आज फिर कोलकाता से गुरुजी जयनारायण का फोन आया। कोलकाता जनसत्ता में सिर्फ मार्केटिंग विभाग है। दो इंजीनियर हैं। बिल्डिंग है,सम्पादकीय नहीं है।प्रेस लखनऊ चला गया।दिल्ली से पीडीएफ आता है।
कोलकाता महानगर ने हिंदी,बांग्ला,ओड़िया, उर्दू, गुरमुखी और उर्दू,किसी भी भाषा के अखबार में किसी की स्थायी नौकरी नहीं है।सभी पत्रकार संविदा पर है।
योग्य,प्रशिक्षित और पढ़े लिखे पत्रकारों में कोलकाता में दिहाड़ी मजदूरी तो क्या बीस रुपये का भी काम नहीं है।
जिंदगीभर किसी और पेशा या नौकरी की कोशिश न करके 5 दशक पत्रकारिता को मिशन मानकर सबकुछ दांव पर लगाकर सबकुछ हारने के बावजूद अपने फैसले पर कभी अफसोस नहीं रहा।
मीडिया में बचे हुए साथियों की इस दुर्गति और आदरणीय प्रभाष जोशी के अखबार जनसत्ता की इस दशा पर बहुत दुखी हूं।
ओम थानवी ने हमारी कभी सुनी नहीं। लेकिन उनके जमाने में भी यह हाल नहीं हुआ।
जाति, वर्ण और नस्ल देखकर सम्पादक चुनने की परंपरा ने जनसत्ता जैसी संस्था, नई दुनिया जैसे अखबार और पूरी हिंदी पत्रकारिता का बेड़ा गर्क कर दिया।
कोलकाता में जिस तरीके से मुझे मेरी औकात में रखने की तिकड़में भिड़ाई गई और हार न मानते हुए प्रभाष जी से और बाकी सम्पादकों और मैनेजरों से लड़ते भिड़ते हुए हम जनपक्षधर पत्रकारिता का विकल्प बनाने की कोशिश करते रहे, उसकी कथा कम रोमांचक और कम दुःखद नहीं है। हमने कभी किसीको बख्शा भी नहीं है।
इंडिया इंटरनेशनल सेंटर दिल्ली हो या हंस का पन्ना या कोलकाता,हम पिछले बीस साल से हिंदी समाज से अपनी गौरवशाली विरासत सहेजने की अपील करते रहे हैं। बांग्ला समाज से तो हम बहिस्कृत थे ही। वहां का कूलित वर्चस्व तो निरंकुश है ही।
बदलाव की उम्मीद तो फिर भी गाय पट्टी से ही थी क्योंकि यहां सामाजिक ताकतें और लोक अभी ज़िंदा है।बस,यही पूंजी है,जिसके भरोसे न सिर्फ ज़िंदा हूँ, हाशिये पर होबे के बावजूद सक्रिया हूँ।
पत्रकारिता के मिशन और साहित्य का क्या हुआ,कहने की जरूरत नहीं है,लेकिन हमारा मिशन जारी है
No comments:
Post a Comment