महताब आलम
दिल्ली पुलिस का प्रतिष्ठित स्पेशल सेल, इन दिनों एक बार फिर काफी चर्चा में है। पर आतंकवाद, माओवाद, उग्रवाद और न जाने क्या-क्या से 'लडऩे' के लिए चर्चित यह विशेष बल, जिसकी स्थापना सन 1946 में, 'द दिल्ली स्पेशल पुलिस स्टैब्लिशमेंट एक्ट-1946' तहत हुई थी। लेकिन इस चर्चा से स्पेशल सेल कुछ ज्यादा खुश नहीं है, बल्कि परेशान नजर आ रहा है और आये दिन अखबारों में तरह-तरह के बयान दे रहा है। इसका मुख्य कारण है, पिछले दिनों दिल्ली के विभिन्न विश्वविद्यालयों में पढ़ाने वाले शिक्षकों के एक मानवाधिकार संगठन, जामिया टीचर्स सोलिडरिटी एसोसिऐशन (जामिया अध्यापक एकता संगठन, जेटीएसए) द्वारा इस विशेष बल की करतूतों पर जारी रिपोर्ट, जिसका नाम है आरोपित, अभिशप्त और बरी- स्पेशल सेल का खोखला 'सच' । इस रिपोर्ट को 19 सितंबर, 2008 को जामिया नगर के बटला हाउस इलाके में हुई तथाकथित मुठभेड़ की चौथी बरसी की पूर्व संध्या पर एक बड़े कार्यक्रम में दिल्ली उच्च न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश राजेंद्र सच्चर, चर्चित लेखिका और एक्टिविस्ट अरुंधती राय, वरिष्ठ अधिवक्ता एन डी पंचोली, फर्जी मामलों में दिल्ली पुलिस द्वारा फंसाये गए और जेल से चौदह साल बाद रिहा मोहम्मद आमिर और मकबूल शाह ने रिलीज किया।
200 पृष्ठों के इस रिपोर्ट में उन सोलह मुकदमों की पड़ताल की गई है, जिनमें पहले -पहल पुलिस ने दावा किया था कि उनके द्वारा पकड़ा गया व्यक्ति 'खूंखार आतंकी' है और इनका ताल्लुक हरकतुल जिहाद इस्लामी (हुजी), लश्करे तैयबा, अल बद्र या इन जैसे अंतराष्ट्रीय आतंकी संगठन से है। ये लोग एक नहीं बल्कि कई बड़ी आतंकी घटनाओं को अंजाम देने वाले थे पर हमारी बहादुर पुलिस ने जान की बाजी लगाकर इन्हें धर दबोचा। लेकिन हकीकत यह है कि इन लोगों के बारे में अदालतों से ये साबित हुआ कि इन का ऐसी किसी गतिविधि से दूर-दूर तक का कोई लेना देना नहीं है। कोर्ट ने कई मामलों में आरोपियों को बरी करते हुए साफ तौर पर कहा : ''पुलिस वालों ने इन्हें जान-बूझकर फर्जी मुकदमों में फसाया '', जिसकी वजह से उन्हें लंबा समय, बिना किसी गुनाह के, जेलों में गुजारना पड़ा। इन सोलह में से दो आरोपी ऐसे हैं, जो अपनी जवानी के चौदह साल भारत की विभिन्न जेलों में बंद रहे। लेकिन छूटने के बाद आज भी उनकी जिंदगी नरक बनी हुई है... कमाने के लिए रोजगार नहीं, समय बिताने के लिए दोस्त नहीं, कइयों के मां-बाप ये उम्मीद लेकर ही इस दुनिया से चल बसे कि उनका बेटा एक दिन छूट कर आएगा। कोई इनके साथ शादी के लिए जल्दी अपनी बेटी देने के लिए तैयार नहीं होता। कुल मिलाकर इनकी जिंदगियां बर्बाद कर दी गईं और जेल से छूटने के बाद भी 'आतंकी' कहलाते हैं। और इस सब का जिम्मेदार है: दिल्ली पुलिस स्पेशल सेल। ये रिपोर्ट इन्हीं कुकर्मों को उद्घाटित करती है।
आईये, राज्य बनाम गुलाम मोहिउद्दीन डार के मामले पर एक नजर डालते हैं, जिसे छह साल, बिना किसी गुनाह के जेल में गुजारने पड़े। बात 2005 की है, पुलिस के मुताबिक 27 जून को उन्हें, उनके बेनाम खबरी द्वारा पता चलता है कि दो कश्मीरी आतंकी, जाहिद और मसूद, नापाक इरादों के साथ दिल्ली में दाखिल हो रहे हैं। पुलिस ने अपने खबरी से कहा कि वो इस के बारे में और पता करें। इसी बीच, एक जुलाई को खबरी बताता है कि दो आतंकी अपने दो और साथियों के साथ, गोला- बारूद और हथियारों का एक बड़ा जखीरा लिए हुए जयपुर से एचआर 26 एस 0440 नंबर वाली टाटा इंडिका गाड़ी में दिल्ली की तरफ आ रहे हैं। इस पूरे मामले पर निगाह रखे हुए इंस्पेक्टर रविंदर त्यागी ने तुरंत पुलिस वालों की एक टोली बना कर दिल्ली -जयपुर हाईवे पर मोर्चा डाला। पुलिस बल ने, 2 जुलाई के तड़के उस गाड़ी को देखा, जो दिल्ली की तरफ आ रही थी। पहले रुकने के लिए हाथ दिया पर न रुकने पर पुलिस ने उनका पीछा किया और गोलीबारी के बाद उन्हें पकडऩे में कामयाब रही। पर जब मामला कोर्ट में पहुंचा तो पुलिस के ये सारे दावे न सिर्फ धराशायी हो गए बल्कि फर्जी साबित हुए। बहस के दौरान इंस्पेक्टर रविंदर त्यागी, जो इस मामले में अगुवाई कर रहे थे, अपने किसी भी दावे के लिए कोई सबूत पेश करने में नाकामयाब रहे। कोर्ट ने साफ तौर पर कहा कि किसी भी व्यक्ति को सिर्फ संदेह की बुनियाद पर सजा नहीं दी जा सकती। यही नहीं, कोर्ट में पुलिस ने यह दावा किया था कि उन्होंने आरोपी के पास से आर्मी की वर्दी और पालम एअरपोर्ट का नक्शा बरामद किया है, पूरी तरह फर्जी साबित हुआ। कोर्ट ने पाया कि आर्मी की वर्दी आरोपी की नहीं थी बल्कि पुलिस ने रखी थी। इस मामले में जो गवाह पेश किया गया वह भी फर्जी था। उसे दिल्ली केंट इलाके में फुटपाथ पर अपनी दुकान लगाने देने के एवज में, 'हफ्ते' के तौर पर ये गवाही दी थी। इसी प्रकार, पालम हवाई अड्डे के नक्शे के बारे में कोर्ट ने कहा, अगर ये नक्शा आरोपी के पाकेट से बरामद हुआ है तो क्योंकर ये एक बार ही मुड़ा है? क्या इस नक्शे से आरोपी की लिखावट मिलती है? और अगर हवाई अड्डे पर इतना बड़ा हमला होने वाला था तो पुलिस ने एअरपोर्ट ऑथोरिटी को क्यों खबर नहीं दी और न ही किसी आला अफसर को खबर की? पुलिस के पास इन सब सवालों का कोई जवाब नहीं था क्योंकि हकीकत में ऐसी कोई कार्यवाही हुई ही नहीं थी। इस मामले की सुनवाई कर रहे जज, वीरेन्द्र भट, अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश ने फैसला सुनाते हुए लिखा: ''तमाम पहलुओं से इस केस का जायजा लेने बाद, साफ होता है कि ऐसी कोई कार्यवाही हुई ही नहीं थी। ये सब धौला कुआं पुलिस थाने में बैठ कर लिखी हुई कहानी है। और इसके जिम्मेदार हैं - सब इंस्पेक्टर रवींद्र त्यागी, सब इंस्पेक्टर निरंकार, सब इंस्पेक्टर चरण सिंह और महिंदर सिंह ''।
उपर्युक्त मामले में अपना फैसला सुनाते हुए जज ने सिर्फ इतना ही नहीं कहा बल्कि उनका कहना था - ''ये चार पुलिस वाले पूरे पुलिस बल के लिए सबसे शर्मनाक साबित हुए हैं। मेरी राय में, किसी पुलिस अधिकारी द्वारा किसी निर्दोष नागरिक को झूठे मुकदमे में फंसाने से ज्यादा गंभीर और संगीन अपराध कोई और नहीं हो सकता है। पुलिस अधिकारियों द्वारा की कई गई इन हरकतों को हल्के में नहीं लिया जाना चाहिए और इनके खिलाफ सख्त से सख्त कार्यवाही करनी चाहिए''। कोर्ट ने आदेश दिया कि इनके खिलाफ एफ .आई.आर दर्ज होनी चाहिए और मुकदमा चलना चाहिए। पर आज तक ऐसा कुछ नहीं हुआ है। डेढ़ साल से ज्यादा वक्त गुजर चुका है लेकिन पुलिस विभाग कोई कारवाही करने के लिए तैयार नहीं है। उल्टा उनकी पदोन्नती होने जा रही है। जब सूचना के अधिकार के तहत इस बाबत पता किया गया तो पुलिस का जवाब था कि हमने इस फैसले हो उच्च न्यायालय में चुनौती दी है। यहां उल्लेखनीय यह है कि यह मुकदमा पुलिस जनता के खर्चे से लड़ रही है।
अब दूसरे मामले पर नजर डालते हैं। ये मामला है, राज्य बनाम मुआरिफ कमर और मोहम्मद इरशाद अली। बात 2006 की है। पुलिस के दावे के मुताबिक, फरवरी की 6 तारीख और शाम के चार बजे सब इंस्पेक्टर विनय त्यागी को खुफिया जानकारी मिलती है कि दो आतंकी, जिनका नाम मुआरिफ कमर और मोहम्मद इरशाद अली है और जिनका ताल्लुक अल-बद्र नामी आतंकी संगठन से है, जम्मू -कश्मीर स्टेट बस से , जिसका नंबर जेके 02 वाई 0299 दिल्ली पहुंच रहे हैं। ये लोग जी टी करनाल रोड के पास मकबरा चौक पर उतरने वाले हैं। सूचना पाकर पुलिस का बल वहां पहुंचा और काफी कोशिशों के बाद भारी मात्र में गोला-बारूद के साथ उन्हें गिरफ्तार कर लिया। इस मौके पर पुलिस ने स्थानीय लोगों का सहयोग भी लेना चाहा पर, उन्होंने कोई सहयोग नहीं दिया । लेकिन इस मामले की हकीकत ये है कि ये लोग वहां से गिरफ्तार किये ही नहीं गए। बल्कि इन्हें दिसंबर, 2005 में ही दिल्ली पुलिस द्वारा अगुवा कर लिया गया था । ये मैं नहीं कहता—सी बी आई की रिपोर्ट कहती है जो उन्होंने अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश, एस. एस. मुखी के समक्ष 11 नवंबर, 2008 को दाखिल की है। रिपोर्ट कहती है कि, ''इन दोनों आरोपियों को दिसंबर, 2005 में अगुवा किया गया था और 9 फरवरी, 2006 तक गैर-कानूनी हिरासत में रखा गया''। इस मामले में सीबीआई ने कुछ अहम कॉल रिकार्ड्स भी प्रस्तुत किए जिन से साफ तौर पर साबित होता है कि जिस दिन गिरफ्तारी दिखाई गई उस से बहुत पहले से ही दोनों आरोपी पुलिस की ही गिरफ्त में थे। सीबीआई की रिपोर्ट गोली-बारूद की बरामदगी से सिलसिले में कहती है - ''ये सब फर्जी है, और यह सब आरोपियों को फंसाने के मकसद से दिखाया गया है''। रिपोर्ट आगे साफ तौर पर कहती है ये लोग मासूम हैं और इन्हें फंसाया गया है। यही नहीं सीबीआई ने अपनी रिपोर्ट में कहा है कि इन पुलिस वालों के खिलाफ सख्त से सख्त कार्यवाही होनी चाहिए। पर जैसा कि हम पहले वाले केस में देख चुके हैं, इस मामले में भी, आरोपी पुलिस वाले न कि सिर्फ खुले घूम रहें बल्कि उन्हें दूसरे ऐसे मुकदमों के जांच की जिम्मेवारी भी दी जा रही है।
ये सिर्फ दो मामलों के बारे में संक्षिप्त जानकारी है। जेटीएसए की इस रिपोर्ट में शामिल सोलह केसों में एक के बाद बाद एक में इस तरीके को दुहराया गया है। जो कुछ लोगों को फिल्मी कहानियां भी लग सकती हैं पर हकीकत यही है कि ये बातें किसी हिंदी फिल्म की पटकथा नहीं बल्कि पुलिस की कार्यप्रणाली बन चुकी है कि अगर आतंकी नहीं मिलते हैं या नहीं पकड़ में आते हैं तो मासूम मुस्लिम नौजवानों को, फर्जी मामलों में फंसा कर आतंकी के तौर पर पेश कर दो।
आज भी जब यह लेख लिखा जा रहा है, खबर है (देखिये द हिंदू, 25 सितंबर, पृष्ठ 9) है कि कल मुंबई उच्च न्यायालय ने मोहम्मद अतीक मोहम्मद इकबाल को जमानत पर रिहा करने का आदेश दिया। 2008 में गिरफ्तार, इस व्यक्ति बारे में पुलिस का दावा है कि ये इंडियन मुजाहीद्दीन नामी आतंकी संगठन का सदस्य है। पर हकीकत ये है कि जिस मामले (अहमदाबाद और सूरत बम धमाकों) में गिरफ्तार किया गया है उस में वह अभियुक्त ही नहीं है, यह कहना है सरकारी वकील प्रदीप हिंगोरानी का। उसके खिलाफ अगर कोई 'सबूत' है तो वो है इकबालिया बयान जिसमें उसने 'कबूल' किया है कि आतंकियों द्वारा आयोजित व्याख्यानों में उसने हिस्सा लिया था ! यहां एक तरफ ध्यान रखने वाली बात है कि पुलिस किस प्रकार चीजें कबूल करवाती है तो वहीं दूसरी ओर ये भी याद रखा जाना चाहिए कि कोर्ट में ऐसे इकबालिया बयानों की कोई अहमियत नहीं है क्योंकि भारतीय साक्ष्य अधिनियम इसे नहीं मानता।
ऐसे में एक बार फिर से सवाल उठता है कि आखिर कब तक ये सिलसिला चलता रहेगा? सिलसिला मासूम लोगों को आरोपित, अभिशप्त और बरी करने का। कब तक 'आतंकवाद' से लडऩे के नाम पर मासूम मुस्लिम नौजवानों को फर्जी मुकदमों में फंसाया जाता रहेगा? कब तक उन्हें अपनी जिंदगी का बड़ा और अहम हिस्सा जेलों में गुजारना होगा? कब तक उनके घर वालों को कोर्ट-कचहरी के चक्कर लगाने होंगे? क्या, खाकी वर्दी वाले उन आतंकियों के खिलाफ कभी कोई कार्यवाही होगी, जिनके अपराध साफ साबित हो चुके हैं? इन सवालों का जवाब सरकार को देना होगा। या सरकार ने ये तय कर लिया है कि भारत एक पुलिस राज्य है और पुलिस द्वारा किया कुकर्म माफ हैं? चाहे वे कितने भी घिनौने क्यों न हों?
ये सवाल इसलिए भी महत्त्वपूर्ण हो जाते हैं क्योंकि ये दिल्ली पुलिस के संदर्भ में उठाये गए हैं जो भारत सरकार की नाक के नीचे काम करती है और काफी हद तक उसके नियंत्रण में ही है। महत्त्वपूर्ण यह भी है कि यह उस महानगर की पुलिस का हाल है जहां देश का सर्वोच्च न्यायालय और अत्यंत सजग, कम से कम कहने को तो, मीडिया भी है।
(लेखक मानवाधिकारकर्मी और स्वतंत्र पत्रकार हैं। उनसे activist.journalist@ gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है।)
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