खिलता हुआ इंद्रधनुष और भावनाओं की राजनीति
पलाश विश्वास
दफ्तर से बसन्ती पुर लौटते हुए हरिदासपुर से गांव के रास्ते पैदल चलते हुए हल्की बूंदाबांदी और सांझ की धूप में हिमालय की छनव में आसमान के एक छोर से दूसरे छोर तक अर्धचन्द्राकार इंद्रधनुष खिलते दिखा।
मेरे मोबाइल से ज़ूम नहीं जो सकता।फिर भी सिर्फ दृष्टि के भरोसे नौसीखिए हाथों से खींची ये तस्वीरें।
रास्ते में खेत का काम करके सुस्त रहे बचपन के मित्र,जबरदस्त किसान प्रभाष ढाली मिल गए।उसके साथ बिल बाडी का भाई बाबू।
फटाक से फोटू खिंचवा ली।
प्रभाष के पास गांव में पहले पहल कैमरा आया। तब हम डीएसबी में एमए के छात्र थे और नैनिताल समाचार निकला ही था। राजीव लोचन साह दाज्यू और गिर्दा ने कहा कि नैनीताल समाचार के लिए लिखो।
तब तराई की खबरें नहीं छपती थी कहीं। हालांकि हाल में दिवंगत रुद्रपुर के पूर्व नगर पालिका अध्यक्ष और पिताजी के मित्र सुभाष चतुर्वेदी हिमालय की पुकार निकाला करते थे। हमारे अग्रज गोपाल विश्वास ने भी तराई टाइम्स निकाला था। लेकिन तराई पर खोजी पत्रकारिता करना जोखिम का काम था।
जगन्नाथ मिश्र जी की पत्रकारिता के चलते गदरपुर बाजार में सरेआम गोली मार दी गई थी। हालांकि 1979 के 13 अप्रैल को पन्तनगर गोलीकांड की रपट शेखर पाठक ,गिर्दा और मैंने नैनिताल समाचार और दिनमान के लिए कर दी थी।
तभी नैनिताल से दिल्ली आकाशवाणी की रिकार्डिंग के वक्त जाते हुए रास्ते में बस से उतारकर गिर्दा को हमलावरों ने बुरी तरह पीटा था।
हकीकत का सामना पीड़ित पक्ष के लोग भी नहीं करते। भावनाएं भड़काकर उनकी आवाज़ बुलंद करने वालों के खिलाफ हमला करवाना तबभी दस्तूर था।
हमने कब तक सहती रहेगी तराई श्रृंखला लिखनी शुरू की तो दिनेशपुर और शक्तिफार्म में ही भयंकर विरोध झेलना पड़ा।राजनीति प्रबल थी हमारे खिलाफ।
नैनीताल समाचार और मुझे धमकियां दी गईं।घेरकर मारने की कोशिशें भी होती रही। लेकिन हमने लिखना बन्द नहीं किया।
तब तराई के गांवों और जंगलों में मेरे साथ अपने कैमरे के साथ प्रभाष ढाली हुआ करते थे। उनके पिताजी रामेश्वर ढाली बसंतीपुर को बसाने वालों में थे। उसकी मां का उसके बचपन में ही सेप्टीसीमिया से निधन हो गया था।
आज बसन्ती पुर में उम्र हो जाने के बाद भी रात दिन जमीन पर डटे रहने वाले किसान का नाम प्रभाष ढाली है। मेरे भाई पद्दोलोचन, दोस्त नित्यानन्द मण्डल और गांव के दूसरे किसानों के साथ प्रभाष भी लगातार पन्तनगर कृषि विश्व विद्यालय के निर्देशन में आधुनिक खेती करते हैं। प्रभाष ऑर्गनिक खेती भी कर रहै हैं।
इंद्रधनुष के शिकार के प्रयास में फ्रेम में गांव और खेतों में घुसपैठ करते हुए शहर की झांकियां भी कैद हो गयी।लेकिन अफसोस पहाड़ कैद नहीं कर सका।
हिमालय की उत्तुंग शिखर बहुत पास होते हुए भी हमसे दूर हैं। यह दूरी उतनी ही है,जितनी उत्तराखण्ड बनने के बाद पहाड़ी और गैर पहाड़ी जनता के बीच बनती जा रही है। अफसोस की भावनाओं की राजनीति अब बेलगाम है और दूरियां बढ़ती जा रही है।
मेरा नैनीताल अब लगता है कि अनजान किसी और आकाशगंगा में है।
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