दस्तक दे रही हैं। हर बीमारी महामारी में तब्दील है।इसका जलवायु,मौसम और शहरी उपभोक्ता जीवन से गहरा नाता है।


गांव में अब न मिट्टी है न गोबर। न नीम और पीपल वट की छांव है। न जैव विविधता है। न चिड़िया हैं और न पालतू पशु।


गांव भी अब सीमेंट का जंगल है और बिजली रानी वह तोता है, जिसमें गांव के प्राण बसे हैं।


बिना मानसून देवभूमि पूरीतरह नरक है।

Sunday, July 4, 2021

किताबों के लिए नई दुल्हनों से दोस्ती, घर के ताले भी खोले

 जिस काकीमां के घर का ताला खोल कर उपन्यास पढता था बचपन में,वे नहीं रही


पलाश विश्वास


काकीमां का निधन हो गया। काकीमां यानी अवनी काका की पत्नी। करीब दो महीने बीत चुके। उनके बाद महीने भर पहले उनकी जेठानी तुलसी जी ने भी प्राण त्याग दिए। वे आंखों से देख नहीं सकती थीं,लेकिन जब कोरोना काल से पहले मैँ उनसे मिलने गया था रुद्रपुर ट्रांजिट कैम्प के उनके घर में,तब मेरी आवाज सुनकर बहुत खुश हो गयी थी।


भारत विभाजन की त्रासदी में अतुल काका और अवनी काका अकेले बसन्तीपुर आ पहुंचे थे। तुलसी काकी का शादी से प


हले परिवार में नाम दर्ज कराकर गांव के मातबर लोगों ने उनकी जमीन एलाट कराई थी।


 वे हमारे रिश्तेदार नहीं थे। गांव में हमारा और रणजीत के दो ही परिवार पूरे दिनेशपुर इलाके में जैशोर से आये परिवार रहे हैं। बसंतीपुर में बाकी परिवार खुलना और बरीशाल जिले से हैं। लेकिन विभाजनपीडित आंदोलनकारियों का यह गांव तब एक संयुक्त परिवार था। 


अवनी काका और अतुल काका हमारे साथ ही रहते थे। मेरे जन्म से पहले अतुल काका का विवाह हो गया और तुलसी काकी के आने के बाद हमारे क्वार्टर के साथ लगे क्वार्टर में ही बस गए।


अवनी काका का विवाह देवला दीदी,मीरा दीदी,विधु दादा की शादी के बाद 1961 में हुई। सबसे पहले देवला दीदी,फिर हमारी दीदी मीरा दीदी की शादी हुई। इन दोनों की शादी बचपन की मेरी पहली यादें है। 


विधुदा की शादी बंगाल में हुई।भाभी उनसे लम्बी थी,जिन्हें आज भी लम्बी भाभी कहा जाता है।


अवनी काका की शादी में पहली बार हम बाराती बने। करीब 5 किमी दूर आनँदखेड़ा दो नम्बर में गया बारात पैदल। दूल्हा शायद रिक्शे में थे।बाद में उसी रिक्शे में दुल्हन आयी।


 यह शायद नवम्बर या दिसम्बर महीने की बात थी। मुझे मेरे ताऊ जी ने एक काला कोट खरीदकर डियां था,जिसे मैं सर्दी हो या गर्मी या फिर वर्षा,हर मौसम में पहना करता था। वही कोट पहनकर में बारात गया। तब बारात के रातोंरात लौटने की प्रथा न थी। गांवों में पक्के मकान न थे। झोपडियो में बारातियों के ठहरने का इंतजाम न था। जाड़े की रात पुआल के ढेर में घुस कर बिताई। भोर तड़के काकी को लेकर हम पैदल गांव लौटे।


अवनी काका आठवीं तक पढ़े थे। दिनेशपुर में तब बंगाली उदवास्तु समिति संचालित स्कूल था,जो 1965 में जिला परिषद हाई स्कूल बना। समिति का स्कूल जूनियर हाई स्कूल था। आगे पढ़ने के लिए बाहर जाने की जरूरत थी,जिसके लिए पैसे नहीं थे।


 बसंतीपुर में तब बंगला प्राइमरी स्कूल था। बाहर से टीचर बुलाने की जरूरत पड़ती थी।


 मेरे चाचा डॉ सुधीर विश्वास पढ़ाते थे,लेकिन वे 1960 में असम चले गए।वहां बंगाली विस्थापितों के इलाज की कोई व्यवस्था नहीं थी। असम में 1960 के दंगों के दौरान डंगापीडितों की मदद के लिए वहां गए पिताजी ने चाचाजी को वहां भेज दिया।


 फिर बुजुर्ग हरि ढाली पढाने लगे। उनसे हमने पटरे पर गोल गोल बनाना सीखा। तब खड़िया मिट्टी से लिखना होता था। ओस पड़ती थी खूब,उसी पानी से पटरे को पोंछना होता था। हमारी बंगला पढ़ाई की यह शुरुआत इसतरह  हुई। 


फिर मैडम ख्रिष्टि, देवला दीदी और मीरा दीदी के साथ हम छोटी सी बरसाती नदी के पार चित्तरनजनपुर कन्या प्राइमरी स्कूल जा पहुंचे 1960 में। मैडम ख्रिष्टि का तबादला हुआ तो उन्होंने बसन्तीपुर के बच्चों को हरिदासपुर प्राइमरी स्कूल में पीताम्बर पन्त के हवाले कर दिया। इसी बीच देवला दी और मीरा दी की पांचवीं में पढ़ते हुए 1961 में शादी हो गई।


जब हम चित्तरजनपुर में आधी कक्षा के छात्र थे,तभी अवनी काका को बसंतीपुर स्कूल का अध्यापक बना दिया गया। पिताजी ने अवनी काका के आगे की पढ़ाई पर जोर दिया था। लेकिन  काका की दिलचस्पी टीचरी में थी।


इसी बीच 1961 में ही अवनी काका की शादी हो गयी। काकी बंगाल से सातवीं तक पढ़ी थी।उनके पास किताबों का खजाना था।


 उन दिनों तराई में बसे बंगालियों में भी बंगाल और बांग्लादेश की तरह शादी में बांग्ला उपन्यास या कबिता की पुस्तकें उपहार में देने का चलन था।


 नई दुल्हनों के पास पढ़ी लिखी हो या न हों, उपहार में मिले ऐसी पुस्तकों का खजाना होता था। हम इन सभी भाभियों,चाचियों के छोटे मोटे काम करके उनकी किताबों को पढ़ ही लिया करते थे।


काका गांव में सबसे पढ़े लिखे थे तो काकी भी पहली पीढ़ी लिखी बहु बन गई। उनकी शादी के बाद बसंतीपुर स्कूल सरकारी बना और काका को ट्रेनिंग के लिए भेज दिया गया।इस अवधि में काकी ने भी स्कूल चलाया।


अवनी काका लम्बे चौड़े कद काठी के थे। वे बसंतीपुर जात्रा पार्टी में रुआबदार राजा महाराजा,सुल्तान,बादशाह का रोल करते थे। उन्हें और हाजू साना के अभिनय का यह जलवा था कि दोनों को बॉम्बे में फ़िल्म में काम करने का प्रस्ताव भी मिला।लेकिन पैसे न होने के कारण वे नहीं गए।


दूसरी तीसरी कक्षा में आते न आते मुझे उपन्यास पढ़ने का चस्का लग गया था। शुरुआत बंगला साहित्य से हुई।सबसे पहले शरत चन्द्र का उपन्यास श्रीकांत से हुआ। फिर चाचाजी के सौजन्य से अंग्रेजी में गोर्की की मदर, पर्ल बक की गुड़ अर्थ,गलसवर्दी की ग्रोथ दी साइल, विक्टर ह्यूगो की हंच बैक ऑफ नोटरदाम, मार्क ट्वेन आदि के उपन्यास।


बचपन ऐसा था कि बिना पढ़े चैन  नहीं आता था। पढ़ने के लिए तब हम आग में भी कूदने को तैयार रहते थे।


ट्रेनिंग के दौरान अवनी काका बाहर थे और काकी अक्सर मायके में जाती थी। उनके पास शरत, बंकिम, समरेश बसु,आशापूर्ण देवी,विमल मित्र जैसों के उपन्यास थे।


पढ़ने के नशे में मैंने उनके घर का ताला साइकिल की सीक से खोलने लगा। एक एक किताब पढ़कर जहां की ठान रख देता था। कभी पकड़ा नहीं गया।


चाचा और चाची दोनों अब नहीं हैं। अवनी काका का तबादला ट्रांजिट कैंप रुद्रपुर हो गया।  वे टीबी के मरीज बन गए और 1984 में गेठिया टीबी अस्पताल में उन्होंने दम तोड़ दिया। 


चाची चार लड़कों के साथ रुद्रपुर ट्रांजिट कैम्प में ही बस गयी। उनका बड़ा बेटा प्रताप भी पिता की तरह अध्यापक हैं ।बाकी तीनों भाई अपने अपने कामकाज में बिजी हैं।

Saturday, July 3, 2021

डीएसबी कालेज,मैँ और पिताजी पुलिन बाबू। पलाश विश्वास

 मेरे जीने से ज्यादा जरूरी है पुलिनबाबू का ज़िंदा रखना,उनके मिशन को जारी रखना


पलाश विश्वास



2001 के 12 जून को पिताजी पुलिनबाबू के अवसान के बाद में उनकी अधूरी ज़िन्दगी जी रहा हूँ। उस दिन से उनके अधूरे मिशन को अंजाम तक पहुंचाना ही मेरे जीवन का लक्ष्य है।


पिताजी जानते थे कि कक्षा दो की पढ़ाई के दम पर वे भले राष्ट्रपति,प्रधानमंत्री,मुख्यमंत्री,केबिनेट सचिव,मुख्य सचिव,कमिश्नर,डीएम से बात कर लें लेकिन सत्ता वर्ग से टकराने के लिए जो शैक्षणिक पृष्ठभूमि की जरूरत है,वह उनके पास नहीं है।


यही से शुरू होता है मेरे डीएसबी का सफर,जो अभो खत्म नही हुआ।1979 में एमए पास करने के 42 साल बाद भी।


 मुझे पढ़ाने का उनका मकसद अकूत सम्पत्ति जमा करने के लिए समाज के शिखर पर जाकर बैठना नहीं था।


 वे चाहते थे कि उच्च शिक्षा को हथियार बनाकर मैँ, उनका बेटा उनकी दुनिया के लोगों की लड़ाई को अंजाम तक ले जाऊं।


इसकी तैयारी में उन्होंने कोई कमी नहीं छोड़ी। अक्षर पहचानते ही देश के कोने कोने से जहां भी वे पीड़ितों,दलितों,अल्पसंख्यकों,शरणार्थियों,विस्थापितों, किसानों,मजदूरों की लड़ाई में शामिल लोगों के साथ खड़े होते थे ,सत्ता से उनके हक हकूक के तमाम दस्तावेज मुझसे तैयार करवाते थे। 


रोज़ बंगला,अंग्रेज़ी और हिंदी के अखबारों के संपादकीय और इसके साथ दुनियाभर के क्लासिक साहित्य पढ़वाते थे।सिर्फ मेरे लिए साहित्य खरीदने के लिए हर साल कोलकाता के कॉलेज स्ट्रीट जा पहुंचते थे।मेरे लिए कोलकाता से दैनिक वसुमती और साप्ताहिक देश पत्रिका मंगवाते थे डाक से।


यही नहीं, जहां कहीं वे जाते थे ,चाहे प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री या राष्ट्रपति से मुलाकात का मौका हो या गांव में पंचायत का मामला हो,हर कहीं मुझे लेकर चलते थे।


 तराई का कोई बुक्सा,बंगाली,सिख,रायसिख,पहाड़ी, देशी,पुरबिया या मुस्लिम गांव हो,जहां भी,जिस घर में भी  जाते स्कूल में दाखिले से पहले से वे मुझे लेकर जाते थे। मैन हर गांव के हर घर का कहना खाया है और उन सभीकी बेपनाह मुहब्बत मेरी ज़िंदगी की पूंजी है।उपलब्धि भी। 


 तब गांवों के झगड़े फसाद पंचायत में निबटाये जाते थे।


 पुलिस और अदालत के चक्कर काटने के बजाय तराई के किसान पंचायत से ही न्याय की उम्मीद करते थे। ऐसी पंचायत लम्बी चलती थी।


 पिताजी मामले का निपटारा न होने तक पंचायत से उठते न थे। चाहे तीन दिन लगे या सात दिन।ऐसी तमाम पंचायतों में मुझे वे साथ लेकर चलते थे।


कहते थे,ये मेरे अपने लोग हैं।जिनके काम में दूसरों के लिए ताल नहीं सकता।इनकी लड़ाई मुझे ही लड़नी है। मुझमें योग्यता न हो तो यह काम न करने का बहाना नहीं हो सकता।मुझे अपने लोगों से मुहब्बत है तो हर काबिलियत,हुनर मुझे हासिल करनी ही होगी।


 वे बंगला,अंग्रेजी, हिंदी,असमिया,उड़िया और मराठी तो पढ़ लेते थे। बस,ट्रैन या घर,जमीन कहीं भी होते,अपने झोले से किताब,पत्रिका या अखबार निकालकर पढ़ते रहते। हम झाने भी रहे,वे अक्सर पहुंच जाते थे। रुकते नहीं थे।


कहीं से कहीं निकल जाते थे।बिना पासपोर्ट वीसा के बांग्लादेश भी।किताबों,पत्रिकाओं और अखबारों के साथ।बिना रुपये पैसे के।कहते थे,सड़क पर उतर जाओ तो न रुपये पैसे की जरूरत होती है और न खाने पीने रहने की कोई दिक्कत।


सड़क पर उतरने का कलेजा होना चाहिए। उनके पास यह कलेजा था।मेरे पास नहीं है।


नतीजा यह हुआ कि प्राइमरी पास करते न करते देश भर की समस्याओं की जानकारी मुझे हो गयी। तराई के घर घर में मेरा आना जाना शुरू हो गया।


यह 1963 की बात थी। 1958 के ढिमरी ब्लॉक किसान विद्रोह के सिलसिले में उनके और उनके तमाम कम्युनिस्ट साथियों के खिलाफ मुकदमे चल रहे थे।


 नैनीताल डिस्ट्रिक्ट कोर्ट में सुनवाई थी। पिताजी मुझे अपने साथ ले गए। उनके साथी और आन्दोलन के नेता हरीश dhaundhiyaal वकील थे। तल्लीताल में उनका एक घर था। वहीं ठहरे। 


नैनीताल को पहलीबार देखते ही मुझे उससे बेपनाह मुहब्बत हो गई।


कचहरी में सुनवाई के बाद पिताजी मुझे सीधे राजभवन के रास्ते डीएसबी कालेज ले गये।कालेज को अंदर से दिखाया और कहा कि इसी कालेज में तुम्हे पढ़ना है। मैंने भी उसी क्षण तय कर लिया कि यहां जरूर पढ़ना है।


दिनेशपुर में जिला परिषद का स्कूल था। हाईस्कूल में मेरे पास विज्ञान जीव विज्ञान थे। तब हाई स्कूल यूपी बोर्ड में कला,विज्ञान और वाणिज्य के संकाय अलग अलग हुए करते थे। स्कूल में सभी विषयों के टीचर नहीं होते थे।


 इलाके में पढ़े लिखे लोग न थे। गांव में  मैंने ही पहलीबार हाईस्कूल पास की तो ट्यूशन कोचिंग का सवाल ही न था।ऊपर से खेती के काम को प्राथमिकता थी।


1968 में पीलीभीत के गोबियासराय से आये संतोष दास इस स्कूल से पहले फर्स्ट क्लास हुए।इसके पास साल बाद 1973 में दिनेशपुर इलाके का पहला छात्र था में,जिसे हाई स्कूल में प्रथम श्रेणी मिली। इसीके साथ पूरी तराई की जनता की उम्मीदें मुझमें केंद्रित हो गई,लेकिन मैं उनके लिए अभीतक कुछ नहीं कर सका।


स्वतंत्रता सेनानी बसन्त बनर्जी पिताजी के मित्र थे और उनके पुस्तकालय की सारी किताबें मेरी थी। शहीद मनींद्र नाथ बनर्जी के भाई थे वे और उनका पुश्तैनी घर बनारस में था। वे चाहते थे कि मैं उनके घर रहकर इंटर बनारस से करूँ और काशी विश्वविद्यालय का छात्र बन जाऊं।


मैंने सिरे से मना कर दिया। सीधे जीआईसी पहुंचकर डीएसबी कैम्पस में पहुंच गया।


मेरे पेशे के तौर पर पत्रकार बनने से और बाद में इंडियन एक्सप्रेस समूह से कोलकाता के पत्रकार बनने से पिताजी को बहुत उम्मीद थी कि उनके लोगों की लडाई में में आगे रहूंगा। लेकिन उनके निधन से पहले ऐसा कुछ नहीं हो सका। 


मैं साहित्यकार होने की खुशफहमी में जी रहा था। 


उनके निधन के बाद देशभर में जिनके लिए वे कैंसर से जूझते हुए आखिरी सांस तक लड़ते रहे,वे तमाम लोग अपने अपने संकट में मुझे पुकारते रहे। 


मेरे लिए साहित्य और पत्रकारिता की महत्वाकांक्षा का त्याग करके  विशुद्ध सामाजिक कार्यकर्ता बनने के सिवाय कोई दूसरा चारा नहीं था।


तब से मुझे लगा कि भले मैं मर जाऊं, पुलिन बाबू को हर सूरत में जिंदा रखने की जरूरत है। उनके साथी और उनके समय के सभी लोगों को शिकायत रही है कि उनकी लड़ाई आगे बढाने में मेरी कोई भूमिका नहीं है।


2001 से इस शिकायत को दूर करने की तैयारी कर रहा हूँ। मेरे गुरुजी ताराचन्द्र त्रिपाठी भी कहा करते थे कि अपने लोगों के हक हकूक के लिए तुम्हें सत्ता से टकराना होगा। जीआईसी के बाद डीएसबी में भी वे हमारे पथ प्रदर्शक रहे हैं।


देरी से ही सही, आखिरकार पिताजी और गुरुजी के दिखाए रास्ते पर चल रहा हूँ और मेरे इस सफर की शरुआत फिर उसी डीएसबी कैम्पस से है।

मानसून के बादल क्या बांझ हो गए? जलवायु परिवर्तन से दरें।पलाश विश्वास

 मानसून के बादल भी क्या बांझ होने लगे हैं?

नवजात शिशुओं के लिए कितनी सुरक्षित है पृथ्वी?

पलाश विश्वास


जलवायु परिवर्तन का जलवा,अमेरिका और कनाडा में भी 49 डिग्री सेल्सियस तापमान और लू से मर रहे लोग। पूर्वी अमेरिका के रेगिस्तान और कनाडा के पठारी पहाड़ी इलाकों में भी इतनी गर्मी अभूतपूर्व है।


सात सात पृथ्वी के संसाधन हड़पने के बाद पूरे अंतरिक्ष को उपनिवेश बनाने वाले महाशक्तिमान के कार्बन उत्सर्जन की यह परमाणु ऊर्जा है।


मानसून के बादल भी क्या बांझ होने लगे हैं?


हिमालय के रोम रोम में एटीएम बम के धमाके कैद हैं और मानसून के बादल भी बरस नहीं रहे हैं।


हिमालय और हिन्द महासागर के मध्य गंगा यमुना, सिंधु रवि व्यास सतलज और ब्रह्मपुत्र के हरे भरे मैदानों की हरियाली छीजती जा रही है।


 ग्लेशियर पिघल रहे हैं। 

तापमान लगातार बढ़ता जा रहा है।

मानसरोवर भी फट जाएगा किसी दिन।

देवलोक से शुरू होगा महाप्रलय।


कैलास पर्वत के साथ पिघल जाएगा एवरेस्ट भी।


मानसून की घोषणा के बाद बरसात गायब है। जब आएगी बरसात तो कहर बरपा देगी।


कोरोना खत्म नहीं हुआ। बिना इलाज के मरने को अभिशप्त देश में कोरोना क्या,हर बीमारी महामारी है।

हिमालय की तबाही के साथ इस झुलसने वाले जलवायु में मैदानों के रेगिस्तान बनने पर हम कैसे जी सकेंगे?


प्रेरणा अंशु के जुलाई अंक में हमने अपनी बात में इस पर थोड़ी चर्चा की है। आगे गम्भीर चिंतन मनन और पर्यावरण एक्टिविज्म की जरूरत होगी रोज़मर्रे की ज़िंदगी में मौत का मुकाबला करते हुए।


घर में बादल उमड़ घुमद रहे हैं।बिजलिया चमक रही है।

बिजली गुल है। उमस के मारे में घने अंधेरे में नींद भी नहीं आती। फिलहाल हवा कभी तेज़ है तो कभी पत्ती भी हिलती नहीं है।


मानसून के बादल भी क्या बांझ होने लगे हैं?


प्रकृति किस तरह बनाएगी संतुलन?


नवजात शिशुओं के लिए कितनी सुरक्षित है पृथ्वी?


न्यूय्यार्क से 

Partha Banerjee 

ने लिखा है

*कृपया इस चर्चा को शुरू करें।* -- यह न्यूयॉर्क में गर्मियों के मध्य का समय है। मैंने जून में इतना अधिक तापमान कभी नहीं देखा। सौ डिग्री फारेनहाइट के आसपास। लॉस एंजिलिस, मायामी, टेक्सास- इन जगहों पर लोग ज्वल रहे हैं। एक बार, जून में, मैंने खुद को देखने के लिए एरिज़ोना रेगिस्तान के माध्यम से मेक्सिको के लिए एक मानवाधिकार ग्रुप के साथ यात्रा की। आज से पन्द्र्ह साल पहले। वह तब होता है 115 डिग्री। पानी नहीं है। बस जीने की चाहत रखने वाले गरीब लोगों के अवशेष यहां-वहां पाए जा सकते हैं। जलवायु आपदा बहुत तेजी से हो रही है। वैज्ञानिक भविष्यवाणी कर रहे हैं कि अगर हमने अभी घड़ी नहीं घुमाई तो मानव सभ्यता सिर्फ एक सदी में खत्म हो जाएगी। उस चेतावनी का सम्मान करते हुए दुनिया के विभिन्न देश देश को बचाने के लिए काम कर रहे हैं। एक तरफ डेनमार्क या जर्मनी जैसे अमीर देश हैं, रवांडा या बोलीविया जैसे गरीब देश हैं। लेकिन भारत, बांग्लादेश, ब्राजील और अमेरिका में अधिकांश आम लोगों के लिए विज्ञान एक महत्वपूर्ण विषय नहीं है। बहुत कट्टरता और प्रागैतिहासिक मानसिकता है। मीडिया में इस भयानक कोरोना संकट के बाद भी पर्यावरण या स्वास्थ्य-चिकित्सा मुद्दों पर ज्यादा वैज्ञानिक चर्चा नहीं हो रही है। भारत में चक्रवात और बाढ़ ने ऐतिहासिक रूप ले लिया है। दूसरी ओर जल संकट अकल्पनीय है। अमेरिका के बड़े क्षेत्रों में अब फसलों के उत्पादन के लिए तापमान नहीं है। भयंकर सूखे के कारण विशाल क्षेत्र ज्वल  रहे हैं। मुख्यधारा की राजनीति में कोई चर्चा नहीं होती। लोग नफरत, झूठ और सस्ते मनोरंजन में डूब रहे हैं। कट्टर देशभक्ति में आंखें बंद कर ली हैं।