Sunday, December 30, 2012

आने दो भूकंप को , किसे परवाह है​? लहूलुहान हिमालय की खबर किसे है?

आने दो भूकंप को , किसे परवाह है​? लहूलुहान हिमालय की खबर किसे है?
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​पलाश विश्वास

आने दो भूकंप को , किसे परवाह है​? लहूलुहान हिमालय की खबर किसे है?

भारत के लिए खतरे की घंटी बजाते हुए वैज्ञानिकों ने हिमालय क्षेत्र में आठ से लेकर 8.5 की तीव्रता तक के भूकंप के शक्तिशाली झटकों की चेतावनी दी है। वैज्ञानिकों ने ऐसे इलाकों के लिए खासकर चेताया है जहां अब तक भूकंप के शक्तिशाली झटके नहीं आए हैं।

आपातकाल का समय था, अचानक प्रेस सेंसरशिप को धता बताते हुए एक राष्ट्रीय दैनिक के मुखपन्ने पर नैनीझील में विनाशकारी पौधे होने की खबर छपी। दो साल तक सीजन में नैनीताल कै मनोहारी दृश्य देखने के लिए एक पंछी ने भी पर नहीं मारे। खबर लिखने वाले पत्रकोर को मीसा के तहत बंदी बना लिया गया,जिन्हं ापातकाल खत्म होने  के बाद ही रिहा किया गया। नैनीताल की भूगर्भीय संरचना पर वह पहली खबर थी  मगर बेहद सनसनीखेज। फिर नैनीताल समाचार और पहाड़ के जरिये हिमालय के पर्यावरण पर गंभीर विमर्श का सिलसिला चल पड़ा। इस बीच​
​ जनता सरकार सत्ता में आ गयी। नवंबर १९७९ में वनों की नीलामी के खिलाफ प्रदर्शन कर रहे  आंदोलनकारियों और छात्रों के बीच घुसे कुछ उपद्रवी तत्वों ने कालेज में अवकाश के बाद घर भाग रहे सीआरएसटी के जूनियर क्लासों के छात्रों पर पुलिस लाठीचार्ज और नीलामी स्थल की ोर बढ़ रहे छात्रों के जुलूस पर फायरिंग के खिलाफ नैनीताल क्लब को आग के हवाले कर दिया। इस सिलसिले में डीएसबी के छात्रसंघ अध्यक्ष समेत तमाम छात्र नेताओं की गिरफ्तारी के खिलाफ छात्र चिपको ाआंदोलन में सामिल हो गये और पहाड़ में पर्यावरण आंदोलन तेज हो गयाय़ जमीनी स्तर पर उत्तराखंड संघर्ष वाहिनी खूब काम कर रही थी। पर वनों की अंधाधुंध कटाई रुकी नहीं। सारा का सारा हिमालय चिपको आंदोलन की वैश्विक मान्यता के बावजूद नंगा हो गया और पूरा पहाड़ बिल्डर प्रोमोटटर भूमाफिया के हवाले हो गया।टिहरी बांध बन गया और गौरा पंत के शुरु किये गये महिलाओं के पेड़ों पर राखी बंधने से शुरु चिपको आंदोलन के तमाम सिपाहसालार रंग बिरंगे काम धंधों में लग गये। हिमालय की विकास के नाम पर दुर्गति देखनी हो तो सिक्किम के गांतोक जाकर देखें,कि पर्यावरण की ऐसी तैसी करते हुए कैसे तिस्ता नदी तक निर्माण हो रहा है अंधाधुंध।चेतावनियों के ​​बावजूद, हिमलय क्षेत्र के भूकंप के लिए अत्यंत संवेदनशील होने के बावजूद और पहाड़ों में भूकंप के इतिहास के बावजूद बड़े निर्माण से ​​पहाड़ का कायाकल्प होने लगा। गांतोक में जहां कहीं भी पैदल चलने की जरुरत नहीं है , वहीं नैनीताल में चप्पे चप्पे पर होटल है और आप मालरोट पर भी निश्चिंत टहल नहीं सकते।​​

​पृथक उत्तराखंड बनने से तो पहाड़ ऊर्जा प्रदेश बन गया। परियोजनाओं की धूम हो गयी। पर पहाड़ की सेहत उत्तरकाशी में आते रहे भूकंप के बावजूद किसी ने समझने की कोशिश नहीं की। पर्यावरण आंदोलन अब राजनीति में निष्णात है। वह विनाशकारी पौदा लेकिन तेजी से पनप रहा है, वैज्ञानिकों की ताजा चेतावनी से यह तो साबित हो ही गया। पर ज्यातर हिमालयी क्षेत्र में कश्मीर से लेकर पूर्वोत्तर तक जब  विशेष सैन्य अधिकार कानून लागू हो और दमन रोजनामचा हो, इरोम शर्मिला की सुनवाई उनके बारह साल के आमरण अनशन के बावजूद नहीं हो रही हो, तो पहाड़ के जीने​ ​ मरने से क्या लेना देना है किसी को। मुश्किल है कि हिमालय की सेहत से इस देश का वजूद भी जुड़ा है। भारत चीन विवाद के परिप्रेक्ष्य को चोड़कर बाकी देश और खासतौर पर सत्तावर्ग यह समझना ही नहीं चाहता। देश का जलवायु, बूगोल और अर्थ शास्त्र तक हिमालय के होने न होने पर​
​ निर्भर है। यह देश क्यों, यह पूरा उपमहाद्वीप जलसंसाधनों के लिए हिमालय पर निर्भर है। अभी तो जलयुद्ध के आसार ही बन रहे हैं, हिमालय अगर भूकंप में ध्वस्त हो गया तो इस उपमहाद्वीप में हरे भरे शष्य श्यामला मैदानों के बजाय रेगिस्तान ही नजर आयेंगे।

'नानयांग प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय' के नेतृत्व वाले एक अनुसंधान दल ने पाया है कि मध्य हिमालय क्षेत्रों में रिएक्टर पैमाने पर 8 से 8.5 तीव्रता का शक्तिशाली भूकंप आने का खतरा है।
शोधकर्ताओं ने एक बयान में कहा कि सतह टूटने संबंधी खोज का हिमालय पर्वतीय क्षेत्रों से जुड़े इलाकों पर गहरा असर है।

प्रमुख वैज्ञानिक पॉल टैपोनियर ने कहा कि अतीत में इस तरह के खतरनाक भूकंपों का अस्तित्व का मतलब यह हुआ कि इतनी ही तीव्रता के भूकंप के झटके भविष्य में फिर से आ सकते हैं, खासकर उन इलाकों में जिनकी सतह भूकंप के झटके के कारण अभी टूटी नहीं है।

अध्ययन में पता चला कि वर्ष 1255 और 1934 में आए भूकंप के दो जबर्दस्त झटकों से हिमालय क्षेत्र में पृथ्वी की सतह टूट गई। यह वैज्ञानिकों के पिछले अध्ययनों के विपरीत है। हिमालय क्षेत्र में जबर्दस्त भूकंप आना कोई नई बात नहीं है। 1897, 1905, 1934 और 1950 में भी 7.8 और 8.9 तीव्रता के भूकंप आए थे।

बहरहाल, वैज्ञानिक ने कहा कि उच्चस्तर की नई तस्वीरों और अन्य तकनीकों की मदद से उन्होंने पाया कि 1934 में आये भूकंप ने सतह को नुकसान पहुंचाया और 150 से अधिक किलोमीटर लंबे मैदानी भाग में दरार आ गई। वैज्ञानिकों का मानना है कि क्षेत्र में अगली बार भूकंप के जबर्दस्त झटके आने में अभी समय है।

अबाध पूंजी प्रवाह और कालेधन की राजनीतिक आर्थिक व्यवस्था के कारण प्रयावरण इस उपमहाद्वीप में प्राथमिकता पर कहीं नहीं है।​​ हिमालय का प्रयावरण कोई पहाड़ियों का मामला नहीं है, सत्तावर्ग को और तेजी से क्रयशक्ति से लैस हो रहे नवधनाढ्य मध्यवर्ग क वर्चस्व​ ​वाले देश में यह समझने लायक मानसिकता किसी को नहीं है। वन कानून, खनन अधिनियम, भूमि अधिग्रहणकानून, समुद्रतटसुरक्षा​​ कानून, स्थानीय निकायों की स्वायत्तता से संबंधित कानून ,नागरिकता कानून, पर्यापरण कानून और तमाम दूसरे कानून मनचाहे ढंग से कारपोरेट हितों के मुताबिक बदलकर प्रकृति से जुड़े समुदायों की जल जंगल जमीन आजीविका, नागरिकक और मानव अधिकारों से वंचित करके प्राकृतिक संसाधनों के अंधाधुध दोहन का बंदोबस्त चाकचौबंद है।देश में खेती छोटे किसानों के हाथों से छूटकर बड़े निजी कारर्पोरेट घरानों के कब्जे में जा रही है। यह दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति है। सरकारी नीतियों और कार्यक्रमों से पीढ़ियों से खेती में लगे हमारे किसानों के हजारों वर्षो के ज्ञान, उनके द्वारा अपनाए जा रहे खेती के नए-नए तरीकों और जैव विविधता को ही धीरे-धीरे नष्ट कर दिया है।  इसपर तुर्रा यह कि संसाधनों से भरपूर इलाकों में संविधान की पांचवीं और छठी अनुसूचियों का भी खुलकर उल्लंघन हो रहा है। इन्ही इलाकों में धर्म राष्ट्रवाद इतना प्रबल है कि बाजार की बढ़त रोकने का सवाल ही नही उठता। बाजार जब सर्वव्यापी हो, सर्वशक्तिमान हो और उसीके हित सर्वोपरि हो,तब कोई प्रतिरोध हो नहीं पाता। प्रतिरोध की तमाम ताकतें बाजार में बिक जाती हैं। हिमालयी क्षेत्र की भी यही नियति है। परमाणु बम के स्थगित विस्फोट के मध्य बेहद निश्चिंत धर्म कर्म में निष्णात है हिमालयवासी।

राजधानी क्षेत्र नयी दिल्ली का अंजाम देखिये,बाकी राजधानियों का हाल देखिये, गांतोक की सेहत देखिये, फिर भी समझ में नहीं आता तबाही और सर्वनाश को न्यौता देते हुए मध्यहिमालय में प्रोमोटर बिल्डर राज मजबूत करने के लिएलोग गैरशैण को राजधानी बनाने को भावना का​ ​ सवाल बनाकर हिमालय को देवभूमि बनाकर उसे आस्था से जोड़कर पर्यावरण और अर्थव्यवस्था को क्यों नजरअंदाज कर जाते हैं।​

टिहरी बाँध परियोजना
http://hi.wikipedia.org/s/2v

यह भारत की एक प्रमुख नदी घाटी परियोजना हैं ।टिहरी बांध दो महत्वपूर्ण हिमालय की नदियों भागीरथी तथा भीलांगना के संगम पर बना है टिहरी बांध दुनिया में उच्चतम बांधों में गिना जायेगा, टिहरी बांध करीब 260.5 मीटर ऊंचा, जो की भारत का अब तक का सबसे ऊंचा बाँध है भारत का अब तक का सबसे ऊंचा बाँध बाख्डा नागल बंद था जो करीब २२६ मीटर ऊंचा था टिहरी बांध से 3,22 मिलियन घन मीटर पानी को संसय की उम्मीद है इसके जलाशय से तक़रीबन 2,70,000 हेक्टेयर भूमि की सिंचाई और तक़रीबन 346 मेगावाट पनबिजली की उत्पन्न की उम्मीद है बांध पूरी तरह से डूब टिहरी शहर और 23 गांवों, जबकि 72 अन्य गांवों को आंशिक रूप से लाभ होगा.

प्रो. टी. शिवाजी राव भारत के प्रख्यात भू-वैज्ञानिक हैं। भारत सरकार ने टिहरी बांध परियोजना की वैज्ञानिक-विशेषज्ञ समिति में इन्हें भी शामिल किया था। प्रो. शिवाजी राव का मानना है कि उनकी आपत्तियों के बावजूद यह परियोजना चालू रखी गयी।

गंगा भारतवासियों की आस्था है। भारत की आध्यात्मिक शक्ति एवं राष्ट्रीय परम्परा का अंग है। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि पवित्र गंगा को कुछ लोग सिर्फ भौतिक स्रोत के रूप में देखते हैं। सिंचाई और विद्युत उत्पादन के लिए वे टिहरी बांध के पीछे गंगा को अवरुद्ध कर रहे हैं। मेरा मानना है कि सिंचाई और विद्युत उत्पादन वैकल्पिक तरीकों से भी हो सकता है। इसके कई विकल्प हैं, लेकिन गंगा का कोई विकल्प नहीं है।

सन. 1977-78 में टिहरी परियोजना के विरुद्ध आन्दोलन हुआ था। तब श्रीमती इन्दिरा गांधी ने सन् 1980 में इस परियोजना की समीक्षा के आदेश दिए थे। तब केन्द्रीय पर्यावरण मंत्रालय द्वारा गठित भूम्बला समिति ने सम्यक विचारोपरांत इस परियोजना को रद्द कर दिया था।

अन्तरराष्ट्रीय मानकों के अनुसार जहां भी चट्टान आधारित बांध बनते हैं वे अति सुरक्षित क्षेत्र में बनने चाहिए। प्रसिद्ध अमरीकी भूकम्प वेत्ता प्रो. ब्राने के अनुसार, "यदि उनके देश में यह बांध होता तो इसे कदापि अनुमति न मिलती।" क्योंकि यह बांध उच्च भूकम्प वाले क्षेत्र में बना है। ध्यान रहे कि 1991 में उत्तरकाशी में जो भूकम्प आया था, वह रिक्टर पैमाने पर 8.5 की तीव्रता का था। टिहरी बांध का डिजाइन, जिसे रूसी एवं भारतीय विशेषज्ञों ने तैयार किया है, केवल 9 एम.एम. तीव्रता के भूकम्प को सहन कर सकता है। परन्तु इससे अधिक पैमाने का भूकम्प आने पर यह धराशायी हो जाएगा। मैं मानता हूं कि यह परियोजना भयानक है, खतरनाक है, पूरी तरह असुरक्षित है। भूकम्प की स्थिति में यदि यह बांध टूटा तो जो तबाही मचेगी, उसकी कल्पना करना भी कठिन है। इस बांध के टूटने पर समूचा आर्यावर्त, उसकी सभ्यता नष्ट हो जाएगी। प. बंगाल तक इसका व्यापक दुष्प्रभाव होगा। मेरठ, हापुड़, बुलन्दशहर में साढ़े आठ मीटर से लेकर 10 मीटर तक पानी ही पानी होगा। हरिद्वार, ऋषिकेश का नामोनिशां तक न बचेगा। मेरी समझ में नहीं आता कि केन्द्र व प्रदेश सरकार ने इसे कैसे स्वीकृति दी? जनता को इसके कारण होने वाले पर्यावरणीय असन्तुलन एवं हानि के बारे में अंधेरे में रखा गया है। श्रीमती इंदिरा गांधी ने जब परियोजना की समीक्षा के आदेश दिए थे तो इसके पीछे उनकी यही सोच थी कि जनता के हितों और पर्यावरण को ध्यान में रखकर ही इस परियोजना पर अन्तिम फैसला लिया जाए। देश के अनेक वैज्ञानिकों व अभियंताओं ने भी इस परियोजना का विरोध किया है। मुझे तो लगता है कि टिहरी बांध सिर्फ एक बांध न होकर विभीषिका उत्पन्न करने वाला एक "टाइम बम" है।



​गनीमत है कि जिस नैनीताल में हम पढ़े लिखे, वह राजधानी नहीं बना, वरना विनाशकारी पौधे क्या गुल खिलाते कहना मुश्किल है। नैनी झील पर  पर हमारे मित्र प्रयाग पांडेय की रपट का लोगों ने नोटिस नहीं लिया और न ही लोग नैनीताल समाचार या पहाड़ को गंभीरता से पढ़ते। ​​अज्ञानता से हम विकास के कार्निवाल में खुशा खुशी मरने को तैयार हैं।नैनीताल की सुंदरता पर चार चांद लगाने वाली नैनी झील का अस्तित्व खतरे में है। पर्यटकों के आकर्षण का मुख्य केंद्र इस झील का पानी तेजी से खत्म हो रहा है। झील से करीब एक किलोमीटर दूर पानी का एक स्रोत फूट पड़ा है, जिससे रोजाना करीब चार लाख 32 हजार लीटर पानी यूं ही बह जा रहा है। झील पर उपजे खतरे के पूरे अध्ययन व समाधान के लिए उत्तराखंड विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी परिषद (यूकॅास्ट) ने नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ हाइड्रोलॉजी (एनआइएच) को पत्र लिखा है। पानी का यह स्रोत नैनी झील के निचले क्षेत्र में मई माह में फूटा है। इससे 300 एलपीएम (लीटर प्रति मिनट) पानी निकल रहा है। पानी की इतनी तेज रफ्तार को देखकर वैज्ञानिकों के पेशानी पर बल पड़ गए हैं। यूकॉस्ट के महानिदेशक डॉ. राजेंद्र डोभाल का कहना है कि झील के निचले हिस्से पर कोई दरार आने की आशंका है। अन्यथा इतनी रफ्तार में झील के निचले क्षेत्र में पानी का स्रोत न फूटता। यदि झील के मुख्य स्रोत व बर्बाद हो रहे पानी के बीच का अंतर बढ़ गया तो आने वाले सालों में नैनी का अस्तित्व समाप्त हो सकता है। डॉ. डोभाल के मुताबिक झील से पानी का रिसाव रोकने के लिए एनआइएच के वरिष्ठ वैज्ञानिक डॉ. वीसी गोयल को पत्र लिखा है। यूकॉस्ट के आग्रह पर एनआइएच ने सकारात्मक रुख दिखाया है और संस्थान के विज्ञानियों ने दो माह के भीतर अध्ययन पूरा करने की बात कही है।

विशेषज्ञों की मानें तो नैनी झील में हर साल 67 घनमीटर रेत जमा होने से उसकी गहराई घट रही है। घरेलू कूड़े-कचरे के कारण झील में प्रदूषण लगातार बढ़ रहा है। झील का पानी प्रदूषित होने से बीमारियां फैल रही हैं। यदि झील संरक्षण के लिए दीर्घकालिक उपाय नहीं किए गए तो अगले 300 सालों में नैनी झील का अस्तित्व खत्म हो जाएगा। नैनीताल शहर के एक होटल में कुमाऊं विश्वविद्यालय, जर्मनी की यूनिवर्सिटी ऑफ पो‌र्ट्सडम व प्राइवेट संस्था हाईड्रोलॉजिकल कंसलटेंसी के नुमाइंदों की झील संरक्षण पर बैठक हुई। बैठक में डीएसबी के प्रो. पीसी तिवारी ने बताया कि जर्मन सरकार के दुनियाभर में जल संरक्षण कार्यक्रम के अंतर्गत भूगोल विभाग ने नैनी झील समेत जिले की अन्य झीलों का अध्ययन किया। जर्मन विशेषज्ञों के सहयोग से झील संरक्षण के प्रयास शुरू किए गए हैं। इसका खर्च भी जर्मन सरकार वहन करेगी। परियोजना के अंतर्गत पब्लिक प्राइवेट पीपुल्स पार्टनरशिप से झीलों का संरक्षण किया जाएगा। इसमें जल संस्थान, जल निगम का सहयोग भी लिया जाएगा। जर्मन विशेषज्ञ प्रो. ओसव‌र्ल्ड ब्लूमिस्टिन व ओलेफ ग्रेगोरी ने झील संरक्षण के लिए तकनीकी पक्ष की जानकारी दी। बैठक में डीएसबी परिसर के निदेशक प्रो. बीआर कौशल, प्रो. सीसी पंत, एकेडमिक स्टाफ कालेज के निदेशक प्रो. बीएल साह, प्रो. आरके पांडे, प्रो. आरसी जोशी, प्रो. गंगा बिष्ट, प्रो. पीएस बिष्ट, प्रो. बीएस कोटलिया, प्रो. पीके गुप्ता, जल निगम के मुख्य अभियंता सुशील कुमार, जल संस्थान के एई एसके गुप्ता, जेई रमेश चंद्रा आदि मौजूद थे। संचालन डॉ. भगवती जोशी ने किया।
क्यों आते हैं हिमालय में ज्यादा भूकंप
बुधवार, 21 सितंबर 2011( 14:24 IST )

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WD

भारत लगातार भूगर्भीय बदलावों से गुजर रहा है। भारतीय प्लेट हर साल एशिया के भीतर धंस रही है। यह सब हिमालयी क्षेत्र में हो रहा है। इन्हीं अंदरूनी बदलावों की वजह से वहां भूकंप का खतरा लगातार बना रहता है।

जमीन के भीतर मची उथल पुथल बताती है कि भारत हर साल करीब 47 मिलीमीटर खिसक कर मध्य एशिया की तरफ बढ़ रहा है। करोड़ों साल पहले भारत एशिया में नहीं था। भारत एक बड़े द्वीप की तरह समुद्र में 6,000 किलोमीटर से ज्यादा दूरी तक तैरता हुआ यूरेशिया टेक्टॉनिक प्लेट से टकराया। करीबन साढ़े पांच करोड़ साल से पहले हुई वह टक्कर इतनी जबरदस्त थी कि हिमालय का निर्माण हुआ। हिमालय दुनिया की सबसे कम उम्र की पर्वत श्रृंखला है।

भारतीय प्लेट अब भी एशिया की तरफ ताकतवर ढंग से घुसने की कोशिश कर रही है। वैज्ञानिक अनुमान है कि यह भूगर्भीय बदलाव ही हिमालयी क्षेत्र को भूकंप के प्रति अति संवेदनशील बनाते हैं। दोनों प्लेटें एक दूसरे पर जोर डाल रही है, इसकी वजह से क्षेत्र में अस्थिरता बनी रहती है।

विज्ञान मामलों की पत्रिका 'नेचर जियोसाइंस' के मुतबिक अंदरूनी बदलाव एक खिंचाव की स्थिति पैदा कर रहे हैं। इस खिंचाव की वजह से ही भारतीय प्लेट यूरेशिया की ओर खिंच रही है। आम तौर पर टक्कर के बाद दो प्लेटें स्थिर हो जाती हैं। आश्चर्य इस बात पर है कि आखिर भारतीय प्लेट स्थिर क्यों नहीं हुई।

'अंडरवर्ल्ड कोड' नाम के सॉफ्टवेयर के जरिए करोड़ों साल पहले हुई उस टक्कर को समझने की कोशिश की जा रही है। सॉफ्टवेयर में आंकड़े भर कर यह देखा जा रहा है कि टक्कर से पहले और उसके बाद स्थिति में कैसे बदलाव हुए। उन बदलावों की भौतिक ताकत कितनी थी। अब तक यह पता चला है कि भारतीय प्लेट की सतह का घनत्व, भीतरी जमीन से ज्यादा है। इसी कारण भारत एशिया की तरफ बढ़ रहा है।

वैज्ञानिक कहते हैं कि घनत्व के अंतर की वजह से ही भारतीय प्लेट अपने आप में धंस रही है। धंसने की वजह से बची खाली जगह में प्लेट आगे बढ़ जाती है। इस प्रक्रिया के दौरान जमीन के भीतर तनाव पैदा होता है और भूकंप आते हैं। वैज्ञानिकों के मुताबिक हर बार तनाव उत्पन्न होने से भूकंप पैदा नहीं होता है। तनाव कई अन्य कारकों के जरिए शांत होता है।

भूकंप के खतरे के लिहाज से भारत को चार भांगों में बांटा गया है। उत्तराखंड, कश्मीर का श्रीनगर वाला इलाका, हिमाचल प्रदेश व बिहार का कुछ हिस्सा, गुजरात का कच्छ और पूर्वोत्तर के छह राज्य अतिसंवेदनशील हैं। इन्हें जोन पांच में रखा गया है। जोन पांच का मतलब है कि इन इलाकों में ताकतवर भूकंप आने की ज्यादा संभावना बनी रहती है। 1934 से अब तक हिमालयी श्रेत्र में पांच बड़े भूकंप आ चुके हैं।

रिपोर्ट : एजेंसियां/ओंकार सिंह जनौटी
संपादन : महेश झा
http://hindi.webdunia.com/samayik-deutschewelle-dwnews/%E0%A4%95%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A5%8B%E0%A4%82-%E0%A4%86%E0%A4%A4%E0%A5%87-%E0%A4%B9%E0%A5%88%E0%A4%82-%E0%A4%B9%E0%A4%BF%E0%A4%AE%E0%A4%BE%E0%A4%B2%E0%A4%AF-%E0%A4%AE%E0%A5%87%E0%A4%82-%E0%A4%9C%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%BE%E0%A4%A6%E0%A4%BE-%E0%A4%AD%E0%A5%82%E0%A4%95%E0%A4%82%E0%A4%AA-1110921069_1.htm

भूकंप से भयभीत उत्तराखंड

Author:
महेश पाण्डे और प्रवीन कुमार भट्ट
Source:
संडे नई दुनिया, 16-22 अक्टूबर 2011

हिमालय पर बन रहीं बड़ी-बड़ी इमारतों और बांधों ने भी भूकंप की स्थिति में पहाड़ को बम के रूप में तब्दील कर दिया है। उत्तराखंड के पहाड़ों में इस समय लगभग 300 परियोजनाएं चल रही हैं जबकि 200 से अधिक निर्माणाधीन व प्रस्तावित हैं। ऐसे में पहाड़ी नदियों पर थोड़े-थोड़े अंतर में बांध बन रहे हैं। भूकंप की स्थिति में यदि एक भी बांध टूटा तो कई बांध टूटेंगे। पहाड़ों पर अवैज्ञानिक रूप से बने भवन, बेहद सघन शहर, अतिसंवेदनशील भूकंप जोन 4-6 में स्थिति एवं बड़ी-बड़ी पनबिजली परियोजनाएं भूकंप आने पर उत्तराखंड में भारी तबाही मचा सकती हैं।

पिछले दिनों भूकंप ने पूरे देश को हिलाकर रख दिया। पूर्वोत्तर का पहाड़ी राज्य सिक्किम भारी तबाही का शिकार हुआ। अब भूकंप की दृष्टि से संवेदनशील दूसरा पहाड़ी राज्य उत्तराखंड भयभीत है। हिली धरती ने यूं तो यहां इस बार कुछ नुकसान नहीं पहुंचाया है पर "देवभूमि" के लोगों के दिलों में गहरे बसी पिछले विनाशकारी भूकंपों की यादें जरूर ताजा हो गई हैं। यहां के लोग इस तथ्य को लेकर आशंकित हैं कि सिक्किम में पहाड़ों को तोड़कर चल रही विद्युत परियोजनाओं ने भूकंप की विनाशलीला को बढ़ाने में खूब भूमिका निभाई है, क्योंकि उत्तराखंड में भी ऐसी कई परियोजनाओं पर काम चल रहा है। भूकंप के जानकार चिंता जता रहे हैं कि उत्तराखंड भी संवेदनशीलता की दृष्टि से मौत के मुहाने पर खड़ा है। तेज भूकंप आने पर सूबे में भारी नुकसान को रोकना मुमकिन नहीं होगा। पहाड़ों में अवैज्ञानिक रूप से बन रहे बड़े-बड़े व्यावसायिक भवन, सघन होते पहाड़ी शहर, पहाड़ की परिस्थितियों के प्रतिकूल भारी निर्माण सामग्री का अत्यधिक प्रयोग व खतरनाक भूकंप जोन 4-6 में स्थित होने के बावजूद प्रकृति की चेतावनियों की अनदेखी कर बनाई जा रहीं बड़ी-बड़ी जलविद्युत परियोजनाएं कभी भी भूकंप आने पर पहाड़ को दहला सकती हैं। इतना ही नहीं, आपदा न्यूनीकरण एवं प्रबंध केंद्र ने अपने अध्ययन में देहरादून, मसूरी और नैनीताल जैसे शहरों में सैकड़ों ऐसे जर्जर भवनों को चिह्नित किया है, जो भूकंप आने पर खतरनाक साबित हो सकते हैं।

आईआईटी, रुड़की के भूगर्भशास्त्रियों के मुताबिक भूकंप की हालत में राज्य के देहरादून, मसूरी, अल्मोड़ा, हरिद्वार व अन्य पहाड़ी जिलों में भी भयानक तबाही होगी। उत्तराखंड में पूर्व में आए भूकंप भी भयंकर तबाही मचा चुके हैं। 19 अक्टूबर, 1999 को उत्तरकाशी की भटवाड़ी तहसील के पिलांग क्षेत्र में आए भूकंप को कौन भूल सकता है। रिक्टर स्केल पर 7.8 मापे गए इस भूकंप के कारण 768 लोग मारे गए थे जबकि क्षेत्र के 5000 से अधिक लोग घायल हुए थे। इस भूकंप के कारण उत्तरकाशी और चमोली जिलों के 18,000 घर तबाह हुए जिससे एक लाख से अधिक लोग घटना के बाद बेघर हो गए थे। इससे पहले भी इसी साल भूकंप ने इस क्षेत्र को अपना निशाना बनाया था। 28 मार्च, 1999 को चमोली जिले के पीपलकोटी क्षेत्र में भूकंप के कारण भयानक तबाही हुई थी। इस घटना में पीपलकोटी क्षेत्र के 115 लोग मारे गए थे जबकि भूकंप का असर उत्तर प्रदेश, दिल्ली, पंजाब और हरियाणा में भी महसूस हुआ था। चमोली के लोग इस भयंकर हादसे से उबर भी नहीं पाए थे कि दो दिन बाद ही 30 मार्च,1999 को फिर भूकंप आया। इस भूकंप में सबसे ज्यादा असर चमोली जिले के मैढाना गांव पर हुआ।
पर्यावरणविद ऐसी पनबिजली परियोजनाओं को खतरा बताते हैं
भूकंप के कारण यह गांव पूरा तबाह हो गया था। गांव के 20 घर पूरी तरह ध्वस्त हुए जबकि 11 घर दरारों के कारण रहने लायक नहीं रहे थे। 5.2 रिक्टर स्केल के इस भूकंप के कारण कोटियाल गांव के 85 घरों में भी दरारें आई थीं। 27 मार्च, 2003, 8 अक्टूबर, 2005, 14 दिसंबर 2005, 5 अगस्त, 2006 और 22 जुलाई, 2007 को भी भूकंपों के कारण उत्तराखंड की धरती डोल चुकी है। 5 जनवरी, 1997 को सीमांत जनपद पिथौरागढ़ के धारचूला में आया भूकंप भी जानलेवा साबित हुआ था। शिवालिक रेंज में काली नदी के किनारे नेपाल सीमा से लगे धारचूला नगर में भूकंप के कारण दर्जनों लोगों को अपनी जान से हाथ धोना पड़ा जबकि सैकड़ों भवन जमींदोज हो गए थे। उत्तराखंड के पहाड़ी क्षेत्रों में आए भूकंपों पर पिछले दो सौ सालों के दौरान हुए अध्ययनों से साफ हो जाता है कि इस क्षेत्र में अनेक बार 5.5 रिक्टर तीव्रता के भूकंप आ चुके हैं। हिमालय श्रेणी में कई सक्रिय प्लेट्स मौजूद हैं जिनमें पैदा होने वाली हलचल पहाड़ों में भयंकर भूकंप का कारण बन जाती है। उत्तराखंड के पहाड़ी क्षेत्रों में दो प्रमुख सक्रिय थ्रस्ट हैं जिन्हें भूगर्भशास्त्री "मेन बाउंड्री थ्रस्ट" (एमबीटी) और "मेन फ्रंटल थ्रस्ट" (एमएफटी) के नाम से जानते हैं। इन सक्रिय प्लेट्स का केंद्र चमोली और उत्तरकाशी जिलों के आस-पास बताया गया है।

भारतीय मानक ब्यूरो के ताजा मानचित्र के मुताबिक भूकंप की दृष्टि से उत्तराखंड के चीन और नेपाल की सीमा से लगे जिले सबसे अधिक संवेदनशील हैं। साफ है कि भूकंप का खतरा सबसे अधिक पिथौरागढ़, अल्मोड़ा, बागेश्वर, चमोली व उत्तरकाशी जैसे जिलों पर मंडरा रहा है। ब्यूरो के मुताबिक राज्य के सभी सीमांत जनपद जोन पांच में आते हैं जबकि राज्य के देहरादून, हरिद्वार, उधमसिंह नगर जैसे जिलों को जोन चार में रखा गया है। पूरी दुनिया में भूकंपों पर अध्ययन कर रही न्यूजीलैंड की संस्था "एमेंच्योर सिस्मिक सेंटर" (एएससी) की रिपोर्ट के मुताबिक उत्तराखंड के मैदानी भाग भी भूकंप आने पर खतरनाक साबित हो सकते हैं। मैदानों में आने वाले भूकंप की तीव्रता भी रिक्टर स्केल पर आठ तक पहुंच सकती है। हरिद्वार, देहरादून, मसूरी सहित मैदानी भागों में बनी पुरानी इमारतें व रिहायशी भवनों को वैज्ञानिकों ने गंभीर खतरा माना है। आपदा प्रबंधन केंद्र की रिपोर्ट पहले ही इस ओर इशारा कर चुकी है कि अकेले देहरादून और मसूरी में सैकड़ों जर्जर भवन हैं जो हजारों लोगों की मौत का कारण बन सकते हैं।

हिमालय पर बन रहीं बड़ी-बड़ी इमारतों और बांधों ने भी भूकंप की स्थिति में पहाड़ को बम के रूप में तब्दील कर दिया है। उत्तराखंड के पहाड़ों में इस समय लगभग 300 परियोजनाएं चल रही हैं जबकि 200 से अधिक निर्माणाधीन व प्रस्तावित हैं। ऐसे में पहाड़ी नदियों पर थोड़े-थोड़े अंतर में बांध बन रहे हैं। भूकंप की स्थिति में यदि एक भी बांध टूटा तो कई बांध टूटेंगे। आईआईटी, रुड़की के अर्थक्वेक इंजीनियरिंग डिपार्टमेंट के सीनियर प्रोफेसर एम.एल शर्मा का कहना है कि हिमालयी क्षेत्र भूकंप की दृष्टि से अति संवेदनशील होने के साथ-साथ भूस्खलन और कमजोर भवनों के चलते भी असुरक्षित है। बांधों पर भी हमें नजर रखनी होगी। सबसे ज्यादा जरूरत इस बात की है कि भूकंपीय आपदा से बचने के लिए हम अपने मकानों को भूकंपरोधी बनाएं। राज्य आपदा प्रबंधन केंद्र के निदेशक डॉ. पीयूष रतौला के मुताबिक राज्य में आपदा से बचने के पर्याप्त उपाय किए जा रहे हैं। न्याय पंचायत स्तर पर आपदा प्रबंधन टीमों का गठन किया गया है और संवेदनशील क्षेत्रों का लगातार अध्ययन कर उन्हें सुरक्षित करने के प्रयास हो रहे हैं।

सुरक्षित नहीं है राजधानी भी

पहाड़ों पर बढ़ती आबादी भूंकप के खतरे को और बढ़ा रही हैभूकंप की दृष्टि से उत्तराखंड की राजधानी देहरादून भी मौत के ढेर पर बैठी है। इसका अंदाजा नार्वेजियन रिसर्च इंस्टिट्यूट नोरसार, वाडिया इंस्टिट्यूट ऑफ हिमालयन जियोलॉजी, देहरादून व आईआईटी, रुड़की द्वारा चार सालों तक किए गए अध्ययन से लगाया गया है। पिछले दिनों जारी नतीजों के मुताबिक टीम ने देहरादून में 30 मीटर गहराई तक अध्ययन किया था। रिपोर्ट में कहा गया है कि अगर 10 किलोमीटर की गहराई में 5 रिक्टर की तीव्रता का भूकंप आया तो शहर के छह प्रतिशत बड़े भवन जमींदोज हो जाएंगे। रिपोर्ट के मुताबिक दून शहर की बुनियाद बिखरे हुए प्राकृतिक मलबे से बनी है। इसकी सतह पर वर्तमान में 40 तरह के भवन हैं। 150 वर्ष से वर्तमान समय तक के 55 आवासीय क्षेत्रों, 44 स्कूल-कॉलेजों के साथ ही 29 अस्पतालों का अध्ययन किया गया। इसमें पाया गया कि अधिकांश भवनों के बीच की दूरी कम है। कई कॉलोनियों में तो भवन मिलाकर बनाए गए हैं। रिपोर्ट में इशारा है कि लोग अब भी भवन बनाते हुए भूकंपरोधी तकनीक का प्रयोग नहीं कर रहे हैं।

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खूबसूरत झील की जहरीली सीरत

उत्तराखंड हिमालय में विकास की बेतरतीब योजनाओं और शहरीकरण की बढ़ती प्रवृत्ति के चलते आज पहाड़ के कई खूबसूरत पर्यटक स्थलों का अस्तित्व खतरे में है। पर्यटकों के आकर्षण का मुख्य केन्द्र रही नैनी झील भी बुरी तरह प्रदूषणग्रस्त है। झील के वजूद को मिटते देख पर्यावरण संरक्षण से जुड़े कार्यकर्ता से लेकर आम आदमी तक सभी चिंतित हैं लेकिन सरकारी स्तर पर इसके संरक्षण एवं प्रबंधन के जो उपाय किये जा रहे हैं वे अब तक कारगर साबित नहीं हो पाये हैं। परिणामस्वरूप झील में निरंतर गंदगी समा रही है और इसका पानी प्रदूषित हो चुका है।

उत्तराखंड की कुमाऊं कमिश्नरी का मुख्यालय नैनीताल ब्रिटिशकाल से ही अपनी खूबसूरती और प्राकृतिक सौन्दर्य से पयर्टकों की पसंद रहा है। इसी से प्रभावित होकर ब्रिटिश नौकरशाहों ने इसे प्रशासनिक कामकाज चलाने का केन्द्र भी बनाया। समय के साथ अपनी जरूरत के मुताबिक उन्होंने इसका विकास भी किया। इसे ग्रीष्मकालीन राजधानी बनाकर पर्यटन के नक्शे में लाने की कोशिश हुयी। आजादी के बाद भी प्रशासकों की यह पहली पसंद रही। जनसंख्या के बढ़ने और विकास की नयी अवधारण ने इसके भू-गर्भीय और पर्यावरणीय सुरक्षा की हमेशा अनदेखी की है।

यही वजह है कि आज एक खूबसूरत झील की जहरीली सीरत सबके सामने है। झील में फैलती गंदगी किसी बड़े संकट को जन्म दे सकती है। नैनीताल में स्थित प्रसिद्ध नैनी झील तीन ओर से पर्वत श्रृंखलाओं से घिरी तथा किडनी का स्वरूप लिये हुये है। लगभग 1500 मीटर लंबे तथा 450 मीटर चौड़े क्षेत्रफल में फैली यह मनोहारी झील प्रतिवर्ष न केवल दुनिया के लाखों पर्यटकों को आकर्षित करती है बल्कि क्षेत्र की एक बड़ी जनसंख्या को आजीविका के साधन भी उपलब्ध कराती है। लेकिन दुखद यह है कि अपनी सुन्दरता के लिये मशहूर नैनी झील का जल निरंतर प्रदूषित होता जा रहा है। प्रतिवर्ष झील में 0.021 मिलियन क्यूबिक मीटर मलबा तथा अन्य सामग्री समा रही है।

वाहन चालकों, कुलियों, पर्यटकों तथा व्यवसायियों के लिये पर्याप्त शौचालयों की सुविधा न होने के कारण विसर्जित मूत्र एवं मल भारी मात्रा में झील में जा रहा है। सीवर लाइनें भी काफी हद तक इसके लिये जिम्मेदार हैं। ये प्रदूषण का असर ही है कि वर्ष के 12 महीनों में झील अपना रंग बदलती रहती है। दिसम्बर, जनवरी एवं फरवरी के महीनों में झील का रंग कुछ-कुछ हरा-भूरापन लिये होता है। अप्रैल में इसका रंग हल्का हरा, मई-जून में गहरा हरा और जुलाई, अगस्त एवं सितंबर में पीलापन लिये हरा हो जाता है। इसी तरह अक्टूबर में झील का रंग गहरा नीला तथा नवम्बर में नीलापन लिये हरा दिखायी देता है।

शहर के चारों तरफ बढ़ते अनियंत्रित निर्माण तथा बढ़ती आबादी के कारण अधिकांश सीवर लाइनें क्षमता को पार कर गयी हैं। निर्माण कार्यों के कारण बरसात के दौरान बहुत सारी गाद झील में समा रही है। झील के रख-रखाव के लिये गठित झील विकास प्राधिकरण का कहना है कि `पर्वतीय ढलानों पर ब्रिटिश शासनकाल में बनी हुयी नालियों को अवैध निर्माण से अधिकांश स्थानों पर कवर कर पानी के बहाव को रोक दिया गया है, जिसके कारण बरसात का पानी अन्य स्थानों से भी गाद को बहाकर झील में ले जाता है।´ बरसात में हालात इतने गंभीर हो जाते हैं कि सीवर लाइनें ओवर-फ्लो होकर सीधे झील में समा जाती हैं। इसको लेकर काफी हो-हल्ला होता है लेकिन प्रशासन ने सीवर लाइनों की क्षमता बढ़ाये जाने के लिये कोई ठोस पहल नहीं की है। बरसात बीत जाने के बाद स्थिति सामान्य सी लगने लगती है लेकिन अगली बरसात में फिर वही हालात नजर आने लगते हैं। यह लोगों की मजबूरी है कि वे पूरी तरह इतने प्रदूषित जल पर निर्भर हैं।

खास बात यह है कि सीवर लाइनों को दुरुस्त करने के नाम पर अब तक करोड़ों रुपये खर्च किये जा चुके हैं। सीवर प्रबंधन के लिये 1586.64 लाख रुपये स्वीकृत किये गये। इसमें से अब तक 818.96 रुपये अवमुक्त हुये हैं और 516.81 का उपभोग किया जा चुका है। सीवर लाइन एवं सीवर ट्रीटमेंट प्लांट के लिये तीन कार्यदायी संस्थाओं (उत्तराखण्ड पेयजल निगम, जल संस्थान, नगर पालिका परिषद) को नियुक्त किया गया है। पुरानी लाइनों के रख-रखाव के लिये स्वीकृत 21.37 लाख रुपये का उपभोग तो पूर्णत: कर लिया गया है लेकिन आये दिन सीवर लाइनों में ब्लॉकेज के चलते ओवर फ्लो होना जारी है। सामान्य दिनों में भी सीवर लाइनों के ऐसे हालात सरकारी कार्यों की गुणवत्ता की पोल खोलने के लिये काफी हैं। इसके अलावा प्रत्येक भवन में स्थित शौचालय रसोईघर एवं बाथरूम को सीवर लाइन से जोड़े जाने का प्रस्ताव तो है, लेकिन इस बाबत केवल अब तक लोगों को ही प्रोत्साहित करने का कार्य किया जा सका है। धरातल पर इस प्रोजेक्ट को कब से शुरू किया जायेगा, इसकी कोई जानकारी नहीं है।

शहर के आस-पास के कई टूटे-फूटे शौचालयों का सारा मल-मूत्र नालों के माध्यम से सीधे झील में जा रहा है। अधिकांश शौचालय सड़क से जुड़े हैं। खुले एवं गंदे पड़े इन शौचालयों की दुग±ध स्थानीय लोगों एवं सैलानियों को बहुत खटकती है। बीडी पाण्डे चिकित्सालय के नीचे तथा मोहन चौराहे के पास फड़नुमा शौचालय शहर के शौचालयों की दयनीय स्थिति को उजागर करने के लिये पर्याप्त है। शहर में शौचालयों के निर्माण का जिम्मा झील विकास प्राधिकरण के पास है। इस कार्य को सीवर प्रबंधन के अंतर्गत रखा गया है। शौचालयों के निर्माण के लिये 354.24 लाख रुपये स्वीकृत तथा 127.21 अवमुक्त किये गये हैं। प्रस्तावित 31 शौचालयों में से अब तक 9 का कार्य पूरा हो पाया है। विकास प्राधिकरण से प्राप्त आंकड़ों के अनुसार 3 शौचालयों का कार्य अंतिम चरण में है तथा 11 का कार्य प्रगति पर है। शेष बचे शौचालयों का निर्माण-कार्य अब तक शुरू ही नहीं हो पाया है। विकास प्राधिकरण अब तक केवल 53.67 लाख रुपये का ही कार्य करा पाया है। अभिलेखों में विकास प्राधिकरण ने अक्टूबर 2007 तक लक्ष्य पूरा करने की बात तो कही है लेकिन इतने कम समय में यह लक्ष्य कैसे पूरा होगा समझ से परे है। फिलहाल इस सीजन में यहां आ रहे सैलानी खुले पड़े इन शौचालयों से आने वाली दुर्गंध से त्रस्त हैं।

इसी तरह कूड़ा निस्तारण के लिये स्वीकृत 81.00 लाख रुपये में से अवमुक्त 26.77 लाख रुपये में से 20.77 लाख रुपये का उपभोग कर लिया गया है। इस राशि में से एक डम्पर प्लेसर खरीदा जा चुका है। योजना के तहत अवशिष्ट को एक स्थान पर एकत्र कर उसकी रिसाइकिलिंग की जानी है जिसके लिये काठगोदाम में एक डेंसीफायर प्लांट की स्थापना की जायेगी। इसके लिये भूमि चयन का प्रस्ताव वन विभाग के पास भेजा जा चुका है। भूमि हस्तांतरण की प्रक्रिया चल रही है जबकि लक्ष्य के हिसाब से कार्य को नवम्बर 2007 तक पूरा होना है। नगर में सफाई व्यवस्था को बनाये रखने के लिये नगर-पालिका परिषद का अलग से दायित्व बनता है। इस बारे में नगर-पालिका अध्यक्ष सरिता आर्य दलील देती हैं कि `सरकार ने हमें आदेशित किया है कि कूड़े के निस्तारण के लिये समितियां बनाओ। दो वार्डों में तो इन्हें बना दिया गया है लेकिन शहरी वार्डों में इनको गठित करना टेढ़ी खीर साबित हो रहा है। जहां तक ऊपरी इलाकों से कूड़ा निस्तारण का प्रश्न है तो हमारे पास अपनी यूटीलिटी वैन न होने के कारण इन जगहों से कूड़ा नीचे लाना बहुत मुश्किल हो जाता है।´

नैनी झील में पोषक तत्वों की अधिकता होने से पादप प्लवक की प्रचुरता भी अधिक है। इस कारण झील में शैवालीय प्रदूषण की समस्या बनती जा रही है। इसके चलते झील में ऑक्सीजन की मात्रा कम होने लगी है एवं गैसों की आर्द्रता बढ़ने लगी है। जीव-जंतुओं के लिये भी खतरा पैदा होता जा रहा है। मछलियां असमय मर जाती हैं। भारतीय मूल की मछली विलुप्त हो गयी है। झील के प्रदूषित हुये जल को पुन: जीवित करने एवं इसमें ऑक्सीजन की मात्रा बढ़ाने की योजना के अंतर्गत दो प्रमुख कार्य प्रस्तावित हैं, जिनकी अब तक केवल रूपरेखा ही तैयार की जा सकी है। ये दोनों कार्य झील विकास प्राधिकरण के मत्थे हैं। पहला कार्य झील की ऊपरी सतह से 15 मीटर नीचे की सतह में हाइपोलिमिनियम प्रक्रिया के कारण दूषित हुये पानी को साइफन विधि के माध्यम से बलिया नाले में निकाला जाना है।

लेकिन पिछले तीन सालों से केवल कार्य को किस तरह कराया जाये इस पर ही बहस हो रही है। एक संस्था द्वारा कार्य के लिये बिड में प्रस्तुत धनराशि स्वीकृत राशि से अधिक होने के कारण प्रकरण को विशेष सचिव, पर्यावरण एवं वन मंत्रालय को प्रस्तुत किया गया, लेकिन फैसला हुआ कि योजना के अंतर्गत दूसरे प्रमुख कार्य `एयरेशन´ से प्राप्त होने वाले परिणाम को देखते हुये ही `साइफनिंग´ का कार्य किया जाये। साइफनिंग के लिये 90.81 लाख रुपये स्वीकृत हैं एवं एयरेशन के लिये 495 लाख रुपये स्वीकृत हैं। इसके लिये पूरी धनराशि अवमुक्त कराई जा चुकी है। 157.04 लाख रुपये का उपभोग भी किया जा चुका है, लेकिन यह कार्य भी अधर में ही लटका हुआ है।

एयरेशन विधि द्वारा झील में ऑक्सीजन की मात्रा को बढ़ाया जाना है। इसके लिये झील के किनारे कुछ कमरे बनाये गये हैं, लेकिन इनकी क्षमता जवाब देने लगी है। बरसात के दौरान इनके टपकने का सिलसिला शुरू होने लगा है। तीन सालों से अधर में लटकी इस योजना को अप्रैल 2007 से शुरू हो जाना चाहिये था लेकिन उपकरण लगाने का कार्य अब तक प्रारंभ नहीं हो सका है।

बायोमेनिपुलेशन का कार्य भी किया जाना है, जिसके लिये 50 लाख स्वीकृत एवं 25 लाख रुपये अवमुक्त हो चुके हैं। लेकिन कार्यदायी संस्था मत्स्यकी विभाग, जीबी पंत कृषि एवं प्रौद्योगिक संस्थान पंतनगर द्वारा अब तक कुछ भी नहीं किया जा सका है।

योजना के तहत चल रहे करोड़ों रुपये के कार्य या तो अधर में लटके हैं या फिर शुरू ही नहीं हो पाये हैं। इससे नोडल एजेंसी के रूप में काम कर रहे झील विकास प्राधिकरण की कार्यशैली पर प्रश्न उठने स्वाभाविक हैं। स्पष्ट है कि प्राधिकरण ने अपनी क्षमता से अधिक कार्य कराने के लिये करोड़ों रुपये बेकार ही अपने पास दबा रखे हैं। पूर्व में घोड़ों की लीद भी काफी अधिक मात्रा में झील में जाती रही थी लेकिन अस्तबल के लैंडसैंड में स्थानांतरित होने से इस गंभीर समस्या से निजात मिल गयी बावजूद इसके शहर के चारों तरफ हो रहे निर्माण कार्यों में निर्माण सामग्री को ढो रहे खच्चरों की लीद ने दोबारा इस समस्या को जीवित कर दिया है। ऊंचाई वाले इलाकों में हो रहे निर्माण कार्यों में सारा माल खच्चरों के माध्यम से ढोया जाता है। इनकी संख्या सैकड़ों में है। इन खच्चरों की लीद नालों से होकर सीधे झील में पहुंचती है। इस समस्या की ओर झील विकास प्राधिकरण का ध्यान नहीं है।

उत्तर प्रदेश सरकार की तरह ही उत्तराखण्ड की अब तक की सरकारें झील के प्रति लापरवाह रही हैं। झील के अस्तित्व को बचाने और नैनीताल नगर में जनसंख्या का भार कम करने के लिये विकास भवन की स्थापना की गयी, लेकिन हाईकोर्ट के नैनीताल आने से उक्त समस्या जैसी की तैसी ही बनी है।

विकास प्राधिकरण की कार्यशैली के साथ-साथ उसकी क्षमता पर भी प्रश्न उठना स्वभाविक है। प्राधिकरण के अध्यक्ष आयुक्त एवं सचिव एडीएम हैं, जिनके पास प्रशासनिक कार्यों का भी काफी भार होता है। अच्छा तो यह होता कि ये कार्यभार किसी ऐसे विशेषज्ञ को दिया जाता जो भू-गर्भीय दृष्टिकोण तथा अन्य बिन्दुओं को ध्यान में रखकर इसका संचालन करे।

हालांकि सर्वोच्च न्यायालय के आवश्यक निर्देश हैं कि किसी भी कार्य को करने से पूर्व इस क्षेत्र के पर्यावरण पर पड़ने वाले प्रभाव का जायजा लिया जाना चाहिये। लेकिन नैनीताल में इसकी परवाह किये बिना अधिकारी अपने हिसाब से निर्णय लेते रहे हैं। हाल ही के दिनों में झील में गंबूसिया प्रजाति की मछलियां डाल दी गयी थी। ये मछलियां अन्य मछलियों के लिये खतरा बनी हुई हैं। सामान्यत: ये मछलियां मच्छर उन्मूलन के लिये उपयोग में लायी जाती हैं। नैनीताल में मच्छर अपेक्षाकृत कम हैं। स्पष्ट है कि यह कार्य बिना किसी ठोस योजना के किया गया है।
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जलनीति का मकड़जाल
Author:  डॉ. राजेश कपूर
Source:  प्रवक्ता, 04 जुलाई 2012
राष्ट्रीय जल संसाधन परिषद ने अंततः 'राष्ट्रीय जल नीति-2012' को स्वीकार कर लिया है। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के अध्यक्षता में हुई राष्ट्रीय जल संसाधन परिषद की छठी बैठक में राष्ट्रीय जल नीति का रास्ता साफ हो गया। हालांकि भारत सरकार का तर्क यह है कि यह जल नीति पानी की समस्याओं से निपटने के लिए सरकार के निचले स्तरों पर जरूरी अधिकार देने की पक्षधर है। पर दरअसल सरकारों की मंशा पानी जैसे बहुमूल्य संसाधन को कंपनियों के हाथ में सौंपने की है। आम आदमी पानी जैसी मूलभूत जरूरत के लिए भी तरस जाएगा, बता रहे हैं डॉ. राजेश कपूर।

प्रस्ताव की धारा 7.4 में जल वितरण के लिए शुल्क एकत्रित करने, उसका एक भाग शुल्क के रूप में रखने आदि के अलावा उन्हें वैधानिक अधिकार प्रदान करने की भी सिफारिश की गयी है। ऐसा होने पर तो पानी के प्रयोग को लेकर एक भी गलती होने पर कानूनी कार्यवाही भुगतनी पड़ेगी। ये सारे कानून आज लागू नहीं हैं तो भी पानी के लिए कितना मारा-मारी होती है। ऐसे कठोर नियंत्रण होने पर क्या होगा? जो निर्धन पानी नहीं ख़रीद सकेंगे उनका क्या होगा? किसान खेती कैसे करेंगे? नदियों के जल पर भी ठेका लेने वाली कंपनी के पूर्ण अधिकार का प्रावधान है। भारत सरकार के विचार की दिशा, कार्य और चरित्र को समझने के लिए "राष्ट्रीय जल नीति-2012" एक प्रामाणिक दस्तावेज़ है। इस दस्तावेज़ से स्पष्ट रूप से समझ आ जाता है कि सरकार देश के नहीं, केवल मेगा कंपनियों और विदेशी निगमों के हित में कार्य कर रही है। देश की संपदा की असीमित लूट बड़ी क्रूरता से चल रही है। इस नीति के लागू होने के बाद आम आदमी पानी जैसी मूलभूत ज़रूरत के लिए तरस जाएगा। खेती तो क्या पीने को पानी दुर्लभ हो जाएगा।

29 फरवरी तक इस नीति पर सुझाव मांगे गए थे। शायद ही किसी को इसके बारे में पता चला हो। उद्देश्य भी यही रहा होगा कि पता न चले और औपचारिकता पूरी हो जाए। अब जल आयोग इसे लागू करने को स्वतंत्र है और शायद लागू कर भी चुका है। इस नीति के लागू होने से पैदा भयावह स्थिति का केवल अनुमान ही लगाया जा सकता है। विश्व में जिन देशों में जल के निजीकरण की यह नीति लागू हुई है, उसके कई उदहारण उपलब्ध हैं।

लैटिन अमेरिका और अफ़्रीका के जिन देशों में ऐसी नीति लागू की गयी वहाँ जनता को कंपनियों से जल की ख़रीद के लिए मजबूर करने के लिए स्वयं की ज़मीन पर कुएँ खोदने पर प्रतिबंध लगा दिया गया। बोलिविया में तो घर की छत पर बरसे वर्षा जल को एकत्रित करने तक के लिए बैक्टेल (अमेरिकी कंपनी) और इतालवी (अंतरराष्ट्रीय जल कंपनी) ने परमिट व्यवस्था लागू की हुई है। सरकार के साथ ये कम्पनियाँ इस प्रकार के समझौते करती हैं कि उनके समानांतर कोई अन्य जल वितरण नहीं करेगा। कई अनुबंधों में व्यक्तिगत या सार्वजनिक हैंडपंप/ नलकूपों को गहरा करने पर प्रतिबंध होता है।

अंतरराष्ट्रीय शक्तिशाली वित्तीय संगठनों द्वारा विश्व के देशों को जल के निजीकरण के लिए मजबूर किया जाता है। एक अध्ययन के अनुसार सन् 2000 में अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ़ ) द्वारा (अंतरराष्ट्रीय वित्तीय निगमों के माध्यम से) ऋण देते समय 12 मामलों में जल आपूर्ति के पूर्ण या आंशिक निजीकरण की ज़रूरत बतलाई गयी। पूर्ण लागत वसूली और सब्सिडी समाप्त करने को भी कहा गया। इसी प्रकार सन 2001 में विश्व बैंक द्वारा 'जल व स्वच्छता' के लिए मंज़ूर किये गए ऋणों में से 40 % में जलापूर्ती के निजीकरण की स्पष्ट शर्त रखी गयी।

भारत में इसकी गुप-चुप तैयारी काफी समय से चल रही लगती है। तभी तो अनेक नए कानून बनाए गए हैं। महानगरों में जल बोर्ड का गठन, भूमिगत जल प्रयोग के लिए नए कानून, जल संसाधन के संरक्षण के कानून, उद्योगों को जल आपूर्ति के लिए कानून आदि और अब "राष्ट्रीय जल निति-2012"।

इन अंतरराष्ट्रीय निगमों की नज़र भारत से येन-केन प्रकारेण धन बटोरने पर है। भारत में जल के निजीकरण से 20 ख़रब डालर की वार्षिक कमाई का इनका अनुमान है। शिक्षा, स्वास्थ्य, जल आपूर्ति जैसी मूलभूत आवश्यकताओं के व्यापारीकरण की भूमिका बनाते हुए विश्व बैंक ने कहना शुरू कर दिया है कि इनके लिए "सिविल इन्फ्रास्ट्रक्चर" बनाया जाए और इन्हें बाज़ार पर आधारित बनाया जाय। अर्थात इन सेवाओं पर किसी प्रकार का अनुदान न देते हुए लागत और लाभ के आधार पर इनका मूल्य निर्धारण हो। इन सेवाओं के लिए विदेशी निवेश की छूट देने को बाध्य किया जाता है। कंपनियों का अनुमान है कि भारत में इन तीन सेवाओं से उन्हें 100 ख़रब डालर का लाभकारी बाज़ार प्राप्त होगा।

लागत और लाभ को जोड़कर पानी का मूल्य निर्धारित किया गया (और वह भी विदेशी कंपनियों द्वारा) तो किसी भी किसान के लिए खेती करना असंभव हो जायेगा। इन्ही कंपनियों के दिए बीजों से, इन्हीं के दिए पानी से, इन्हीं के लिए खेती करने के अलावा और उपाय नहीं रह जाएगा। भूमि का मूल्य दिए बिना ये कम्पनियाँ लाखों, करोड़ों एकड़ कृषि भूमि का स्वामित्व सरलता से प्राप्त कर सकेंगी।

इस निति के बिंदु क्र. 7.1 और 7.2 में सरकार की नीयत साफ़ हो जाती है कि वह भारत के जल संसाधनों पर जनता के हज़ारों साल से चले आ रहे अधिकार को समाप्त करके कॉरपोरेशनों व बड़ी कंपनियों को इस जल को बेचना चाहती है। फिर वे कम्पनियां मनमाना मूल्य जनता से वसूल कर सकेंगी। जीवित रहने की मूलभूत आवश्यकता को जन-जन को उपलब्ध करवाने के अपने दायित्व से किनारा करके उसे व्यापार और लाभ कमाने की स्पष्ट घोषणा इस प्रारूप में है।

उपरोक्त धाराओं में कहा गया है कि जल का मूल्य निर्धारण अधिकतम लाभ प्राप्त करने की दृष्टि से किया जाना चाहिए। लाभ पाने के लिए ज़रूरत पड़ने पर जल पर सरकारी नियंत्रण की नीति अपनाई जानी चाहिए। अर्थात जल पर जब, जहां चाहे, सरकार या ठेका प्राप्त कर चुकी कंपनी अधिकार कर सकती है। अभी अविश्वसनीय चाहे लगे पर स्पष्ट प्रमाण हैं कि इसी प्रकार की तैयारी है। यह एक भयावह स्थिति होगी।

प्रस्ताव की धारा 7.2 कहती है कि जल के लाभकारी मूल्य के निर्धारण के लिए प्रशासनिक खर्चे, रख-रखाव के सभी खर्च उसमें जोड़े जाने चाहिए।

निति के बिंदु क्र. 2.2 के अनुसार भूस्वामी की भूमि से निकले पानी पर उसके अधिकार को समाप्त करने का प्रस्ताव है। अर्थात आज तक अपनी ज़मीन से निकल रहे पानी के प्रयोग का जो मौलिक अधिकार भारतीयों को प्राप्त था, जल आयोग (अर्थात कंपनी या कॉरपोरेशन) अब उसे समाप्त कर सकते हैं और उस जल के प्रयोग के लिए शुल्क ले सकते हैं जिसके लिए कोई सीमा निर्धारित नहीं है कि शुल्क कितना लिया जाएगा।

बिंदु क्र. 13.1 के अनुसार हर प्रदेश में एक प्राधिकरण का गठन होना है जो जल से संबंधित नियम बनाने, विवाद निपटाने, जल के मूल्य निर्धारण जैसे कार्य करेगा। इसका अर्थ है कि उसके अपने कानून और नियम होंगे और सरकारी हस्तक्षेप नाम मात्र को रह जाएगा। महँगाई की मार से घुटती जनता पर एक और मर्मान्तक प्रहार करने की तैयारी नज़र आ रही है।

सूचनाओं के अनुसार प्रारंभ में जल के मूल्यों पर अनुदान दिया जाएगा। इसके लिए विश्व बैंक, एशिया विकास बैंक धन प्रदान करते है। फिर धीरे-धीरे अनुदान घटाते हुए मूल्य बढ़ते जाते हैं। प्रस्ताव की धारा 7.4 में जल वितरण के लिए शुल्क एकत्रित करने, उसका एक भाग शुल्क के रूप में रखने आदि के अलावा उन्हें वैधानिक अधिकार प्रदान करने की भी सिफारिश की गयी है। ऐसा होने पर तो पानी के प्रयोग को लेकर एक भी गलती होने पर कानूनी कार्यवाही भुगतनी पड़ेगी। ये सारे कानून आज लागू नहीं हैं तो भी पानी के लिए कितना मारा-मारी होती है। ऐसे कठोर नियंत्रण होने पर क्या होगा? जो निर्धन पानी नहीं ख़रीद सकेंगे उनका क्या होगा? किसान खेती कैसे करेंगे? नदियों के जल पर भी ठेका लेने वाली कंपनी के पूर्ण अधिकार का प्रावधान है। पहले से ही लाखों किसान आर्थिक बदहाली के चलते आत्महत्या कर चुके हैं, इस नियम के लागू होने के बाद तो खेती असंभव हो जायेगी। अनेक अन्य देशों की तरह ठेके पर खेती करने के अलावा किसान के पास कोई विकल्प नहीं रह जाएगा।

केन्द्रीय जल आयोग तथा जल संसाधन मंत्रालय के अनुसार भारत में जल की मांग और उपलब्धता संतोषजनक है। लगभग 1100 (1093) अरब घन मीटर जल की आवश्यकता सन 2025 तक होने का मंत्रालय का अनुमान है। राष्ट्रीय आयोग के अनुसार यह मांग 2050 तक 973 से 1180 अरब घन मीटर होगी। जल के मूल्य को लाभकारी दर पर देने की नीति एक बार लागू हो जाने के बाद कंपनी उसे अनिश्चित सीमा तक बढ़ाने के लिए स्वतंत्र हो जायेगी। वह आपने कर्मचारियों को कितने भी अधिक वेतन, भत्ते देकर पानी पर उसका खर्च डाले तो उसे रोकेगा कौन?

केंद्र सरकार के उपरोक्त प्रकार के अनेक निर्णयों को देख कर कुछ मूलभूत प्रश्न पैदा होते हैं। आखिर इस सरकार की नीयत क्या करने की है? यह किसके हित में काम कर रही है, देश के या मेगा कंपनियों के? इसकी वफ़ादारी इस देश के प्रति है भी या नहीं? अन्यथा ऐसे विनाशकारी निर्णय कैसे संभव थे? एक गंभीर प्रश्न हम सबके सामने यह है कि जो सरकार भारत के नागरिकों को भोजन, शिक्षा, स्वास्थ्य, पानी जैसी मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति में स्वयं को असमर्थ बतला रही है, देश के हितों के विरुद्ध काम कर रही है, ऐसी सरकार की देश को ज़रूरत क्यों कर है?

ज्ञातव्य है कि सरकार ने स्पष्ट कह दिया है कि वह देश की जनता को जल प्रदान करने में असमर्थ है। उसके पास इस हेतु पर्याप्त संसाधन नहीं हैं। इसी प्रकार भोजन सुरक्षा, स्वास्थ्य सेवाएँ, सबको शिक्षा अधिकार देने के लिए भी संसाधनों के अभाव का रोना सरकार द्वारा रोया गया है और ये सब कार्य प्राइवेट सेक्टर को देने की सिफारिश की गयी है। ऐसे में इस सरकार के होने के अर्थ क्या हैं? इसे सत्ता में रहने का नैतिक अधिकार है भी या नहीं।

रोचक तथ्य यह है कि जो सरकार संसाधनों की कमी का रोना रो रही है, सन 2005 से लेकर सन 2012 तक इसी सरकार के द्वारा 25 लाख 74 हज़ार करोड़ रु. से अधिक की करों माफी कॉरपोरेशनों को दी गयी। (Source: Succcessive Union Budgets)। स्मरणीय है की देश की सभी केंद्र और प्रदेश सरकारों व कॉरपोरेशनों का एक साल का कुल बजट 20 लाख करोड़ रुपया होता है। उससे भी अधिक राशि इन अरबपति कंपनियों को खैरात में दे दी गयी। सोने और हीरों पर एक लाख करोड़ रुपये की कस्टम ड्यूटी माफ़ की गयी। लाखों करोड़ के घोटालों की कहानी अलग से है। इन सब कारणों से लगता है कि यह सरकार जनता के हितों की उपेक्षा अति की सीमा तक करते हुए केवल अमीरों के व्यापारिक हितों में काम कर रहे है। ऐसे में जागरूक भारतीयों का प्राथमिक कर्तव्य है कि सच को जानें और अपनी पहुँच तक उसे प्रचारित करें। निश्चित रूप से समाधान निकलेगा।
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भारत में जलक्षेत्र के निजीकरण और बाजारीकरण के प्रभाव

जल निजीकरण का विरोध
1991 से भारतीय अर्थव्यवस्था के प्रत्येक क्षेत्र में उदारीकरण, निजीकरण और भूमण्डलीकरण द्वारा बड़े बदलाव शुरू किए गए। बिजली के क्षेत्र में ये बदलाव प्रारंभ से ही लागू हो गए थे लेकिन जल क्षेत्र में ये अभी प्रारंभ हुए है। बगैर ठोस सोच-विचार के, जल्दबाजी में किए गए उदारीकरण और निजीकरण के कारण आज बिजली क्षेत्र संकट मंद है। सुधार की प्रक्रिया मानव निर्मित आपदा सिद्ध हुई है। बिजली के दाम और बिजली संकट दोनों ही बढ़े हैं और वर्षो के लिए देश पर महँगे समझौतों का बोझ लाद दिया गया है। यह सब अब अधिकृत रूप से भी स्वीकार कर लिया गया है। इस प्रक्रिया से सीख लेने के बजाय इसी प्रकार की उदारीकरण, निजीकरण और भूमण्डलीकरण की नीति अब जल क्षेत्र में भी दोहराई जा रही है।

भारत में ``सुधार´´ दो प्रकार से हो रहा है। पहले तरीके में जल सेवाओं का सीधा निजीकरण किया जा रहा है चाहे वह ``बीओटी´´ के माध्यम से हो या फिर प्रबंधन अनुबंध के माध्यम से। यह तरीका औद्योगिक और शहरी जलप्रदाय में अपनाया जा रहा है। `सुधार´ का दूसरा तरीका, ज्यादा खतरनाक है और पूरे जल क्षेत्र में इसके दूरगामी परिणाम होंगें।

सीधा निजीकरण


इसमें बीओटी (बनाओ, चलाओ और हस्तांतरित करो) परियोजनाएँ, कंसेशन अनुबंध, प्रबंधन अनुबंध, निजी पनबिजली परियोजनाएँ आदि शामिल हैं। इसी तरह की कई परियोजनाएँ या तो जारी है या फिर प्रक्रिया में है। जैसे छत्तीसगढ़ की शिवनाथ नदी, तमिलनाडु की तिरूपुर परियोजना, मुंबई में के.-ईस्ट वार्ड का प्रस्तावित निजी प्रबंधन अनुबंध आदि।

हिमाचल के अलियान दुहांगन, उत्तराखण्ड के विष्णु प्रयाग और मध्यप्रदेश की महेश्वर जल विद्युत परियोजना की तरह अनेक निजी पनबिजली परियोजनाएँ या तो निर्मित हो चुकी है या फिर निर्माणाधीन है। अलियान दुहांगन परियोजना को अंतर्राष्ट्रीय वित्त निगम (IFC) ने कर्ज दिया है। निजी जल विद्युत परियोजनाओं के मामले में कंपनियों को नदियों पर नियंत्रण का अधिकार दे दिया जाता है जिसका विपरीत प्रभाव निचवास (Down-stream) में रहने वाले समुदायों पर पड़ता है।

दिल्ली जल निगम का प्रस्तावित निजीकरण


एक सावर्जनिक उद्यम दिल्ली जल निगम का ``दिल्ली जलप्रद्राय एवं मल निकास परियोजना´´ के नाम से विश्व बैंक के कर्ज की शर्तों के तहत निजीकरण किया जाने वाला था। इस परियोजना हेतु विश्व बैंक ने 14 करोड़ डॉलर का कर्ज देने के पूर्व सन् 2002 में दिल्ली जल बोर्ड के सुधार एवं पुनर्रचना के अध्ययन हेतु 25 लाख डॉलर की सहायता दी थी। यह कार्य विश्व बैंक की चहेती सलाहकारी फर्म प्राईस वाटरहाउस कूपर्स (PWC) को दिया गया था। सलाहकार फर्म का चयन संदेहास्पद तरीके से किया गया था, जिसका खुलासा `परिवर्तन´ (दिल्ली) द्वारा किया गया। दिल्ली जल बोर्ड के सुधार के मुख्य बिंदु निम्न थे-

दिल्ली जल बोर्ड के 21 झोनों का जलप्रदाय प्रबंधन निजी कंपनियों को सौंपा जाना था जिनमें से 2 झोन के टेण्डर मार्च 2005 में जारी किए गए थे।

दिल्ली जल बोर्ड के कर्मचारियों का कंपनी के लिए काम करना।

अत्यधिक प्रबंधन फीस (5 करोड़ रुपए/कंपनी/वर्ष) के कारण खर्च में बढ़ौत्तरी और खर्च में दिल्ली जल बोर्ड के नियंत्रण की समाप्ति।

खर्चों में बढ़ौत्तरी की पूर्ति के लिए तत्कालीन जल दरों में 6 गुना वृद्धि। मध्यमवर्गीय परिवारों के लिए जलदर 1200 रुपए/माह और बस्तियों के लिए 350 रुपए/माह।

हालांकि जलप्रदाय प्रबंधन कंपनी करती लेकिन प्रत्येक झोन में जलप्रदाय की जिम्मेदारी दिल्ली जल बोर्ड की ही रहती।

कंपनी को निश्चित लक्ष्य प्राप्त करने के बदले बोनस दिया जाना था जबकि अध्ययन बताते है कि वे लक्ष्य ही बोगस थे।

दिल्ली जल बोर्ड और कंपनी के मध्य हुए समझौते के अनुसार कंपनी को शिकायत निवारण हेतु 20 दिन का समय दिया गया था जबकि वर्तमान में यह समय 1 से 3 दिन है।

पानी की गुणवत्ता में सुधार नहीं। कंपनी भी वही प्रक्रिया और उपकरणों का इस्तेमाल करने वाली थी जो दिल्ली जल बोर्ड करता है।

गरीबों और वंचितों को मुफ्त अथवा रियायती दरों पर पानी नहीं।

कंपनी की जवाबदेही न के बराबर।

के.ईस्ट वार्ड (मुंबई) का प्रस्तावित जल वितरण निजीकरण


के.-ईस्ट वार्ड (मुंबई) में पानी के निजीकरण की प्रक्रिया जनवरी 2006 में उस समय शुरू हुई जब विश्व बैंक ने एक फ्रांसीसी सलाहकार फर्म `कस्टालिया´ को वार्ड में पानी के निजीकरण की प्रयोगात्मक योजना तैयार करने को कहा। विश्व बैंक ने तीसरी दुनिया के देशों में निजीकरण को बढ़ावा देने वाली अपनी संस्था `पब्लिक प्रायवेट इन्फ्रास्ट्रक्चर एडवायजरी फेसिलिटी´ (पीपीआईएएफ) के माध्यम से 5 6,92,500 डॉलर उपलब्ध करवाए। इस वार्ड की जनसंख्या 10 लाख है और जलप्रदाय राजस्व की दृष्टि से यह वार्ड पहले से ही फायदे वाला है। सफल क्रियांवयन पर इस प्रयोग का विस्तार पूरे मुंबई शहर में किया जाना था।

जब निजीकरण के खिलाफ विरोध बढ़ा तो बृहन्न मुंबई नगरपालिक निगम ने यह दावा किया कि उसने कस्टालिया को निजीकरण के साथ अन्य सारे विकल्प सुझाने को कहा है। हालांकि कस्टालिया ने संबंधित पक्षों (स्टेक होल्डर) की दूसरी मीटिंग में जो विकल्प सुझाए उनमें निजीकरण को प्राथमिकता दी गई थी। लेकिन ``मुंबई पानी´´ जैसे मुंबई में कार्यरत् निजीकरण विरोधी समूहों के कारण अब यह परियोजना रोक दी गई।

स्वजलधारा

ग्रामीण क्षेत्रों में बड़े पैमाने पर क्रियांवित स्वजलधारा परियोजना विश्व बैंक द्वारा वित्तपोषित है। गाँवों में साफ और सुरक्षित पेयजल उपलब्ध करवाने हेतु यह योजना कई राज्यों में जारी है। परियोजना रिपोर्ट और अध्ययन बताते हैं कि इसके लिए संचालन और संधारण की पूर्ण लागत वापसी और ग्रामीणों का मौद्रिक अंशदान जरूरी है। जो लोग यह कीमत अदा नहीं कर सकते वे इस योजना से वंचित हो जाते हैं तथा उन्हें अपने संसाधन स्वयं तलाशने होते हैं। रिपोर्ट यह भी बताती है कि इनमें से कुछ योजनाएँ स्थानीय दबंगों और ठेकेदारों ने हथिया ली है और वे लोगों से पैसे वसूल रहे हैं।

सुधार और पुनर्रचना

जल क्षेत्र में सुधार और पुनर्रचना ठीक उसी तरह जारी है जैसा बिजली के मामले में हुआ और वास्तव में यह दुनियाभर में होने वाले पानी के निजीकरण की तरह ही है। ये नीतियाँ विश्व बैंक और एशियाई विकास बैंक द्वारा पूरे क्षेत्र को बाजार में तब्दील करने पर जोर देते हुए आगे धकेली जा रही है।

हालांकि देश के जल क्षेत्र में सुधार की जरूरत है लेकिन विश्व बैंक के सुझाए तरीके का अर्थ है जलक्षेत्र का व्यावसायिक गतिविधि में बदलना और जल का सामाजिक प्रतिबद्धता के बजाय एक खरीदी-बेची जाने वाली वस्तु में बदलाव। इनमें हमेशा निम्न बिन्दु शामिल होते हैं –

विखण्डन (स्रोत, पारेषण और वितरण को अलग करना)
क्षेत्र को ``राजनैतिक हस्तक्षेप´´ से मुक्त करवाने हेतु एक स्वतंत्र नियामक का गठन
दरों में अत्यधिक वृद्धि
पूर्ण लागत वापसी
सिब्सडी का खात्मा
पैसा नहीं देने पर सेवा समाप्ति
कर्मचारियों की छँटनी
निजी क्षेत्र की भागीदारी या निजी सार्वजनिक भागीदारी
सर्वाधिक मूल्य उपयोग (highest value use) हेतु बाजार के सिद्धांत के अनुसार पानी का आवंटन।
इस प्रक्रिया को लगभग हमेशा ही विश्व बैंक, एशियाई विकास बैंक और डीएफआईडी आदि द्वारा आगे धकेला गया।

नीति निर्धारण, पुनर्रचना प्रक्रिया और यहाँ तक कि कानूनों के प्रारूप भी अत्यधिक महँगे अंतर्राष्ट्रीय सलाहकारों द्वारा बनाए जाते हैं। हालांकि सुधार को जलक्षेत्र की वर्तमान समस्याओं के संभावित हल की तरह प्रस्तुत किया जाता है लेकिन, इसमें ज्यादातर वित्तीय पक्ष की ही चिंता की जाती है। ये सुधार शायद ही समस्याओं के मूल कारणों के अध्ययन पर आधारित होते हैं। इन अध्ययनों की अनुसंशाएँ पहले से ही तय होती है। इस प्रकार, एक ही तरह के सुधार न केवल देश के कई हिस्सों में सुझाए जाते है बल्कि इन्हीं तरीकों को दुनिया के कई देशों में लागू किया जाता है। वर्तमान में देश के कई राज्यों में विश्व बैंक/एडीबी आदि की शर्तों के तहत सुधार प्रक्रिया विभिन्न चरणों में जारी है।

चूँकि पानी राज्य का विषय है इसलिए सुधार का बड़ा हिस्सा राज्यों के स्तर पर जारी है। केन्द्र सरकार ने भी पानी के निजीकरण और व्यावसायीकरण के बारे में अनेक कदम उठाए गए हैं। जैसे –

1991-बिजली क्षेत्र निजीकरण हेतु खोला गया जिससे जलविद्युत का निजीकरण प्रारंभ हुआ।
2002-नई जल नीति में निजीकरण को शामिल किया गया।
2004-शहरी जलप्रदाय और मलनिकास सुधार में जन-निजी भागीदारी की मार्गदर्शिका तैयार की।
2005-जेएनएनयूआरएम और यूआईडीएसएसएमटी जैसी योजनाओं के माध्यम से शहरी जलप्रदाय में निजी क्षेत्र के प्रवेश पर जोर दिया गया। जन-निजी भागीदारी को प्राथमिकता।
2006 - बुनियादी ढाँचा परियोजनाओं हेतु 20% धन उपलब्ध करवाने हेतु भारतीय बुनियादी वित्त निगम लिमिटेड (IIFCL) का गठन किया गया।
2008 - परियोजना विकास खर्च का 75% तक वित्त उपलब्ध करवाने हेतु भारतीय बुनियादी परियोजना विकास कोष (IIPDF) का गठन किया गया।

मध्यप्रदेश जल क्षेत्र सुधार

2005 में विश्व बैंक ने मध्यप्रदेश सरकार को 39.6 करोड़ डॉलर का कर्ज दिया है। इस कर्ज से क्षेत्र सुधार की शर्तों के साथ ``मध्यप्रदेश जल क्षेत्र पुनर्रचना परियोजना´´ जारी है।
इस परियोजना के मुख्य बिंदु निम्न है –

जलक्षेत्र का व्यावसायीकरण। पूरे क्षेत्र को बाजार में तब्दील करना।
पूर्ण लागत वसूली और जल दरों में बढ़ौत्तरी
सब्सिडी की समाप्ति
जबरिया नया कानून बनवाया जा रहा है जिसके तहत राज्य जल दर नियामक आयोग का गठन किया जाएगा। इस कानून का प्रारूप तैयार किया जा चुका है।
राज्य जल संसाधन एजेंसी का गठन
बड़े पैमाने पर कर्मचारियों की छँटनी
पहले चरण में 25 छोटी और 1 मध्यम परियोजना का निजीकरण

महाराष्ट्र राज्य जल संसाधन नियमन प्राधिकरण


विश्व बैंक के वित्तपोषण से महाराष्ट्र में सुधार की प्रक्रिया जारी है। ``महाराष्ट्र राज्य जल संसाधन नियमन प्राधिकरण´´ का गठन किया जा चुका है और विश्व बैंक के ``सुझावों´´ के अनुरूप प्राधिकरण ने अपना कार्य प्रारंभ कर दिया है। नियामक प्राधिकरण का गठन जून 2005 में किया गया लेकिन इसने काम मई 2006 में प्रारंभ किया। दर निर्धारण के अलावा इसका प्रमुख कार्य जल अधिकारों के व्यापार का मानदण्ड तैयार करना है। ये जल अधिकार वार्षिक अथवा मौसमी आधार पर बेचे-खरीदे जा सकते हैं। आयोग द्वारा 2 बड़ी सिंचाई परियोजनाओं समेत 6 परियोजनाओं में जल अधिकार सुनिश्चित करने तथा उसके बाजार का ढाँचा तैयार करने का प्रयास प्रायोगिक तौर पर किया जा रहा है।

प्रभाव

समाज के सभी वर्गों में सुधार के प्रभावों का अनुभव किया जा रहा है। लेकिन, गरीब परिवार और किसान जैसे वंचित समुदाय इससे गंभीर रूप से प्रभावित होंगे। मध्यम वर्ग भी इसे अनुभव करेगा। इसके प्रमुख प्रभाव निम्न हैं –

अत्यधिक दर वृद्धि के कारण कई लोग तो पीने के पानी का भार भी वहन नहीं कर पाएँगें।
भुगतान में असमर्थता के कारण सेवा समाप्ति यानी पानी के कनेक्शन काटे जाएँगें।
जल कनेक्शन काटने का अर्थ है कि या तो लोग कम गुणवत्ता का पानी पीने पर मजबूर होंगें अथवा गंभीर राजनैतिक अशांति पैदा हो सकती है।
सिंचाई दरों में बढ़ौत्तरी होने से पहले से ही दयनीय कृषि क्षेत्र की दशा और खराब हो जायेगी।
गरीबों का सहारा हेण्डपम्प, सार्वजनिक नल आदि सुविधाएँ खत्म कर दी जाएगी।
पैसा देने वाले उपभोक्ताओं के लिए तंत्र में बदलाव किए जाएँगें। जो ऊँची दरों का भुगतान नहीं कर पाएँगें वे या तो सेवा से बाहर कर दिए जाएँगे या फिर हाशिएँ पर धकेल दिए जाएँगें।

अंतत: जो भुगतान कर सकते हैं उन्हीं के लिए जल संसाधनों को हड़प लिया जाएगा।
निजी कंपनियों द्वारा भारी मुनाफाखोरी की जाएगी।
सार्वजनिक संसाधनों से पीढ़ियों से निर्मित बुनियादी ढाँचों को नाममात्र की कीमत में बेच दिया जाएगा।
भूजल, नदी आदि समुदाय के संसाधनों पर निजी नियंत्रण संभावित।
सार्वजनिक क्षेत्र के कर्मचारियों की भारी छँटनी उपरोक्त के कारण वित्तीय समस्याओं, गुणवत्ता और मात्रा संबंधी समस्याओं, उचित एवं वहनीय जलप्रदाय, संसाधनों की सुरक्षा और विस्तार जैसी जल क्षेत्र की प्रमुख समस्याओं के हल की संभावना अत्यंत क्षीण है।

सुधार क्यों

पिछले कुछ वर्षों में निजीकरण के व्यवहार और इससे संबंधित चर्चाओं में बदलाव आया है। इस संबंध में पहला प्रयास सीधे निजीकरण का था, जिसकी दुनियाभर में कड़ी राजनैतिक प्रतिक्रिया हुई। कई कंपनियों के लिए मुनाफा कमाना आसान नहीं रहा। मुनाफा कमाने के लिए सेवा दरों में भारी वृद्धि करनी होती है जो गरीबों के लिए असहनीय होती है। ऐसे में जलप्रदाय जारी रखने से मुनाफे में कमी होती है और कनेक्शन काटने से सामाजिक अशांति पैदा होने का खतरा रहता है।

राजनैतिक सामाजिक आक्रोश और मुनाफा कमाने में कठिनाईयों का परिणाम ``गरीब हितैषी´´ निजीकरण और सार्वजनिक निजी भागीदारी (जिसमें सार्वजनिक क्षेत्र निजी क्षेत्र को फायदा पहुँचाने के लिए स्वयं सारे जोखिम उठाता है।) जैसी योजनाओं के रूप में सामने आया। परन्तु, यह पर्याप्त सिद्ध नहीं हुआ और राजैनेतिक आक्रोश के कारण मुनाफा कमाने में परेशानियाँ जारी रही है। इस प्रकार क्षेत्र सुधार या सेक्टर रिफार्म पर जोर दिया गया। इसमें निजी क्षेत्र सीधे परिदृश्य में नहीं होते हैं। अलोकप्रिय और कड़े निर्णय लेने और उन्हें लागू करने की सारी जिम्मेदारी सरकार और सार्वजनिक निकायों की होती है। इसमें वे सारे तरीके शामिल होते हैं जिन्हें ऊपर रेखांकित किया गया है।

इसके पीछे की सोच यह है कि क्षेत्र को पूर्ण रूप से व्यावसायिक बनाने का आरोप और राजनैतिक प्रतिक्रिया सरकार सहेगी और उसके बाद इसे निजी क्षेत्र को सौंप दिया जाएगा। निजी क्षेत्रों को फायदा पहुँचाने का, उन्हें सामाजिक जिम्मेदारी के बोझ और जोखिम से परे करने का आजकल यह रास्ता निकाला गया है। इस प्रकार जल क्षेत्र सुधार को भी भूमण्डलीकरण और निजीकरण के नवउदारवादी एजेण्डे के सीधे और आवश्यक घटक के रूप में देखा जाना चाहिए।

विश्व बैंक ``ज्ञानदाता´´ के रूप में

विश्व बैंक अन्य द्विपक्षीय कर्जदाताओं के साथ मिलकर क्षेत्र निजीकरण एवं व्यावसायीकरण में पैसे देने के अलावा एक और महत्वपूर्ण भूमिका अदा कर रहा है। यह भूमिका ``शोध´´ और ``अध्ययन´´ के माध्यम निजीकरण को सही सिद्ध करने के ``ज्ञान´´ और अन्य सहयोग के रूप में है।

जल क्षेत्र की गहन और लंबे समय से चली आ रही समस्याओं के ``हल´´ के रूप में निजीकरण को देश पर लादा जा रहा है। इस नीति निर्धारण को ``हल´´ के रूप में प्रदर्शित करवाने के लिए इसे शोध और अध्ययन के निष्कर्षों की तरह प्रदर्शित किया जाता है। इसके लिए विश्व बैंक स्वयं अथवा सलाहकारों के माध्यम से बड़ी संख्या में शोध और अध्ययन करवाता है।

उदाहरणार्थ, विश्व बैंक कुछ अंतर्राष्ट्रीय कर्जदाता एजेंसियों के साथ मिलकर जल एवं स्वच्छता कार्यक्रम (वाटर एण्ड सेनिटेशन प्रोग्राम) संचालित करता है। भारत में भी यह कार्यक्रम अध्ययनों की एक श्रंखला के साथ सामने आया है जिनमें जल क्षेत्र की समस्याओं जैसे शहरी और ग्रामीण जलप्रदाय, सिंचाई आदि का हल सुझाया गया है।

इसमें कोई आश्चर्य नहीं कि निजीकरण के दुष्परिणामों के ढेर सारे उदाहरणों के बावजूद विश्व बैंक के ऐसे अध्ययन किसी भी क्षेत्र के लिए हमेशा एक जैसा निजीकरण और उदारीकरण का घिसापिटा नुस्खा ही सुझाते हैं। इसे हम मोटे रूप में निजीकरण, निगमीकरण और भूमण्डलीकरण के पुलिंदे का ``बौद्धिक एवं सैद्धांतिक आधार´´ कह सकते हैं।

विश्व बैंक की राष्ट्र सहायता रणनीति (CAS) 2005-2008 से स्पष्ट है कि निजीकरण और भूमण्डलीकरण को आगे धकेलने में विश्व बैंक अपनी ज्ञानदाता की भूमिका को कितना महत्व देता है। यह दस्तावेज भारत को इन 3 वर्षों में दिए जाने वाले कर्जों के संबंध में विश्व बैंक की रणनीति और प्राथमिकता निर्धारित करता रहा। विश्व बैंक के कार्यों के संबंध में तीन ``रणनैतिक सिद्धांतों´´ में से एक है-``बैंक का लक्ष्य व्यावहारिक, राजनैतिक ज्ञानदाता और उत्पादक की भूमिका का पर्याप्त विस्तार करना है।
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टिहरी बांध : बांध में डूबी जिंदगियां
Author: गीता गैरोला Edition : July 2012

हम अभी-अभी नई टिहरी से लौटे हैं।

आगराखाल से नरेंद्रनगर के बीच उतरती शाम में बादलों के बीच छिप-छिप कर डूबते सूरज की लालिमा भी मन को बांध नहीं पाई। जब भी नई टिहरी जाना होता है। हमेशा पहाड़ों की शृंखला के पार स्थिर बर्फ की चोटियों की तरफ ही देखती हूं। पहाड़ों की तलहटी में घिरे कालिमा लिए 65 कि.मी. लंबी झील देखने सेदिल में दहशत सी होने लगती है। ऐसा हमेशा ही होता है। नई टिहरी से लौटकर आने के बाद एक जीता-जागता शहर मेरे खून के साथ रग-रग में दौडऩे लगता है। ढेरों प्रश्न चारों तरफ नाच-नाचकर चीखने लगते हैं।

विकास के नाम पर 125 गांव उनकी गलियां, खेत-खलिहान गधेरे, धारे, नौले, लाखों पेड़, उन पर बसेरा करते पक्षी, उनके नन्हे-नन्हे बच्चे सब पूछने लगते हैं, हमारा क्या कसूर था। तुम्हारे इस विकास से हमें क्या मिला।

1965 में जब तुम बांध बनाने की योजना बना रहे थे। तुमने हमसे क्यों नहीं पूछा कि हम क्या चाहते हैं। आज किसी को याद भी नहीं है कि इसी भागीरथी नदी से 1903 में पन-बिजली का उत्पादन होने लगा था। जिसकी जगमगाती बत्तियां भागीरथी के बहाव में आंखें झपका-झपका कर टिमटिमाती रहतीं। अगर तुम्हें बिजली की जरूरत थी तो ऐसे ही पन बिजली बनाने की बात तुम्हें याद रखनी चाहिए थी।

जब भी नई टिहरी जाना होता है। हमेशा पहाड़ों की शृंखला के पार स्थिर बर्फ की चोटियों की तरफ ही देखती हूं। पहाड़ों की तलहटी में घिरे कालिमा लिए 65 कि.मी. लंबी झील देखने से दिल में दहशत सी होने लगती है। ऐसा हमेशा ही होता है। नई टिहरी से लौटकर आने के बाद एक जीता-जागता शहर मेरे खून के साथ रग-रग में दौडऩे लगता है। ढेरों प्रश्न चारों तरफ नाच-नाचकर चीखने लगते हैं।
मसूरी देहरादून के बीच बनी गलोगी, पन-बिलजी योजना को तुम सब कैसे भूल गए जो आज भी मौजूद है, गलोगी पावर हाउस को चलाने की जिम्मेदारी अंग्रेजी शासन के दौरान भी मसूरी नगर पालिका को दी गई थी। क्या ऐसे ही छोटी-छोटी परियोजनाएं तुम नहीं बना सकते थे। जिनको जिला पंचायत चला सकती है, तुम तो पंचायतों के स्वशासन को सशक्त करने के लिए दिन-रात प्रयत्न करने के दावे करते रहते हो। 1974-75 में जिस दिन तुमने एक किनारे से खुदाई करनी शुरू थी, हमें विश्वास नहीं हुआ कि बांध के नाम पर 30 दिसंबर, 1815 को स्थापित टिहरी और इसके 125 गांवों की पूरी सभ्यता, उसके इतिहास को सचमुच डुबो दिया जायेगा। सीमेंट, कंक्रीट और असेना, डोबरा गांव के पत्थर मिट्टी से 260.5 मीटर ऊंची दीवार बनाकर तुम भागीरथी और भिलंगना के संगम गणेश प्रयाग के नामो-निशान मिटा दोगे। पहाड़ों को कुरेद-कुरेद कर 35 कि.मी. लंबी सुरंगें बनाकर भागीरथी को अंतर्ध्यान कर दोगे। तुम्हें याद होगा भादू की मगरी से नीचे रैका धारमंडल और कंडल गांव को जाने के लिए भिलंगना नदी के ऊपर बना झूला पुल कितना प्यारा था। 1877 में यह झूला पुल टिहरी के राजा प्रताप शाह ने बनवाया था। इसी पुल के ऊपर से राजा प्रतापशाह घोड़े में बैठकर गर्मियों के दिनों में प्रतापनगर के महल में रहने जाया करता था। बुजुर्ग बताते हैं कि कंडल गांव की जमीन टिहरी रियासत की उपजाऊ जमीनों में आला दर्जे की जमीनें थीं। पुल पार करते ही सैकड़ों साल पुराने पीपल के पेड़ की गझिन छांव राही को अपने चमकीले पत्ते हिला-हिलाकर निमंत्रित करती रहती। टिहरी से नगुण को जाने वाली सड़क के किनारे वाली बसासतें टिहरी की सबसे घनी और उपजाऊ बसासतें थी। स्यासूं के पल्ली पार मणी गांव के सेरों में लगी रोपणी (रोपाई वाले धान) की हरियाली गंगोत्री, यमुनोत्री जाने वाले यात्रियों की थकान मिटा देती थी। झील की तलछट में दबे नगुण के सेरों में हर वर्ष पापड़ी संक्रांति (वैशाखी) को लगने वाले मेले में हजारों बच्चों ने लाल-हरे चिल्ले और रबड़ से बने गोल चश्मों की रंगीली दुनिया को देखना सीखा। पडियार गांव गोदी, सिरांई और माली देवल के सेरा का भात खाकर सुंदर लाल बहुगुणा ने पूरे विश्व में अपनी धाक जमाई। दोबाटे से टिहरी की तरफ उतरती सड़क के बायीं ओर भागीरथी के किनारे सड़क के नीचे आम के झुरमुट में छिपे तीन धारे के ठंडे मीठे पानी से पूरी टिहरी शहर की प्यास बुझाती थी। भागीरथी के ऊपर 1858 में बने पुल को पार करते ही बड़े से पीपल के पेड़ से ढके टिहरी के बस स्टैंड में खड़ी बसों के कंडक्टरों की बुलाहट सुनाई देने लगती। ऋषिकेश, उत्तरकाशी, घनसाली, प्रतापनगर की आवाजें गड़मड़ होकर यात्रियों को अपने गंतव्य की तरफ जाने को बुलाते रहते। बस स्टैंड से सटे गुरुद्वारे से आती शब्द कीर्तन की मधुर ध्वनि हर एक को मत्था टेकने को उकसाती। बस स्टैंड से सेमल तप्पड़ तक छोटी सी, हलचलों से धड़कते टिहरी बाजार की रौनक उसकी चहल-पहल और रिश्तों की गरमाहट सब झील में समा गई।

भारत सरकार ने 1996 में टिहरी शहर तथा उसके आसपास के विस्थापित होने वाले गांवों की समस्याओं को समझने हेतु हनुमंत राव कमेटी का गठन किया। हनुमंत राव कमेटी के सुझावों पर बनी भारत की सबसे अच्छी पुनर्वास नीति में विधवा, परित्यक्ता, तलाकशुदा व दूसरी पत्नी के लिए कोई नियम/उपनियम नहीं बनाये गए। समाज के पितृसत्तात्मक ढांचों में उपेक्षित महिलाओं की सुध सरकार क्यों लेती, जब परिवार के लोग ही उन्हें बोझ मानते हैं। विधवा, परित्यकता, तलाक शुदा व दूसरी पत्नी बनी महिलाओं के लिए टिहरी की पुनर्वास नीति में कोई जगह नहीं है। पति की मृत्यु के पश्चात् विधवा महिला का एक मात्र आश्रय पति द्वारा छोड़ी गई जमीन या मकान की संपत्ति होती है। जो अक्सर पत्नी के नाम न होकर बेटों के नाम पर होती है। यहां पर भी विधवा महिलाओं के बेटे ही मकान तथा जमीन से मिलने वाले मुआवजे के पात्र बने। यही तो हैं असमान परंपराएं। जिनकी आड़ में औरतों का शोषण छिपा रहता है। बचपन में पिता, भाई और विवाह के पश्चात पति, बेटों या परिवार के अन्य पुरुष सदस्यों पर आर्थिक रूप से निर्भर इन महिलाओं के लिए बनाये गए कानून सरकारी नीतियों का क्रियान्वयन कभी भी इनके पक्ष में नहीं होता। अगर कुछ बचा तो विस्थापितों के नाम पर बांटे गए 200 करोड़ रुपयों की छीना-झपटी लूट-खसोट और विचौलियों की दलाली। 29 जुलाई 2005 को टिहरी शहर में पानी घुसा और लगभग 100 परिवारों को अपना घर-बार छोडऩा पड़ा। 29 अक्टूबर, 2005 के दिन दो सुरंगें बंद कर दी गईं। 1857 में बना टिहरी का प्रसिद्ध घंटाघर पल-पल पानी में समाती टिहरी उसके आस-पास के 39 गांवों को अंतिम सांसें गिनते देखता रहा।

लगभग चार सौ महिलाओं को एक्सग्रेसिया के रूप में कुछ पैसा दिया गया। इतने कम पैसे में किसी तरह के मकान या जमीन क्रय करने की कल्पना भी नहीं की जा सकती। जिनके पति संतान न होने पर दूसरा विवाह कर लेते हैं। निसंतान होने, सामाजिक अभिशाप झेलती ऐसी महिलाएं पति द्वारा हमेशा उपेक्षित रहती हैं। विस्थापित होने के कारण पुश्तैनी संपत्ति डूब गई। गांव के अंदर मिलने वाला नैतिक सहारा भी इन महिलाओं से छूट गया। ऐसी ही एक महिला है मनोरमा घिल्डियाल जो नई टिहरी में एक अस्थाई टिन शेड में एकांत जीवन बिता रही हैं। पडियार गांव झील में समाने के बाद गांव के प्रतिष्ठित माफीदारों के परिवार की एक माफीदारिन को भी दर-दर भटकते देखा गया है। डूबक्षेत्र के दलित परिवारों को हरिद्वार तथा देहरादून में पुनर्वासित किया गया। इससे पहले कि ये परिवार उस जमीन में बसने का उपक्रम करते, जमीन के दलालों के पास दलित परिवारों को आवंटित जमीन की सूची पहुंच गई।

उत्तराखंड राज्य स्थापना के बाद बड़े-बड़े बिल्डर, उद्योगपति, भू-माफियाओं के लिए उत्तराखंड की गरीबी और विस्थापन के बाद नए सिरे से बसने की लोगों की बैचेनी ने खाद-पानी का काम किया। इनका सबसे आसान शिकार बनी महिलाएं और दलित। आनन-फानन में इनको बहला-फुसला कर जमीन औने-पौने दामों में विकवा दी गई। जमीन से मिला पैसा शराब की भेंट चढ़ गया। डूबक्षेत्र के अधिकांश दलित परिवार दर-दर भटकने को मजबूर हैं।

झील में पूरी तरह डूबे भल्डियाना गांव के रूकमदास का परिवार आज भी चिन्याली गांव में रह रहा है। इन्हें विस्थापन के बाद हरिद्वार के पथरी क्षेत्र में 8 बीघा जमीन मुआवजे में मिली थी। जब तक पूरी 8 बीघा जमीन बिक नहीं गई तब तक दलाल उनके पीछे लगे रहे। करोड़ों रुपए की जमीन भूमाफियाओं ने मात्र 8 लाख में बेच दी। तीन बेरोजगार बेटों के परिवारों के भरण पोषण के लिए आठ लाख कितने दिन चलते। आज रूकमदास का परिवार दो छोटे-छोटे कमरों में दिन बिता रहा है। गांव की जमीन से दो-चार महीनों की गुजर-बसर के लिए पैदा होने वाली फसलों का सहारा समाप्त हो गया।

मालीदेवल गांव में जन्मी और टिहरी शहर में ब्याही गई 62 वर्षीय देवेश्वरी घिल्डियाल का मायका और ससुराल दोनों ही टिहरी झील में समा गए। जमीन और मकान का मुआवजा तो मिल गया, लेकिन जन्म भूमि की महक झील के नीचे जमी तलछट में समा गई। अपने डूबते शहर से पांच लीटर के केन में गंगाजल भर कर लाई थी। उसमें से बूंद-बूंद अमृत की तरह पीती है, और धारों-धार रोती है। देवेश्वरी ने पुरानी टिहरी में खरीदे कपड़े, टिहरी की मिट्टी, फलों के बीज स्मृति स्वरूप संभाल कर रखे हैं। उन्हें अक्सर रात को पुरानी टिहरी और मालीदेवल के सपने आते हैं। देवेश्वरी का कहना है कि सामाजिक रिश्तों की भरपाई क्या किसी मुआवजे से की जा सकती है। क्या किसी गांव, क्षेत्र, शहर के सामाजिक सांस्कृतिक ताने-बाने को विस्थापित किया जा सकता है।

झील के किनारे जाते ही मेरा तन मन और मेरे वजूद से जुड़ी सारी कायनात उसमें छलांग लगाकर घुसने के लिए बेताब हो जाती है। मैं हाथीथान मोहल्ले के उस घर में घुसकर अपने नन्हे से बेटे के घुटनों-घुटनों चलते निशान लाना चाहती हूं जो उसी घर के बरामदे में कहीं छूट गए। टिहरी बाजार से उन टुकड़ों को बीनना चाहती हूं जो हम सब सहेलियों को चूड़ी पहनाने वाले हाथों से टूट कर झील की गहराई में ही छूट गए।
http://www.samayantar.com/tehri-dam-born-on-death-of-a-city/


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