Sunday, August 15, 2021

आदिवासी भूगोल में 1757 से ही अंग्रेज़ी हुकूमत के खिलाफ लड़ाई शुरू हो गयी थी,पलाशी युद्ध के ठीक बाद से।पलाश विश्वास

 आदिवासियों का इतिहास हमारा इतिहास है

पलाश विश्वास




1957 में पलाशी के युद्ध में लार्ड क्लाइव की जीत के अगले ही दिन से मेदिनीपुर के जंगल महल से आदिवासियों ने ईस्ट इंडिया के लहिलाफ़ जल जंगल जमीन के हक हकूक और आज़ादी की लड़ाई शुरू कर दी।


मेदिनीपुर में एक के बाद एक तीन0 अंग्रेज़ कलेक्टरों की आदिवासियों ने हत्या कर दी। इसे बंगाल और। छोटा नागपुर में भूमिज विद्रोह कहा जाता है। 


जल जंगल जमीन की लड़ाई में शामिल जनजातियों को अंग्रेजों ने स्वभाव से अपराधी जनजाति घोषित कर दिया। 


बंगाल, झारखण्ड, ओडिशा, मध्य प्रदेश,छत्तीसगढ़ में तब आदिवासी ही जंगल के राजा हुए करते थे। जहां आदिवासियों का अपना कानून चलता था।जिसके तहत धरती पर जो भी कुछ है,वह आदिवासी समाज का है।किसी की निजी या किसी हुकूमत की जायदाद नहीं।


 अंग्रेज़ी हुकूमत आफ़ीवासियों से जल जंगल जमीन छीनना चाहती थी।उनकी आजादी और उनकी सत्ता छीनना चाहती थी। 


समूचे आदिवासी भूगोल में इसके खिलाफ 1757 से ही विद्रोह शुरू हो गया।


अंग्रेज़ी सरकार आदिवासियों को अपराधी साबित करने पर तुली हुई थी, इसलिए इसे चोर चूहाड़ की तर्ज पर चुआड़ विद्रोह कहा गया और हम भद्र भारतीय भी इसे चुआड़ विद्रोह कहते रहे। 


जल जंगल जमीन की इस लड़ाई को आदिवासी भूमिज विद्रोह कहते हैं,जो सही है। 


इसी सिलसिले को आगे बढ़ाते हुए बिहार बंगाल में बाउल फकीर विडतोह हुए,जिसमे आदिवासियों की बड़ी भूमिका थी। लेकिन इसे सन्यासी विद्रोह कहा गया।


 तमाम किसान विद्रोह की अगुआई नील विद्रोह से अब तक आदिवासी ही करते रहे। शहीद होते रहे लेकिन हमलावर सत्ता के सामने कभी आत्म समर्पण नहीं किया।


 संथाल विद्रोह, मुंडा विद्रोह ,भील विद्रोह से पहले चुआड़ विद्रोह, बाउल विद्रोह और नील विद्रोह तक के समय पढ़े लिखे भद्र जन अंग्रेजों के साथ और आदिवासियों के खिलाफ थे।


संथाल विद्रोह, मुंडा विद्रोह,भील विद्रोह,गोंदवाना विद्रोह से लेकर आज तक जल जंगल जमीन की लड़ाई में किसिन विद्रोह की अगुआई आदिवासी करते रहे हैं शहादतें देते रहे हैं। जबकि गैर आदिवसी पढ़े लिखे लोग जमींदारी के पतन होने तक बीसवीं सदी की शुरुआत तक अंग्रेज़ी हुकूमत का साथ देते रहे हैं।


मुंडा, संथाल और भील विद्रोह की चर्चा होती रही है। लेकिन चुआड़ विद्रोह,बाउल फकीर सन्यासी विद्रोह और नील विद्रोह में आफ़ीवासियों की आज़ादी की लड़ाई हमारे इतिहास में दर्ज नहीं है।


यह काम हमारा है।


प्रेरणा अंशु के सितम्बर अंक से आदिवासियों पर हमारा फोकस जारी रहेगा। किसिन आंदोलनों में आदिवादियों की नेतृत्वकारी भूमिका और चुआड़, संथाल,तुतिमीर, भील,गोंडवाना विद्रोह से लेकर बाउल फ़कीर सन्यासी नील विद्रोह और 1857 की क्रांति के बारे में प्रामाणिक लेख आमंत्रित है।


आदिवासियों का इतिहास हमारा इतिहास है।

Mail-prernaanshu@gmail.com

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