नए रचनाकारों को उत्कर्ष तक पहुंचना हमारा दायित्व
पलाश विश्वास
हमारे हिसाब से अप्रतिष्ठित, युवा और नए, ग्रामीण और वंचित तबकों,छात्रों,बच्चो और स्त्रियों की रचना को प्राथमिकता मिलनी चाहिए। लेकिन संपादकीय चुनौती यह होती है कि ऐसे रचनाकारों से निरन्तर संवाद के जरिए उनकी रचनात्मकता को दिशा और दृष्टि के साथ उत्कर्ष तक पहुंचाना होता है।
कमजोर रचना से रचनाकार को नुक्सान सबसे ज्यादा होता है। उससे बेहतर और श्रेष्ठ लिखवाने का कार्य भार संपादक का होता है।
उत्तरार्द्ध के संपादक सव्यसाची और दिनमान के संपादक रघुवीर सहाय ऐसे विरल संपादकों में थे। रचना लौटाने के साथ वे बार बार प्रासंगिक सामग्री को रचना बनाने तक रचनाकार से लगातार संवाद करते थे। हमने संपादन प्रभाष जोशी जी से नहीं,इनसे सीखा है।
देश के दूर दराज के इलाकों में इन दोनों ने हर तबके में रचनाकारों की एक पूरी पीढ़ी तैयार की थी।
जनसत्ता संपादकीय में मंगलेश डबराल, हरिशंकर व्यास, जवाहर लाल कौल, बनवारी जी के अलावा बाकी साथी भी किसी न किसी रूप में दोनों से जुड़े हुए थे। प्रभाष जी ने इसी टीम का नेतृत्व किया। नतीजा अब इतिहास है।
कुछ संपादकों ने कस्बों और महानगरों में अपने लोग तैयार जरूर किए, आंदोलन भी चलाए, वाणिज्यिक दृष्टि से पत्रिका को सफल भी बनाया। लेकिन समता और न्याय के सिद्धांत से वे दूर थे।
गिरोह की तरह काम करने वाले ऐसे नेटवर्क ने साहित्य में आभिजात्य, जाति और वर्ग वर्चस्व को मजबूत किया। जिससे अनेक रचनाकारों की भ्रूण हत्याएं भी होती रही।
अब अस्मिता और विमर्श केन्द्रित संपादन से साहित्य में बाड़ा बन्दी और इजारेदारी की हालत भी बनने लगी है। असहिष्णुता रचनात्मकता और सृजन पर भारी है।
हिंदी में राष्ट्रभाषा होने के दावे के बावजूद भाषा और बोलियों का लोकतंत्र अनुपस्थित है।
कुलीन बौद्धिकता और निषेधात्मक रवैये के कारण, आलोचकों की जातीय पूर्वाग्रह और प्रकाशकों की मुनाफाखोर सरकारी खरीद निर्भर प्रकाशन के कारण साहित्य में आम जनता और सामान्य पाठकों की कोई भूमिका नहीं बन सकी।
संवाद का माहौल भी धीरे धीरे ख़तम होता चला गया।
आत्मलोचना से हम इस स्थिति को बदल सके तो हिंदी के जरिए देश की जनता के हक जकुक की लड़ाई इस तानाशाही के आलम में भी बुलंद हो सकती है।
इस पर सहमति असहमति के साथ व्यापक संवाद अनिवार्य है।
रघुवीर सहाय की दिनमान से विदाई के साथ हिंदी साहित्य और पत्रकारिता में कारपोरेट युग की शुरुआत हो गई। प्रभाष जोशी, कमलेश्वर और राजेंद्र यादव के अवसान के साथ लघु पत्रिका आंदोलन के बिखराव और विचलन से अब संपादक नामक प्रतिष्ठान ख़तम है। संपादक या तो बॉस है या फिर मैनेजर। इस युग में दलाल और बाजारू साहित्य और पत्रकारिता के मसीहा, माफिया आलोचकों का उत्थान भी हुआ।
इससे हिंदी, साहित्य और पत्रकारिता का चरित्र जनविरोधी बन गया है। यह सत्ता और तानाशाही में निष्णात है। इस पर क्या हम बात करने को तैयार हैं?
पलाश विश्वास
बसन्ती पुर
16.06.2021
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