ऊंचाइयां छूने के बाद भी वह भोला था, बहुतों से उसे धोखा मिला
: 'सर, याद होगा आपको जब हम बरेली कॉलेज में पढ़ते थे, तो आप अकसर हमारी क्लास में कहा करते थे कि मुझे इनमें से एक भी लड़के की आंख में चिनगारी नहीं दिखती, सपने नहीं दिखते, तभी मैंने सोच लिया था कि कुछ करके दिखाऊंगा, आज एक बड़े काम की शुरुआत के गवाह आप भी हैं' : एक अजब-सी बेचैनी, अजब-सी आशंकाएं मन को घेरे हुए थीं, कई दिनों से। तो क्या वह ऐसी ही मर्मांतक, अनहोनी का संकेत थीं, सोचने को विवश हूं। अतुल नहीं रहा, उसका पार्थिव शरीर भी पंचतत्व में विलीन हो गया। किसी बुरे सपने जैसा इतना डरावना सच। इसका सामना करने का साहस अपने भीतर तलाश रहा हूं।
इसलिए नहीं कि मैंने होनहार शिष्य खोया। करीबी दोस्त खोया। या कि वह शख्स जुदा हुआ, जिसने ताउम्र आदर के सिवा कुछ न दिया। बल्कि इसलिए कि जो गया वह एक बेहतरीन इनसान था। वैसा कोई मुश्किलों से पैदा होता है। और इसलिए भी कि वह बहुतों का सहारा था। किसी का नाविक, तो बहुतों के लिए मार्गदर्शक, किसी लाइट हाउस की तरह। हजारों का जीवन उसकी दिखाई रोशनी में सही राह पकड़ सके। फिर भी कोई अहंकार नहीं। उसका जाना किसी बड़े सपने के दम तोड़ने की तरह है। ऐसा इसलिए कह सकता हूं कि लोग सपने देखते हैं, अतुल उन्हें साकार करना जानता था।
मेरठ में एक रात पता चला कि कैसे सपने बरसों-बरस पलते हैं और फिर साकार होते हैं। मेरठ में अमर उजाला की शुरुआत हुई थी। हम सभी पंडित प्यारेलाल शर्मा रोड पर एक गेस्ट हाउस के बड़े से कमरे में रहते थे। जमीन पर बिछा बिस्तर। वहीं एक रात अतुल ने कहा था, 'सर, याद होगा आपको जब हम बरेली कॉलेज में पढ़ते थे, तो आप अकसर हमारी क्लास में कहा करते थे कि मुझे इनमें से एक भी लड़के की आंख में चिनगारी नहीं दिखती। सपने नहीं दिखते। तभी मैंने सोच लिया था कि कुछ करके दिखाऊंगा। आज एक बड़े काम की शुरुआत के गवाह आप भी हैं।'
फिर तो पत्रकारिता के तमाम नए प्रतिमान गढ़े गए। वह जोश ही नहीं, जुनून भी था। लेकिन होश हमेशा चौकस रखा उसने। मेरठ के दंगे, हाशिमपुरा कांड, टिकैत के आंदोलन और बाद में राम मंदिर आंदोलन। हर मौके पर मूल्यों की जिस पत्रकारिता का निर्वाह अमर उजाला में हुआ, वह दुर्लभ है। यह सबकुछ अतुल की सोच की बदौलत था। उसकी उस जिम्मेदारी की वजह से था, जो एक पत्रकार के नाते वह देश-समाज के प्रति महसूस किया करता था।
व्यावसायिक ऊंचाइयां छूने के बाद भी वह भीतर से बेहद भोला था। बहुतों से उसे धोखा मिला, लेकिन वह विश्वास करता था, तो टूटकर करता था। उसकी विलक्षण कार्य क्षमताओं से मैं भी चमत्कृत रह जाता था। अखबार से जुड़ी कौन-सी चीज बेहतर है, दुनिया में कहां क्या घटित हो रहा है, उसे सब पता रहता था। निश्चित ही ऐसे बहुत कम लोग होते हैं, जिनमें इतनी खूबियां एक साथ देखने को मिले।
सरलता इतनी कि निजी से निजी मुद्दे पर भी हम बात कर लेते थे। यह सब उतनी ही सहजता से होता था, जब बरेली में अमर उजाला के काम के दिनों में एक ही 'जावा' में उसके साथ तीन लोगों का बैठकर प्रेमनगर से प्रेस तक आना या फिर रास्ते में रुककर कहीं भी कुल्फी खा लेना। मैं उससे उम्र में थोड़ा-सा बड़ा था। ग्रेजुएशन के दिनों में उसका टीचर भी था, तो डांट भी लेता था। कभी मेरी कोई बात नहीं मानी, बाद में महीनों बाद भी उसे गलती का पता चलता, तो बेलौस माफी मांग लेता। यह बिलकुल प्लेन कंफेशन की तरह था। कई बार मैं नाराज हुआ। अखबार से अलग हुआ। लेकिन कितने दिन, उसकी माननी ही पड़ती थी। शायद हम अलग-अलग होने के लिए बने ही नहीं थे। मुझे तो यहां तक लगता है कि हम एक ही चीज के दो अंश थे। अब तो एक हिस्सा ही नहीं रहा...।
अपनापन मोह पैदा करता है यह तो जानता था, लेकिन वहमी भी बना देता है, अब समझ में आया। वह अस्पताल में है, जानता था। नोएडा ऑफिस जाकर भी लौट आता, उससे मिलने फोर्टिस अस्पताल न गया। यह वही अस्पताल है, जिसमें कुछ समय पहले मेरे एक अन्य अजीज मित्र की मौत हुई थी, जब मैं उन्हें देखकर लौट आया था। इसे वहम ही कहूंगा, इसलिए मन न होता वहां जाने को। वह ठीक हुआ। घर लौटा। फिर दिक्कत हुई, तो दूसरे अस्पताल में भर्ती कराया गया। उसे देखने को मन अटका हुआ था। जाने ही को था कि यह मनहूस खबर आई। अब तो बस, मैं अकेला हो गया हूं। मैं हूं और उसकी यादे हैं।
लेखक वीरेन डंगवाल जाने-माने कवि और पत्रकार हैं. बरेली कालेज में शिक्षण कार्य किया और अतुल माहेश्वरी के शिक्षक रहे. अमर उजाला के साथ कई वर्षों तक संबद्ध रहे. उनका यह लिखा अमर उजाला से साभार लेकर यहां प्रकाशित किया गया है.
written by prakash tripathi, hindustan. ranchi, January 04, 2011
अतुलजी सबके रहे 'भाई साहब'
'भाई साहब'! पूरा अमर उजाला परिवार इसी आत्मीय संबोधन से पुकारता था अतुलजी के लिए। आगरा से शुरू हुए अमर उजाला के सफर का दूसरा पड़ाव था बरेली। यहीं से अतुल माहेश्वरी ने अखबार जगत में पहचान बनानी शुरू की। इसके बाद प्रकाशित हुए मेरठ संस्करण की तो नींव ही उन्होंने रखी और हिंदी पत्रकारिता के इतिहास में अमर उजाला को शानदार मुकाम दिया। अतुलजी अत्यंत व्यवहारकुशल, मृदुभाषी, सहृदय और अद्भुत प्रतिभासंपन्न व्यक्ति थे। उनका कर्मचारियों के साथ व्यवहार इतना आत्मीय था कि सभी को लगता था मानो वह उनके बड़े भाई हैं। यही वजह थी कि सहज ही हर व्यक्ति उन्हें 'भाई साहब' कहकर संबोधित करता था। यह संबोधन खुद उनके लिए भी बड़ा पसंद था।जब प्रबंध निदेशक के रूप में उनकी कामकाजी व्यस्तताएं बढ़ीं तो लंबे समय बाद संपादकीय सहयोगियों के साथ हुई एक मीटिंग में उन्होंने इस बात को दुहराया भी कि मैं तो आप लोगों के लिए 'भाईसाहब' ही हूं। चाहे व्यक्ति उम्र में बड़ा हो या छोटा उसके मुंह से सहज ही अतुलजी के लिए 'भाई साहब' ही निकलता।
उन्होंने भी इस संबोधन का खूब मान रखा। 14 अप्रैल 1987 को जब मेरठ में दंगे हुए तो देर रात तक संपादकीयकर्मी अखबार के दफ्तर में काम करते और आसपास के होटल बंद होने के कारण रात भोजन भी नहीं पाते थे। कई बार ऐसा हुआ कि अतुलजी खुद अपनी कार से संपादकीय कर्मियों को लेकर दूर स्थित होटल में रात को भोजन कराने लेकर गए। अमर उजाला परिवार के लोगों के बच्चों के जन्मदिन, विवाह समारोह व अन्य कार्यक्रमों में शामिल होकर वह अपनी आत्मीयता का अहसास भी कराते थे।
कोई परेशानी हो, निसंकोच होकर लोग अतुल जी के सामने रखते और वह हर संभव उसका समाधान करते। शादी विवाह के लिए आर्थिक संकट हो या फिर बीमारी का इलाज कराने के लिए धन की जरूरत हो, वह कर्मचारियों के दिल की बात महसूस करते और कोई न कोई रास्ता निकाल ही देते थे। अपने कर्मचारियों के साथ संवाद का रास्ता उन्होंने सदैव खोले रखा। आम जनता की पीड़ा को भी वह गहराई से महसूस करते थे। यही वजह थी कि उत्तराखंड में जब भूकंप आया तो उनकी पहल पर पूरा अमर उजाला परिवार भूकंप पीडि़तों की मदद को आगे आया। निजी जीवन के साथ ही वह समाचारों में भी मानवीय मूल्यों के पक्षधर रहे और अमर उजाला के माध्यम से इसे सदैव अभिव्यक्त भी किया।
लेखक डा. अशोक प्रियरंजन मेरठ में अमर उजाला के चीफ सब एडिटर हैं. यह लेख उनके ब्लाग अशोक विचार से साभार लेकर प्रकाशित किया गया है.
अतुलनीय अतुल
अमर उजाला के एमडी अतुल माहेश्वरी का निधन निश्चित रूप से पत्रकारिता के लिए एक अपूरणीय क्षति है, जिसे बहुत दिनों तक महसूस किया जाएगा। मैं यहां कुछ उन लम्हों को आप सभी से शेयर करना चाहूंगा, जब अमर उजाला, जालंधर में नौकरी के दौरान मैंने अतुल माहेश्वरी जी के साथ गुजारे। यह 2000 से 2004 के वक्फे का वह यादगार पल है, जो मेरी जगह कोई भी होता तो भुला नहीं पाता। निश्चित रूप से उस दौरान और भी जो साथी रहे होंगे, उन्हें भी वे पल याद होंगे। आप इन लम्हों के साथ महसूस कर सकते हैं कि अतुलजी में अखबार और पत्रकारिता के प्रति कितना समर्पण भाव था, वे अखबार के पन्नों पर सुंदर सोचों को किस कदर ढालने का सपना देखा करते थे और खबरों का दबाव दूर करने की उनकी परिभाषा क्या थी।
पहला लम्हा – जालंधर के एक होटल में संपादकीय टीम के साथ अतुलजी की बैठक में एक मसला उठा कि अखबार में पन्ने बढ़ाने होंगे क्योंकि खबरों का फ्लो बढ़ रहा है। इंडिया किंग सिगरेट पीते थे अतुलजी। इस सवाल के साथ ही उन्होंने डिब्बी से एक सिगरेट निकाला, सुलगाया और बड़े ही गंभीरता से बोलने लगे। अमेरिका और ब्रिटेन में प्रकाशित होने वाले अखबारों का पूरा पैनल यहां इंडिया में बैठा है और उनकी तनख्वाह भी इतनी है जितनी हम अपने संपादकों तक को नहीं दे पाते, लेकिन उन अखबारों को देखिए, इंडिया की कितनी खबरें रहती हैं। प्रखंडों तक हमने संवाददाता रख दिए, इसका मतलब यह नहीं कि वहां के रोजाना झगड़ों व किस्सागोई को हम खबरों का हिस्सा समझें। सिकुड़ते विश्व में कब कौन सा स्पाट डेटलाइन बन जाए, इसका पता नहीं। ये नियुक्तियां इसलिए की गई हैं कि जिस दिन वह प्रखंड डेटलाइन बने, उस दिन हम अपने संवाददाता की खबर प्रकाशित करें।
दूसरा लम्हा – जालंधर स्थित अमर उजाला मुख्यालय में अतुलजी के साथ संपादकीय टीम की बैठक थी। पंजाब में अखबार बढ़ नहीं रहा था और संपादकीय के साथ अतुलजी की बैठक इन्हीं चिंताओं पर आधारित थी। मोबाइल बंद थे, रिसेप्शन को आदेश था कि कोई भी उनकी कॉल अगले आदेश तक ड्राप रखी जाए। बैठक में बातें बहुत हुईं, पर एक बात शेयर किए जाने के योग्य है। उनके निशाने पर था पहला पन्ना और उस पर छपने वाले वीभत्स फोटो। अपनी बातें उन्होंने बड़े ही भावुक अंदाज में रखीं।
कहने लगे, मैं जब भी सुबह जगता हूं तो दिन अच्छा गुजरे इसके लिए सबसे पहले ईश्वर की प्रार्थना को हाथ जोड़ता हूं। मेरा मानना है कि सुबह यदि मां को देख लूं तो दिन अच्छा रहता है। इसलिए मुझे मां ही सुबह जगाती हैं और अपने हाथों चाय देती हैं। मैं दिन की शुरूआत मां को देखकर और उनके हाथों बेड टी लेकर करना चाहता हूं। इरादा वही कि दिन की शुरुआत शुभ-शुभ हो। और आप हैरत करेंगे कि यदि अखबार सिरहाने आ गया तो फिर इन सब से पहले मैं अखबार खोल लेता हूं। न तो मुझे ईश्वर की प्रार्थना को हाथ जोड़ना याद रहता है और न ही मां के हाथों की चाय। अब बताइए पहले पन्ने पर कोई वीभत्स फोटो छापा गया हो, खूनखराबा-लाशें दिखाई गई हों तो क्या मैं उस वक्त वह सब कुछ देखने की मानसिकता में हो सकता हूं, होता हूं? नहीं। कम से कम मैं तो नहीं होता। मुझे लगता है, पाठकों के हाथों में अलसुबह पहुंचने वाले अखबारों के पहले पन्ने पर वीभत्स फोटो नहीं छापे जाने चाहिए। उसे देखकर पूरा दिन खराब हो जाता है। किसी का पूरा दिन खराब करना हमारा काम नहीं, अखबार का काम नहीं।
तीसरा लम्हा – जालंधर के ही अपने केबिन में बैठकर अखबार पलटने के दौरान अमृतसर संस्करण में छपी एक हेडिंग पर उनकी नजर टिक गई थी। शीर्षक था – अमृतसर भ्रूण हत्या में अव्वल। अतुलजी का कहना था कि अव्वल सकारात्मक प्रयासों को दर्शाने वाला शब्द है और भ्रूण हत्या आपराधिक कृत्य है। अमृतसर के लिए यह कृत्य प्रशंसनीय नहीं हो सकता और इसलिए इस शब्द का प्रयोग यहां गलत है। इसकी जगह कुछ और शब्द ढूंढ़े जाने चाहिए थे।
इसी दौरे में एक-दो दफे संपादकीय कक्ष से उनका गुजरना हुआ। वे संपादकीय प्रभारी जी के कक्ष में आ-जा रहे थे। हो यह रहा था कि जब वे संपादकीय प्रभारी जी के कक्ष में जा रहे थे तो काम करने वाले साथी आदर में खड़े हो गए। संभवतः अतुलजी ने इसे नहीं देखा। जब वे लौट रहे थे तो फिर संपादकीय की उस कतार के साथी कुर्सी छोड़कर खड़े हो गए। बस, अतुलजी भी रुक गए। उन्होंने जो कहा, वह बहुत दिनों तक याद रखने वाला है। उन्होंने कहा कि न तो आप प्राथमिक कक्षा के विद्यार्थी हैं और न ही मैं हंटर लेकर कक्षा में घूमने वाला टीचर। रिगार्ड में एक बार खड़े हो गए, चल गया पर बार-बार खड़ा होना ठीक नहीं। आप सम्मानजनक तरीके से रहें, यही मेरी इच्छा है।
अतुल जी शार्प ब्रेन के मालिक थे। किसी भी चीज को परखने और उसके विश्लेषण की उनमें विलक्षण प्रतिभा थी, यह एक बार नहीं, कई बार साबित हुआ। उनके व्यक्तित्व में कुछ ऐसा जरूर था, जिसे देखकर एक भरोसा जगता था कि चाहे कितनी भी बड़ी समस्या हो, उनके पास वह पहुंच गई तो उसका निदान मिल ही जाएगा। उनका निधन अमर उजाला के लिए ही नहीं, पूरे पत्रकारिता जगत और जागरूक पत्रकारों के लिए एक झटका है, एक सदमा है। ईश्वर इस सदमे को सहने की शक्ति दे।
लेखक कौशल पत्रकार हैं. यह लेख उनके ब्लाग इम्तिहान से साभार लेकर प्रकाशित किया गया है.
मैंने अमर उजाला में करीब साढ़े चार साल काम किया। अमर उजाला में ही मैंने इंटर्नशिप की। प्रशिक्षु बना और उसके बाद सब एडिटर। अमर उजाला से मैनें बहुत कुछ सीखा है। सन 2005 से 2010 का वह मेरा सफर मुझे अच्छी तरह याद है। मैं अतुल जी से कभी मिला तो नहीं लेकिन अमर उजाला लखनऊ यूनिट में उनके कार्य और व्यवहार की छवि प्रतिदिन कर्मचारियों में दिखाई देती थी। उनके रहते किसी भी कर्मचारी को यह भय नहीं था कि कभी उसे अखबार से निकाला भी जा सकता है। हर कर्मचारी बड़े ही आत्मविश्वास के साथ काम करता था।
मेरे अमर उजाला के कार्यकाल के दौरान वहां के संपादक अशोक पांडेय जी भी लगभग-लगभग रोज ही अतुल जी के प्रेरणात्मक शब्दों द्वारा कर्मचारियों में आत्मविश्वास भरा करते थे। वह कहा करते थे कि अतुल जी का सपना है कि हर कर्मचारी खुश रहे। उसे किसी भी प्रकार की दिक्कतों का सामना न करना पड़े। तब मैं सोचा करता था कि अतुल जी कितने नेक इंसान होंगे। हर कर्मचारी अखबार के प्रति बड़े ही निष्ठा से काम करता था क्योंकि उसे नौकरी खोने का भय नहीं था। लोग अतुल जी का नाम सिर्फ अमर उजाला में ही नहीं अन्य अखबारों के कर्मचारी भी लिया करते हैं। उनकी अच्छाइयों का बखान करते कोई भी नहीं थकता। खासतौर पर वो जो उनके साथ काम कर चुके हैं।
अतुल जी के पंचतत्व मे विलीन होने से देश के मीडिया जगत को भारी नुकसान हुआ है। वह लोग और भी ज्यादा दुखी हुए हैं जो किसी न किसी वजह से न्याय के दरवाजे पर खड़े थे। उन लोगों को यही लगता था कि अतुल जी के होते हुए उनके साथ अन्याय नहीं हो पाएगा। मैंने किसी आवश्यक कार्य से एक बार राजुल जी से मुलाकात की। राजुल जी की एक सब एडिटर के साथ इतने शालीन तरीके से की गई बातों से ऐसा नहीं लग रहा था कि वह एक इतनी बड़ी कंपनी के मालिक होंगे। राजुल जी की बातों से मुझे यह भी लगा कि जब राजुल जी ऐसे हैं तो अतुल जी, जिनके बारे में मैं संपादक जी और अन्य कर्मचारियों के मुंह से सुनता था, कितने सज्जन आदमी होंगे। अतुल जी को फेस टू फेस न देख पाने का गम मुझे जिंदगी भर सालता रहेगा। भगवान से मुझे यह शिकायत रहेगी कि इतने अच्छे और सुशील व्यक्ति को इतनी जल्दी अपने पास नहीं बुलाना चाहिए था।
लेखक प्रकाश चंद्र त्रिपाठी हिन्दुस्तान, रांची में सब एडिटर हैं.
: अंतिम यात्रा से अंतिम निवास तक : दिल्ली के दंदफंद और तनावों से दूर शांति की खातिर पुराने-नए साल के संधिकाल में नैनीताल चला गया. बर्फ में खेलने-कूदने-सरकने और पहाड़ों पर घूमने से मिली खुशी नए साल के पहले ही दो-तीन दिन में तब काफूर हो गई जब पता चला कि नैनीताल क्लब में कार्यरत एक कर्मचारी रात में बैठे-बैठे ही हीटर से जलकर मर गया. बताने वाले बता रहे थे कि वो ज्यादा पी गया था, पीने के बाद हीटर के आगे बैठकर आग सेक रहा था, और बैठे-बैठे सो गया और उसे पता ही नहीं चला कि कब गुनगुनी गरमाहट खूंखार आग में तब्दील होकर बदन से खून पीने लगी.
बगल में उसके बच्चे सोए थे, उनकी भी नींद नहीं खुली. बेहद ठंड के मारे. गरमाहट से लगी आग की मौत भी मंजूर शायद! सबेरे सबको पता चला. नैनीताल क्लब में मैं रुका नहीं था लेकिन जहां रुका था, वहां मिलने आए एक पत्रकार साथी ने यह सूचना दी. पहाड़ों पर ठंड बहुत पड़ती है, खासकर ठंड के दिनों में. बचने के लिए हर शख्स आग मिलते ही हाथ सेकने को बैठ जाता है. पहाड़ पर दारू भी खूब पी जाती है. दारू, आग और आदमी. तोनों का चोली-दामन का साथ है पहाड़ पर. लेकिन इनके बेसुरे संगम से कैसे दर्दनाक-खौफनाक मौत हो जाया करती है, यह जानने को मिला. बहुत देर तक सोचता रहा. वो मरने वाला शख्स चतुर्थ श्रेणी का, चपरासी टाइप कर्मचारी था, सो उसकी मौत ज्यादा बड़ी खबर नहीं बन सकती थी.
कल नैनीताल से लौट रहा था. संपर्क क्रांति से. एक बजे के करीब कई मित्रों के फोन अचानक आने लगे. पता चला कि अतुल माहेश्वरी की मौत हो गई. मैं ट्रेन में ही चिल्ला पड़ा- क्या, कैसे, अरे.....? दिल्ली चार बजे पहुंचा तो सीधे अतुलजी के नोएडा वाले घर पहुंचा. भड़ास4मीडिया आफिस से कंटेंट एडिटर अनिल सिंह को भी साथ कार पर बिठाया. सीधे घर के अंदर घुस गया. पार्थिव शरीर के अगल बगल में रोते बिलखते परिजन. थोड़ी देर बाद शवयात्रा शुरू हुई. सारे ग़मज़दा लोग राम नाम सत्य बोलते हुए चल पड़े 'अंतिम निवास' की ओर. 'अंतिम निवास' नामक स्थान नोएडा-दिल्ली बार्डर पर श्मशान गृह है.
शवयात्रा शुरू होते वक्त कोई फोटोग्राफर या कैमरामैन नहीं था. सो, मैं भी थोड़ा हिचका. लेकिन मुझे लगा कि अगर मैं सच्चा पत्रकार हूं तो अपना काम मुझे करना चाहिए, अगर कोई रोकता या टोकता है तो देखा जाएगा. मैंने मोबाइल का वीडियो आन किया और शूट करने लगा. वहां से अंतिम निवास हम लोग पहुंचे. सैकड़ों लोग पहुंचे हुए थे. अंतिम क्रिया कराने वाला व्यक्ति जोर-जोर से बोलकर सारे संस्कार करा रहा था. पुत्र तन्मय माहेश्वरी ने मुखाग्नि दी और फिर चिता पर घी डालते रहे.
थोड़ी ही देर में अंतिम निवास में चिता की लकड़ियों ने चड़चड़ाहट के साथ जलते हुए देह को लाखों चिंगारियों में तब्दील करना शुरू कर दिया. तन्मय की निगाह अचानक उपर, उन चिनगारियों पर टिक गईं, अटखेलियां करतीं चिनगारियां और फिर उड़नछू. वे निहारते रहे. फफकते रहे. घी डालते रहे. चिनगारियों की मात्रा बढ़ाते रहे.
कभी मुस्कराहट के टुकड़े की तरह लगतीं वे चिनगारियां तो कभी किसी प्रकाशमान एटम की माफिक.
मैंने कल अतुलजी के घर पर अतुलजी के चेहरे को देखा था. पार्थिव शरीर के चेहरे को. शांत. गहरी निद्रा में लीन. चेहरा वैसे का वैसा. लगा ही नहीं कि मृत्यु के बाद वाला ये चेहरा है. पर वे जीते रहते तो शायद इस तरह सोते नहीं, वे तो ढेर सारे जिंदगियों के सुर-लय-ताल का संचालन कर रहे होते, तब ये भला मातम क्यों होता. घर में जमीन पर लेटे अतुलजी, चार कंधों पर सवार होकर निकलते अतुलजी, अंतिम निवास में चिनगारी में तब्दील होते अतुलजी. कबीर के भजनों के बीच अंतिम क्रिया के संपन्न हो जाने के बाद क्रिया कर्म कराने वाले व्यक्ति ने सबको गायत्री मंच तीन बार पढ़ने को कहा ताकि जो चला गया, उसकी आत्मा को शांति नसीब हो सके, स्वर्ग में जगह मिल सके.
समवेत स्वर में गायत्री मंत्र का पाठ, चिताओं की आग भरी आवाज, लाउडस्पीकर पर बजते कबीर के भजन, आती-जाती-भागती गाड़ियों का शोर, लाइटों की जगमग जल-बुझ.... कुछ अजीब सा महसूस हो रहा था, जिसके हम आदी नहीं.
अंतिम निवास में एक और चिता जल रही थी. चिता अभी जवान थी. स्पीडी धधकन. सब समेट लेने की जल्दी वाली धधक. लेकिन चिता अकेले थी. कोई दिल्ली के अशोक नगर का शख्स था. पोस्टमार्टम हाउस से उसकी लाश परिजन लेकर आए थे और जलाने के तुरंत बाद चले गए. उस चिता के आसपास कोई न था. अकेली जल रही जवान चिता थी वो, जिसकी तरफ हम लोगों की पाठ थी और उसके घरवालों ने तो पूरी पीठ फेर ली थी. मानवों का रेला अतुलजी की चिता को घेरे था. मौत मौत में फर्क था क्योंकि जीवन दोनों ने अलग अलग जिया था.
अतुलजी ने हजारों-लाखों लोगों को जीवन जीना सिखाया, इसमें दो राय नहीं. सो, जिन-जिन को खबर लगी और जो-जो पहुंच सके, पहुंचे. कई परिचित मिले. सबके मुंह पर अतुल जी के किस्से. मानवीयता के किस्से. बड़प्पन के किस्से. दर्शन के किस्से. सहजता के चर्चे. उदारता की बातें. मेरठ में छंटनी के नाम पर आठ चपरासी मैनेजरों ने निकाल दिए तो अतुलजी को बात मालूम हुई तो बोले- चपरासियों को निकलने से मंदी नहीं खत्म होगी. इन्हें बहाल करिए. पिछले दिनों एक पुराने पत्रकार जो काफी दिनों से बेराजगार हैं और उनका जीवन दारू के लिए पैसे इकट्ठे करने और फिर दारू पीकर मस्त रहने में व्यतीत होता है, अतुलजी से मिलने पहुंचे. वे पत्रकार अमर उजाला में लंबे समय तक काम कर चुके हैं. अतुल जी ने कहा कि नौकरी तो नहीं दूंगा, आपके एकाउंट में पैसे डलवा देता हूं ताकि आपके परिवार को कोई दिक्कत न हो. बताते हैं कि पचास हजार रुपये उन्होंने अपने एकाउंट विभाग से कहकर उन पत्रकार सज्जन के पारिवारिक बैंक एकाउंट में डलवाए.
अंतिम निवास को खुली और कातर आंखों से निहारकर जब वापस घर की तरफ लौटा तो दिल्ली में घर वापसी का रेला सड़कों पर झमाझम जमा था... पों, ठों... टर्र... घर्र... भुर्र... अचानक लाल... और सब जाम. जगह-जगह जाम से रुक-रुक हुचक हुचक चल रही थी गाड़ियां, शायद दिमाग का भी यही हाल था.
जाम से निजात पाकर जाम की तलाश में एक शराबखाने की ओर बढ़ा. दिन भर में जिन जिन के काल को अटेंड न कर पाया था, उन सबको रिंग बैक करना शुरू किया, दारू पीते हुए, कार में ही बैठकर, अकेले. ज्यादातर उन लोगों के फोन थे जो अतुलजी की मौत को कनफर्म करना चाह रहे थे, जो सुनना चाह रहे थे कि भड़ास कह दे कि खबर झूठी है. लेकिन क्या करें, वो तो न भड़ास के वश में है और न अमर उजाला के और न सोनिया - मनमोहन और ओबामा के. जैसे हर चीज के दो पहलू वैसे मौत के दो पहलू. मौत से डर लगता है. मौत से दुख होता है. लेकिन मौत से ताजगी बनी रहती है. मौत से सिस्टम सही रहता है. ताजगी यानी पतझड़ से ही नए पत्ते निकलते हैं, कोंपल आती हैं. प्रकृति का चक्र बना रहता है. पुराना जाता है, नया आता है. नया आएगा तो पुराना जाएगा ही. और पुराना जब जाएगा तभी नए के आने का मार्ग प्रशस्त होगा. पर बात मौत के समय की है.
अतुलजी को खुद नहीं पता था कि वे इतने जल्दी चले जाएंगे. तभी तो उन्होंने अकेले के दम पर बहुत सारे पंगे, धंधे, प्रोजेक्ट, मिशन पाल-प्लान रखे थे. एक क्रांतिकारी कामरेड टाइप व्यवसायी से घोर बाजारू कारपोरेट हस्ती बनने की अतुल माहेश्वरी की स्याह-सफेद यात्रा में दागदार क्षण बेहद कम हैं, उजले बहुत ज्यादा. इधर कुछ वर्षों से अतुल माहेश्वरी कई वजहों से निगेटिव न्यूज के हिस्से बन गए थे. पर उसकी तह में जाकर अगर पता किया जाए तो लगेगा कि अतुल माहेश्वरी अपने विजन से इत्तफाक न रखने वालों को अपने से दूर रखते थे तो उसी सोच के तहत उन्होंने अपने साझीदारों को एक-एक कर अलग करना शुरू किया.
बहुत मुश्किल था यह फैसला लेना लेकिन अतुल माहेश्वरी तो नाम उसी व्यक्ति का है जो हिम्मती, मुश्किल फैसले लेने के लिए जाना जाता है. चाहें कारोबार हिंदी अखबार के प्रकाशन का मामला हो या पंजाब कश्मीर में अमर उजाला के लांच करने का या फिर शशि शेखर के हवाले अमर उजाला करने का या फिर अजय अग्रवाल को अमर उजाला से अलग करने का या फिर अशोक अग्रवाल को भी विदा करने का.... ये सारे फैसले कोई साहसी, विजनरी और अदम्य इच्छा शक्ति वाला व्यक्ति ही ले सकता था. जब आप सौ फैसले लेते हैं तो दो-चार फैसले गलत हो ही जाते हैं, दो-चार फैसलों की आलोचना होने लगती है, लेकिन आलोचना के डर से फैसले लेना तो नहीं बंद किया जा सकता. अतुल माहेश्वरी की शिकायत करने वाले उनके कुछ गलत फैसलों का उल्लेख कर सकते हैं लेकिन मेरा मानना है कि वे गलत फैसले उनके कुल फैसलों के दो-चार फीसदी ही होंगे और ऐसे अपवादों के आधार पर किसी के व्यक्तित्व में नकारात्मकता नहीं तलाशी जानी चाहिए.
दो लोगों से ही फोन पर बात कर पाया था कि मेरी जुबान लड़खड़ाने लगी और बातचीत के दौरान अंतिम निवास के दृश्य का बयान करते करते आंखें नम. दिमाग में प्रविष्ट दिल्ली की भयानक व्यावहारिकता-दुनियादारी-सांसारिकता-गुणा-गणित का आक्रांत आतंक लिक्विड के असर से खत्म होने लगा. उसकी जगह नया लेपन... नंगे खड़े विकल मनुष्य की बेचैन करने वाली भावुकता का लेप. एक पौव्वा खत्म कर चुका था. फोन करने-आने का सिलसिला जारी. बोलते सुनते मुंह खुश्क. लगा, अभी कुछ पिया नहीं, जिया नहीं. कार बैकगीयर में. मुंह शराबखाने की सड़क की ओर. फिर एक क्वार्टर लिया. दारू की दुकान के ठीक बगल में पानी बेचने वाला अधेड़ बंगाली मुस्कराया. वो पीता नहीं. पहले पौव्वे को ले जाते वक्त उससे हेलो हाय हुई थी. दूसरे पौव्वो को ले जाते वक्त वह चालढाल की लड़खड़ाहट ताड़ चुका था. न पीने वाले पीने वालों पर मुस्कराते हैं और पीने वाले न पीने वालों पर.
दो चवन्नी शीशियां सड़क पर, बेजान. इस दूसरे ने खुद के खत्म होते होते मेरे दिल-दिमाग के बीच की दीवार को नरम कर ढहा दिया था. अब सब एक था. जाने किन किन जानने वाले, दोस्तों, वरिष्ठों, कनिष्ठों को फोन करता रहा और रोता रहा, गाता रहा, सुनाता रहा.
और, रोने वाले को दूसरा रोने वाला मिल जाए तो फिर क्या, कभी समवेत रुदन, तो कभी पारी-परंता. एक की रुलाई दूसरे को रोने के लिए उकसाती है. दूसरे की रुलाई पहले वाले के कंधा को तलाशती है. हंसने में भी ऐसा होता है. रोने-हंसने में बहुत साम्य है. लेकिन हंसना ठीक और रोना खराब क्यों माना जाता है. जैसे जिंदगी ठीक और मौत बुरी.
मेरठ से एक पत्रकार साथी का फोन था. रो रहे थे. नशे के अतिरेक में वे भी थे. अतुलजी को पिता बता रहे थे. यह भी कि उन्होंने किस किस तरह से उनकी कब कब गुपचुप तरीके से आर्थिक मदद की. बात खत्म तो उनका संगीत शुरू. निर्गुण भजन. एक शराबी गाये और दूसरा न सुनाये. मैंने भी सुनाया... ना सोना साथ जाएगा ना चांदी जाएगी, सज धज के मौत की जब शहजादी आएगी...... (नीचे के प्लेयर पर क्लिक करके ओरीजनल सुन सकते हैं)
अभी बस इतना ही.
अतुल जी की अंतिम यात्रा का एक वीडियो अपलोड कर दिया गया है, यही लिखना था, इसी से संबंधित इंट्रो लिखना था, ( वीडियो देखने के लिए क्लिक करें- Atul Ji Ki Antim Yatra) लेकिन जाने क्या क्या लिख गया.
सच कहूं तो शब्दों और लिखने से वो बात निकलती नहीं जो कहना चाहता हूं. विचारों भावनाओं का स्पीडी प्रोडक्शन अकुलाहट के जिस लेवल को क्रिएट करता है, उसे पूरा का पूरा डाउनलोड करना मुश्किल है. पर दुर्भाग्य यह कि आपको मैं और मुझे आप बस उतना ही जान पाएंगे जितना हम अभिव्यक्त हो पाते हैं. बाजार के इस दौर में मुश्किल ये है कि अगर अच्छा-खासा आदमी खुद की अच्छाई की मार्केटिंग न करे तो गंदा-बुरा साबित करे वाले उसे ठिकाने लगाने में वक्त न लगाएंगे. और, अतुल माहेश्वरी ने कभी खुद के सुयश के लिए अपने को प्रोजेक्ट नहीं किया, निजी तौर पर खुद को मार्केट नहीं किया. वे वही करते रहे, जो वे दिल से चाहते थे, भले किसी को बुरा लगे तो लगे. और उनके करने में एक वृहत्तर संदर्भ होता था, बड़ा फलक होता था जिसकी परिणति मनुष्यता को मजबूत बनाना था.
इसी कारण वे मालिक होते हुए भी बनिया नहीं बन पाए, यह उनकी जीत रही. आज के बनिया मीडिया मालिकों के दौर में अतुल माहेश्वरी एक मर्द किस्म का मालिक था, जिसके पास सपना, समझ और सच्चाई थी. कई बार किसी एक फिसलन को हम कैमरे में कैद पर आदमी के पतन के रूप में चित्रित कर देते हैं पर लेकिन जब पूरी फिल्म देखते हैं तो पता चलता है कि वो तो एक फकीर था जो अपनी मस्ती में मशगूल रहने के कारण, अपनी मंजिल पर निगाह गड़ाए रखने के चक्कर में अपने ठीक आगे के गड्ढे से बेजार था, अनजान था, परे था. पर दोस्त, आजकल कोई किसी की जिंदगी की पूरी फिल्म नहीं देखना चाहता, हम सब अपने-अपने मन मुताबिक दूसरों के जीवन के एक-एक रसदार सीन कट कर करके अपनी अपनी पीठों पर इन सीनदार पोस्टरों को चिपकाए मुंह बिचकाए घूमते रहते हैं, किसी उल्लू, गधे, बकलोल की तरह. ऐसे उल्लुओं, गधों, बकलोलों से अतुल माहेश्वरी बन पाने की उम्मीद पालना दुस्साहस के समान होगा.
स्वीकार करना चाहता हूं, कहना चाहता हूं कि अमर उजाला ने मुझे बनाया है, पत्रकारीय समझ दी है, सच के साथ खड़े होने का साहस दिया है. अगर अमर उजाला में मैंने काम न किया होता, अगर अमर उजाला में वीरेन डंगवाल न होते, अगर अमर उजाला के मालिक अतुल माहेश्वरी न होते तो शायद मैं न होता. और ये मैं, सिर्फ मैं नहीं, मेरे जैसे हजारों लाखों हैं.
मैं एक लाजवाब किस्म के मनुष्य के इस दुनिया से असमय चले जाने से निजी तौर पर बेहद आहत हूं और भविष्य की पत्रकारिता को लेकर असुरक्षित. ईश्वर अमर उजाला ग्रुप को ताकत दे कि वे उन लक्ष्यों-सपनों से न डिगें, जिसे अतुल माहेश्वरी कहा-देखा-माना करते थे.
प्रणाम
यशवंत
एडिटर, भड़ास4मीडिया
yashwant@bhadas4media.com This e-mail address is being protected from spambots. You need JavaScript enabled to view it
written by Rajesh, January 05, 2011
written by कुमार हिन्दुस्तानी , January 04, 2011
....बहुत ही सशक्त, वैश्लेषिक, सारगर्भित और समर्पित सोच, शब्द और संवेदनाएं व्यक्त कइ हैं आपने यशवंत भाई. यूँ तो न जाने कितने लोगों को पढ़ा और सुना, लेकिन किसी के लेखन शैली का कायल होना चाहूँ तो बेशक वो शख्श आप ही हैं. इसे आतिशयोक्ति मत समझिएगा लेकिन कभी कभी आपकी बिंदास शैली मुझे ओशो के लेखों की याद दिलाती है, जिसमे हकीकत, प्रयोगधर्मिता, कुशल संवाद और तारतम्यता बनइ ही रहती है. अतुल जी के बारे में आपकी यह लेखनी और ज्यादा भावुक भी नजर आई. खैर अतुल जी वाकई में बेहद ही समर्पित, हितैषी, कर्मयोगी और दूरदर्शी थे. उनके बारे में आपके पोर्टल पर दिया गया स्थान ही उनकी महानता को प्रदर्शित करने के लिए काफी है.
उनके बारे में एक पंक्ति पुनः दोहराना चाहूँगा..
"है मौत उसी की जिस पर करे जमाना अफसोस,
यूं तो मरने के लिए सभी आया करते हैं।"
आपका अनुज.
कुमार हिन्दुस्तानी
http://funtadoo.blogspot.com/
written by anchal sinha, January 04, 2011
Kisi bhi tarah se yah ek dukhad khabar hai
-- Anchal
written by Madan Singh Kushwaha Ghazipur, January 04, 2011
written by B.P.Gautam, January 04, 2011
अमर उजाला पिछले दो दशकों से अतुल भाईसाहब के ही नेतृत्व में था और उनकी वजह से ही हिंदी पत्रकारों के लिए अमर उजाला में काम करना गौरव की बात हुआ करती थी। पत्रकारों के लिए अतुल भाईसाहब ने निजी स्तर पर सामाजिक सुरक्षा कवच विकसित कर रखा था। किसी भी परेशानी में वह किसी भी पत्रकार की मदद के लिए तत्पर रहते थे। यह उनका ही विजन था कि यह अखबार पश्चिमी उत्तरप्रदेश से निकलकर पहले कानपुर और फिर देहरादून-चंडीगढ़-जालंधर होते हुए जम्मू-कश्मीर व हिमाचल तक पहुंचा। लेकिन कई बार ऐसा देखा गया है कि व्यक्ति जिन अच्छाइयों के लिए जाना जाता है, आसपास के लोग उनका ही बेजा फायदा उठाते रहते हैं और वह व्यक्ति संकोच में, अपने बड़प्पन में कुछ बोल नहीं पाता। एक दिन वह अपने को फंसा पाता है।
शायद अति संवेदनशील अतुल भाईसाहब के साथ ऐसा ही हुआ। पहले परिवार के झगड़े और इन झगड़ों से निबटने में जिनपर भरोसा किया, उनके स्वार्थ। अग्रवाल-माहेश्वरी बंट गए। तमाम बुलंद इरादों से शुरू किया गया जालंधर संस्करण बंद करना पड़ा। उन पर वे सब आरोप तक लग गए जिनके बारे में उनके धुर विरोधी भी शायद ही कभी सोच पाते। जिनसे वह अपनी मुश्किलें शेयर करते थे, उनसे इस दौरान दूरी बन गई।
इन सबके बीच शायद अतुल भाईसाहब बहुत अकेले हो गए थे। और यह अकेलापन और अकेले होने की विवशता उनके चेहरे पर झलकने लगी थी। शायद वह अंदर ही अंदर छटपटा रहे थे। यह छटपटाहट सतह पर आकर ठोस रूप ले पाती तो शायद एक बार फिर अमर उजाला ही नहीं बल्कि पूरी हिंदी पत्रकारिता को एक नया संवेग मिल सकता। वह कुछ गिने-चुने मालिक-संपादकों में से थे, जिनसे पेड न्यूज और विश्वसनीयता की चुनौती से गुजर रही मौजूदा हिंदी पत्रकारिता उम्मीदें लगा सकती थी। लेकिन नियति को कुछ और ही मंजूर था।
राजेंद्र तिवारी प्रभात खबर के एडीटर - कारपोरेट हैं. वे कई वर्षों तक अमर उजाला के साथ रहे हैं. उनका यह लिखा प्रभात खबर में प्रकाशित हो चुका है. वहीं से साभार लेकर यहां प्रकाशित किया जा रहा है.
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