ओलंपिक तमगे पर जश्न मनाए या घृणा और नफरत की संस्कृति पर शोक?
पलाश विश्वास
इससे बड़ी शर्मिंदगी क्या होगी? कदम कदम पर इस तरह का बर्ताव होता है अछूतों के साथ। उनमें सभी वन्दना कटारिया नहीं होते और न उनका कोई नोटिस लेता है। इससे पहले जैसे वन्दना का भी नोटिस नहीं लिया गया।जाति जब तक रहेगी,अस्पृश्यता तब तक रहेगी।इसी गंदगी में जीते हुए हम सफेदपोश बने रहेंगे।
इसी भेदभाव की वजह से ओलंपिक में एक सोने के लिए तरसते 138 करोड़ करोड़ लोग दो चार चांदी कांसे के तमगों को लेकर जश्न मनाते हैं।
मनुष्यता ही नहीं बची हो तो दस बीस पचास सोने से भी क्या आता जाता है?
समान अवसर से हर क्षेत्र में जब देश की बहुसंख्य आबादी वंचित है। ज्यादातर बच्चे कुपोषण के शिकार हैं। न चिकित्सा है और न शिक्षा,न भोजन।
बचपन भट्टियों में भूनकर खा जस्ते हैं हम। बच्चों के लिए न खेल के मैदान हैं और न खेलने की आज़ादी।
हम ओलंपिक के चांदी और कांसे पर जश्न मनाए या इस घृणा,हिंसा और दमन पर,जाति के अभिशाप पर शोक मनाएं?
संविधान में समता और न्याय का लक्ष्य इस गणतंत्र का सबसे बड़ा पाखंड है।
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