Sunday, July 18, 2021

हमारी अपनी मरी हुई छोटी सी नदी।पलाश विश्वास

 हमारी अपनी मरी हुई छोटी सी नदी की कथा

पलाश विश्वास



हमारे गांव के चारों तरफ इस नदीं की शाखाएं बहती थीं।जिसमें बारहों महीने पानी हुआ करता था। बेशुमार  मछलियां, कछुए और केकड़े,सांप और पक्षी हुआ करते थे।जीव वैचित्र्य और जीवन से भरपूर।


दोनों किनारे जंगल हुआ करते थे। जहां लोमड़ी, हिरन, खरगोश से लेकर बाघ का डेरा होता था।घास,सरकंडे के जंगल हुआ करते थे। आस पास आबाद जंगल के बचे हुए बड़े बड़े पेड़ पलाश के हुआ करते थे।जिनके फूल चटख लाल हुआ करते थे।जब मैं जन्मा तब तराई आबाद हो ही रह था और जंगल के बीचोंबीच जन्मे हम। 


पलाश की बहार को देखकर ओडाकांदी के हरिचाँद गुरुचाँद ठाकुर की परिवार से आई   शायद तीसरी चौथी तक पढ़ी लिखी मेरी ताई हेमलता ने मेरा नाम रख दिया पलाश।


पलाश के पेड़ों के अलावा वट,पीपल,शेमल के विशाल पेड़ खेतों के बीच नदी के किनारे,गांव में भी जहां तहां बिखरे पड़े थे।


बसंतीपुर मतुआ और तेभागा आंदोलनों में,शरणार्थी और किसान आंदोलनों में शामिल आंदोलन के साथियों का गांव है।जहां सारे लोग हिन्दू जरूर थे क्योंकि ये तमाम लोग भारत विभाजन के कारण हिन्दू होने के कारण, भारत में वंचितों की लड़ाई दो सौ साल से लगातार लड़ते रहने के अपराध में पूर्वी बंगाल से खदेड़कर बंगाल के बाहर भारत वर्ष के 22 राज्यों के आदिवासिबहुल पहाड़ों,जंगलों और द्वीपों में छितरा दिए गए ताकि इनकी पहचान,  इनकी मातृभाषा,इनकी संस्कृति और अविभाजित बंगाल और भारत में इनकी नेतृत्वकारी राजनीतिक हैसियत और लगातार संघर्ष करने की क्रान्तिकारी ताकत को खत्म कर दिया जाए। 


बसंतीपुर का नाम आंदोलनकारी बसंतीपुर के पुरखों ने  मेरी मां के नाम पर रख दिया।जबकि इस गांव में हमारे अपना कोई रिश्तेदार नहीं था। कुल मिलाकर 5 परिवार हमारी जाति नमोशूद्र,एक परिवार नाई, दो परिवार ब्राह्मण , दो परिवार कैवर्त और बाकी सभी पौंड्र क्षत्रिय थे। हमारा परिवार और गांव के एक और परिवार के अलावा, दुर्गापुर के जतिन विश्वास और प्रफुल्लनगर के बैंक मैनेजर  Shankar Chakrabartty के परिवार के अलावा ज्यादातर लोग बंगाल के सुंदरवन इलाके के बरीशाल, जोगेन मण्डल का जिला,या खुलना के थे। एक गांव पीपुलिया नम्बर एक के लोग फरीदपुर, हरिचांद गुरुचाँद और मुजीबुर्रहमान के जिले के थे।


 राजवंशियों का एक गांव खानपुर नम्बर एक था। फिर भी दिनेशपुर के 36 गांवों का यह इलाका एक संयुक्त परिवार था।


 बंगालियों के अलावा पहाड़ी,बुक्सा,सिख, देशी गांवों के हर परिवार से हम लोगों का कोई न कोई सम्बन्ध था।


 एकदम मिनी भारत था तराई का पूरा इलाका।विविधता और बहुलता का लोकतंत्र था।मुसलमान गांव भी

 पुराने थे,जिनसे अच्छे ताल्लुकात थे।


हमारे गांव की तरह तराई का हर गांव जंगल के आदिम।गन्ध से सराबोर था और हर गांव की अपनी अपनी नदियां थीं।


सत्तर सालों में तराई अब सीमेंट का जंगल है। जंगल खत्म हैं तो नदियां भी मर गई। इन्हीं नदियों के पानी और मूसलाधार बरसते मानसून से तराई के खेतों से सचमुच सोना उगलता था। अब सिर्फ बिजली का भरोसा है।


खेत सुख रहे हैं और हमारी कोई नदी नहीं है।

न पानी है और न आक्सीजन।


इन्ही नदियों के पार कीचड़ पानी से लथपथ था हमारा बचपन। पैदल हरिदासपुर दिनेशपुर के स्कूल खेतों के मेड़ों से जाते आते थे। अक्सर स्कूल से आते हुए नदी नाले में मछलियां नगर आयी तो उतर जाते पानी में।अपनी।कमीज को थैला बनाकर मछलियां लेकर घर लौटते।खूब डांट पड़ती। पिटाई भी होती। 


नदी से होकर धान के खेतों में हमारी तैराकीं चलती।खेत खेत धान बर्बाद हो जाता।सिर्फ गांव के प्रधान maandaar बाबू से हम डरते।पिताजीसे भी सभी।डरते थे,लेकिन वे अक्सर गांव में होते न थे। 


जिनके खेत बर्बाद होते थे,वे भी।किसीसे शिकायत नहीं करते थे।फिर   रोपते थे धन और हमें प्यार से हिदायत दी जाती- अबकी बार धान के खेत में तैरना मत।


इतना प्यार कहाँ मिलेगा?

इतनी आज़ादी कहाँ मिलेगी?


मेड मेड गांव गांव आते जाते थे। इन्हीं मेड़ों से बारात आती जाती थी।शादी के बाद सबसे पहले दूल्हा दुल्हन मुकुट के साथ,उसके पीछे पीछे बच्चे और बाराती।


 बाज़ार जाते थे खेत खेत होकर बैलगाड़ी में। कभी कभी कीचड़ पानी में बैल भैंस के पांव धंस जाते थे तो पूरे गांव को एकजुट होकर उन्हें निकालना होता था।हर घर में गाय,बैल,भैंस,बकरियां होती थीं।


नदीकिनारे जंगल में हम बच्चों को उनको चराना होता था। पशुओं को चराने और खेती के कामकाज में हाथ बंटाने के साथ हमारी पढ़ाई बहुत मुश्किल थी।


नदी किनारे हम आजाद पंछी थे।उन्ही पक्षियों की तरह बड़े बड़े पेड़ों की डालियों पर हमारा बसेरा था। खेलने कूदने का मैदान भी वही। हमारे सारे सपने नदी से शुरू होते थे।नदी में ही डूब जाते थे।


 इसी नदी की सोहबत में हमने हिमालय के शिखरों को छूना सीखा।पढ़ना लिखना सीखा। 


हमारी दोस्ती,रिश्तेदारी को भी खेतो की तरह सींचती थी यह नदी।


इस मरी हुई नदी में आषाढ़ सावन में भी पानी नहीं है एक बूंद। हमारे खेत बिजली से चलने वाले पम्पसेट सींचते थे।जहां तहां मेड़ों पर बिजली के तार। बिजली की बजह से खेतों के किसीतरह पानी में जाना भी मुश्किल।


भतीजा टूटल खेत फावड़े से तैयार कर रहा है तो ट्रैक्टर भी चल रहा है।पड़ोस के खेत में एमए पास सिडकुल में कामगार,सामाजिक कार्यकर्ता तापस सरकार धान की निराई में लगा है।


खेत के इस टुकड़े में हमारा धान अभी लगा नहीं है। पद्दो गायों के लिए घास काटकर घर गया है और टुटुल खेत में है।


नदी किनारे आज भी बच्चे खेलते हैं,लेकिन न पेड़ है, न जंगल, न चिड़िया है, न मछलियां,न केकड़े, न कछुए और न ही सांप,केंचुए और कीड़े मकोड़े।


इसी नदी को हाईस्कूल में जीवविज्ञान पढ़ते हुए हमने प्रयोगशाला बना रखा था। डिसेक्शन बॉक्स से औजार निकालकर राणा तिगृणा मेंढक को पकड़कर चीड़फाड़ करके हम विज्ञान सीखते थे तो भैंस की पीठ पर सवार होकर सवाल हल करते थे।


आज के बच्चे ऐसा कर सकते है?

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