प्रमोद भार्गव
भूमंडलीय बाजारवाद अपने व्यापार के विस्तार के लिए लालायित केवल खुदरा बीमा और पेंशन में पूंजी निवेश के लिए ही नहीं है, उसने गोपनीय ढ़ंग से क्लीनिकल दवा परीक्षण में भी पूंजी निवेश कर इसका विस्तार देश के छोटे और मझोले शहरों में कर लिया है। गुलाबी अखबार और दरबारी मीडिया इसे भले ही स्वास्थ्य लाभ के लिए वैश्विक उद्योग माने, लेकिन हकीकत में मरीज को धोखे में रखकर दी जा रही यह दवा अमानवीय हिंसा का वैसा ही कारोबार है, जैसा अंगों के लिए मानव तस्करी की गतिविधियां पनप रही हैं। दूरांचलों में इस गंदे धंधे का विस्तार इसलिए किया गया है जिससे कानूनी प्रावधानों में शिथिलता, जागरूकता और अपारदर्शिता का लाभ उठाकर धड़ल्ले से परीक्षणों को अंजाम तक पहुंचाया जा सके। और यदि अनहोनी घट भी जाए तो मौत को स्वाभाविक मौत बताकर मुआवजा देने से आसानी से बच सकें। यहां हैरानी इस बात पर भी है कि जिस चिकित्सक के पास भगवान मानते हुए रोगी पहुंचता है, वही उसकी जिंदगी के साथ शैतानी खिलवाड़ करने लग जाता है। यही कारण है कि दवा परीक्षण के दौरान हर दो दिन में तीन मौतें हो रही हैं। सूचना के अधिकार से प्राप्त अधिकृत जानकारी के मुताबिक 2008 से जनवरी 2012 के दौरान 2061 लोगों की मृत्यु जानलेवा दवा परीक्षण से हुई है। यह जानकारी भारत के औषधि महानियंत्रक कार्यालय ने दी है। लेकिन कंपनियों ने मुआवजा चंद लोगों को ही दिया है।
स्वास्थ्य मंत्रालय से जुड़ी संसद की स्थायी समीति की हलिया रिपोर्ट के मुताबिक बहुराष्ट्र्रीय दवा कंपनियां भारत के छोटे शहरों में बेखौफ क्लीनिकल दवा परीक्षण कर रही हैं। ऐसे परीक्षणों का स्वरूप अनियमित और गैर प्रतिनिधित्व वाला है, जिससे विभिन्न जातीय समुदाय के लोगों पर इन दवाओं के प्रभाव के बारे में कोई अधिकृत जानकारी नहीं मिल पाती। राज्यसभा में मई 2012 में पेश इस रिपोर्ट में इस बात पर चिंता प्रकट की है कि ऐसे कई छोटे शहरों में निर्बाध रूप से औषधि परीक्षण किए जा रहे है जहां विविध जातीय मूल के लोग नहीं रहते। विशेषज्ञों का दावा है कि जिन दवाओं का परीक्षण भारतीय आर्य प्रजाती के लोगों पर किया जाता है, जरूरी नहीं कि वह दवा मंगोल या द्रविड़ मूल के लोगों पर भी कारगार सिद्ध हो। गुवाहटी में मंगोल मूल के रोगियों पर नई दवाएं आजमाई जा रही हैं। इन रोगियों के उपचार में यदि इन दवाओं की प्रमाणिकता साबित हो भी जाती है तो यह नहीं कहा जा सकता कि आर्य और द्रविड़ों पर भी यह सटीक बैंठेगी। हालांकि इसे संयोग कहें अथवा प्राकृतिक या भौगोलिक कारणों की वजह कि मानव की आनुवंशिक प्रजातियां में से 6 की भारत में आसान उपलब्धता है। इस अनुकूलता के चलते भारत में हर मर्ज के मरीज सरलता से मिल जाते हैं और कानूनी ढिलाई के चलते दवा की जांच भी अन्य देशों की तुलना में सस्ती व जल्दी हो जाती है। यही काराण है समिति की रिपोर्ट के मुताबिक हमारे यहां 164 स्थानों पर दवाओं के प्रयोग जारी हैं। करीब 2000 प्रकार की दवाओं का परीक्षण किया जा रहा है। नतीजतन एक अनुमान के अनुसार यह कारोबार इस साल 1500 करोड़ से बढ़कर 2700 करोड़ का हो गया है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के आंकडों के मुताबिक नई औषधियों की क्षमता की परख के लिए मनुष्यों पर अब तक 1, 76, 641 मानव परीक्षण हो चुके हैं। इनमें से 2, 770 परीक्षण भारत में हुए हैं, जो दुनिया में हुए कुल औषधि परीक्षण का 1.5 फीसदी हैं।
भारतीय नागरिकता के अर्थशास्त्र में नागरिक के मानक का निर्धारण, अक्सर जाति के स्तर पर ऊंच- नीच और दौलत के स्तर पर अमीरी - गरीबी के पैमाने पर होता है। इसलिए जो गरीब, वंचित, हरिजन, आदिवासी और दलित हैं, उन्हीं के शरीर को चूहा-खरगोश मानकर नई दवाओं का प्रयोग किया जाता है। मरीजों के जान से खेलने के लिए मशहूर हुए मध्य प्रदेश के चिकित्सकों ने दवा परीक्षण के खतरनाक खेल में लाड़लियों को भी नहीं बख्शा। इंदौर के महात्मा गांधी चिकित्सा महाविधालय के शिशु रोग विशेषज्ञ ने 2, 800 नाबालिग लड़कियों पर ह्यूमन पेपालिना वायरस की दवा को आजमाया, जबकि प्रदेश में इस बीमारी का कोई विस्तार ही नहीं है। ये परीक्षण आंध्रप्रदेश की उस भयावह स्थिति की जानकारी होते हुए किए गए, जिसके तहत इसी वैक्सीन के लिए हुए परीक्षण में 26 लाड़लियां बेमौत मारी गईं थीं।
आंध्रप्रदेश और गुजरात के ग्रामीण क्षेत्रों के आदिवासी इलाकों में 10 से 14 साल की 32, 000 लड़कियों पर गार्डसिल नामक वैक्सीन का परीक्षण किया गया। इस वैक्सीन के सिलसिले में दवा कंपनी ने दावा किया था कि यह सर्वाइकल कैंसर की रामबाण दवा है। इस बाबत् मिथक गढ़ा गया कि वैक्सीन के प्रयोग से महिलाओं में उस वायरस को रोका जा सकता है, जो कैंसर का जनक है, जबकि भारतीय चिकित्सा परिषद शिवपुरी के पूर्व अध्यक्ष डॉ. अर्जुनलाल शर्मा का कहना है कि यह एक आम संक्रमण है, जो 90 प्रतिशत मामलों में स्वमेव समाप्त हो जाता है।
संसदीय समीति की रिपोर्ट के मुताबिक बहुराष्ट्र्रीय दवा कंपनियों ने नई औषधि निर्माण के लिए रेफाक्सिामिन दवा का परीक्षण कोटा और जयपुर में किया। डोक्सोटीलीन का हैदरबाद व औरंगाबाद में किया। रेमोसेट्र्रान का परीक्षण बैतूल, भोपाल, इंदौर और बड़ोदरा में हुआ। इसी तरह इटोडोलैक और पैरासिटामोल के मिश्रण को आजमाने की इजाजत केवल भारत ने दी और इसके परीक्षण नागपुर और पुणे में हुए। जाहिर है इस मिश्रण का प्रयोग जिन लाचारों के शरीर पर गिनीपिग की तर्ज पर किया गया है, वे धीमे जहर का दंश झेल रहे होंगे। समिति के सदस्य डॉ. संजय जयसवाल का कहना है कि दुनिया के विभिन्न देशों में दवाओं के प्रभाव का आकलन करने और उसकी उपयोगिता की समय -समय पर समीक्षा के लिए एक पारदर्शी तंत्र बनाया गया है, लेकिन भारत में इसका अभाव है।
दवा कंपनियों ने छोटे और मझोले नगरों को किस प्रकार औषधि परीक्षण का केंद्र बनाया हुआ है, इसका अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि वैश्विक दवा कंपनी इलि लिलि देश के विभिन्न प्रांतों में स्थित 40 अस्पतालों में क्लीनिकल परीक्षण करा रही है। इसी तरह फाइजर ने पूर्वोत्तर के 6 शहरों को दवा परीक्षण के लिए चुना है। स्विस दवा कंपनी रोचे भारत के कई शहरों में फेंफड़े के कैंसर से जुड़ी दावाओं का परीक्षण कर रही है। सिरो क्लिनफार्म देश के कई अस्पतालों में परीक्षण में लगी है। बंगलूर स्थित क्लिनजीन इंटरनेश्नल भारत के 5 शहरों में दवा परीक्षण करा रही है।
चूंकि ये परीक्षण वैधानिकता के सभी मानदंडो को नजरअंदाज करके किए जाते हैं, इसलिए तिल - तिल मर जाने वाले रोगी के परिजनों को मुआवजे का कोई वैधानिक अधिकार भी नहीं रह जाता। यही वजह रही कि सूचना के अधिकार के तहत औषधि नियंत्रण महानिदेशालय से प्राप्त जानकारी के अनुसार पिछले 4 साल में भारत में दवा परीक्षण के दौरान 2, 031 लोगो की मौतें हुईं। 2008 में 288, 2009 में 637, 2010 में 668 और 2011 में 438 लोगों को नई दवा की ईजाद के लिए अपने प्राणों की आहुति देनी पड़ी। जबकि मुआवजा मिला महज 22 लोगों को। 10 दवा कंपनियों ने अब तक 50 लाख रुपए का मुआवजा दिया है, जो औसतन प्रति मृतक 2.38 लाख रुपए बैठता है। विदेशी दवा कंपनियां भारतीय नागरिकों को अन्य देशों के नागरिकों से कमतर आंकती हैं इसलिए मुआवजे में भी भेद बरता गया। जिस दवा कंपनी ने मौत का मुआवजा भारत में 2.5 लाख रुपए दिए, उसी कंपनी ने अगस्त 2011 में नाइजीरिया में करीब 84 लाख रुपए; 1, 75, 000 डॉलर का मुआवजा दिया। इसी तरह जर्मनी में परीक्षण के समय मौत होने पर एक कंपनी ने 2.68 करोड़ रुपए 40 लाख यूरो का मुआवजा दिया। वहीं अमेरिका में एक महिला की मौत होने पर करीब 30 लाख डॉलर का मुआवजा दिया गया। इस विसंगति के बारे में भारत के औषधि नियंत्रक महानिदेशक डॉ. ज्ञानेंद्र नाथ सिंह का कहना है, '' यह सही है अभी तक मुआवजा दिए जाने के बारे में कोई ठोस नियम मौजूद नहीं हैं, लेकिन ऐसे मामलों में मुआवजा दिलाने के लिए पूरी मदद की जाती है। मुआवजा निर्धारित करने की प्रक्रिया भी शुरू हो गई है उम्मीद है जल्दी ही इससे संबंधित नियम कानून अस्तिव में आ जाएंगे। ''
यह सही है कि दवा परीक्षण को वैधानिक स्वरूप देने की दिशा में विचार-विमर्श को गति मिली है लेकिन इसमें विरोधाभास यह है कि बैंठकों में दवा कंपनियों के प्रतिनिधि बहुमत में रहते है। 18 मार्च 2012 को इस संदर्भ में जो बैठक संपन्न हुई थी, उसमें 17 पक्षकारों ने भागीदारी की। इनमें से 10 दवा कंपनियों के प्रतिनिधि थे। बैठक में 4 चिकित्सा विशेषज्ञों को बुलाया गया इनमें 3 दिल्ली के एम्स और आईसीएमआर तथा एक चंडीगढ़ स्थित पीजीआईएमईआर चिकित्सा संस्थानों से थे। लेकिन स्वास्थ्य मंत्रालय से जुड़ी संसद की स्थायी समिति की सदस्य तथा सांसद ज्योति मिर्धा ने मुआवजे पर विचार - विमर्श की प्रक्रिया को भेदभावपूर्ण करार देते हुए 2 अप्रैल 2012 को एक पत्र केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री को लिखा। श्रीमति मिर्धा ने पत्र में कहा, समिति में ज्यादातर ऐसे लोगों को शामिल किया गया है जिनके सीधे हित इस विषय से जुड़े हैं और जिन्हें मरीजों से न तो कोई सरोकार हंै और न ही कोई हमदर्दी। इस स्थिति को किसी भी सूरत में स्वीकार नहीं किया जा सकता। लिहाजा विचार-विमर्श की प्रक्रिया में पूरे देश से सभी पक्षों से लोग शामिल किए जाएं।
विदेशी दवा कंपनियों को तो हम अपने देश में दवा परीक्षण की इजाजत दे रहे हैं, लेकिन इस बाबत वहां जो नियम हैं, उनका अनुकरण करने से बच रहे हैं। अमेरिका, ब्रिटेन, जर्मनी, हॉलैंड, इटली, स्पेन और यूरोप व एशिया के अनेक देशों में मानव परीक्षण के सिलसिले में मानदंड सुनिश्चित किए गए हंैं। इस संदर्भ में मरीजों के लिए बीमा का प्रावधान है। साथ ही मरीज की ओर से दवा परीक्षण के दौरान मौत होने का दावा किए जाने पर लापरवाही और कदाचार से जुड़ी धाराओं के तहत मुआवजे का भुगतान किया जाता है। औषधि और प्रसाधन सम्रगी अधिनियम 1945 के अनुच्छेद 'वाई' में मनुष्यों पर दवाओं और टीका के परीक्षण से संबंधित प्रावधान हैं। इस कानून में 2005 में कुछ संशोधन भी किए गए, लेकिन मानव परीक्षण के बारे में मुआवजे की राशि के निर्धारण की कोई व्यव्यस्था नहीं की गई है। यही वजह है परीक्षण के दौरान अस्थायी या स्थायी विक्लांगता अथवा असक्तता या मौत हो जाने पर पीडि़त के कानूनी या वैध उत्तराधिकारी को अव्वल तो मुआवजा मिलता ही नहीं अथवा कंपनियां अपनी मनमर्जी के आधार पर मुआवजा देती हैं। औषधि और प्रसाधन सामग्री अधिनियम 2005 की यह कमजोर कड़ी है, जिसे एक बार फिर से संशोधित करने की जरूरत हैं?
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