दिल्ली दरबार में दीदी का दम
आमतौर पर मंच वैसे लगता नहीं है जैसे ममता बनर्जी का लगाया गया था. जंतर मंतर मंच का मुंह दक्षिण की ओर था. आनेवाले भी दक्षिण से ही आ रहे थे. दक्षिण के जिस चौराहे से जंतर मंतर की सड़क शुरू होती है उसी चौराहे पर मुलायम सिंह यादव का आवास है. दिल्ली के लुटियन्स जोन में मुलायम सिंह कुछ ऐसे सौभाग्यशाली नेताओं में शुमार हैं जिनके घरों का दरवाजा दो सड़कों पर खुलता है. ऐसे घरों में रहनेवाले को सुविधा होती है कि वह जब चाहे तब अपनी सुविधा अनुसार आगे या पीछे किसी भी दरवाजे को मुख्य दरवाजा बना सकता है. निश्चित रूप से ममता बनर्जी उन दरवाजों को नहीं भूली होंगी जब राष्ट्रपति चुनाव के दौरान मुलायम सिंह यादव ने एक दरावाजा उनके लिए तो दूसरा कांग्रेस के लिए इस्तेमाल किया था.
लेकिन इन कुछ दिनों में बहुत कुछ राजनीतिक उठा पटक हो चुकी है. ममता बनर्जी आखिरी तौर पर कांग्रेस के गठबंधन यूपीए से अलग हो चुकी हैं और मुलायम सिंह यादव अभी भी दोनों दरवाजों का बखूबी इस्तेमाल कर रहे हैं. लेकिन सोमवार को दिल्ली दरबार में दस्तक देने आईं ममता बनर्जी ने मंच से बोलते हुए मुलायम सिंह का दो बार नाम लिया. दोनों ही बार संदर्भ कांग्रेस सरकार का विरोध और रिटेल में एफडीआई का मुद्दा था. ममता के मंच का मुंह जानबूझकर मुलायम सिंह यादव के घर की ओर रखा गया था या फिर यह महज संयोग भी हो सकता है लेकिन आयोजकों ने "भारी भीड़" की आशंका को देखते हुए उस चौराहे तक लाउडस्पीकर लगवा दिये थे जहां मुलायम सिंह का घर था. अगर मुलायम सिंह घर में होंगे तो बिना रैली में आये वह सब सुन चुके होंगे जो ममता बनर्जी बोल रही थीं. अगर नहीं सुना होगा तो टीवी वाले जरूर सुना देंगे.
लेकिन ममता बनर्जी आज दिल्ली के जंतर मंतर पर ऐसा क्या बोल रही थीं जिसे मुलायम सिंह को सुनना जरूरी था? और मुलायम सिंह सिंह इसे जानना हमारे आपके लिए जरूरी क्यों है? जरूरी है. निहायत जरूरी है. अगर देश की राजनीति में 2014 का बवंडर आयेगा तो ममता बनर्जी की सोमवार सभा का संदेश समझने की कोशिश किसी भी राजनीतिक विशेषज्ञ को जरूर करनी चाहिए.
ममता बनर्जी जब बोलने के लिए आईं तो उसके पहले शरद यादव बंगाल की इस शेरनी के सामने नतमस्तक हो चुके थे. वे नेता बनकर नहीं बल्कि जनता बनकर ममता बनर्जी की रैली में शामिल होने के लिए आये थे. जैसे जनता अपने नेता के दर पर शीश झुकाती है वैसे ही एनडीए के संयोजक ने ममता के साहस को सलाम किया कि उन्होंने सरकार और आम आदमी के बीच जब चुनना हुआ तो आम आदमी को चुना और सरकार को दरकिनार कर दिया. इसी पृष्ठभूमि में जब ममता बनर्जी बोलने के लिए खड़ी हुईं तो उन्होंने दम लगाकर कहा कि वे जनता के साथ हैं. संघर्ष उनका असली उद्येश्य है और अगर अब और अधिक वे सरकार में रहतीं तो संघर्ष खत्म हो जाता. ममता बनर्जी जिस राजनीतिक पृष्ठभूमि से आती हैं उसमें संघर्ष ही उनके सफलता का एकमात्र सूत्र रहा है. ममता बनर्जी ने अपने पूरे राजनीतिक कैरियर में समझौते नहीं किये हों, ऐसा नहीं है. लेकिन जब समझौता और संघर्ष का चरमबिन्दु आता है तो अदम्य साहस दिखाते हुए वे संघर्ष के रास्ते पर आगे बढ़ जाती हैं. इस बार भी कांग्रेस से अलग होकर उन्होंने यही किया है.
ममता बनर्जी ने दिल्ली की सोमवार सभा में जो संदेश दिया वह उनके राष्ट्रीय फलक पर उतरने का संकेत है. उन्होंने कहा कि अब उनकी कर्मभूमि बंगाल भी है, बिहार भी है और उत्तर प्रदेश तथा महाराष्ट्र भी है. भले ही उन्होंने बहुत अच्छी हिन्दी में लच्छेदार भाषण न दिया हो लेकिन आखिर में सभी राज्यों के नाम से नारा लगवाकर दिल्ली दरबार को संदेश दे दिया है कि वे दिल्ली की कांग्रेस सभा को नष्ट करने के महाअभियान पर निकल चुकी हैं जिसकी शुरूआत यूपीए सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव से हो सकती है.
यूपीए से अलगाव के बाद ममता बनर्जी को बंगाल में कोई फर्क नहीं पड़नेवाला है. लेकिन इस अलगाव का संदेश ममता बनर्जी सिर्फ बंगाल तक रखना भी नहीं चाहती हैं. अगर ऐसा होता तो वे कोलकाता में दिल्ली से बड़ी रैली कर सकती थीं. उन्होंने न केवल दिल्ली चुना बल्कि पश्चिम बंगाल की जनता को लाने की बजाय दिल्ली के आस पास के राज्यों से लोगों को बुलाया. भारी भीड़ तो नहीं आई लेकिन अच्छी खासी संख्या में लोग आये. अपने भाषण के दौरान ममता बनर्जी ने स्वीकार भी किया कि उन्होंने जानबूझकर ऐसा किया है कि दिल्ली की जनता के सामने वे दिल की बात रखेंगी. उन्होंने बहुत कुछ कहा और उनके कहे को अगर जोड़कर देखा जाये तो ममता बनर्जी राष्ट्रीय राजनीति में बड़ी उथल पुथल मचाने की तैयारी में हैं.
ममता बनर्जी की सोमवार सभा इस बात का संकेत है कि वे चोट खाकर घाव चाटने की बजाय बंगाल की तर्ज पर देश में कांग्रेस का विकल्प मजबूत करने के लिए काम करेंगी. कांग्रेस को चित्त करने के लिए वे खुद किसी गढबंधन का सदस्य बनने की बजाय अब वे एक नया राजनीतिक मोर्चा गढ़ने कि दिशा में आगे बढ़ेंगी जिसमें क्षेत्रीय दलों का समावेश होगा. अपने भाषण के दौरान अगर उन्होंने मुलायम सिंह का नाम दो बार लिया तो दो बार उन्होंने देश के करीब हर राज्य का नाम लिया. उन्होंने घोषणा की कि वे आगामी दिनों में उत्तर प्रदेश और बिहार भी जाएंगी और इसी तरह खुदरा कारोबार में विदेशी निवेश के खिलाफ रैली करेंगी. लखनऊ की रैली जो तिथि उन्होंने घोषित की उस पर मुलायम सिंह और उनके बेटे अखिलेश यादव को मौजूद रहने का निमंत्रण भी सार्वजनिक रूप से दे दिया. अगर ममता बनर्जी मुलायम सिंह का नाम ले रही हैं तो वे जानती हैं कि उनके आगामी प्रयास में मुलायम सिंह यादव कहां पाये जाते हैं. अभी तक के हालात में मुलायम सिंह यादव तथाकथित तीसरे मोर्चे के स्वनामधन्य नेता हैं. अगर ममता बनर्जी कांग्रेस के खिलाफ किसी बड़े राजनीतिक किलेबंदी की तैयारी में हैं तो निश्चित रूप से इस किलेबंदी में मुलायम सिंह यादव ही वह पहले व्यक्ति होंगे जिनसे ममता बनर्जी को निपटना पड़ेगा.
ममता की रैली में शरद यादव की मौजूदगी से इस बात के भी राजनीतिक कयास लगाये जा सकते हैं कि ममता बनर्जी यूपीए की सदस्य हो सकती हैं. रणनीतिक तौर पर ऐसा करने में ममता के लिए कोई घाटे का सौदा नहीं है लेकिन अब एनडीए में सिर्फ शरद यादव ही ऐसे नेता के रूप में उभर रहे हैं जो वाजपेयी के बाद समन्वय स्थापित करने की कला में महारत रखते हैं. लेकिन शरद यादव का संकट यह है कि भाजपा उन्हें सिर्फ शोपीस बनाकर बैठकों में बिठा लेती है. नहीं तो भाजपा को भी पता है कि शरद यादव की उनके अपने ही दल पर बहुत चलती नहीं हैं. इसलिए ममता बनर्जी के एनडीए में जाने की आगामी संभावनाओं पर भारी वह संभावना है जो ममता बनर्जी दिल्ली में पैदा कर गई हैं. यह एक वृहत्तर एनडीए भी हो सकता है और एक स्वतंत्र समूह भी. लेकिन ऐसी किसी भी दिशा में आगे बढ़ते वक्त वामपंथी दलों का भूत ममता बनर्जी के साथ साये की तरह जरूर पीछा करेगा जो राष्ट्रीय राजनीति में कम से कम वैचारिक स्तर पर तीसरे मोर्चे में हमेशा शामिल रहता है.
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