Friday, August 20, 2021

प्रसंग- नेताजी को श्रद्धांजलि। पलाश विश्वास

 प्रसंग -नेताजी को श्रद्धांजलि



अफसोस यह है कि हमारा ज्ञान सूचनाओं पर आधारित है। सूचनाएं सही गलत हो,इससे फर्क नहीं पड़ता किसीको। परीक्षा प्रणाली ज्ञान के बदले सूचना की जांच करता है। 


इसलिए नए लोग शार्ट कट से सूचना जुटाकर ज्यादा से ज्यादा अंक जुटाने की गलाकाट प्रतिस्पर्धा में लगे हैं।


सूचनाओं की जांच का विवेक ज्ञान और गहन अध्ययन

 से बनता है,जिसका कोई शार्ट कट नहीं होता।


शिक्षा का मतलब सीखना,जेनन,समझना,गहन चिंतन मंथन और निष्कर्ष का विवेक होता है। इसके बिना डिग्री और सर्टिफिकेट, शत प्रतिशत अंक से कुछ नहीं बनता।


गूगल डिक्शनरी है और विश्वकोष। कौन फीड करता है।इससे कोई मतलब नहीं। 


कुंजी में रेडीमेड जवाब है। सिलेबस और विषय की जानकारी के बिना,पाठ्य पुस्तकों के दर्शन किये बिना यह ऑन लाइन शिक्षा और सूचना तंत्र का करिश्मा है कि जिस नेताजी को स्वतंत्रता संग्राम का प्रतीक माना जाता है, उनके बारे में अंग्रेजों का फैलाया भरम भी हम बेहिचक अंतिम सत्य मानकर चल रहे हैं। 


सत्य क्या है,उसकी किसी को कोई परवाह नहीं है।


इसी कारण मरने से पहले मृत्यु का शोक इतना वायरल है।


मरने से पहले हम मरे हुए लोग हैं।

Thursday, August 19, 2021

लोधा शबर जनजाति की चुनी कोटाल को क्यों आत्महत्या करनी पड़ी?

 चुनी कोटाल, महाश्वेता देवी और आदिवासी

पलाश विश्वास



शबर जनजाति पर म्हाश्वेतादि ने अपनी पत्रिका बर्तिका के जरिये सिलसिलेवार काम किया था। यह सामग्री बांग्ला में है।पहले बर्तिका के सारे अंक हमारे पास होते थे।अब एक भी नहीं है।


 बर्तिका के जरिये आदिवासी समाज के लिए उन्होंने व्यापक काम किया है,जो उनके कथा साहित्य से कम महान नहीं है।


आज कोलकाता के मशहूर बांग्ला अख़बार में खेड़िया शबर जनजाति की विश्विद्यालय की दहलीज तक पहुंची स्त्री रमणिता के बारे में खबर छपी है।


गौरतलब है कि इससे बरसों पहले लोधा शबर जनजाति की एक स्त्री विश्विद्यालय से शोध कर रही थी।जिनका नाम था चुनी कोटाल।


विश्विद्यालय में लोधा शबर जनजाति  कोटासे होने की वजह से उनका दमन उत्पीड़न इतना ज्यादा हुआ कि चुनी कोटाल को आत्महत्या करनी पड़ी। 


हम सभी,खासतौर पर महाश्वेता देवी , विवहलित हो हए थे।आंदोलन भी चला।


लेकिन दमन और उत्पीड़न का सिलसिला रुका नहीं है। आरक्षण तो नाम मात्र का है।कितने आदिवासी समूहों को आरक्षण का फायदा हुआ?


आदिवासियों के लिए विश्विद्यालय आज भी वर्जित क्षेत्र है। आज भी विभिन्न विश्विद्यालयोन में ऐसे दमन उत्पीड़न की शिकायतें मिलती हैं।


दिलोदिमाग लहूलुहान हो जाता है और हम कुछ कर नहीं पाते। ऐसी कहानियां जरूर आम जनता को जानना चाहिए।


आरक्षण की राजनीति और राजनेताओं को छोड़ दें तो आरक्षण से दलितों,आदिवादियों,अल्पसंख्यकों और स्त्रियों का कितना उत्थान हुआ और क्यों नहीं हुआ 70 साल बाद भी,चुनी कोटाल की कथा उसका जवाब है।


 आगे सरकारी क्षेत्र के निजीकरण और उत्पादन प्रणाली, अर्थव्यबस्था कारपोरेट हवाले होने के बाद ओबीसी कोटे का वोटबैंक सधने के अलावा क्या बनेगा,इस पर ओबीसी समुदायों को सोचना होगा कि ओबीसी कोटे के भी कहीं दलित और आदिवासी आरक्षण जैसा हश्र तो नहीं होगा?


जनजातियों के बारे में हिंदी में ऐसे काम जो भी हुए,उसे आम जनता के सामने लाने की जिम्मेदारी हमारी है।


कृपया 6398418084 व्हाट्सअप नम्बर पर मुझसे संपर्क करें।


पलाश विश्वास

कार्यकारी संपादक ,प्रेरणा अंशु

Mail-prernaanshu@gmail.com

Website- prerna anshu.com

Monday, August 16, 2021

राजनीतिक आज़ादी नहीं है,अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता भी नहीं,बाकी अग्निपथ।पलाश विश्वास

 इस अग्निपथ पर हमसफ़र मिलना मुश्किल


समीर भी, हमारी लड़ाई सामाजिक मोर्चे की है।लड़ाई जारी रहेगी।तुम्हारे मेरे होने न होने से कोई फर्क नही पड़ेगा


पलाश विश्वास





कल हमारे छोटे भाई और रिटायर पोस्ट मास्टर समीर चन्द्र राय हमसे मिलने दिनेशपुर में प्रेरणा अंशु के दफ्तर चले गए। रविवार के दिन मैं घर पर ही था। हाल में कोरोना काल के दौरान गम्भीर रूप से अस्वस्थ होने की वजह से उसे जीवन में सबकुछ अनिश्चित लगता है।


इससे पहले जब वह आया था,रूपेश भी हमारे यहां था। उसदिन भी उसने लम्बी बातचीत छेड़ी थी। 


उसदिन उसने कहा था कि गांवों में स्त्री की कोई आज़ादी नहीं होती।हमें उन्हें आज़ाद करने के लिए हर गांव में कम से कम 5 युवाओं को तैयार करना चाहिए। 


हम सहमत थे।


उस दिन की बातचीत से वह संतुष्ट नहीं हुआ। उसके भीतर गज़ब की छटपटाहट है तुरन्त कुछ कर डालने की। आज हमारे बचपन के मित्र टेक्का भी आ गए थे। बाद में मुझसे सालभर का छोटा विवेक दास के घर भी गए।


बात लम्बी चली तो मैंने कहा कि मैं तो शुरू से पितृसत्ता के खिलाफ हूँ और इस पर लगातार लिखता रहा हूँ कि स्त्री को उसकी निष्ठा,समर्पण,दक्षता के मुताबिक हर क्षेत्र में नेतृत्व दिया जाना चाहिए। लेकिन पितृसत्ता तो स्त्रियो पर भी हावी है। इस पर हम प्रेरणा अंशु में सिलसिलेवार चर्चा भी कर रहे हैं। जाति उन्मूलन, आदिवासी,जल जंगल जमीन से लेकर सभी बुनियादी मसलों पर हम सम्वाद कर रहे हैं ज्वलन्त मसलों को उठा रहे हैं।


हमारे लिए सत्ता की राजनीति में शामिल सभी दल।एक बराबर है। विकल्प राजनीति तैयार नहीं हो सकी है। न इस देश में राजनैतिक आज़ादी है। 


सामाजिक सांस्कृतिक सक्रियता के लिये भी गुंजाइश बहुत कम है। 


अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता नहीं है।


स्त्री आज़ादी के नाम पर पितृसत्ता के लिए उपभोक्ता वस्तु बन रही है। क्रयक्षमता उसका लक्ष्य है और वह गांव और किसिन के पक्ष में नहीं ,बाजार के पक्ष में है या देह की स्वतंत्रता ही उसके लिए नारी मुक्ति है तो मेहनतकश तबके की,दलित आदिवासी और ग्रामीण स्त्रियों की आज़ादी,समता और न्याय का क्या होगा?


समीर अम्बेडकरवादी है।


 हमने कहा कि अम्बेडकरवादी जाति को मजबूत करने की राजनीति के जरिये सामाजिक न्याय चाहते हैं,यह कैसे सम्भव है?


साढ़े 6 हजार जातियों में सौ जातियों को भी न्याय और अवसर नहीं मिलता। 


संगठनों,संस्थाओं और आंदोलनों पर,भाषा, साहित्य, सँस्कृति,लोक पर भी जाति का वर्चस्व। 


फिर आपके पास पैसे न हो तो कोई आपकी सुनेगा नहीं।कोई मंच आपका नहीं है।


समीर हरिदासपुर प्राइमरी स्कूल में दूसरी कक्षा में पढता था और उसका मंझला भाई सुखरंजन मेरे साथ। उनका बड़ा भाई विपुल मण्डल रंगकर्मी और सामाजिक कार्यकर्ता थे। जिनका हाल में निधन हुआ।


70 साल पुराना वह हरिदासपुर प्राइमरी स्कूल बंद है। इलाके के तमाम प्राइमरी स्कूल रिलायंस को सौंपे जा रहे हैं। क्या यह कोई सामाजिक राजनीतिक मुद्दा है?


नौकरीपेशा लोगों के लिए समस्या यह है कि पूरी ज़िंदगी उनकी नौकरी बचाने की जुगत में बीत जाती है। चंदा देकर सामाजिक दायित्व पूरा कर लेते हैं। नौकरी जाने के डर से न बोलते हैं और न लिखते हैं।कोई स्टैंड नहीं लेते। लेकिन रिटायर होते ही वे किताबें लिखते हैं और समाज को, राजनीति को बदलने का बीड़ा उठा लेते हैं।


सामाजिक काम के लिए बहुत कुछ खोना पड़ता है। जैसे मेरे पिता पुलिनबाबू ने खोया। हासिल कुछ नहीं होता।


 राजनीति से कुर्सी मिलती है लेकिन सामाजिक सांस्कृतिक काम में हासिल कुछ नहीं होता। इसमें सिर्फ अपनी ज़िंदगी का निवेश करना होता है और उसका कोई रिटर्न कभी नहीं मिलता।


समाज या देश को झटपट बदल नहीं सकता कोई। यह लम्बी पैदल यात्रा की तरह है। ऊंचे शिखरों, मरुस्थल और समुंदर को पैदल पार करने का अग्निपथ है।


इस अग्निपथ पर साथी मिलना मुश्किल है।


जो हाल समाज का है, जो अधपढ अनपढ़ नशेड़ी गजेदी अंधभक्तों का देश हमने बना लिया, युवाओं को तैयार कैसे करेंगे।


मुझे लगता है कि इस मुद्दे पर भी सार्वजनिक सम्वाद जरूरी है।


मेरे भाई,समीर, निराश मत होना।हम साथ हैं और हम लड़ेंगे। लेकिन यह लड़ाई सामाजिक मोर्चे की है और यह संस्थागत लड़ाई है,जिसे जारी रखना है।


तुम्हारे मेरे होने या न होने से कोई फर्क नहीं पड़ता।

Sunday, August 15, 2021

आदिवासी भूगोल में 1757 से ही अंग्रेज़ी हुकूमत के खिलाफ लड़ाई शुरू हो गयी थी,पलाशी युद्ध के ठीक बाद से।पलाश विश्वास

 आदिवासियों का इतिहास हमारा इतिहास है

पलाश विश्वास




1957 में पलाशी के युद्ध में लार्ड क्लाइव की जीत के अगले ही दिन से मेदिनीपुर के जंगल महल से आदिवासियों ने ईस्ट इंडिया के लहिलाफ़ जल जंगल जमीन के हक हकूक और आज़ादी की लड़ाई शुरू कर दी।


मेदिनीपुर में एक के बाद एक तीन0 अंग्रेज़ कलेक्टरों की आदिवासियों ने हत्या कर दी। इसे बंगाल और। छोटा नागपुर में भूमिज विद्रोह कहा जाता है। 


जल जंगल जमीन की लड़ाई में शामिल जनजातियों को अंग्रेजों ने स्वभाव से अपराधी जनजाति घोषित कर दिया। 


बंगाल, झारखण्ड, ओडिशा, मध्य प्रदेश,छत्तीसगढ़ में तब आदिवासी ही जंगल के राजा हुए करते थे। जहां आदिवासियों का अपना कानून चलता था।जिसके तहत धरती पर जो भी कुछ है,वह आदिवासी समाज का है।किसी की निजी या किसी हुकूमत की जायदाद नहीं।


 अंग्रेज़ी हुकूमत आफ़ीवासियों से जल जंगल जमीन छीनना चाहती थी।उनकी आजादी और उनकी सत्ता छीनना चाहती थी। 


समूचे आदिवासी भूगोल में इसके खिलाफ 1757 से ही विद्रोह शुरू हो गया।


अंग्रेज़ी सरकार आदिवासियों को अपराधी साबित करने पर तुली हुई थी, इसलिए इसे चोर चूहाड़ की तर्ज पर चुआड़ विद्रोह कहा गया और हम भद्र भारतीय भी इसे चुआड़ विद्रोह कहते रहे। 


जल जंगल जमीन की इस लड़ाई को आदिवासी भूमिज विद्रोह कहते हैं,जो सही है। 


इसी सिलसिले को आगे बढ़ाते हुए बिहार बंगाल में बाउल फकीर विडतोह हुए,जिसमे आदिवासियों की बड़ी भूमिका थी। लेकिन इसे सन्यासी विद्रोह कहा गया।


 तमाम किसान विद्रोह की अगुआई नील विद्रोह से अब तक आदिवासी ही करते रहे। शहीद होते रहे लेकिन हमलावर सत्ता के सामने कभी आत्म समर्पण नहीं किया।


 संथाल विद्रोह, मुंडा विद्रोह ,भील विद्रोह से पहले चुआड़ विद्रोह, बाउल विद्रोह और नील विद्रोह तक के समय पढ़े लिखे भद्र जन अंग्रेजों के साथ और आदिवासियों के खिलाफ थे।


संथाल विद्रोह, मुंडा विद्रोह,भील विद्रोह,गोंदवाना विद्रोह से लेकर आज तक जल जंगल जमीन की लड़ाई में किसिन विद्रोह की अगुआई आदिवासी करते रहे हैं शहादतें देते रहे हैं। जबकि गैर आदिवसी पढ़े लिखे लोग जमींदारी के पतन होने तक बीसवीं सदी की शुरुआत तक अंग्रेज़ी हुकूमत का साथ देते रहे हैं।


मुंडा, संथाल और भील विद्रोह की चर्चा होती रही है। लेकिन चुआड़ विद्रोह,बाउल फकीर सन्यासी विद्रोह और नील विद्रोह में आफ़ीवासियों की आज़ादी की लड़ाई हमारे इतिहास में दर्ज नहीं है।


यह काम हमारा है।


प्रेरणा अंशु के सितम्बर अंक से आदिवासियों पर हमारा फोकस जारी रहेगा। किसिन आंदोलनों में आदिवादियों की नेतृत्वकारी भूमिका और चुआड़, संथाल,तुतिमीर, भील,गोंडवाना विद्रोह से लेकर बाउल फ़कीर सन्यासी नील विद्रोह और 1857 की क्रांति के बारे में प्रामाणिक लेख आमंत्रित है।


आदिवासियों का इतिहास हमारा इतिहास है।

Mail-prernaanshu@gmail.com

Saturday, August 14, 2021

स्वतंत्रता दिवस पर लाल किले से आदिम सभ्यता की गंध क्यों आ रही है? पलाश विश्वास

 लाल किले से राष्ट्र को सम्बोधन से आदिम युग की गंध क्यों आ रही है?

पलाश विश्वास



पहले और दूसरे खाड़ी युद्ध के बाद दुनिया सिरे से बदल गयी। भारतीय राजनय की असफलता और निष्क्रियता का सिलसिला शुरू हुआ और अब अफगानिस्तान से जब सारे समीकरण बदल रहे हैं,भारतीय राजनय फिर फेल है। 


मुक्त बाजार और अंधी राजनीति ने राजनय को फेल करके भारत की स्वतंत्रता और सम्प्रभुता गहरे खतरे में डाल दिया। दुनिया फिर बदल रही है। हम आदिम युग में वापस लौट रहे हैं। स्वतंत्रता दिवस पर टाइम मशीन का यह सफर मुबारक हो।


जनता को बेरोजगार करके,बाज़ारबमें मरने छोड़कर,चिकित्सा,शिक्षा समेत सारी बुनियादी सुविधाओं और सेवाओं से वंचित कर, जल जंगल जमीन समता न्याय स्वयंत्रता,सम्प्रभुता और मानवाधिकार से बेदखल कर भीख पर जीने को मजबूर किया जा रहा है।


कमाई है नहीं,कमरतोड़ महंगाई,भीख पर कितने दिन जिएंगे?


लाल किले से राष्ट्र को सम्बोधन से आदिम सभ्यता की गंध क्यों आ रही है?

Wednesday, August 11, 2021

विभाजन की त्रासदी में कभी ननिहाल न देखने वालों की पीढ़ी के हमलोगों के ननिहाल ऐसे बने।पलाश विश्वास

 अभी अभी खबर मिली है कि रुद्रपुर ट्रांजिट कैम्प निवासी इलाके के पुराने नामी फुटबॉल खिलाड़ी, सामाजिक कार्यकर्ता और जनता इंटर कालेज,रुद्रपुर के अध्यापक  हरेन जी, हरेंद्र नाथ सरकार का निधन दिल का दौरा पड़ने से हो गया। 



उनसे हमारे परिवारिक सम्बन्ध रहे है।बचपन की अनेक यादें,खासकर फुटबॉल मैच जो बंगाली कालोनियों में खूब खेले जाए थे और अब नहीं खेली जाते,से जुड़ी अनेक यादें उनसे जुड़ी हुई हैं। 


कोलकाता से आने के बाद उनसे दुबारा मुलाकात नहीं हो सकी।


वे 78 साल के थे।

विनम्र श्रद्धांजलि। संस्कृति और खेलकूद से जुड़े अपने एक आत्मीय को। हमारे पास उनकी कोई तस्वीर नहीं है।

जिनके पास हो,वे कॉमेंट बॉक्स में लगा दें।


उनके भांजे  हरेकृष्ण मण्डल जी ने इस पोस्ट पर उनकी फोटो भेजते हुए लिखा है-

हरेंद्र नाथ सरकार हमारे मामा जी थे. आप जनता इंटर कॉलेज रुद्रपुर में अध्यापक रहे. नारायण दत्त तिवारी, इंदिरा हृदयेश दीदी जी के काफी सन्निकट रहे.

 अपने समय में कुमाऊं मंडल के फुटबॉल खेल के अध्यक्ष रहे. आप बहराइच के मूल निवासी थे. ट्रांजिट कैंप रूद्रपुर में आपका आवास है,आपका एक पुत्र रवि एवं पुत्री नीरू है.

आप गरीब मजलूम असहाय को मदद करने में तत्पर रहते थे.

तिलकराज बेहड़ आपके शिष्य रहे हैं. आपकी मृत्यु समाज की अपूरणीय क्षति है. ॐशांतिॐ.


धन्यवाद मण्डल जी।


हमारे पड़ोसी गांव चित्तरंजन पुर में फरीदपुर गोपाल गंज के ऑडाकांदी से विस्थापित एक बुजर्ग दम्पत्ति थे। मेरी ताई हेमलता को अपनी बेटी मानते थे। ताई जी और मेरी मां बसन्ती देवी का मायका पीछे छूट गया था। ताई जी का ओदाकांदी में तो मां का बरिपडा, बालेश्वर ओडिशा में। लेकिन दिनेशपुर और शक्तिफार्म इलाकों में हमारे दर्जनों ननिहाल हो गए।


चित्तरंजन पुर भी उनमें से एक ननिहाल था। उस नाना नानी के इकलौते बेटे का नाम था बाबूराम। जिनका घर में रात दिन आना जाना था।


उन्ही बाबूराम मामा की बहन से शादी हुई थी जनता इंटर कालेज के मास्साब हरेंद्र नाथ सरकार ने।


बुजुर्ग दम्पत्ति के निधन के बाद बाबूराम मामा ने जमीन बेच दी और में तब नैनिताल से सीधे देशाटन पर निकल गया था। 

1964 के दंगों के बाद गोपालगंज ओदाकांदी से रिश्ते में पीआर ठाकुट की बहन और ताईजी की मां प्रभावती देवी बसंतीपुर आ गयी तो ननिहालों से  रिश्तेदारी का सिलसिला टूट गया।

Tuesday, August 10, 2021

भीष्म साहनी का उपन्यास तमस, भारत विभाजन और मेरे पिताजी।पलाश विश्वास

 साहित्य में भारत विभाजन और भीष्म साहनी

पलाश विश्वास




भीष्म साहनी जी के लेखन के बारे में कुछ कहने लिखने की शायद जरूरत नहीं है। तमस भारत विभाजन की त्रासदी पर क्लासिक रचना है। आम लोगों की यह आपबीती पंजाबी के साहित्यकारों ने खूब दर्ज किया है। मंटो की कहानियां तो भीतर से मठ डालती हैं। 


बांग्ला में प्रफुल्ल रॉय के केया पातार नौको और कपिल कृष्ण ठाकुर के उजानतलार उपकथा को छोड़ दें तो विभाजन के वास्तविक शिकार लोगोंकी कोई आपबीती दर्ज नहीं हुई। 


अतीन बंदोपाध्याय के नील कंठो पाखीर खोजे पठनीय है।लेकिन यह कथा एक जमींदार परिवार का वृत्तांत है।


 सुनील गंगोपाध्याय के समूचे लेखन में हिंदी और हिंदी भाषियों के प्रति जितनी घृणा है,उससे कहीं ज्यादा दलितों और आदिवासियों के खिलाफ है।  उनके लिए विभाजपीडितों का मतलब है पूर्वी बंगाल के सवर्ण भद्रलोक। 


शंकर् का नजरिया भी कमोबेश यही रहा है।


सिर्फ फिल्मकार ऋत्विक घटक ने मेघे ढाका तारा, कोमलगान्धार और सुवर्णरेखा के जरिये विभाजन की त्रासदी को जिया है।


बंगाल और पंजाब के समूचे साहित्य, उर्दू में कुर्त उल इन हैदर, राही मासूम रज़ा के आधा गांव को ध्यान में रखते हुए भारत विभाजन की सबसे प्रामाणिक तस्वीर भीष्म जी ने ही रची है। 


मंटो बेहद प्रभावशाली हैं ,लेकिन उनके यहाँ इतना विराट कैनवास और इतने बारीक ब्यौरे नहीं है।


विभाजनपीडित परिवार से होने और पीढ़ी दर पीढ़ी उनकी लड़ाई में शामिल होने के कारण भीष्म जी की दूसरी रचनाओं के मुकाबले हमें तमस अपनी ही रचना लगती है,जो में लिख नहीं सका और लिख भी नहीं सकता।


तमस के हर पन्ने पर मुझे पुलिन बाबू का चेहरा नज़र आता है।


मेरे पिता पुलिनबाबू कैंसर से जूझ रहे थे। आखिरी कोशिश के तहत हम उन्हें लेकर एम्स दिल्ली ले गए। वहां पंकज बिष्ट जी आये। उन्होंने मुझसे कहा कि चलो,एक कार्यक्रम में जाना है। भीष्म जी होंगे।


पिताजी के साथ रह गए मंझले भाई पद्दोलोचन और रंगकर्मी सुबीर गॉस्वामी।


कार्यक्रम में हमारे प्रवेश करते ही मंच पर बैठे भीष्म साहनी जी उठ खड़े हो गए। बोले,पंकज जी नमस्ते।

पंकज दा और हम हतप्रभ रह गए।


अपने से युवा लोगों के प्रति यही अपनापा विष्णु प्रभाकर, उपेन्द्रनाथ अश्क, अमृतलाल नागर, महाश्वेता देवी, विष्णु चन्द्र शर्मा,शैलेश मटियानी, महादेवी वर्मा, रघुवीर सहाय,भैरव प्रसाद गुप्त, कमलेश्वर,अमरकांत, राजेन्द्र यादव  जैसे पुराने साहित्यकारों में देखी और महसूस की है। लेकिन अफसोस किनाज के बड़े साहित्यकारों का न अपने समकालीन और न युवा रचनाकारों से ऐसी आत्मीयता नज़र आती है।


103 वे जन्मदिन पर भीष्म साहनी जी की स्मृति को नमन। वे हमारे हिस्से का भी लिख गए,इसके लिए आभार।

Saturday, August 7, 2021

हमारा जो हुआ,सो हुआ,जनसत्ता और पत्रकारिता का क्या हुआ?

 आज फिर कोलकाता से गुरुजी जयनारायण का फोन आया। कोलकाता जनसत्ता में सिर्फ मार्केटिंग विभाग है। दो इंजीनियर हैं। बिल्डिंग है,सम्पादकीय नहीं है।प्रेस लखनऊ चला गया।दिल्ली से पीडीएफ आता है।


कोलकाता महानगर ने हिंदी,बांग्ला,ओड़िया, उर्दू, गुरमुखी और उर्दू,किसी भी भाषा के अखबार में किसी की स्थायी नौकरी नहीं है।सभी पत्रकार संविदा पर है।


योग्य,प्रशिक्षित और पढ़े लिखे पत्रकारों में कोलकाता में दिहाड़ी मजदूरी तो क्या बीस रुपये का भी काम नहीं है।


जिंदगीभर किसी और पेशा या नौकरी की कोशिश न करके 5 दशक पत्रकारिता को मिशन मानकर सबकुछ दांव पर लगाकर सबकुछ हारने के बावजूद अपने फैसले पर कभी अफसोस नहीं रहा।


मीडिया में बचे हुए साथियों की इस दुर्गति और आदरणीय प्रभाष जोशी के अखबार जनसत्ता की इस दशा पर बहुत दुखी हूं।


ओम थानवी ने हमारी कभी सुनी नहीं। लेकिन उनके जमाने में भी यह हाल नहीं हुआ।


जाति, वर्ण और नस्ल देखकर सम्पादक चुनने की परंपरा ने जनसत्ता जैसी संस्था, नई दुनिया जैसे अखबार और पूरी हिंदी पत्रकारिता का बेड़ा गर्क कर दिया।





कोलकाता में जिस तरीके से मुझे मेरी औकात में रखने की तिकड़में भिड़ाई गई और हार न मानते हुए प्रभाष जी से और बाकी सम्पादकों और मैनेजरों से लड़ते भिड़ते हुए हम जनपक्षधर पत्रकारिता का विकल्प बनाने की कोशिश करते रहे, उसकी कथा कम रोमांचक और कम दुःखद नहीं है। हमने कभी किसीको बख्शा भी नहीं है।


इंडिया इंटरनेशनल सेंटर दिल्ली हो या हंस का पन्ना या कोलकाता,हम पिछले बीस साल से हिंदी समाज से अपनी गौरवशाली विरासत सहेजने की अपील करते रहे हैं। बांग्ला समाज से तो हम बहिस्कृत थे ही। वहां का कूलित वर्चस्व तो निरंकुश है ही।


बदलाव की उम्मीद तो फिर भी गाय पट्टी से ही थी क्योंकि यहां सामाजिक ताकतें और लोक अभी ज़िंदा है।बस,यही पूंजी है,जिसके भरोसे न सिर्फ ज़िंदा हूँ, हाशिये पर होबे के बावजूद सक्रिया हूँ।


पत्रकारिता के मिशन और साहित्य का क्या हुआ,कहने की जरूरत नहीं है,लेकिन हमारा मिशन जारी है

ओलंपिक सोना और जयपाल सिंह मुंडा।पलाश विश्वास

 ओलंपिक सोना और जयपाल सिंह मुंडा

पलाश विश्वास

जयपाल सिंह मुंडा 1928 men ओलंपिक का पहला स्वर्ण जीतने वाली भारतीय टीम के कप्तान थे। वे ics भी थे और संविधान सभा के एकमात्र मुखर आदिवासी सदस्य भी।


उनके बहुआयामी व्यक्तित्व का अभीतक सही मूल्यांकन नहीं हुआ।जसिंता,यह काम भी हमें ही करना है।कोई दूसरा हमारा मूल्यांकन कभी नहीं करेगा।हमें उनके मूल्यांकन का मोहताज भी नहीं होना चाहिए।


निजी तौर पर जाति वर्ण नस्ल वर्चस्व के मातबरों से में जीवन के किसी भी क्षेत्र में न्याय की उम्मीद नहीं करता।


छल प्रपंच और दमन से बहुसंख्यक आबादी के प्रतिनिधत्व और अवसर खत्म करने वालों के कारण ही हम 138 करोड़ भारतवासी आजादी के सत्तर साल बाद किसी एक अदद स्वर्णपदक का जश्न मनाकर करोड़ो प्रतिभाओं के साथ हुए अन्याय को सिरे से नज़रंदाज़ करते हैं।


हमारे बच्चे भूख और कुपोषण के शिकार होते हैं।

हमारे बच्चे बिना चिकित्सा के बेमौत मारे जाते हैं।

घर की जिम्मेदारी संभालने के लिए स्कूल नही जा पाते।

जो स्कूल जाते भी हैं,उनके लिए समान शिक्षा और समान अवसर नहीं है।


बच्चों को न खेलने की आज़ादी है और न उन्हें खेलने का अवसर मिलता है।


फिरभी हम पदकों की गिनती करते हुए तिरंगा लहराते हैं। इस व्यवस्था को बदलने की नहीं सोचते।


70 साल तो क्या 700 साल भी हम इसीतरह वंचना के जख्म पर मलहम लगाते रहेंगे छिटपुट कामयाबी पर।



Friday, August 6, 2021

क्यों खतरे में है उत्तराखण्ड की अस्मिता? पलाश विश्वास

 हल्द्वानी सम्वाद के संदर्भ में

क्यों खतरे में हैं उत्तराखण्ड की अस्मिता?


पलाश विश्वास


बैठक के लिए आप सभी को शुभकामनाएं। हम लोग प्रेरणा अंशु के छपने की प्रक्रिया में फंसे हुए हैं,इसलिए आ नहीं सके।कृपया अन्यथा ने ले।हमें कल तक पत्रिका छाप देनी है।


बेहद जरूरी मुद्दे पर आपने यह पहल की है,इसका स्वागत है।


पिछले 21 साल में हम लोग सिर्फ भावनाओं में फंसे हुए हैं और व्यवहारिक राजनीति से कोसों दूर है।




राजनीतिक मसलों को भी भावात्मक ढंग से सुलझा लेने की कोशिश में गहरे विभाजन और अलगाव के शिकार हैं,जबकि इस कठिन दौर में निरंकुश कारपोरेट फासीवादी सत्ता के लिए मेहनतकश आवाम को एकजुट करने की सबसे ज्यादा जरूरत है।


उत्तराखण्ड के बुनियादी मसलों , जल जमीन जंगल जलवायु और पर्यावरण के मुद्दों पर एकताबद्ध राजनीतिक लड़ाई की जगह अस्मिता की राजनीति को पहाड़ी गैर पहाड़ी मुद्दे तक सीमित कर दिया गया है।


 जबकि अस्मिता का मतलब भाषा,संस्कृति और पहचान को बनाये रखते हुए प्राकृतिक संसाधनों पर स्थानीय जनता की हिस्सेदारी सुनिश्चित करना है।


बार बार भूमि माफिया की सरकारें बनाकर हम जनता को जल जंगल जमीन से बेदखल करने वाली ताकतों की जाने अनजाने मदद कर रहे हैं।


वैकल्पिक राजनीति चुनाव से पहले विशुद्ध चुनावी समीकरण बनाने के खेल से आगे नहीं बढ़ता। 


बाकी चार साल हम अपनी अपनी खिचड़ी अलग पकाते हुए सत्ता से ज्यादा से ज्यादा अपना हिस्सा बटोरने की कोशिश करते हैं। 


न्यूनतम कार्यक्रम के साथ जनता के बीच लगातार काम किये बिना हम कौन सी राजनीति कर रहे हैं?


हम मानते हैं कि उत्तराखण्ड में बदलाव की राजनीति में पहाड़ का जितना मजत्व है,उससे कम महत्व तराई और भाबर का नहीं है।


पहाड़ और तराई भाबर को अलग करने वाली किसी भी राजनीति के हम खिलाफ हैं और ऐसे किसी भी राजनीतिक बिमर्ष में हम शामिल नहीं हो सकते।


हम नही आ सके, अगर जरूरी लगा तो मित्रों तक हमारी बात जरूर पहुंचा दें।


सन्दर्भ-

 Prabhat Dhyani: *संगोष्ठी/ आमंत्रण* 

            *ख़तरे में है उत्तराखंडी अस्मिता?*

प्रिय साथी/ महोदय, 

उत्तराखंड के प्राकृतिक संसाधनों,  ज़मीनों की निर्मम लूट, राज्य की अवधारणा एवं अस्मिता से हो रहे खिलवाड़ से आज राज्य का नागरिक समाज चिंतित व आक्रोशित है। 

जिस आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक एवं सांस्कृतिक अस्मिता के लिए राज्य आंदोलन लड़ा गया था उसके सभी मोर्चों पर हम कमज़ोर हुए हैं। 

सरकार के विकास के दावों के बावजूद उत्तराखंड  विस्थापन, बेरोज़गारी,  शिक्षा, स्वास्थ्य की बदहाली से जूझ रहा है। 

जनता के इस आक्रोश से बचने के लिए राजनीतिक दल लूटखसोट की नीतियां बदलने के बदले चुनाव से पहले मुख्यमंत्रियों का चेहरा बदलने से इस आक्रोश को भटकाने का प्रयास कर रहे हैं। 

इन महत्वपूर्ण सवालों पर गहन विचार हेतु उत्तराखंड परिवर्तन पार्टी एवम राजनैतिक,सामाजिक संगठनों से जुड़े प्रतिनिधियों द्वारा  7 अगस्त 2021 शनिवार को प्रातः 11 बजे से *ट्रिपल जे बिल्डिंग सभागार, छोटी मुखानी, निकट एसबीआई बैंक हल्द्वानी* में एक संगोष्ठी आयोजित होने जा रही है ।जिसमें हल्द्वानी के अलावा अन्य क्षेत्रों से भी सक्रिय सामाजिक, राजनीतिक कार्यकर्ता भागीदारी करेंगे। 

स्थान:ट्रिपल जे बिल्डिंग सभागार, 

छोटी मुखानी, 

निकट SBI हल्द्वानी ।

दिनांक 7 अगस्त 2021 शनिवार ,प्रातः 11 बजे से।

निवेदक-उत्तराखंड परिवर्तन पार्टी एवम राजनैतिक,सामाजिक संगठनों के प्रतिनिधिगण।

सम्पर्क -पी सी तिवारी केंद्रीय अध्यक्ष  उत्तराखंड परिवर्तन पार्टी 9412092159

प्रभात ध्यानी 9837758770, 9368555136

अमीनुर्रहमान राज्य आंदोलनकारी  72488 44902

तरुण जोशी सामजिक कार्यकर्ता    919412438714

भोपाल सिंह धपोला +91 70558 78080

विनोद जोशी

9837390155

[07/08, 11:33 am] Palash Biswas: पलाश विश्वास

Thursday, August 5, 2021

संविधान में समता और न्याय का लक्ष्य सबसे बड़ा ढोंग और ओलंपिक पदक? पलाश विश्वास

 ओलंपिक तमगे पर जश्न मनाए या घृणा और नफरत की संस्कृति पर शोक?

पलाश विश्वास


इससे बड़ी शर्मिंदगी क्या होगी? कदम कदम पर इस तरह का बर्ताव होता है अछूतों के साथ। उनमें सभी वन्दना कटारिया नहीं होते और न उनका कोई नोटिस लेता है। इससे पहले जैसे वन्दना का भी नोटिस नहीं लिया गया।जाति जब तक रहेगी,अस्पृश्यता तब तक रहेगी।इसी गंदगी में जीते हुए हम सफेदपोश बने रहेंगे।


इसी भेदभाव की वजह से ओलंपिक में एक सोने के लिए तरसते 138 करोड़ करोड़ लोग दो चार चांदी कांसे के तमगों को लेकर जश्न मनाते हैं। 


मनुष्यता ही नहीं बची हो तो दस बीस पचास सोने से भी क्या आता जाता है?


समान अवसर से हर क्षेत्र में जब देश की बहुसंख्य आबादी वंचित है। ज्यादातर बच्चे कुपोषण के शिकार हैं। न चिकित्सा है और न शिक्षा,न भोजन। 


बचपन भट्टियों में भूनकर खा जस्ते हैं हम। बच्चों के लिए न खेल के मैदान हैं और न खेलने की आज़ादी।


हम ओलंपिक के चांदी और कांसे पर जश्न मनाए या इस घृणा,हिंसा और दमन पर,जाति के अभिशाप पर शोक मनाएं?


संविधान में समता और न्याय का लक्ष्य इस गणतंत्र का सबसे बड़ा पाखंड है।




Wednesday, August 4, 2021

नोबेल के लिए कोलकाता जाना जरूरी,वीरेन द ने कहा था

 आज वीरेनदा की जन्मतिथि है। वक्त कितनी तेजी से बदला है। अभी तो साथ काम कर रहे थे। बातें हो रही थीं। इतना वक्त निकल गया। सबकुछ याद भी नहीं है।


उनकी स्मृति को नमन। वे नहीं होते तो कोलकाता कभी नहीं जाते। कहते थे,जब चाहोगे लौट आओगे।जाना जरूरी है। 


कहते थे कि कोलकाता बड़ा बसंतीपुर है। ठीक से देख लो वरना नोबेल पुरस्कार मिस हो जाएगा।


 यह नोबेल पाने का उनका नुस्खा था।


 हमें कोई पुरस्कार कभी नहीं चाहिए था। लेकिन उनकी तरह छोटीनसे छोटी चीज देखने की भरसक कोशिश की है। लेकिन उनकी तरह लिख नहीं सका।लिख भी नहीं सकते।अपनी तरह लिख पाया।


वीरेनदा के साथ तस्वीरें भी थीं ।सहेज कर नहीं रख सके।


वीरेनदा के रहते हुए कोलकाता नहीं छोड़ सका।उन्हें अब कभी पता नहीं होगा कि फिर में वह हूं, जहां से चला था। बसंतीपुर। 


हमारी नई टीम के बारे में भी उन्हें न बता सका और न प्रेरणा अंशु में उनकी ताज़ा कविता लगा सका।


आज तुमसे फिर बात करने की जरूरत है वीरेनदा!

काश! तुम जवाब दे पाते। उसी तरह खुलकर हंसते।


प्रेरणा अंशु परिवार की ओर से विनम्र श्रद्धांजलि।


हक हकूक की जानकारी सबसे जरूरी।पलाश विश्वास

 नगालैंड,मिजोरम,अरुणाचल मेघालय और हिमाचल के बाद प्राकृतिक संसाधनों से समृद्ध तीन और छोटे राज्य बने उत्तराखण्ड,झारखण्ड और छत्तीसगढ़।एक साथ।जनाकांक्षा,आंदोलन,जल जंगल और पर्यवर्क कि लड़ाई और अस्मिता के सवाल पर ये राज्य बने। जो अब भृष्टाचार,रिश्वत कमीशनखोरी और लोटखसोत के सबसे बड़े केंद्र बन गए है।जहां सरकार किसी की भी बने,जनल जल जंगल जमीन,जलवायु और पर्यावरण न्याय,समता और सामाजिक न्याय,कानून के राज और मानवाधिकार से वंचित है। यहां सत्ता भूमि माफिया,कारपोरेट दलालों और जनविरोधी तत्वों की बनती है जो भावनाओं की हिंसा और घृणा की राजनीति पर टिकी है।


 जहां ज्वलन्त मुद्दों पर कोई चर्चा नहीं होती और तंत्र के स्तम्भ बन गए हैं आंदोलनकारी जो अब आंदोल


न को कैश करने में लगे हैं।निरन्तर जड़ों में सामाजिक, सांस्कृतिक सक्रियता से ही इन तीनों राज्यों और बाकी देश में वैकल्पिक जन राजनीति ,अर्थव्यवस्था,पर्यावरण और जलवायु का निर्माण हो सकता है।


इसके लिए जनता को हक़ हकूक की जानकारी और कानून की समझ होनी चाहिए। इसके लिए युवा वकीलों की जनप्रतिबद्ध भूमिका समय की मांग है।


जलवायु न्याय पर इस सम्वाद के आयोजन और हमें भी शामिल करने के लिए इन्ही युवा अधिवक्ताओं का आभार।सम्वाद से ही नया रास्ता बनेगा। हम पीड़ितों के सवाल लेकर आपके दरवाजा जरूर खटखटाएंगे।आपको अपना पक्ष तय करना होगा।


आंदोलन प्रोजेक्ट तक सीमित न रहे।

Tuesday, August 3, 2021

हॉकी और नैनीताल, डीएसबी और हम। पलाश विश्वास

 नैनीताल में ट्रेडर्स कप हॉकी में देश की चुनिंदा टीमें भाग लेती थीं।इस प्रतियोगिता में डीएसबी की टीम का प्रदर्शन हमारे लिए गर्व का विषय रहा है।सैय्यद अली तो हमारे सामने ही ओलंपिक खिलाड़ी बने।तब नैनिताल हाकी का गढ़ था।रेडियो पर हम लोग हर मैच की कमेंट्री सुनने के लिए चाय और पैन की दुकानों पर भीड़ लगते थे।


उन दिनों नीताल में मूसलाधार बारिश भी हुआ करती थी। मैदान में छाता लेकर बैठना जरूरी था।अपनी डीएसबी या किसी पसंदीदा टीम की जीत की खुशी में हमने न जाने कितने छाते खोए। शायद उतने ही जितने मिड लेक लाइब्रेरी में कैटलॉग ढूंढकर जरूरी किताब पा लेने की खुशी में जितने छाते खोए,उतने ही। अफसोस, नैनिताल की चमक दमक बढ़ने के बावजूद खेलने और पढ़ने की संस्कृति गायब हो गयी।


तब हम क्रिकेट के दीवाने नहीं थे।यह सत्तर के दशक की बात है।इससे पहले की समृतियाँ तो और भी सुनहली है। हमारा हथियार तब हॉकी स्टिक हुआ करता था।हम लोग दांत और सत्तर के दशक में कबड्डी के अलावा सिर्फ हॉकी खेलते थे। और अब?


शायद ओलंपिक में फिर हॉकी के मैदान पर हमारी टीमों के तिरंगा फहराने से धूमिल हो गयी समृतियाँ कि चमक लौटे?


क्या नशा,सट्टा, सत्ता और पब्जी को मात देकर क्रिकेट के बाजार को शिकस्त देकर हॉकी फिर राष्ट्रीय खेल बनेगा? उसमें नैनिताल की गौरवशाली भूमिका होगी?


याद दिलाने के लिए राजीव दाज्यू का आभार।


कल अल्मोड़ा से बसंतीपुर लौटने में रात हो गयी। दिन में जब कार्यक्रम चल रहा थ तो पवन राकेश का फोन आया।मेरे साथ खड़ी थी हाईकोर्ट की वकील  हमारे परममित्र पीसी तिवारी की बेटी स्निग्धा,जो मानवाधिकार कार्यकर्ता और अल्मोड़ा सम्वाद के आयोजकों में खास है।


राकेश बेहद भावुक हो गया था।बोला,अल्मोड़ा से घर लौटते वक्त नैनिताल होकर जाना। हमने कहा,नैनिताल पहुंचते पहुंचते रात हो जाएगी।कोई नहीं मिलेगा।हमें रात को ही घर लौटना है। प्रेरणा अंशु की तैयारी बीच में छोड़कर आये हैं। कल ही रूपेश को प्रेस जाना है।


हमने कहा,नैनिताल अलग से आएंगे। स्निग्धा से भी राकेश की बात हुई।वह राकेश से मिलती रहती है।


स्निग्धा से कहा,नैनिताल के युवा छात्रों से बात हो सकती है? डीएसबी का माहौल सम्वाद का है?


स्निग्धा जवाब नहीं दे सकी।


क्या सत्तर के दशक में देशभर से आनेवाले लेखकों,कवियों,पत्रकारों,रंगकर्मियों,फ़िल्मी कलाकारों के सामने ऐसी संवादहीनता का संकट था? 


क्या हम डीएसबी के छात्र तब देश दुनिया से कटे हुए थे या सिर्फ कैरियर की चिंता करते थे?


घर लौटकर अल्मोड़ा में 3 कार्यक्रमों में गए। हरिद्वार और बागेश्री भी हो आये। हल्द्वानी आना जाना लगा रहता है। हल्द्वानी और भुवाली के बेहद जंफिक नैनिताल हमारे लिए इतना दूर क्यों हो गया है।


ठीक है कि गिर्दा नहीं हैं। ठीक है कि शेखर पाठक, उमा भट्ट और बटरोही अक्सर नैनीताल में नहीं मिलते।ठीक है कि सखा दाज्यू सख्त बीमात हैं और राजीव लोचन साह बीमार हैं तो ज़हूर और इदरीश लगभग अकेले हैं।


एक डीएसबी का माहौल बदल जाने से कितना अजनबी हो गया अपना नैनीताल! कितना पराया! कितना बेरौनक! कितना बेनूर। हिमपात भी नहीं बुलाता।


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