मेरे जीने से ज्यादा जरूरी है पुलिनबाबू का ज़िंदा रखना,उनके मिशन को जारी रखना
पलाश विश्वास
2001 के 12 जून को पिताजी पुलिनबाबू के अवसान के बाद में उनकी अधूरी ज़िन्दगी जी रहा हूँ। उस दिन से उनके अधूरे मिशन को अंजाम तक पहुंचाना ही मेरे जीवन का लक्ष्य है।
पिताजी जानते थे कि कक्षा दो की पढ़ाई के दम पर वे भले राष्ट्रपति,प्रधानमंत्री,मुख्यमंत्री,केबिनेट सचिव,मुख्य सचिव,कमिश्नर,डीएम से बात कर लें लेकिन सत्ता वर्ग से टकराने के लिए जो शैक्षणिक पृष्ठभूमि की जरूरत है,वह उनके पास नहीं है।
यही से शुरू होता है मेरे डीएसबी का सफर,जो अभो खत्म नही हुआ।1979 में एमए पास करने के 42 साल बाद भी।
मुझे पढ़ाने का उनका मकसद अकूत सम्पत्ति जमा करने के लिए समाज के शिखर पर जाकर बैठना नहीं था।
वे चाहते थे कि उच्च शिक्षा को हथियार बनाकर मैँ, उनका बेटा उनकी दुनिया के लोगों की लड़ाई को अंजाम तक ले जाऊं।
इसकी तैयारी में उन्होंने कोई कमी नहीं छोड़ी। अक्षर पहचानते ही देश के कोने कोने से जहां भी वे पीड़ितों,दलितों,अल्पसंख्यकों,शरणार्थियों,विस्थापितों, किसानों,मजदूरों की लड़ाई में शामिल लोगों के साथ खड़े होते थे ,सत्ता से उनके हक हकूक के तमाम दस्तावेज मुझसे तैयार करवाते थे।
रोज़ बंगला,अंग्रेज़ी और हिंदी के अखबारों के संपादकीय और इसके साथ दुनियाभर के क्लासिक साहित्य पढ़वाते थे।सिर्फ मेरे लिए साहित्य खरीदने के लिए हर साल कोलकाता के कॉलेज स्ट्रीट जा पहुंचते थे।मेरे लिए कोलकाता से दैनिक वसुमती और साप्ताहिक देश पत्रिका मंगवाते थे डाक से।
यही नहीं, जहां कहीं वे जाते थे ,चाहे प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री या राष्ट्रपति से मुलाकात का मौका हो या गांव में पंचायत का मामला हो,हर कहीं मुझे लेकर चलते थे।
तराई का कोई बुक्सा,बंगाली,सिख,रायसिख,पहाड़ी, देशी,पुरबिया या मुस्लिम गांव हो,जहां भी,जिस घर में भी जाते स्कूल में दाखिले से पहले से वे मुझे लेकर जाते थे। मैन हर गांव के हर घर का कहना खाया है और उन सभीकी बेपनाह मुहब्बत मेरी ज़िंदगी की पूंजी है।उपलब्धि भी।
तब गांवों के झगड़े फसाद पंचायत में निबटाये जाते थे।
पुलिस और अदालत के चक्कर काटने के बजाय तराई के किसान पंचायत से ही न्याय की उम्मीद करते थे। ऐसी पंचायत लम्बी चलती थी।
पिताजी मामले का निपटारा न होने तक पंचायत से उठते न थे। चाहे तीन दिन लगे या सात दिन।ऐसी तमाम पंचायतों में मुझे वे साथ लेकर चलते थे।
कहते थे,ये मेरे अपने लोग हैं।जिनके काम में दूसरों के लिए ताल नहीं सकता।इनकी लड़ाई मुझे ही लड़नी है। मुझमें योग्यता न हो तो यह काम न करने का बहाना नहीं हो सकता।मुझे अपने लोगों से मुहब्बत है तो हर काबिलियत,हुनर मुझे हासिल करनी ही होगी।
वे बंगला,अंग्रेजी, हिंदी,असमिया,उड़िया और मराठी तो पढ़ लेते थे। बस,ट्रैन या घर,जमीन कहीं भी होते,अपने झोले से किताब,पत्रिका या अखबार निकालकर पढ़ते रहते। हम झाने भी रहे,वे अक्सर पहुंच जाते थे। रुकते नहीं थे।
कहीं से कहीं निकल जाते थे।बिना पासपोर्ट वीसा के बांग्लादेश भी।किताबों,पत्रिकाओं और अखबारों के साथ।बिना रुपये पैसे के।कहते थे,सड़क पर उतर जाओ तो न रुपये पैसे की जरूरत होती है और न खाने पीने रहने की कोई दिक्कत।
सड़क पर उतरने का कलेजा होना चाहिए। उनके पास यह कलेजा था।मेरे पास नहीं है।
नतीजा यह हुआ कि प्राइमरी पास करते न करते देश भर की समस्याओं की जानकारी मुझे हो गयी। तराई के घर घर में मेरा आना जाना शुरू हो गया।
यह 1963 की बात थी। 1958 के ढिमरी ब्लॉक किसान विद्रोह के सिलसिले में उनके और उनके तमाम कम्युनिस्ट साथियों के खिलाफ मुकदमे चल रहे थे।
नैनीताल डिस्ट्रिक्ट कोर्ट में सुनवाई थी। पिताजी मुझे अपने साथ ले गए। उनके साथी और आन्दोलन के नेता हरीश dhaundhiyaal वकील थे। तल्लीताल में उनका एक घर था। वहीं ठहरे।
नैनीताल को पहलीबार देखते ही मुझे उससे बेपनाह मुहब्बत हो गई।
कचहरी में सुनवाई के बाद पिताजी मुझे सीधे राजभवन के रास्ते डीएसबी कालेज ले गये।कालेज को अंदर से दिखाया और कहा कि इसी कालेज में तुम्हे पढ़ना है। मैंने भी उसी क्षण तय कर लिया कि यहां जरूर पढ़ना है।
दिनेशपुर में जिला परिषद का स्कूल था। हाईस्कूल में मेरे पास विज्ञान जीव विज्ञान थे। तब हाई स्कूल यूपी बोर्ड में कला,विज्ञान और वाणिज्य के संकाय अलग अलग हुए करते थे। स्कूल में सभी विषयों के टीचर नहीं होते थे।
इलाके में पढ़े लिखे लोग न थे। गांव में मैंने ही पहलीबार हाईस्कूल पास की तो ट्यूशन कोचिंग का सवाल ही न था।ऊपर से खेती के काम को प्राथमिकता थी।
1968 में पीलीभीत के गोबियासराय से आये संतोष दास इस स्कूल से पहले फर्स्ट क्लास हुए।इसके पास साल बाद 1973 में दिनेशपुर इलाके का पहला छात्र था में,जिसे हाई स्कूल में प्रथम श्रेणी मिली। इसीके साथ पूरी तराई की जनता की उम्मीदें मुझमें केंद्रित हो गई,लेकिन मैं उनके लिए अभीतक कुछ नहीं कर सका।
स्वतंत्रता सेनानी बसन्त बनर्जी पिताजी के मित्र थे और उनके पुस्तकालय की सारी किताबें मेरी थी। शहीद मनींद्र नाथ बनर्जी के भाई थे वे और उनका पुश्तैनी घर बनारस में था। वे चाहते थे कि मैं उनके घर रहकर इंटर बनारस से करूँ और काशी विश्वविद्यालय का छात्र बन जाऊं।
मैंने सिरे से मना कर दिया। सीधे जीआईसी पहुंचकर डीएसबी कैम्पस में पहुंच गया।
मेरे पेशे के तौर पर पत्रकार बनने से और बाद में इंडियन एक्सप्रेस समूह से कोलकाता के पत्रकार बनने से पिताजी को बहुत उम्मीद थी कि उनके लोगों की लडाई में में आगे रहूंगा। लेकिन उनके निधन से पहले ऐसा कुछ नहीं हो सका।
मैं साहित्यकार होने की खुशफहमी में जी रहा था।
उनके निधन के बाद देशभर में जिनके लिए वे कैंसर से जूझते हुए आखिरी सांस तक लड़ते रहे,वे तमाम लोग अपने अपने संकट में मुझे पुकारते रहे।
मेरे लिए साहित्य और पत्रकारिता की महत्वाकांक्षा का त्याग करके विशुद्ध सामाजिक कार्यकर्ता बनने के सिवाय कोई दूसरा चारा नहीं था।
तब से मुझे लगा कि भले मैं मर जाऊं, पुलिन बाबू को हर सूरत में जिंदा रखने की जरूरत है। उनके साथी और उनके समय के सभी लोगों को शिकायत रही है कि उनकी लड़ाई आगे बढाने में मेरी कोई भूमिका नहीं है।
2001 से इस शिकायत को दूर करने की तैयारी कर रहा हूँ। मेरे गुरुजी ताराचन्द्र त्रिपाठी भी कहा करते थे कि अपने लोगों के हक हकूक के लिए तुम्हें सत्ता से टकराना होगा। जीआईसी के बाद डीएसबी में भी वे हमारे पथ प्रदर्शक रहे हैं।
देरी से ही सही, आखिरकार पिताजी और गुरुजी के दिखाए रास्ते पर चल रहा हूँ और मेरे इस सफर की शरुआत फिर उसी डीएसबी कैम्पस से है।
No comments:
Post a Comment