Wednesday, October 24, 2012

Fwd: [New post] हिग्स-बोसॉन फील्ड अर्थात विज्ञान के भगवान की खोज



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From: Samyantar <donotreply@wordpress.com>
Date: 2012/10/23
Subject: [New post] हिग्स-बोसॉन फील्ड अर्थात विज्ञान के भगवान की खोज
To: palashbiswaskl@gmail.com


समयांतर डैस्क posted: "उद्भ्रांत देवेंद्र मेवाड़ी का आलेख 'ब्रह्मांड की रचना और हिग्स बोसॉन यानी कण-कण में विज्ञान' (समय�¤"

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हिग्स-बोसॉन फील्ड अर्थात विज्ञान के भगवान की खोज

by समयांतर डैस्क

उद्भ्रांत

higgs-bosonदेवेंद्र मेवाड़ी का आलेख 'ब्रह्मांड की रचना और हिग्स बोसॉन यानी कण-कण में विज्ञान' (समयांतर अगस्त, 2012) इस विषय पर हिंदी में आया पहला सुविचारित लेख है जिसमें अब तक के सभी संबंधित प्रयासों की जानकारी पाठकों को मिल जाती है। लेकिन, जिन पाठकों की, बर्न प्रयोगशाला में विगत तीन-चार वर्षों से, चल रहे प्रयोगों पर नजर रही है उनके लिए अभी वैसी प्रसन्नता का कारण नहीं दिखता, जैसी अनुसंधान केंद्र के वैज्ञानिक दिखा रहे हैं क्योंकि ध्यान देने पर उनके दावों की पोल का पता लग जाता है— ''विश्वास है कि शायद यह वही बहुचर्चित 'हिग्स बोसॉन' कण है जिसका अस्तित्व अब तक केवल सैद्धांतिक रूप में ही था। '' 'विश्वास' और 'शायद' एक साथ कैसे आ सकते हैं! प्रयोगशाला के महानिदेशक रॉल्फहेयर की स्वीकारोक्ति देखिए— ''लगता है हमें यह कण मिल गया है... वैज्ञानिक की हैसियत से कहूं तो कहूंगा कि हमें यह क्या मिला है। '' दरअसल संबंधित वक्तव्य से उनके 'विश्वास' की नहीं, उनके संदेह या अविश्वास की ही पुष्टि होती है— ''क्या यह सचमुच वही कण है, यह जानना अभी बाकी है। '' लगातार संदेह, असमंजस, विश्वास की कमी। फिर आप खुशी किस बात की मना रहे हैं! अपनी असफलता की?

वैज्ञानिक जिसे अपनी उपलब्धि का आधार मानते हैं उस तर्क की कसौटी पर यह संदेह खरा उतरता है। तर्क का आधार प्रयोगों से प्राप्त बौद्धिक प्राणायाम है जिससे विज्ञान की खोज की दिशा तय होती है। सारे तर्क जिस बिंदु पर चुक जाते हैं, वहीं से विज्ञान की सीमा प्रारंभ होती है।

प्रश्न है कि अगर 'कण की खोज' के अकाट्य वैज्ञानिक तर्क प्रस्तुत किए गए तो यह क्यों कहा जा रहा है कि ''इसकी पूरी तरह पुष्टि हो जाने पर प्रकृति के एक और रहस्य का अनावरण होगा और ब्रह्मांड की रचना का सच सामने आएगा। '' अर्थात् वह 'सच' अभी तक सामने आया नहीं है और ''4 जुलाई, 2012 को जिसे खोज लेने का दावा किया गया है'' उसकी 'पुष्टि' अभी अधूरी ही है! अधूरी पुष्टि का क्या मतलब? आपकी खोज पूर्ण नहीं हुई। प्रमेय का हल अभी तक नहीं निकला। फिर यह दावा क्यों? पिछले कई बरसों में इस मिशन पर हुए सरकार के अरबों-खरबों डालर के व्यय का औचित्य सिद्ध करने के लिए, ताकि इस हेतु प्राप्त होने वाले असीमित धन के बजट को स्वीकृत होने में कोई अड़चन न आए?

वैज्ञानिक अपनी खोजों तक पहुंचने में कई-कई जीवन लगा देते हैं मगर प्रसन्नता का क्षण तभी आता है जब उन्हें अपनी 'खोज' के सत्य का विश्वास हो जाता है। आर्कमिडीज के ध्यान में स्नान करते समय, जब उसी दिन सुबह अपने बगीचे के पेड़ से गिरते हुए फल को देखने की स्मृति आई तो लंबे अरसे से चला आ रहा ऊहापोह खत्म हुआ और उस क्षण-विशेष में ही उसे उस महान उपलब्धि के घटित होने की अनुभूति हुई कि प्रसन्नता के भावावेश में उसे दुनिया को बताने 'यूरेका! यूरेका!' चिल्लाता हुआ नंगे बदन ही वह शहर की सड़कों पर भागने लगा। एक उदाहरण उसे मिल गया था अपने सतत् अन्वेषण-प्रयासों के मध्य। लेकिन वह गुरुत्वाकर्षण के भौतिकीय सिद्धांत की खोज का मामला था। ब्रह्मांड के उत्स की खोज का सर्वाधिक जटिल और असंभव दिखता सिद्धांत नहीं।

आप ब्रह्मांड के उत्स की खोज रहे हैं। अच्छी बात है। मगर, पहले स्वयं को तो खोज लें। यहां कोई अध्यात्मिक बात नहीं कह रहा हूं—कम से कम अभी, यहां तो नहीं। विश्लेषण-क्रम में आगे क्या होगा, नहीं कह सकता।

जब आप 'कण-कण में भगवान' की तर्ज पर 'कण-कण में विज्ञान' की गुहार लगाते हैं, तब जैसाकि सुधीजन कहते हैं और हमारा विज्ञान भी जिनके 'सुर में सुर' मिलाता है-कि मनुष्य का मस्तिष्क ब्रह्मांड का प्रतिरूप है। इसीलिए इसकी जटिलता का कोई ओर-छोर नहीं मिलता। वह किसी भी सुपर कम्प्यूटर से ज़्यादा तेजी से काम करता है और उसकी क्षमताएं असीमित हैं। आप इसकी निर्मिति को खोजने का प्रयास क्यों नहीं करते? और क्यों नहीं यह जानने की दिशा में आगे बढ़ते कि इस सर्वाधिक क्षमता की जेट गति की रफ़्तार वाले मानव मस्तिष्क के लिए भी अभी तक यह जानना क्यों संभव नहीं हो सका है कि अरबों साल पहले जीवन का पहला कण कैसे प्रादुर्भूत हुआ। पहले मुर्गी थी या अंडा की मजाकिया पहेली अभी तक अनसुलझी है जिसे और विस्तार दें तो जानना बाकी है कि पहले स्त्रीलिंग हुआ या पुल्लिंग। पहले स्त्रीलिंग आया तो पुल्लिंग के समागम के बिना जीवन कैसे आगे बढ़ा, क्योंकि विज्ञान तो यह प्रमाणित कर चुका है कि शुक्राणु और डिंबाणु के रेचन से ही नई सृष्टि हो सकती है। यही प्रश्न पहले पुल्लिंग के अस्तित्व में आने पर उठता है। या दोनों पृथक-पृथक आए तो उनका अपना-अपना पृथक अस्तित्व कैसे बना? अद्र्धनारीश्वर की मिथकीय अवधारणा की तरह कहीं मूल जीवाणु में ही दोनों का समावेश तो नहीं था? फिर वही बात, कि अगर हां, तो वह मूल जीवाणु कैसे बना?

और इसे भी याद रखें कि इस धरती पर मनुष्य ही नहीं, उस समेत जल, थल और नभ में विचरण करने वाले विशालतम से लेकर लघुत्तम आकार के जीवों से लेकर जीवाणुओं तक की असंख्य प्रजातियां होंगी और इन सबमें आदिकाल से जीवन निरंतर गतिमान होता रहा है, मगर गुत्थी अभी भी जस की तस है।

तब मुझे लगता है कि कभी न कभी सब कुछ जान लेने का दावा करने वाले विज्ञान की भी एक सीमा है क्योंकि अंतत: तो वह मानव-मस्तिष्क से ही उद्भूत है। जैसे विज्ञान अपने निर्माता के रहस्य को संपूर्णता में नहीं जान सकता, वैसे ही मानव-मस्तिष्क रूपी ब्रह्मांड के लिए अपनी निर्मात्री प्रकृति के असंख्य रहस्यों को जानना नामुमकिन है। अरबों साल से सतत प्रगति करता जीवन अपने सर्वोत्कृष्ट रूप मनुष्याकार में हजारों तारों वाली हमारी आकाशगंगा के एक-दो ग्रहों को यत्किंचित जानने का दावा ही कर सका है, जबकि अनुमानत: ब्रह्मांड में असंख्य आकाशगंगाओं का अस्तित्व है और वह निरंतर फैलता ही जा रहा है!

लेख में अनुमान लगाया गया है कि प्रारंभ में ब्रह्मांड 'चंद मिलीमीटर की' 'एक नन्हीं गेंद' जैसा था जिसमें उसकी 'समस्त ऊर्जा और पदार्थ' समाए थे, मगर वह 'स्पेस' में लटका हुआ नहीं था, क्योंकि तब न 'दिक्' था न 'काल'। सवाल है कि तब वह कहां था? वह किसी आधार पर नहीं टिका था क्योंकि आधार कोई था ही नहीं। चतुर्दिक कोई तो बल रहा होगा जिसकी खींचतान से वह उस निर्वात में भी अवस्थित था। 13.7 अरब वर्ष पहले हुए महाविस्फोट के बाद ब्रह्मांड के आज भी जारी सतत विस्तार की सृजन-प्रक्रिया के गतिमान रहने का क्या कारण है, इसका कोई उत्तर विज्ञान के पास अब तक नहीं है। ब्रह्मांड के आकार या मूलाकार को लेकर भी मत-वैभिन्य है कि वह '?' के चित्राकार सदृश है जो अपनी दांए-बांए, ऊपर-नीचे और अंतराल पर स्थित शाखाओं अथवा बाहुओं की दिशा में फैलता जा रहा है तो कोई महाविस्फोट से उत्पन्न शब्द को '?' के उच्चारण वाली ध्वनि की तरह कल्पित करता है। किसी के अनुसार वह आदि-अंत से मुक्त शून्याकार या मुख में पूंछ को दाबे सर्पाकार-नुमा है। मुंडे-मुंडे मर्तिर्भिन्ना।

इस सारे मानसिक व्यायाम के बाद स्पष्ट लगता है कि ब्रह्मांड के रहस्य को बाहर से नहीं समझा जा सकता, उसके लिए भीतर ही गहरे उतरना होगा। हां, अब इस बिंदु पर आकर मुझे अध्यात्म और योग-साधना उसे समझने के बेहतर सोपान लगते हैं-जैसा प्रयास हमारे पुरखे ऋषि-मुनियों की तेजस्वी मेधा 'ऋग्वेद' जैसे आधारगं्रथों में कर चुकी है। संदर्भित लेख में भी 'ऋग्वेद' के 'नासदीय सूक्त' का हवाला आया है जो संभवत: प्रूफ की गलती से हिमालयन ब्लंडर बनते हुए 'नारकीय सूक्त' हो गया है। ऐसा एक छोटा-सा प्रयास इन पंक्तियों के लेखक ने भी कुछ वर्ष पूर्व किया था, जो 'अनाद्यसूक्त' के नाम से पहले-पहल 'पूर्वग्रह-123' में छपने के बाद, यानी चार वर्ष पूर्व, प्रकाशित होकर प्रो. दयाकृष्ण, प्रो. गोविंदचंद्र पाण्डेय, यशदेव शल्य और मुकुंद लाठ जैसे देश के शीर्षस्थानीय दार्शनिकों-विद्वानों द्वारा भी समादृत हुआ। प्रो. पाण्डेय और डॉ. लाठ ने उक्त लंबी कविता को 'नासदीय सूक्त' से ही प्रेरित बताया था, जो सही नहीं था क्योंकि उसकी रचना के पूर्व मैंने 'नासदीय सूक्त' कभी नहीं देखा था। उसे बाद में देखा, जब संबंधित सूचना पाने के बाद अग्रज मित्र कामरेड हरीश भादानी ने मुझे उसे भी देखने की सलाह दी। इसे मैंने अपने लेखकीय वक्तव्य में स्पष्ट किया है। कविता का स्वरूप तो बाद में भी अपरिवर्तित रहा, मगर मैंने पाठकों के लाभार्थ प्रारंभिक पृष्ठों पर 'नासदीय सूक्त' को अवश्य उद्धृत किया था। प्रो. पाण्डेय और डॉ. लाठ ने शायद इसी कारण ऐसा समझा हो।

उस कविता का विषय भी यही था कि ब्रह्मांड का आदिकण कैसे बना और कैसा बना। गौर करने की बात है कि दिसंबर, 2006 में रचित यह कविता 2008 में ही 'पूर्वग्रह' में प्रकाशित होकर उसी वर्ष पुस्तकाकार भी आ गई थी, मगर बर्न प्रयोगशाला की 27 किलोमीटर लंबी सुरंग में प्रकाश से भी ज़्यादा तेज गति से दो कणों को टकराने के इस अति महत्त्वाकांक्षी और हैरतअंगेज प्रयोग का शुभारंभ एक वर्ष बाद शुरू हुआ, जिसका निष्कर्ष पता नहीं कब निकलेगा! यह सही है कि 'अनाद्यसूक्त' को रचना किसी असंभव चुनौती जैसा ही था, मगर आखिर तो वह एक कविता ही थी, विज्ञान की खोज नहीं! कवि होने के नाते नहीं, इस लेख को लिखने के दौरान, एक साधारण-से और सोच-विचार में मन रमाने वाले व्यक्ति के नाते, मुझे लगता है कि सत्य की खोज कविता ही कर सकती है और वस्तुसत्य तक पहुंचने के लिए विज्ञान को भी काव्यसत्य की मदद लेनी होगी— ''महाकाव्य बांह में समेट/आया विज्ञान जब समक्ष/अंतरिक्ष हुआ हर्षमग्न/खोल दिया भेदभरा वक्ष''।

लेख में इस बात की भी चुटकी ली गई है कि 'हिग्स बोसॉन कण' को 'गॉड पार्टिकल' का छद्मनाम देकर 'ईश्वर की खोज' साबित करने की कोशिश धर्मभीरु मीडिया द्वारा की गई। 'ईश्वर' या 'भगवान' मनुष्योचित कल्पना का परिणाम है क्योंकि मनुष्य प्रकृति में दृश्यमान, अनुभूतिजन्य या कल्पनानिर्मित चीजों या भावों-अनुभावों या स्वप्नों को भी नाम देने की प्रवृत्ति रखता है, इसलिए उसने उस अबूझ और अजाने मूलकण को नाम दे दिया 'हिग्स बोसॉन कण', और जिस क्षेत्र की विशिष्टता के कारण वह उत्पन्न हुआ, उसे नाम दिया 'हिग्स फील्ड'। क्यों?- क्योंकि उस फील्ड का अनुमान सबसे पहले हिग्स ने किया। अगर किसी 'पिग्स' ने किया होता तो वह कहलाता पिग्स फील्ड! स्पष्ट है कि मनुष्य की कल्पना का 'भगवान' विज्ञान के यथार्थ में आने वाला 'हिग्स फील्ड' है। मनुष्य की कल्पना प्रकृति को भी सर्वशक्तिमान मानती है और विज्ञान खोजकत्र्ता के नाम पर उसे 'हिग्स फील्ड' कहना चाहता है-अभी से! जबकि अभी वह प्रमाणित नहीं हुआ! आप उसे भगवान न कहना चाहें तो प्रकृति तो कह ही सकते हैं। प्रकृति को भगवान मानने पर कम से कम आप उसे पंचेंद्रियों के माध्यम से अनुभव तो करेंगे। भगवान तो एक अमूत्र्त पद है, जिसकी सिर्फ कल्पना ही की जा सकती है। और 'हिग्स फील्ड' कहने पर न तो कल्पना जगेगी, न पंचेंद्रियां! तब यह बात तर्कसम्मत लगेगी कि प्रकृति की कॉस्मिक ऊर्जा ने आदिकण को जन्म दिया, फिर उसके तुरंत बाद अनंत संख्या में वैसे ही कणों ने आपस में जुड़कर 'एक नन्हीं-सी गेंद' का रूप धारण कर लिया- 'बिग बैंग को जन्म देने के लिए।

विज्ञान आज यह भी मान रहा है कि शब्द का भी अस्तित्व होता है और वह कभी नष्ट नहीं होता। महाभारतकालीन युद्ध की ध्वनि तरंगें पकडऩे की कोशिश हो चुकी है। 'समयांतर' के इसी लेख में बताया गया है कि सन् 1960 के दशक में दो वैज्ञानिकों अर्नोपेंजियाज और रॉबर्ट विल्सन ने 'विशेष सेटेलाइट एंटेना से सुदूर अंतरिक्ष से तीखी चरचराती' आवाज सुनी जो एंटेना को कई तरह से घुमाने के बाद भी बंद नहीं हुई। इसी आधार पर उन्होंने 'कॉस्मिक माइक्रोवेव बैकग्राउंड' का पता लगाया, जिसके लिए उन्हें 1978 के नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया गया।

लब्बोलुबाब यह है कि बर्न प्रयोगशाला में ब्रह्मांड की उत्पत्तिसंबंधी प्रयोगों को लेकर अपार प्रसन्नता प्रकट करते हुए वैज्ञानिकों के समूह ने जो बातें कही हैं, वे अभी भी अनिश्चयपूर्ण हैं और हम उन्हें भविष्य में सफल होने की शुभकामनाएं तो दे ही सकते हैं। मगर, इस सारे विश्लेषण की पृष्ठभूमि में फिलहाल वैसा विश्वास नहीं कर सकते।

अंत में एक संपादकीय चूक की ओर ओर ध्यान दिलाना चाहूंगा। इस लेख का एक पैरा (पत्रिका के पृष्ठ 13 के बीच वाले कॉलम का 'अब तक काल्पनिक ही रहे हिग्स बोसॉन कण के अस्तित्व की पक्के तौर पर पुष्टि हो जाने से... यही साबित करने की कोशिश की जा रही है' वाला पैरा) अगले 14वें पृष्ठ के पहले कॉलम में जस का तस पुनर्मुद्रित हो गया है। संभवत: व्यस्तताओं के कारण आप इसे देख नहीं सके, लेकिन 'समयांतर' जैसी गंभीर विचारपरक पत्रिका में ऐसी त्रुटि से बचना श्रेयस्कर होगा।

समयांतर डैस्क | October 14, 2012 at 4:32 pm | Tags: god particle, higgs boson | Categories: मंच | URL: http://wp.me/p2oFFu-dl

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