Monday, December 10, 2012

भविष्य के आधार में सेंध

भविष्य के आधार में सेंध

Monday, 10 December 2012 10:58

विष्णु बैरागी 
जनसत्ता 10 दिसंबर, 2012: अब यह कहना कोई रहस्योद्घाटन नहीं है कि उदारीकरण के नाम पर देश के सार्वजनिक क्षेत्र के नवरत्न उपक्रमों को चुन-चुन कर निशाने पर लिया जा रहा है। कुछ इस तरह मानो सोने के सारे के सारे अंडे एक साथ हासिल कर लेने की कोशिश में मुर्गी को ही मार दिया जाए। अगला निशाना भारतीय जीवन बीमा निगम पर लगता नजर आ रहा है। 
'बीमा' के नाम पर गरीबों की गाढ़ी कमाई निजी कंपनियों द्वारा व्यापार में लगाए जाते देख कर तत्कालीन केंद्रीय वित्तमंत्री चिंतामणि देशमुख ने बीमा उद्योग के राष्ट्रीयकरण का प्रस्ताव, तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के समक्ष रखा था। देशमुखजी यह देख कर चकित और दुखी होते थे कि अपने दावों के भुगतान के लिए लोग निजी बीमा कंपनियों के दफ्तरों के चक्कर काटते हैं, लेकिन उनकी सुनने को कोई तैयार नहीं है। तब देश में लगभग ढाई सौ निजी बीमा कंपनियां काम कर रही थीं और उस समय के लगभग सभी औद्योगिक घरानों ने अपनी-अपनी बीमा कंपनियां खोल रखी थीं। स्वाभाविक ही था कि इन बीमा कंपनियों का सारा पैसा वे अपने-अपने उद्यमों या व्यापार में इस्तेमाल करते। यही हो भी रहा था। गरीबों के पैसों से धन्नासेठ अपनी दुकानें चला रहे थे और दावों के भुगतान की या तो चिंता ही नहीं की जाती थी या फिर अधिकाधिक देर से भुगतान किया जाता था। 
वर्ष 1956 में भारतीय जीवन बीमा निगम की शुरुआत कर देशमुखजी ने राष्ट्रीयकरण के जरिए, लोगों का यह पैसा देश के काम में लगाने की तजवीज तो की ही, लोगों को भुगतान समय पर करने की सुनिश्चित व्यवस्था भी की। भारत सरकार ने इसके लिए पांच करोड़ की पूंजी उपलब्ध कराई थी और इसके निवेश पर शत-प्रतिशत गारंटी दी थी। इसके एवज में यह शर्त लगाई थी कि भारतीय जीवन बीमा निगम अपना निवेश केंद्र और राज्य सरकारों की प्रतिभूतियों में ही करेगा। एक काफी छोटे अंश को खुले बाजार में निवेश करने की छूट अवश्य दी गई थी, लेकिन इस नाममात्र के हिस्से की भी अधिकतक सीमा तय कर दी गई थी। 
भारत सरकार की शत-प्रतिशत गारंटी और सरकारी प्रतिभूतियों में निवेश की दोनों शर्तें आज तक यथावत बनी हुई हैं। इसके चलते, भारतीय जीवन बीमा निगम देश का ऐसा एकमात्र वित्तीय उपक्रम है जिसके निवेश पर भारत सरकार की शत-प्रतिशत आर्थिक गारंटी है। यह सुनिश्चितता बैंक निवेश पर भी उपलब्ध नहीं है। और तो और, सरकारी बैंक कहे जाने वाले भारतीय स्टेट बैंक को भी नहीं। 
बीमा योग्य जीवनों को बीमा करने के मामले में तो भारतीय जीवन बीमा निगम ने अपेक्षाएं पूरी नहीं कीं, पर सरकारी गारंटी और सरकारी प्रतिभूतियों में निवेश की अनिवार्यता के चलते यह उपक्रम 'भारत सरकार का कुबेर' का दर्जा हासिल कर बैठा। देश का यह ऐसा इकलौता वित्तीय संस्थान है जिसके दैनिक वित्त संग्रह के आंकड़े अनिवार्यत: संसद में पेश किए जाते हैं। लगभग सवा तीन हजार से अधिक अपनी नियमित और सेटेलाइट शाखाओं के माध्यम से आज यह संस्थान प्रतिदिन लगभग दो सौ करोड़ रुपए संग्रह कर रहा है। यहां यह तथ्य जानना रोचक होगा कि एक नई बीमा कंपनी खोलने के लिए एक सौ करोड़ रुपयों की रकम जमा करानी पड़ती है। यानी भारतीय जीवन बीमा निगम, प्रतिदिन दो बीमा कंपनियों की रकम एकत्र कर रहा है। 
इसका मुख्य काम (बीमा करना) चूंकि लगभग 'अलोकप्रिय काम' के रूप में स्थापित हो गया है इसलिए इसकी ओर किसी का ध्यान नहीं जाता। हर कोई इससे बच कर निकल जाता है। चूंकि इसके जरिए न तो राजनीति की जा सकती है और न ही राजनीतिक मकसद हासिल किए जा सकते हैं, इसलिए राजनेता और राजनीतिक दल भी इसकी अनदेखी करते हैं, लेकिन राष्ट्रीय विकास के संदर्भ में इसका आर्थिक योगदान असाधारण है।
पांच करोड़ की सरकारी पूंजी से शुरू हुआ यह 'कमाऊ पूत', 1956 से 2012 तक की ग्यारह पंचवर्षीय योजनाओं में अब तक 13,51,000 करोड़ रुपयों से अधिक का योगदान कर चुका है। पहली पंचवर्षीय योजना में इसका योगदान एक सौ चौरासी करोड़ रुपए था और ग्यारहवीं पंचवर्षीय योजना में 7,04,151 करोड़ रुपए। केंद्र और राज्य सरकारों की प्रतिभूतियों और आवास और ढांचागत क्षेत्रों में इसका सकल निवेश वर्ष 2008-09 में पांच लाख तीस हजार एक सौ उनसठ करोड़ रुपए, वर्ष 2009-10 में छह लाख उनचास हजार आठ सौ आठ करोड़ रुपए, 2010-11 में  सात लाख उनचास हजार एक सौ पचास करोड़ रुपए और 2011-12 में आठ लाख उन्नीस हजार आठ सौ पैंतीस करोड़ रुपए रहा। 
ग्राहकों के दावों का समय पर भुगतान करना किसी भी व्यापारिक पेढ़ी की साख का परिचायक होता है। इस मामले में भारतीय जीवन बीमा निगम बरसों से पूरी दुनिया में 'नंबर एक' बना हुआ है। वर्ष 2011-12 में इस उपक्रम ने, 93.19 प्रतिशत दावों का भुगतान निर्धारित या परिपक्वता तिथियों से पहले किया और 94.34 प्रतिशत मृत्यु-दावों का भुगतान, सूचना-प्राप्ति के पंद्रह दिनों में किया। सकल बकाया दावे केवल 1.72 फीसद रहे। यानी सकल दावों का भुगतान 98.3 प्रतिशत रहा। इस स्तर को आज तक दुनिया की कोई भी बीमा कंपनी नहीं छू पाई है। 
आज चारों ओर दावों का भुगतान टालने की प्रवृत्ति दिख रही है। जबकि भारतीय जीवन बीमा निगम भारत में एकमात्र बीमा कंपनी है जो अपने ग्राहकों को ढूंढ़-ढूंढ़ कर भुगतान करती है। इसके प्रत्येक शाखा कार्यालय में उन ग्राहकों की तलाश निरंतर जारी रहती है जिनकी पॉलिसियां पूरी हो गर्इं, लेकिन भुगतान-दावे नहीं आए। इसके बीमा एजेंट, ऐसे ग्राहकों की तलाश लगातार जारी रखते हैं। 

निगमित क्षेत्र में सर्वाधिक आयकर चुकाने वाली यह बीमा कंपनी देश की एकमात्र नवरत्न कंपनी है जिसने, उदारीकरण की नीतियां लागू होने के बाद भी अपना बाजार-हिस्सा यथावत बनाए रखा है। निजी बीमा कंपनियों के दफ्तर, छोटे कस्बों में एक के बाद एक बंद होते जा रहे हैं, जबकि भारतीय जीवन बीमा निगम, कस्बे से आगे बढ़ कर गांवों तक में अपनी सेटेलाइट शाखाएं लगातार स्थापित किए जा रहा है। जाहिर है कि बीमा के मामले में यह देश में सबसे बड़ा संजाल बन गया है। 
लेकिन गए कुछ बरसों से लग रहा है कि इसे धीमी मौत मारने का षड़्यंत्र शुरू हो गया है। इसकी बीमा योजनाओं को कम लाभदायक बना कर विकर्षक (रिपल्सिव) बनाने की कोशिशें साफ नजर आ रही हैं। इसके निवेश पर भारत सरकार की शत-प्रतिशत गारंटी होने के बावजूद, समान धरातल (लेवल प्लेइंग फील्ड) की दुहाई देकर, 'बीमा दावा भुगतान की सुरक्षा और सुनिश्चितता' के नाम पर धरोहर-राशि (साल्वेन्सी मनी) के रूप में इसके हजारों करोड़ रुपए जाम कर दिए गए हैं। यह रकम न तो सरकारी प्रतिभूतियों में निवेश की जा सकती है न ही खुले बाजार में। यानी इतनी बड़ी रकम पर मिलने वाला ब्याज या मुनाफा अपने आप समाप्त हो गया जिसका सीधा नकारात्मक असर ग्राहकों के बोनस पर पड़ता है। 
इसे यों समझा जा सकता है कि ग्राहक के सौ रुपयों के निवेश पर भारत सरकार ने तो सौ रुपयों की गारंटी दे ही रखी है, इसके समांतर सौ रुपए अलग से जमा करवा लिए गए हैं। यानी सौ रुपयों पर दो सौ रुपयों की गारंटी। इसके विपरीत, निजी बीमा कंपनियों को सौ रुपयों के लिए सौ रुपए ही सुरक्षित रखने हैं। पूरी दुनिया में शायद भारत में ही ऐसा हो रहा है कि सरकारी गारंटी को भी अविश्वसनीय मान कर अलग से गारंटी ली गई हो। यानी सरकार की गारंटी पर भी गारंटी। 
भारतीय जीवन बीमा निगम की प्राप्तियों में कमी करने की एक और कोशिश यह है कि सरकार ने इसकी कुल चुकता पूंजी पांच करोड़ से बढ़ा कर एक सौ करोड़ कर दी है। यानी पहले जो पंचानबे करोड़ रुपए निवेश कर दो पैसे प्राप्त किए जा सकते थे, वे अब स्थायी रूप से जाम कर दिए गए हैं। ये दो पैसे ग्राहकों का बोनस बढ़ाने में मददगार होते। 
इसके समांतर ही, लोकसभा में पारित एक संशोधन के जरिए, भारतीय जीवन बीमा निगम के ग्राहकों के बोनस में कमी का एक और उपाय कर दिया गया। अब भारतीय जीवन बीमा निगम की अधिशेष (सरप्लस) रकम का नब्बे प्रतिशत अंश ही ग्राहकों के लिए दिया जा सकेगा। पहले यह अंश पंचानबे था। यानी अब ग्राहकों को बोनस और भी कम मिलेगा। पहली ही नजर में साफ लग रहा है कि इसकी बीमा योजनाओं को निजी बीमा कंपनियों की बीमा योजनाओं के मुकाबले कम लाभदायक बनाने की जुगत भिड़ाई जा रही है। 
मानो इतना पर्याप्त नहीं है, इसलिए इसे ऐसे निवेश के लिए विवश किया जा रहा है जहां पैसा डूबना निश्चितप्राय है। अभी-अभी सरकार ने, भारतीय जीवन बीमा निगम को, सरकारी विमानन कंपनी एअर इंडिया के तीन हजार करोड़ रुपयों के बांड खरीदने के निर्देश दिए हैं। यह निवेश उन्नीस वर्षों के लिए होगा। एअर इंडिया की दशा किसी से छिपी नहीं है। यह ऐसा सफेद हाथी बन कर रह गया है जो सरकार से न तो पाला जा रहा है और न ही इससे मुक्ति पाई जा रही है।
हर कोई जानता है कि एअर इंडिया डूबती नाव है। इसे जीवित रखने के लिए सरकार इसे इसी साल अप्रैल में तीस हजार करोड़ रुपए का राहत पैकेज दे चुकी है। पिछले साल दिसंबर तक इस पर कुल जमा  तिरालीस हजार सात सौ सतहत्तर करोड़ रुपए का कर्ज था और पिछले पांच साल में इसे सत्ताईस हजार करोड़ रुपयों का नुकसान हो चुका है। कहा गया है कि भारतीय जीवन बीमा निगम को अपने निवेश पर कुल 9.27 प्रतिशत की दर से ब्याज की आय होगी। यह दर भारतीय जीवन बीमा निगम को सरकारी निवेश पर वर्तमान में मिल रही ब्याज दर (लगभग तीन प्रतिशत) के मुकाबले अत्यधिक आकर्षक जरूर है, लेकिन विचारणीय मुद्दा यह है कि जिस एअर इंडिया का कर्ज साल-दर-साल बढ़ता ही जा रहा है वह इतनी ऊंची दर की ब्याज रकम कैसे (और कब) चुका पाएगा? कहीं ब्याज चुकाने के लिए तो कर्ज नहीं लेगा? 
यह साफ दिख रहा है कि इस 'कमाऊ पूत' यानी भारतीय जीवन बीमा निगम को संखिया देकर धीमी मौत मारा जा रहा है। देश के लोगों को एक बार फिर 1956 के पहले वाली स्थिति में ले जाने की कोशिश हो रही है जब लोग अपने दावों के कागज लिए भटकते थे और उनकी सुनने वाला कोई नहीं था।  
कठिनाई यह है कि इसके महत्त्व को अनुभव करने को कोई तैयार नहीं है और जो अनुभव करने वाले हैं, वे संख्या में इतने कम हैं कि उनकी आवाज नक्कारखाने में तूती से भी गई-गुजरी साबित हो रही है। इसके ग्राहकों का ऐसा एक भी संगठन देश में नहीं है जो इन गंभीर बातों को अनुभव करे और सरकार को सोचने पर विवश कर दे।

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