गायत्री आर्य
सिर्फ अस्पताल की पर्ची ना होने के कारण एक स्त्री ने आगरा के एक जिला अस्पताल के परिसर में खुले आसमान के नीचे बच्चे को जन्म दिया। समय पर बच्चे की देखभाल ना होने के कारण नवजात की मौत हो गई। बाद में प्रसूता को इलाज के लिए भर्ती कर लिया गया। मेडिकल हब बने इस देश में ऐसी दर्दनाक खबरें खास नहीं बल्कि आम खबर की तरह लगभग हर पखवाडे या हर महीने पढऩे को मिलती हैं। एक नवजात शिशु की जिंदगी की कीमत कागज की एक पर्ची के बराबर भी नहीं! क्या किसी मंत्री, किसी वी.आई.पी या किसी पैसे वाले का बच्चा ऐसे चिकित्सा के अभाव में दम तोड़ सकता था? नहीं। क्या अस्पताल के चिकित्सक और प्रशासनिक विभाग उस बच्चे की हत्या के लिए खुद को जिम्मेदार ठहराएंगे? नहीं! यह हमारी काम करने की पद्धति है जिसमें हर अच्छे काम का सेहरा अपने सिर बंधवाने के लिए लोग जान दे सकते हैं लेकिन अपनी बदसलूकियों को कभी स्वीकार नहीं करेगे। वैवाहिक मातृत्व का बेहद सम्मान और महिमामंडन करने वाले देश में ऐसी स्थितियों में होने वाले प्रसव, नवजात की मौत और मातृत्व की हत्या क्या कभी शर्म का विषय बनेंगे? प्रशासन का ध्यान खींचनें के लिए पता नहीं अभी और कितने शिशुओं का मौत के मुह में समाना होगा?
जिस वक्त ऐसी महिलाएं चिकित्सा सुविधा के अभाव में प्रसव करने को मजबूर हैं, जिस वक्त अरबों मरीज चिकित्सकों और दवाई के अभाव में जिंदगी और मौत के बीच झूल रहे हैं ऐन उसी वक्त भारतीय चिकित्सकों का समूह ब्रिटेन पहुंचने की तैयारी में है। सुनने में आया है कि ब्रिटेन इस समय चिकित्सकों की जर्बदस्त कमी से जूझ रहा है, जिसकी भरपाई के लिए उसकी निगाह भारत पर है। जाहिर है विक्टोरियाई स्वामिभक्ति अब भी हमारी रगों में बहती है। इसी कारण अपने देश के अरबों बीमार, त्रस्त, चिकित्सीय सुविधाओं से हीन लोगों से पहले, ब्रिटेन के मरीज हमारे लिए सबसे पहले और सबसे ज्यादा चिंता का विषय हैं। सरकार से पूछा जाना चाहिए कि क्या ब्रिटेन के लोगों ने हमसे ज्यादा, हमसे पहले और नियमित चिकित्सा कर चुकाया है जो वहंा के मरीज हमसे पहले चिकित्सा सुविधा पाने के हकदार हैं।
जिन क्षेत्रों में भारत अपने तमाम भ्रष्टाचारों के बावजूद विकसित देशों को कड़ी चुनौती दे रहा है उनमें से एक क्षेत्र चिकित्सा का है। हमारे यहंा की विकसित व सस्ती चिकित्सा दुनिया भर के बीमारों के लिए खास आकर्षण का केंद्र है। बीमारी का इलाज कराने आने वाले 'मेडिकल टूरिस्टों' की संख्या दिन-ब-दिन बढ़ती जा रही है। 2007 में भारतीय हेल्थ केयर मार्केट 35 बिलियन डॉलर का था। 2009 में 450, 000 विदेशियों ने भारत में आकर इलाज करवाया। भारत के इन्वेस्टमेंट कमीशन के अनुसार पिछले 4 सालों में हेल्थकेयर सेक्टर में 12 प्रतिशत की सालाना वृद्धि दर्ज हुई। इसी रफ््तार से यदि यह वृद्धि जारी रही तो 2012 तक भारत के हेल्थकेयर बाजार के 70 बिलियन डॉलर व 2020 तक 280 बिलियन डॉलर पहुंचने की उम्मीद है। ये चमकते आंकडे हमारे दिल और दिमाग को कितना सुकून पहुंचाते हैं। लेकिन काश कि इस चमकीली तस्वीर का कोई दूसरा स्याह पहलू ना होता। लगभग 250, 000 डॉक्टर प्रतिवर्ष पैदा करने वाले देश में प्रति एक हजार लोगों पर 0.6 डॉक्टर उपलब्ध हें। 0.6 डाक्टर को हम ऐसे समझ सकते है। कि इस देश के करोड़ों लोगों को कैसे भी इलाज के लिए एक भी डॉक्टर नसीब नहीं है। 700 मिलियन लोगों की पहुंच किसी भी स्पेशलिस्ट तक नहीं है क्योंकि लगभग 80प्रतिशत स्पेशलिस्ट शहरों में रहते हैं। जबकि भारत की आबादी का ज्यादा हिस्सा आज भी गांवों व छोटे शहरों में रहता है। जाहिर है देश में सस्ती और अच्छी चिकित्सा सुविधा सिर्फ विदेशी और पैसे वाले मरीजों के लिए ही उपलब्ध है।
सरकार द्वारा चिकित्सकों के लिए गांवों में अनिवार्य रूप से सेवा देने के प्रावधान के बावजूद भी स्थिति में कोई सुधार नहीं है। एक तो शहरी सुविधाओं और जीवन शैली की आदत के चलते चिकित्सक गांव में नहीं जाना चाहते। दूसरी तरफ प्राइवेट प्रैक्टिस में जितना आकूत पैसा कमाने का मौका शहरों में है वैस गांवों में नहीं। एक छिपा हुआ व्यापक तथ्य और भी है। हमारा पूरा सामाजिक, राजनैतिक, शैक्षिक ढ़ांचा हमें गांव और छोटे कस्बे के साधनहीन, गरीब लोगों से जोड़ता नहीं बल्कि उन्हें हमारे सामने कमजोर, अनावश्यक और हीन की तरह पेश करता है। हर तरह से शिक्षित और आर्थिक रुप से सफल हो गए युवाओं को कभी नहीं लगता शहर की चकाचौंध से अलग भी उसका परिवेश है, उसके लोग है जिनके कारण वह भरपेट खाता है और जिंदा है। फिर ऐसे में डॉक्टरों को अचानक से कैसे गांवों में सेवा देने का पाठ पढ़ाया जा सकता है और वे चले भी जाएंगे तो किस मनोदशा में अपनी चिकित्सीय सेवाएं देंगे भला?
मेडिकल हब बने इस देश में सलाना एक मिलियन लोग पर्याप्त स्वास्थ्य सुविधाओं के अभाव में मर जाते हैं। हमारे अपने लोगों के लिए ना डॉक्टर हैं ना सस्ता इलाज। लेकिन दुनिया के मरीजो ंके लिए बेहतर चिकित्सक हर वक्त उपलब्ध हैं। दुनिया के किसी दूसरे देश में शायद ही चिकित्सा की इतनी पद्धतियां एक साथ जोर-शोर से मरीजों के इलाज मे लगी हों। आयुर्वैदिक, ऐलोपैथी, होम्योपैथी, यूनानी, प्राकृतिक, योग चिकित्सा आदि... लेकिन इस सबके बावजूद आम आदमी के हिस्से में ना चिकित्सक है, ना सही चिकित्सीय परामर्श है, ना अच्छी दवाई है, ना किसी तरह की चिकित्सीय सुविधा। अपने लागों की चिकित्सीय सुविधाओं को पूरा किए बिना किसी भी चिकित्सक को विदेश जाने की अनुमति नहीं दी जानी चाहिए। संवेदनाओं और स्वाभिमान के स्तर पर हम इतने कंगाल हो चुके हैं कि अपने लोगों की तकलीफ से पहले हमें अपनी तरक्की और आर्थिक हित दिखता है। एक तरफ सरकारें गरीबों के लिए स्वास्थ्य बीमा योजनाओं की घोषणा करती हैं। दूसरी तेरफ मरीजों के हिस्से में डॉक्टर भी नहीं हैं।
एक कृषि प्रधान देश में दुनिया में सबसे ज्यादा बच्चे भूख और कुपोषण के कारण मर रहे हैं। मेडिकल हब बने देश में करोड़ों लोग चिकित्सीय सुविधाओं के अभाव में मर रहे हें। हम फिर भी दुनिया के सामने पूरी बेशर्मी से मानवता और न्याय की बात करते हैं। पंचसितारे अस्पताल विदेशी मरीजों को लुभाने के लिए जरूरी हो सकते हैं, सकल घरेलू उत्पाद बढ़ाने के लिए जरूरी हो सकते हैं, विकास दर बढ़ाने के लिए जरूरी हो सकते हैं। लेकिन जिन अस्पतालों में इस देश का एक बड़ा तबका अपना इलाज नहीं करा सकता, जो विकास दर आम आदमी का अच्छी तो दूर न्यमनतम चिकित्सीय सुविधा नहीं दे सकती हम उस विकास दर ओर ऐसे आलीशान अस्पतालों का क्या करें?
'संतोष' की तहजीब के धनी हम क्या सिर्फ इसी बात में सब्र कर लें की हमारा देश पूरी दुनिया में सबसे बड़े मैडिकल हब के तौर पर उभर रहा है। लेकिन काश के सब्र करने से नवजात बच्चे, प्रसूताएं और तमाम साध्य बीमारियों से पीडि़त लोग मौत के मुंह में जाने से बच जाते। जन्म से पहले ही अपने हिस्से के चिकित्सा कर भरने के बावजूद भी उस नवजात के हिस्से में कोई डॉक्टर या चिकित्सीय सुविधा क्यों नहीं आई? बिला नागा अपने हिस्से के चिकित्सा कर के भुगतान के बावजूद आम आदमी के हिस्से में ना चिकित्सक है, ना दवाई, और ना ही कोई चिकित्सीय सुविधा। क्यो? यदि आम आदमी को अपना इलाज निजी अस्पतालों के कमर तोड़ बिल चुकाकर ही कराना है तो फिर टैक्स चुकाकर सरकारी तिजोरियों को भरते जाने का भला क्या मतलब?
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