Sunday, June 20, 2021

सम्पादक की भूमिका

 सम्पादक की भूमिका

वाचस्पति 

साहित्यिक रचनाशीलता और पत्रकारिता के अनुभवी पलाश बिश्वास ने आज की लेखन -संपादन की गतिविधियों की चर्चा की है।पलाश ने "दिनमान"के रघुवीर सहाय,"उत्तरार्द्ध"के सव्यसाची के उदाहरण देकर कहा है कि उन जैसे संपादक नवोदित लेखकों की भूल-चूक पर ध्यान देकर रचनाओं को परिमार्जित कराते थे।आज युग बदल गया है।मिशन नहीं, अब साहित्येतर लक्ष्य हावी हैं।हाशिया भूलें ठीक करने को ही छोड़ा जाता था।अब सिर्फ़ ईमेल का बटन दबता है।सामग्री जस की तस तत्काल इस्तेमाल हो जाती है।भाषा दुरुस्त करने की तकलीफ अब कोई नहीं उठाता।व्याकरणिक अनुशासन, शब्दकोशों को देखना अब बीते ज़माने की बात है।बहुत से संपादक सामंती मानसिकता के हैं।वे संवाद नहीं चाहते।पत्रिका से "व्यक्तित्व बनाने और चमकाने की कला"के अलावा उनका अन्य कोई उद्देश्य प्रायः नहीं रहता।पत्रिकाओं का सीमित प्रसार होने से साहित्यिक गुणवत्ता की कोई खास परवाह नहीं की जाती।पत्रिकाएँ टिकाऊ होने पर पुरस्कार देना शुरू करती हैं पर सहयोगी रचनाकारों को पत्रं-पुष्पं अर्पित नहीं करतीं।स्थानीय ठीक से हुए बिना ही अखिल भारतीय क्या वैश्विक होने का उतावलापन संपादकों में दिखलाई देता है।साहित्यिक लघुपत्रिकाओं के लिए स्थानीयता एक अनिवार्यता है।कुछ मामलों में तो वहाँ घनघोर क्षेत्रीयतावाद और जातिगत संकीर्णता के दुष्प्रभाव भी नज़र आते हैं।

आज के पाठक को गंभीर साहित्य से विमुख करने में पत्रकारिता उद्योग और इलैक्ट्रॉनिक मीडिया की भी बड़ी भूमिका है।वहाँ क्षुद्र राजनीति, फिल्मी गपशप,खेलों की सनसनी, फैशन,वास्तुशास्त्र वगैरह का बोलबाला है।इन्टरनेट गूगल ज्ञान के अंतिम प्रमाण हैं।पत्रिकाओं में स्थानीय रंगत की वैचारिक अनुशासन में निबद्ध छोटी रचनाओं के चयन की जरूरत है।बहुत गुरु गंभीर रचनाओं के लिए तो विश्वविद्यालयों के परिसरों की रचनात्मकता से शून्य तमाम पत्रिकाएँ हैं।संपादक को युगनिर्माता होने का भ्रम मन से निकाल कर नयी रचनाशीलता के लिये नवलेखन की नर्सरी तैयार करनी ही होगी।अन्यथा इस क्षेत्र से हट जाने में ही भाषा और साहित्य की भलाई है।

करीब चार दशक पहले बाबा नागार्जुन ने मुझसे कहा कि पत्रिकाएँ आकार प्रकार में सचमुच"लघु"होनी चाहिए।हजारीबाग से वे लौटे थे।उन्होंने एक संपादक से पत्रिका निकालने का उद्देश्य पूछा।सहज उत्तर मिला, "प्रशासन में कोर्ट-कचहरी में कुछ पहचान बन जाती है!"ऐसे"यश"के अलावा और भी पदोन्नतिमूलक-देशविदेश में पर्यटन-अमरत्व की लालसा आदि से प्रेरित होकर पत्रिकाओं के दस-बीस अंक निकाल दिये जाते हैं।सोशलमीडिया ने अनेक"शार्ट कट"साहित्यिक पत्रकारिता को सुलभ करा दिये हैं। फिर भी साहित्य-साधना के पुराने पारंपरिक रास्ते अभी बन्द नहीं हुए।उन रास्तों के झाड़-झंखाड़ साफ करते हुए लघु पत्रिकाओं का अर्थशास्त्र भी ठीक से समझना अनिवार्य है।-वाचस्पति.



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