Saturday, July 17, 2021

पुरखों की आपबीती इतिहास है,साहित्य नहीं।पलाश विश्वास

 सन्दर्भ बिरंची बाबू की कथा और पुरखों कि आपबीती


पलाश विश्वास



 परशुराम बंगाल के बहुत बड़े लेखक थे। उनके अनुभव का आधार बंगाल था और वे कहानी लिख रहे थे।


यह कहानी नहीं,सत्यकथा है उत्तराखण्ड में बसे विस्थापितों की।


 मंटो के टोबा टेक सिंह की कथा भी बंटवारे की दास्तान है। शायद सबसे महान। 


हमारे लोगों की कथा किसी ने नहीं लिखी है।क्योंकि हमारे पुरखे लिखते नहीं थी। अंग्रेजों के आने से पहले तक मनुस्मृति के मुताबिक ये लोग शिक्षा,सम्पत्ति और शस्त्र के अधिकारों से वंचित थे।


 दो सौ साल पहले शुरू हुए हरिचाँद गुरुचांद के मतुआ आंदोलन और जमींदारों,अंग्रेजों के खिलाफ किसान विद्रोह से हक हकूक की लड़ाई शुरू हुई ही थी,शिक्षा का प्रसार हो ही रहा था,औद्योगिकरण से जाति टूट ही रही थी कि भारत के विभाजन के जरिये इन्हें पूर्वी बंगाल से उखाड़ फेंककर जंगलों,द्वीपो,पहाड़ों में छितरा दिया गया।परिवार और समाज कट फट गया।


 बंगाल के इतिहास भूगोल से खेदड़ दिए जाने के बाद मातृभाषा और संस्कृति से बेदखल होने के बाद दशकों तक हमारी पीढ़ी दर पीढ़ी सिर्फ जीने के लिए ,नए सिरे से ज़िन्दगी,तमाम दुखों और तकलीफों के बीच शुरू करने के लिए खपते रहे। भारतीय साहित्य और इतिहास में इसका लेखा जोखा नहीं है।

 सात दशक बाद अपने जीते जी यह कथा व्यथा सहेजने की कोशिश कर रहा हूँ।

 यह सच का सामना करना है।हम न परशुराम हैं और न मंटो। इस श्रृंखला का साहित्य से कोई लेना देना नहीं है।यह वंचितों की नई पीढ़ी को समर्पित पुरखों की आपबीती है।

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