Tuesday, August 3, 2021

हॉकी और नैनीताल, डीएसबी और हम। पलाश विश्वास

 नैनीताल में ट्रेडर्स कप हॉकी में देश की चुनिंदा टीमें भाग लेती थीं।इस प्रतियोगिता में डीएसबी की टीम का प्रदर्शन हमारे लिए गर्व का विषय रहा है।सैय्यद अली तो हमारे सामने ही ओलंपिक खिलाड़ी बने।तब नैनिताल हाकी का गढ़ था।रेडियो पर हम लोग हर मैच की कमेंट्री सुनने के लिए चाय और पैन की दुकानों पर भीड़ लगते थे।


उन दिनों नीताल में मूसलाधार बारिश भी हुआ करती थी। मैदान में छाता लेकर बैठना जरूरी था।अपनी डीएसबी या किसी पसंदीदा टीम की जीत की खुशी में हमने न जाने कितने छाते खोए। शायद उतने ही जितने मिड लेक लाइब्रेरी में कैटलॉग ढूंढकर जरूरी किताब पा लेने की खुशी में जितने छाते खोए,उतने ही। अफसोस, नैनिताल की चमक दमक बढ़ने के बावजूद खेलने और पढ़ने की संस्कृति गायब हो गयी।


तब हम क्रिकेट के दीवाने नहीं थे।यह सत्तर के दशक की बात है।इससे पहले की समृतियाँ तो और भी सुनहली है। हमारा हथियार तब हॉकी स्टिक हुआ करता था।हम लोग दांत और सत्तर के दशक में कबड्डी के अलावा सिर्फ हॉकी खेलते थे। और अब?


शायद ओलंपिक में फिर हॉकी के मैदान पर हमारी टीमों के तिरंगा फहराने से धूमिल हो गयी समृतियाँ कि चमक लौटे?


क्या नशा,सट्टा, सत्ता और पब्जी को मात देकर क्रिकेट के बाजार को शिकस्त देकर हॉकी फिर राष्ट्रीय खेल बनेगा? उसमें नैनिताल की गौरवशाली भूमिका होगी?


याद दिलाने के लिए राजीव दाज्यू का आभार।


कल अल्मोड़ा से बसंतीपुर लौटने में रात हो गयी। दिन में जब कार्यक्रम चल रहा थ तो पवन राकेश का फोन आया।मेरे साथ खड़ी थी हाईकोर्ट की वकील  हमारे परममित्र पीसी तिवारी की बेटी स्निग्धा,जो मानवाधिकार कार्यकर्ता और अल्मोड़ा सम्वाद के आयोजकों में खास है।


राकेश बेहद भावुक हो गया था।बोला,अल्मोड़ा से घर लौटते वक्त नैनिताल होकर जाना। हमने कहा,नैनिताल पहुंचते पहुंचते रात हो जाएगी।कोई नहीं मिलेगा।हमें रात को ही घर लौटना है। प्रेरणा अंशु की तैयारी बीच में छोड़कर आये हैं। कल ही रूपेश को प्रेस जाना है।


हमने कहा,नैनिताल अलग से आएंगे। स्निग्धा से भी राकेश की बात हुई।वह राकेश से मिलती रहती है।


स्निग्धा से कहा,नैनिताल के युवा छात्रों से बात हो सकती है? डीएसबी का माहौल सम्वाद का है?


स्निग्धा जवाब नहीं दे सकी।


क्या सत्तर के दशक में देशभर से आनेवाले लेखकों,कवियों,पत्रकारों,रंगकर्मियों,फ़िल्मी कलाकारों के सामने ऐसी संवादहीनता का संकट था? 


क्या हम डीएसबी के छात्र तब देश दुनिया से कटे हुए थे या सिर्फ कैरियर की चिंता करते थे?


घर लौटकर अल्मोड़ा में 3 कार्यक्रमों में गए। हरिद्वार और बागेश्री भी हो आये। हल्द्वानी आना जाना लगा रहता है। हल्द्वानी और भुवाली के बेहद जंफिक नैनिताल हमारे लिए इतना दूर क्यों हो गया है।


ठीक है कि गिर्दा नहीं हैं। ठीक है कि शेखर पाठक, उमा भट्ट और बटरोही अक्सर नैनीताल में नहीं मिलते।ठीक है कि सखा दाज्यू सख्त बीमात हैं और राजीव लोचन साह बीमार हैं तो ज़हूर और इदरीश लगभग अकेले हैं।


एक डीएसबी का माहौल बदल जाने से कितना अजनबी हो गया अपना नैनीताल! कितना पराया! कितना बेरौनक! कितना बेनूर। हिमपात भी नहीं बुलाता।


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