Saturday, July 17, 2021

भारत विभाजन की त्रासदी ने उन्हें पागल बना दिया।पलाश विश्वास

 रानाघाट कैम्प में पिता की लावारिश मौत देखनेवके बाद मैट्रिक पास बिरंची बाबू का दिमाग खराब हो गया


भारत विभाजन के बाद कटी फ़टी मनुष्यता को सहेजने में पुरखों ने जो झेला

पलाश विश्वास




आज शाम को टेक्का उर्फ नित्यानन्द मण्डल के साथ हम 10 क्वार्टर ,चित्तरजनपुर नम्बर एक में गए थे।


 एक थे बिरंची मण्डल,जो 1950 से पहले पूर्वी बंगाल से मैट्रिक पास करके रानाघाट आये थे और एक हादसे में उनके पिताजी  की शरणार्थी कैम्प में मृत्यु हो जाने के बाद वे विक्षिप्त हो गए। पिताजी मंत्रसिद्ध थे और पानी पढ़कर महामारी का इलाज करते थे वे शाकाहारी थे।


अविभाजित भारत के खुलने जिले के पाइकगाछा थाने में था उनका गांव। उनकी पत्नी श्रीमती अनिमा मण्डल की स्मृति धुंधली हो चुकी है। 


उनके बेटे श्रीकृष्ण मण्डल और भतीजे प्रह्लाद ने बताया कि लताराबाद उनके गांव का नाम था।


उन्होंने कहा कि भारत विभाजन से पहले ब्रिटिश इंडिया में विरंची बाबू ने मेट्रिक पास की थी। खुलना जिला हिन्दुबहुल था और उसके भारत मे बने रहने की संभावना थी। 15 अगस्त 1947 में खुलना में भारत का तिरंगा झंडा फहराया गया था,जो अगले दिन उतार लिया गया। तब शुरू हुआ हिंसा का तांडव।बिरंची बाबू की आगे की पढाई हमेशा के लिए रुक गयी।


गौरतलब है कि रेडक्लिफ कमीशन की रपट 17 अगस्त को प्रकाशित हुई। खुलना और चटगांव में भारत का झंडा  फहरा दिया गया तो मालदा और मुर्शिदाबाद में पाकिस्ता

न का झंडा। खुलना और चटगांव में अगले ही दिन भारत का झंडा उतारकर पाकिस्तान का झंडा लगा दिया गया।लेकिन मालदा और मुर्शिदाबाद में पाकिस्तानी झंडा

उतारने में हफ्ताभर लग गया। इंग्लैंड से पहलीबार भारत आये रेडक्लिफ ने कांग्रेस और मुस्लिम लीग के नेताओं के साथ मिलकर बिना किसी सर्वेक्षण या रायशुमारी के सरहदें तय कर दी।जिससे अफरा तफरी फैले।तनाव भड़का और दंगे शुरू हो गए।इस पार उस पार दोनों तरफ। लोग विभाजन के हकीकत का सामना करने को तैयार नहीं थे।आम लोगों तक खबरें नहीं ,अफवाहें पहुंचती थी। पढ़े लिखे भद्रजन तो 1946 में ही जमीन जायदाद का बंदोबस्त करके बंगाल में बस गए।आम लोगों का आना 1949 - 50 में शुरु हुआ,जो आज भी जारी है।


बिरंचीबाबू और उनके छोटे भाई हिरण्य पिता और मन के साथ 1950 में सीमा पार करके बंगाल के रानाघाट रिफ्यूजी कैम्प पहुंचे। पता राजेन्द्र नाथ, दादी ज्ञानिदेवी और भाई हिरण्य के साथ आये थे वे।


रानाघाट और दूसरे कैम्पों में भारी अव्यवस्था और भीड़ थी। रोज महामारी से दर्जनों लोग मारे जा रहे थे। जिनकी अंत्येष्टि सामूहिक कर दी जाती थी। परिजनों को अंत्येष्टि में शामिल होने की इजाजत नही थी।


 पिता राजेन्द्र नाथ मण्डल की ऐसी लावारिश मौत देखकर बिरंचीबाबू का दिमाग खराब जो गया। पिता शाकाहारी थे। उनकी इच्छा थी कि उनको जलसमाधि दी जाए मृत्यु के बाद। 


कहते हैं कि वे मंत्रसिद्ध थे और लोकआस्था रही है कि उन्होंने साक्षात श्रीकृष्ण का दर्शन किया था। इसलिए सिर्फ पानी से इलाज करके किसी भी मर्ज का इलाज करके वे मरणासन्न मरीज को ज़िंदा बचा लेते थे। राजेन्द्र नाथ के गुरुजी बांसिराम सरदार थे। 


रानाघाट में राजेंद्र नाथ नेत्रहीन हो गए थे। वे तालाब के किनारे थे कि एक बैलगाड़ी की चपेट मेम आ गए।उनकी मृत्यु हो गयी। लेकिन परिजनों को लाश नहीम दी गयी। बिरंची बाबू यह सदमा ष्ठ नहीं सके। रानाघात में ही उनकी मां ज्ञानी देवी का निधन हो गया।


बहरहाल1952 में बिरंची बाबू भाई हिरण्य और एक बहन के साथ रानघाट से सीधे चित्तरंजनपुर आ गए। यही उनका विवाह हुआ। उन्हें आठ एकड़ जमीन अलाट हुई। हमारे खेत के साथ लगा हुआ उनका खेत। बचपन से हम उनको देखते रहे थे।तब के हिसाब से तराई में बसे बंगाली शरणार्थियों में सबसे ज्यादा पढ़े लिखे,अत्यंत सज्जम बिरंची बाबू को रात दिन सरदर्द से परेशान सर पर लगातार पानी देते रहने के पीछे की त्रासदी तब हमें मालूम न थी।


दिनेशपुर में आये शरणार्थियों में वे अकेले मैट्रिक पास थे।हम बच्चों से उनकी बहुत दोस्ती थी। बंगाली उदवास्तु समिति के अध्यक्ष राधाकांत राय भी मैट्रिक पास थे। वे बेहतर हिंदी जानते थे।लेकिन इंग्लिश में बिरंची बाबू का कोई मुकाबला नहीं था। 


मेरे पिताजी पुलिन बाबू सिर्फ कक्षा दो तक पढ़ सके।ताउजी कक्षा 6 तक। भारत विभाजन की त्रासदी की वजह से शरणार्थियों की कई पीढ़ियों को ज़िन्दगी को पटरी पर लाने,अपनो और अपना सबकुछ खो देने के सदमे से उबरने में बहुत वक्त लगा।पढ़ने लिखने की न सुविधा थी, न फुरसत और न मानसिकता।


बिरंची बाबू तो आखिरी सांस तक उसी त्रासदी के भँवर में डूबते उतरते रहे।न डूब सके  और न तैरकर किनारे तक पहुँच सके। बेहद तकलीफ में होने के बावजूद वे कभी चिड़चिड़े न थे।न गुस्सा करते थे कभी। ऊंची आवाज में बोलते न थे।सिर्फ हंसी गायब थी। अत्यंत भद्र व्यवहार था उनका सबके प्रति।


वे किताबें और दवाएं ढाका और कोलकाता से मंगवाकर इलाके के गांव गांव में बेचते थे। ढाका के मशहूर साधना औषधालय से वे डीपवाएँ मंगाते थे। किताबों  और दवाइयों के बॉक्स लेकर चलते थे। किसानों को सालसा सेहत के लिए बांटते थे। अब न वे किताबे हैं और न दवाइयों का बॉक्स।


उनके सर में असम्भव दर्द होता था।हर वक्त सर पर पानी उड़ेलते थे।नल,नदी नाले का पानी।वे धड़ल्ले से अंग्रेजी बोलते थे। इस क्षण वे कभी सामान्य जीवन जी न सके

भारी शारीरिक मानसिक कष्ट वे बर्दाश्त करते रहे जीवन भर। भारत विभाजन की त्रासदी उनके दिलोदिमाग में नासूर बन गयी थी,जिसका कोई इलाज न था।


उनके बेटे श्रीकृष्ण, पत्नी,भतीजे प्रह्लाद के साथ पूरी शाम बिताई।  प्रहलाद के पिता हिरण्य हमारे खास दोस्त थे।उनके तालाब के सामने एक झोपड़ी में था उनका खाना। तालाब और झोपड़ी वहीं है।जिस क्वार्टर में दिनेशपुर में बिरंची बाबू की ज़िंदगी शुरू हुई थी वह खंडहर है। उसके सामने श्रीकृष्ण का पक्का मकान है।


प्रह्लाद एक जाने माने रंगकर्मी हैं। दिनेशपुर में सेंट्रल पैथोलॉजी उनके भाई दीपंकर चलाते हैं। बिरंची बाबू के श्रीकृष्ण के अलावा चार और बेटे हैं।गोपाल,बंशीराम,प्राण कन्हाई और लक्ष्मी मण्डल।


प्रेरणा अंशु की ओर से भारत विभाजन के शिकार बंगाली शरणार्थियों पर शोध जारी है।इसी सिलसिले में हम खोए हुए,गुमनाम पुरखों की कहानियां बटोर रहे हैं।


बिरंची बाबू का निधन 1998 में हो गया।लेकिन वे हमारे अत्यंत भद्र पढ़े लिखे पुरखे थे,जिनके बारे में नई पीढ़ी

 को अवश्य जानना चाहिए।


 बिजली कटौती जारी है। 


कुछ तस्वीरें। बिरंची बाबू,उनकी पत्नी, प्रह्लाद और श्रीकृष्ण,बसंतीपुर वापसी के रास्ते पर हमारे खेतों के नजारे।

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