Sunday, October 14, 2012

लड़ाई तो एक फीसद बनाम निनानब्वे फीसद की है! तो समाज. समय और देश के बारे में सोचने समझने वाले लोगों का कार्यभार और प्रस्थानबिंदू क्या होना चाहिए?

लड़ाई तो एक फीसद बनाम निनानब्वे फीसद की है! तो समाज. समय और देश के बारे में सोचने समझने वाले लोगों का कार्यभार और प्रस्थानबिंदू क्या होना चाहिए?

पलाश विश्वास

लड़ाई तो एक फीसद बनाम निनानब्वे फीसद की  है। इसी पर जीना मरना तय होना है। एक फीसद की एकता बहुआयामी अभेद्द है जबकि​​ बाकी निनानब्वे फीसद विभाजित, एक दूसरे के विरुद्ध युद्धरत और बिखराव की हालत में। यह समस्या आदिकाल से है। इस समीकरण में कोई अंतर नहीं आया है। तो समाज. समय और देश के बारे में सोचने समझने वाले लोगों का कार्यभार और प्रस्थानबिंदू क्या होना चाहिए? एक फीसद की आलोचना करते हुए उन्ही की पहल पर , उन्हीं की अगुवाई में और उन्ही के हितों में परिवर्तन और क्रांति के इंतजार में हजारों साल तक ​​पीढ़ी दर पीढ़ी अपने जनम को कोसते रहना और पुनर्जन्म और कर्मफल के मुताबिक फल की इच्छा करना!पर्दाफाश और आरोपों से सत्ता में बदलाव आता है,समाज में नहीं। एक फीसद को तो अपना एजंडा मालूम है और वह पूरी ताकत लगाकर , ​​सारे संसाधन झोंककर, अवसरों पर पूरा वर्चस्व बनाये रखकर उसे बखूबी अंजाम दे रहा है। बाकी निनानब्वे फीसद लोगों का कोई एजंडा ​​नहीं है। वे एक फीसद के एजंडे की ही जुगाली में जिंदगी का सफर मजे में तय कर देते हैं। एक फीसद लोगों की कोई दिलचस्पी समाज को बदलने में हो ही नहीं सकती, पर क्या हाशिये पर खड़ी निनानब्वे फीसद जनता समाज को बदलना चाहती है, बुनियादी सवाल इसी का है। इस निनानब्वे​ ​ फीसद का अगुवा मलाईदार तबका पूरा जोर, पूरा जीवन लगाकर बाकी एक फीसद में शामिल होने की कवायद में लगा रहता है और ​​बदलाव के मिशन को फेल करने में सबसे अहम भूमिका निभाता है। विडंबना है कि आत्मालोचना विमुख निनानब्वे फीसद भगवान और ​​अवतारों में समर्पित होकर स्वयं नरसंहार संस्कृति की पैदल सेना बनना कबूल करते हुए मलाईदार तबके के पीछे पीछे भेड़ बकरियों की​​ तरह हांका जाना ही अपना अपना मिशन समझ बैठा है। सामाजिक बदलाव के कार्यभार और उसकी बुनियादी शर्तों पर बात करने पर ये ​​लोग सत्ताऱूढ़ एक फीसद को गालीगलौज करके या फिर अपने ही लोगों के दूसरे तबके के खिलाफ गालीगलौज करके, घृणा अभियान के ​​जरिए सबकुछ बदलकर आजादी हासिल कर लेने का दावा करते हैं। सत्ता में भागीदारी का मौका मिला तो अपनों को ही वंचित और उत्पीड़ित करने की प्रतियोगिता शुरू हो जाती है। इन्हें आइने में अपना चेहरा दीखता नहीं है।एकता की बात करो. प्रतिरोध की बात करों तो तमाम आरोपों की बौछार करते हुए मुद्दे से ही भटक जाते हैं। तो ऐसे में किया क्या जा सकता है

बहुत विकट परिस्थितियां हैं।लेकिन खुले बाजार के कार्निवाल में किसी को किसी का चेहरा नजर नहीं आ रहा है। चारों तरफ मुखौटे नाच​ ​ रहे हैं।विमर्श की संभावना सिरे से खारिज हैं। इस वधस्थल पर वध्य बहुजन चारा पानी की दावत से इतने आनंदित हैं कि चीख कर उन्हें​ ​ सतर्क भी नहीं किया जा सकता। माध्यमों पर कातिलों का कब्जा है। आस्था और धर्मोन्माद में निष्मात हैं निनाब्वे फीसद बहिष्कृत ​​जनसमुदाय।पानी सर से ऊपर गुजर रहा है।कुछ तुरंत होना चाहिए।पर लोग जब खुशी खुशी आत्महत्या का उत्सव मना रहे हों, तो प्रतिरोध की दीवार कैसे खड़ी की जाये। कार्ल मार्क्स ने भारत पर लिखते हुए टिप्पणी की थी कि भारतीय इतिहास का वजूद है ही नहीं। इतिहास के नाम पर ​​जो कुछ है, वह हमलावरों का इतिहास है। जिसमें जनता कहीं नहीं है। आज का इतिहास भी हमलावर ही लिख रहे हैं।पश्चिम में सामंती​ ​ ढांचा को खत्म करके ही नई विकसित उत्पादन प्रणाली की नींव पर पूंजीवाद का विकास हुआ, जो आज कारपोरेट साम्राज्यवाद के स्वरूप में दुनिया पर राज कर रहा है। भारत में उत्पादन प्रणाली और उत्पादन संबंधों में कोई बुनियादी अंतर नहीं आया। उत्पादन साधनों से वंचितों बहुसंख्यक​ ​ जनता पर राज कर रहे हैं जमींदारों और रियासतों के उत्तराधिकारी।भूमि सुधार की शुरुआत तक नहीं हो पायी। संस्कृति पूंजीवादी बाजार के​ ​ मुताबिक बदल गयी, पर असमता और सामाजिक अन्याय, अस्पृश्यता और विभाजन के आधार पर बनी हजारों साल की मूल संरचना जस की तस है। सत्तावर्ग इसी संरचना की बुनियाद पर उत्तर आधुनिक विकास गाथा का वेद उपनिषद पुराण और मनुस्मृति लिख रहे हैं।विचारधाराओं और आंदोलनों पर जिनका कब्जा है, उनकी आलोचना से जाहिर है, बात बनेगी नहीं। वे एक दूसरे के स्थानापन्न हैं।कांग्रेस गयी तो भाजपा आयेगी।​ ​ वामपंथी भी इधर उधर डोलते नजर आयेंगे। राज्यों में एक के बदले दूसरे क्षत्रप नजर आयेंगे। हालत यह है कि नरेंद्र मोदी जनसंहार​ ​ संस्कृति के झंडावरदार बने खुले बाजार के सिद्धांतों के मुताबिक गुजरात और देश के विकास का सपना बेच रहे हैं तो दूसरी ओर बंगाल की ​​अग्निकन्या ममता बनर्जी ने सुधारों के लिए जिहाद छेड़ दिया है। लेकिन कारपोरेट साम्राज्यवाद के पीछे जो सबसे बड़ी ताकत है, इजराइल, दोनों के तार आखिरकार उसीसे जुड़ते हैं।

संतों और महापुरूषों के नाम का जाप करने से इस विषम परिस्थिति से मुक्ति हरगिज नहीं मिल सकती। जबतक उनकी विचारधारा और एजंडे पर अमल न हो।अंबेडकर के बाद अंबेडकर के जाति निर्मूलन आंदोलन के सत्ता में भागेदारी के मिशन में बदल जाने से पहचन की राजनीति ने कुछेक मजबूत जातियों का बला जरूर किया है, पर बहुजन मूलनिवासी जिस अंधेरे में थे , उसी अंधेरे में हैं। इस अंधकार पर चर्चा जरूरी है। यह मानने के लोग तैयार नहीं है। दुस्साहस के लिए हमेशा बदनाम रहा हूं। जीवन में कभी सरकारी  बेसरकारी नौकरी के लिए आवेदन ही नहीं किया। ​​मौकों से पहले अपने वजूद और अपने लोगों के बारे में सोचा। पर निनाब्वे फीसद के मलाईदार तबके की आलोचना करते ही बर्र के छत्ते में​ ​ आग लग गयी। वामपंथी विश्वासघात को हम किस तरह लगातार बेनकाब करते रहे हैं, कैसे संघ परिवार के एजंडे के खिलाफ जीवनभर संघर्ष करते रहे हैं, इन सबसे किसी को कुछ लेना देना नहीं, हमारे वामपंथी पूर्वाग्रहों और हमारी नीयत पर घनघोर बरसात होने लगी है। इससे हमें​
​ कोई फर्क नहीं पड़ता। न हम मान्यता की परवाह करते हैं, न पुरस्कारों की। न तारीफों की और निंदा की। हमारे लिए दिक्कत यह हो गयी ​​कि आर्थिक तंगी के कारण घर पर खराब पड़े कम्प्यूटर ठीक नहीं कर सकते। सोशल नेटवर्किंग में भाई लोग जो धुआंधार टिप्पणियां कर रहे हैं, उनका जवाब नहीं दे सकते।दलाली और गद्दारी के आरोपों का हम बचाव नहीं करना चाहते। मेरे पिता पुलिनबाबू आजीवन अपने लोगों के लिए​ ​ मरते  रहे, उन्होंने कुछ नहीं जोड़ा। हम भी जोड़ नहीं पाये। मित्रों का साथ नहीं रहता, तो इतने दिनों में कबके मर खप गये होते। सविता ने आज ही वार्निंग दे दी कि रिटायर करने वाले हो , अब तो कमाई का जरिया खोजों। वरना भीख मांगने की नौबत आ जायेगी। देश के वरिष्ठतम पत्रकारों में होने के बावजूद आज भी सब एडीटर हूं। वेतनमान वर्षों से स्थिर। ऊपर से सविता इनसुलिन पर। बेटा पत्रकार है और सामाजिक कार्यकर्ता। मुंबई​
​ में अपने ही लोगों ने उसके खिलाफ बांग्लादेशी होने की रपट लिखायी। उसकी फैलोशिप बांग्लादेशी कहकर खारिज कर दी गयी। हम दिक्कतों में रहने के आदी हैं। काम नहीं रुकेगा।हर महीने की दस तारीख से संकट शुरू हो जाता है। राशन पानी हो या नहीं, दवाएं तो चाहिए ही। इसकी चर्चा करते नहीं। पर हमारे बिक जाने का हकीकत यही है।

बहरहाल सवालों का जवाब देना लोकतंत्र की बुनियादी शर्त है। जहां सवाल करने की इजाजत नहीं हो, जहां संगठन में बहीखाता रखने का​ ​ रिवाज न हो, जहां संगठन की संपत्ति निजी नाम पर हों, संगठन में चुनाव के बिना मनोनयन का दस्तूर हो, सवाल करने वालों की विदाई​ ​ की परंपरा हो, ऐसे संगठनों के जरिये फंडिग के मिशन से कौन सा बदलाव आने वाला है, यह हमारी समझ से परे हैं।अब वे कहते हैं कि ​​संपत्ति बनायी तो बहुजनों के बीच फंडिंग करके। अपनों को ही लूटा। ऐसे नायाब दलील का क्या जवाब दिया जाये लेकिन जो सचमुच इन मुद्दों पर बात करना चाहे वे मुझे सेल फोन नंबर ०९९०३७१७८३३ पर रिंग कर सकते हैं या ईमेल के जरिये संवाद कर सकते हैं। मेरा ईमेल हैःpalashbiswaskl@gmail.com

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Shamshad Elahee Shams commented on a link that you're tagged in.
Shamshad wrote: "Palash Bhai do you think that there is any taker of your serious stuff. I am really very disappointed to interact with them in last few month that I may reach to a conclusion of "waste of time" it's a height of stereo type and sycophancy. I suppose it will take some more time to reach to the level that can evaluate your proposal. This is actually a result of existing leadership which is thoroughly corrupt. A corrupt leadership will never allow to develop any academic and intellectual atmosphere around or basic norms of democracy. We don't have any other option but to wait for the wave of our turn. Thank you again for your time and concern for the discussion. I will call you some other time as well. Regards"


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