Thursday, October 18, 2012

पहले अलगाव के चक्रव्यूह को तो तोड़ें, बंधु !

पहले अलगाव के चक्रव्यूह को तो तोड़ें, बंधु !

पलाश विश्वास

ब्रिटिश राज के अंत के बाद जमींदारियों और रियासतों के उत्तराधिकारियों को सत्ता का हस्तांतरण हो गया। भारतीय समाज की मूल सामंती ढांचे में बिना किसी परिवर्तन के। उलट इसके देश के विभाजन के जरिये बहुजन मूलनिवासियों के आंदोलन के आधार बने बंगाल और पंजाब का​ ​ विभाजन हो गया। जनसंख्या स्थानांतरण के अमानवीय रक्तरंजित प्रयोग के तहत न केवल एक फीसद सत्तावर्ग के लिए जीवन के हर क्षेत्र​ ​ में वर्चस्व कायम हो गया, बल्कि हजारों साल से विदेशी हमले के बावजूद देश में विभिन्न संप्रदायों और धर्मों के समन्वय का जो माहौल​ ​ कायम रहा, उस विरासत की हत्या हो गयी। हिंदू और मुस्लिम राष्ट्र के सिद्धांत के आधार पर विभाजन हो गया और शरणार्थी पुनर्वास के​ ​ जरिये बंगाल में जनसंख्या समायोजन के जरिये देश भर के राजनीतिक समीकरण को हमेशा के लिए बदल दिया गया।हिंदू राष्ट्रवाद की पृष्ठभूमि की खोज भारत विभाजन के इतिहास में किये बिना हम सांप्रदायिकता और अलगाव के विरुद्ध लड़ाई कर ही नहीं सकते। ​
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​मैं लगातार लिखता बोलता रहा हूं कि मनुस्मृति कोई धर्मशास्त्र नहीं है, यह विशुद्ध अर्थशास्त्र है। नैतिकता और प्रकृतिवाद के दार्शनिक ​​आधार से अलग धर्म हमेशा नागरिक की संप्रभुता के अपहरण का सर्वोत्तम शस्त्र है। सत्ता और धर्म का चोली दामन का साथ है।संसाधनों,​​संपत्ति और अवसरों  पर एकाधिकार से धर्म का एजंडा बनता है, जो हिंदू राष्ट्रवाद की आत्मा है। समाज की मूल संरचना परंपरागत जाति​ ​ व्यवस्था, भौगोलिक अलगाव और विभाजन से उत्पन्न सांप्रदायिक विद्वेष की वजह से सामंती ही बनी रही। पर ब्रिटिश हुकूमत के दौरान कानून का राज सीमित तौर पर लागू हो जाने,राष्ट्रीय स्वत्तंत्रता आंदोलन में विभिन्न धर्मों, संप्रदायों, समुदायों की साझेदारी और यूरोप में औद्यौगीकरण व नवजागरण के असर  से भारत में सीधे सीधे मनुस्मृति व्यवस्था लागू नहीं की जा सकी।डा. भीमराव अंबेडकर संविधान मसविदा समिति के अध्यक्ष थे,शायद यह बहुत बड़ी वजह थी कि अनुसूचितों के अधिकारों को संवैधानिक गारंटी मिल गयी।पांचवी और छठीं अनुसूचियों के जरिये आदिवासियों के जल जंगल जमीन के हक हकूक के संरक्षण के प्रवधान भी किये गये। संविधान समीक्षा कमिटियों, कारपोरेट लाबिइंग और हिंदुत्व के पुनरूत्थान के के बावजूद, खुले बाजार और अमेरिका इजराइल के साथ सैन्य परमाणु गठबंधन के बावजूद भारत में अब भी दक्षिण एशिया के दूसरे देशों के ​​मुकाबले लोकतंत्र के लिए थोड़ी बहुत बेहतर जगह बची हुई है, यह अब भी संविधान के काम करते रहने की वजह से है। इस संविधान की ​​आत्मा सबके लिए समान अवसर, समता, सामाजिक न्याय और धर्मनिरपेक्षता में निहित हैं।

राजनीतिक तौर पर हम लोग बेहतर हालत में हैं और अपने राजनीतिक अधिकारों का बखूब इस्तेमाल करते हैं।आज जो राजनीति बेनकाब ​​हो रही है और सभी दलों के राजनेता बेपर्दा होते दीख रहे हैं, वह लोकतांत्रिक प्रणाली की कामयाबी की वजह से ही है।​
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​असली समस्या लेकिन अर्थ व्यवस्था और सामाजिक वर्चस्ववादी मूल संरचना को लेकर है।खुले बाजार की व्यवस्था राज्य और सरकार की भूमिका ही खत्म कर देती है, इसीलिए अबतक जो राजनीतिक अधिकार हमें मिले हुए हैं, वे आहिस्ते आहिस्ते खत्म हो रहे हैं। बाजार के हितों और ​​वैश्विक व्यवस्था से जोड़ दी गयी अर्थव्यवस्था में पूंजी के वर्चस्व और देशी सामंती तत्वों के एकाधिकार दोनों के लिए भारतीय संविधान की​ ​ बजाय तमाम धर्मशास्त्र और उनसे बढ़कर भागवत गीता के नियतिवाद व मनुस्मृति के बहिष्कारवादी अनुशासन ज्यादा प्रासंगिक हैं।​​इसीलिए हम डा. मनमोहन सिंह को नवउदार युग का पूरा शरेय देने के लिए तैयार नहीं है। विदेशी पूंजी का प्रवाह तो हरित क्रांति, बड़ी ​​परियोजनाओं और रक्षा सहयोग के मार्फत साठ के दशक में ही शुरू हो गया था। १९६२ में भारत चीन युद्द के बहाने भारतीय राजनय की​ ​ दिशा पूरब से घूमकर पश्चिम हो गयी। इंदिरा जमाने में से दूरदर्शन क्रांति शुरू हो गयी तो राजीव के जमाने में कृषि को आर्थिक धूरी से ​​निकालकर उत्पादन प्रणाली को तकनीक, निर्माण, विनिर्माण और सेवा क्षेत्र से जोड़ दिया गया।राष्ट्र का सैन्यीकरण साठ के दशक से ही ​​जारी रहा। भूमि सुधार, संसाधनों के बंटवारे, सामाजिक न्याय जैसे आंदोलनों के दमन का लंबा इतिहास है। पर राष्ट्र को दमनकारी सैन्य ​​व्यवस्था में तब्दील करने की प्रक्रिया हिंदुत्व के पुनरूत्थान से ही शुरू हुआ। बांग्लादेश मुक्ति युद्ध के दरम्यान इंदिरा गांधी को दुर्गास्वरुप बताने से लेकर, सिख नरसंहार और बाबरी ध्वंस से लेकर गुजरात नरसंहार तक का अनंत सिलसिला है। वैश्विक व्यवस्था की दोनों बड़ी ताकतों अमेरितका और इजराइल के साथ ग्लोबल हिंदुत्व के गठजोड़ से भारत में अंबेडकर के संविधान को खारिज करके मनुस्मृति व्यवस्था लागू करने का संघ परिवार का एजंडा है।इस प्रक्रिया में डिजिटल सिटिजनशिप बहिष्कार का सबसे सरल उपाय तो है ही, नागरिको की एफडीआई और मोसाद की तर्ज​ ​ पर निगरानी की भी सर्वोत्तम व्यवस्था है, जिसके पूरा हुए बिना बाजार की ताकतों का वसंत अभी विलंबित है।

कालाधन की रिसाइक्लिंग ही विदेशी निवेश है, अगर यह बात समझ में आ जाती है तो कारपोरेट सर्वात्मक आक्रमण और आर्थिक सुधारों के विरोध के बिना भ्रष्टाचार और कालाधन के खिलाफ मुहिम की असलियत साफ हो जाती है।फिरभी केजरीवाल के गुरिल्ला युद्ध कसे यह तो साबित हो गया कि हमाम में सारे के सारे नंगे हैं। पर असल मुद्दा यह नहीं है। मुद्दा मूल सामाजिक ढांचे में बदलाव का है। मुद्दा जाति उन्मूलन का है। मुद्दा ​​आदिवासियों की स्वायत्ता का है। मुद्दा सामाजिक न्याय, कानून का शासन, समान अवसर व समता का है। मुद्दा भूमि सुधार का है। मुद्दा ​विस्थापन, आजीविका और रोजगार का है। मुद्दा किसानों और कृषि के संकट का है। मुद्दा संविधान, लोकतंत्र और धर्मनिरपेक्षता की​ ​ विरासत का है। क्या हम इन मुद्दों को संबोधित कर पा रहे हैं?
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​गुजरात को खुला बाजार बनाने से पहले वहां हिंदुत्व का सबसे निर्मम प्रयोग हुआ। अब यह प्रयोगशाला पूर्वोत्तर में स्थानांतरित है, क्योंकि गुजरात को खुला बाजार बनाने में अभूतपूर्व सफलता मिल चुकी है। अब वहां अबाध पूंजी निवेश और बाजार के लिए गुजरात गौरव और हिंदुत्व के ​​साथ साथ अमन चैन का माहौल भी चाहिए। गुजरात नरसंहार के दौरान अनुसूचितं को हिंदुत्व की पैदल सेना बनाने के नायाब प्रयोग के ​​बाद हिंदू राष्ट्रवाद को सत्ता में स्थानांतरित करके मनुस्मृति शासन के अंतिम लक्ष्य हासिल करने के लिए हिंदू राष्ट्रवाद के सर्वाधिनायक के​ ​ तौर पर नरेंद्र मोदी का उत्थान जरूरी है, जो नरम हिंदुत्व के महानायकों को परास्त कर सकें। इसलिए अस्सी नब्वे दशक के उन्माद की​ ​ तरह फिर सामाजिक समरसता का राग अलापा जा रहा है। कथाएं फिर फिर बांची जा रही हैं। पुराणों और उपनि,दों की गंगाएं बहायी जा​ ​ रही है। अमेरिका, ब्रिटेन और इजराइल तक मोदी को मान्यता देने में पीछे नहीं है क्योंकि वैश्विक व्यव्स्था सांस्कृतिक वर्चस्व और बहिष्कार के सिद्धांतों के मुताबिक ही चलते हैं। मजे की बात तो यह है कि बाजार के सबसे बड़े प्रवक्ता नरेंद्र मोदी और सबसे बड़ी विरोधी ममता बनर्जी, दोनों के तार इजराइल से जुड़ते हैं। कस्मीर हो या पूर्वोत्तर या महाराष्ट्र हम आंतरिक सुरक्षा और खुफिया निगरानी के लिए इजराइल पर निर्भर हैष बंगाल समेत तमाम राज्यों के इजराइल से संबंध बन रहे हैं। ममता बनर्जी मुस्लिम वोट बैंक को अटूट बनाये रखने के लिए मदरसों और मौलवियों को अनुदान से लेकर खुद को नमाजी बतौर पेश करती हैं, इससे इजराइली राजदूत को अपनी पेंटिग उपहार देते हुए उससे द्विपाक्षिक संबंध बनाने में उन्हें कोई दिक्कत नहीं है। दूसरी तरफ चंडाल आंदोलन के लिए विख्यात मतुआ धर्म अपनाने की घोषमा करने के बावजूद वे बंगाली हिंदू राष्ट्रवाद के पुनरूत्थान के जरिये  वामपंथ का नामोनिशन मिटाने में लगी है, अपने उग्र वामपंथी तेवर के साथ। सरकारी कर्मचारियों को दस दिनों के उत्सव अवकाश देने के बाद उनके राज में पूजा के चारों दिन अखबारे के दफ्तर बंद रखने का इंतजाम भी हो गया। रामलीला और रामायण का यह मौजूदा माहौल​ ​ धार्मिक आस्था का मामला नहीं है। बाबारी विध्वंस से पहले रामायण महाभारत युग को याद करें और उसके बाद राजग के विनिवेश राज​​ को, तो असली खतरा आपको मालूम होगा।​
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​सबसे बड़ा मुद्दा है नीति निर्धारण और राजकाज में जनप्रतिनिधियों और संसद की भूमिका का शून्य हो जाने का। तमाम कानून और निर्णय  कारपोरेट दबाव से केबिनेट के जरिए बिना संसद से अनुमोदित कराये अल्पमत सरकार पास करती जा रही है और इसका कोई प्रतिरोध नहीं हो पा​ ​ रहा। क्योंकि नीति निर्धारण के बारे में जनता को कोई सूचना ही नहीं होती। मुख्यधारा की कारपोरेट मीडिया आर्थिक अंग्रेजी अखबारों में कारपोरेट जगत को तो पूरी सूचनाएं दे देता है। पर भाषायी और सामान्य समाचारपत्रं में इसकी चर्चा तक नही होती।इसीलिए मैंने लंबे अरसे से घटनाओं और राजनीति, क्रिया प्रक्रिया की बजाय नीति निर्धारण को ही अपने लेखन का मुख्य विषय बनाया हुआ है। चूंकि अश्वमेध के घोड़े तमाम क्षेत्रों​ ​ में समान वेग से दौड़ रहे हैं, इसलिए विषयांतर जैसा दीखने के बाजजूद तमाम सूचनाएं एकसाथ देने की काशिश मेरी रोजमर्रे की जिंदगी​ ​ है। पर इन सूचनाओं से आखिर होगा क्या अगर हम अपने लोगों को, निनानब्वे फीसद बहिष्कृतों को बचाने की कोई भी कोशिश नहीं कर ​
​सकें?

भारत के आजाद होने के बाद से अलगाव और बहिष्कार सत्तावर्ग का मूल हथियार हैं। समूचा कश्मीर और पूर्वोत्तर इसी वजह से सशस्त्र सैन्यबल  विशेषाधिकार कानून के मातहत है १९५८ से। दंडकारण्य समेत तमाम आदिवासी इलाके सैन्य दमन के शिकार हैं। पांचवी और छठीं अनुसूची लागू होना तो दूर, भूमि सुधार की गुंजाइश ही नहीं , पर जल जंगल जमीन और आजीविका से विस्थापन और बेदखली निनानब्वे फीसद लोगों की नियति इसी अलगाव और बहिष्कार के जरिए अकेले पड़कर निहत्था हो जाने और अंततः मारे जाने की नियति है।पार्टीबद्ध, फर्जी विचारधाराओं​​ और फंडिंग तक सीमित  मिशन, यूनियनों, समाज में शामिल  होकर हम  जातिव्यवस्था की हजारों खांचों के अलावा अलगाव और बहिष्कार को मजबूत करने के नये तंत्र में शामिल हैं, जो अंततः मनुस्मृति शासन का ही द्योतक है।जैसे विश्वभर में धर्म तंत्र ने भगवान, ईश्वर और अवतारों के मिथक के जरिये जनता को गुलाम बनाये रखा है, ठीक उसी तरह राजनीति, समाज,यूनियन और संगठनों में भी हम इन्ही ईश्वरों, भगवान और अवतारों के शिकंजे में हैं, जहां वैज्ञानिक वस्तुवादी दृष्टिकोम का निषेध है और हर सवाल पूछनेवाले, नास्तिक को सजाए मौत का प्रावधान​
​ है।​
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​पहले इस चक्र व्यूह को तो तोड़ें। साठ के दशक से हम सुनते रहे हैं कि राजनीति से मोहभंग से नई चेतना का उन्मेष। अस्सी के दशक से​​ सुन रहे हैं कि उत्तरभारत में सामाजिक न्याय के लिए उथल पुथल और वंचितों, बहिष्कृतों की सत्ता में भागीदारी। पर मनुस्मृति के खुले बाजार के तंत्र में मारे जाने वाले अब सिर्फ बहिष्कृत समुदायों के लोग ही नहीं हैं, सामाजिक बहिष्कार और अस्पृश्यता के अलावा इसका आर्थिक दायरा पूरे निनानब्वे फीसद को अपनी चपेट में ले चुके हैं। हम लगातार एक दशक से प्रतिबध्द सामाजिक कार्यकर्ताओं से निवेदन करते रहे  हैं कि अलगाव की इन दीवारों को ढहा दैंदें और जनप्रतिरोध की साझा जमीन तैयार करें, जिसके बिना न मुक्ति संभव है, न स्वतंत्रता, न स्वायत्तता, न समता, न समान अवसर और सामाजिक न्याय, न बहुजन या सर्वजन हित और न ही लोकतंत्र, अस्तित्व या​ ​ जीवन। आइनस्टीन ने सही कहा है कि जो जीवन को व्यर्थ समझते हैं वे जीने के लायक नहीं है। जो लोकतंत्र और धर्मनिरपेक्षता को ​​फिजूल मानते हैं, उनके लिए भी जीवन उसी तरह गैरप्रासंगिक है।

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