hursday, 06 December 2012 10:57 |
हेमंत शर्मा मैं सात घंटे लगातार ढांचे के सामने सीता रसोई में बैठा इस अपकर्म का साक्षी बनता रहा। पूरे माहौल में न भक्ति थी, न श्रद्धा। छियालीस एकड़ का पूरा इलाका नफरत, उन्माद, विक्षिप्तता और जुनून की गिरफ्त में था। पगलाई भीड़ में निर्माण की जगह विध्वंस की आतुरता थी। मर्यादा पुरुषोत्तम के नाम पर हर कोई अमर्यादित था। मैंने पुलिस बलों का ऐसा गांधीवादी चेहरा पहली बार देखा। बेबस और अवाक। सबके मन में एक ही सवाल था, यह सब अकस्मात है या नियोजित? पर माहौल चीख-चीख कर कह रहा था कि कारसेवा के लिए रोज बदलते बयान, झूठे हलफनामे, कपट संधि करती सरकारों के लिए यह सब अकस्मात हो सकता है, पर कारसेवक तो इसी खातिर आए थे। कारसेवकों को वही करने के लिए बुलाया गया था, जो उन्होंने किया। 'ढांचे पर विजय पाने' और 'गुलामी के प्रतीक को मिटाने' के लिए ही तो वे लाए गए थे। विवादित इलाके से सटी इमारत थी मानस भवन। इसकी छत से पूरा पैंसठ एकड़ का इलाका साफ दिखता था। विश्वहिंदू परिषद ने पत्रकारों को यहीं बिठाने का इंतजाम किया था। छत पर कोई एक दर्जन विडियो कैमरे लगे थे। ऊपर से पूरा दृश्य केसरिया था। दूर-दूर तक जन सैलाब। पुलिस के साथ ही आरएसएस के गणवेशधारी स्वयंसेवक भीड़ को नियंत्रित करने की व्यवस्था में लगे थे। ग्यारह बजते-बजते कारसेवकों का सैलाब सारी पाबंदियां नकार कर बैरिकेटिंग पर दबाव बनाने लगा। मानस भवन की छत पर, जहां हम खड़े थे वहां भी, कारसेवकों ने कब्जा जमा लिया। हम नीचे उतर आए और विवादित ढांचे से कोई पचास गज दूर सीता रसोई की छत पर चले गए। यहां पुलिस का कंट्रोल रूम था। इसे मैंने सबसे सुरक्षित जगह माना था, पर कारसेवकों का सबसे पहला हमला यहीं हुआ। सीता रसोई की छत से दिख रहा था कि विवादित ढांचे के भीतर राम चबूतरे पर पूजा-अर्चना चल रही है। तभी एकाएक हडकंप मचा। शेषावतार मंदिर की तरफ से कुछ लोग ढांचे पर पत्थर फेंकने लगे। ढांचे के पीछे की तरफ से भी ऐसा हुआ। देखते-देखते भगदड़ मची। सामने की तरफ से रोकने की लाख कोशिशों के बावजूद कारसेवक कंटीली बाड़ फांद कर ढांचे की बाहरी दीवार और गुंबदों पर चढ़ गए। पूरा माहौल बदल गया। जब तक सुरक्षा बल समझते, तब तक जमा लाखों कारसेवकों का रुख ढांचे की तरफ हो गया। सरकार अयोध्या में एक बार फिर फेल हो गई। बारह बजे तक ढांचा पूरी तरह कारसेवकों के हवाले था। उन्होंने घुसते ही ढांचे के भीतर की हॉटलाइन काटी। फिर तोड़ी गई बैरिकेटिंग के लोहे की पाइप से गुंबदों पर हमला बोला गया। ऊपर गुंबदों पर होने वाले प्रहार से चिनगारियां फूट रही थीं। नीचे कारसेवकों के आक्रोश की चिंगारियों का सामना पत्रकार और फोटोग्राफर कर रहे थे। मानस भवन की छत पर पत्रकारों की पिटाई शुरू हो चुकी थी। दोपहर एक बजे तक ढांचे की बाहरी दीवार ढहाई जा चुकी थी। जिला प्रशासन ने पचास कंपनी अर्धसैनिक बलों की मांग की। वे फैजाबाद से चलीं भी, पर अयोध्या की सीमा पर कारसेवकों ने रुकावट खड़ी कर उन्हें रोक दिया। तीन बजे पुलिस कंट्रोलरूम को मुख्यमंत्री कल्याण सिंह का संदेश मिला, कारसेवकों पर गोली नहीं चलेगी। गोली के अलावा उनसे निपटने के इंतजाम हों। इससे अर्धसैनिक बलों में दुविधा फैल गई। सुरक्षाबल निष्क्रिय हो गए। कारसेवकों और पुलिस का रिश्ता बदल गया। पुलिस का अहिंसक रवैया देख पूरी कारसेवा तक पुलिस और कारसेवकों के रिश्ते मित्रवत रहे। चार बज कर पचास मिनट पर आखिरी गुंबद गिरा, जिसे विहिप गर्भगृह कहती थी। पूरी रात केंद्र सरकार की संभावित कार्रवाई की सुगबुगाहट के बीच गर्भगृह पर एक चबूतरा बना कर रामलला को फिर से स्थापित कर दिया गया। रातों-रात यहां तक पहुंचने के लिए अठारह सीढियां भी बनाई गर्इं। पंद्रह गुणे पंद्रह फुट के इस चबूतरे पर तीन तरफ से पांच फुट ऊंची दीवार उठा दी गई। यानी यह सब पूर्वनियोजित था। छह दिसंबर नफरत और धार्मिक हिंसा के इतिहास से जुड़ गया। जबकि हमारी परंपरा में धार्मिक प्रतिशोध को कभी जीवन मूल्य नहीं माना गया। हमारी जड़ें परंपरा में और गहरी हैं, जिसे कोई उन्मादी भीड़ नहीं हिला सकती। भावनाओं का विस्फोट विश्वासघात से नहीं होता। क्या इस विश्वासघात से समूचे हिंदू समाज की विश्वसनीयता, वचनबद्धता और जवाबदेही को नुकसान नहीं पहुंचा? यह आत्मनिरीक्षण का दिन है। |
Thursday, December 6, 2012
ध्वंस की कालिख
ध्वंस की कालिख
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