Tuesday, June 8, 2021

हमारे पुरखों के स्मारक

 हमारे पुरखों के स्मारक

पलाश विश्वास

दिनेशपुर के बंगाली गांवों में 1952 से 1956 तक कुल एक हजार रुपये की लागत से बिना सीमेंट के एक कमरे का यह क्वार्टर प्रति परिवार बनाकर दिया गया था। क्वॉर्टर और एक जोड़ा हलवाहा बैल के बाबत प्रति परिवार 1200 रुपये का लोन चढ़ाया गया था। जो बहुत बड़ी रकम थी उसवक्त। करीब एक दशक तक दिल्ली लखनऊ की दौड़ के बाद पिताजी पुलिनबाबू ने यह कर्ज माफ करवा लिया था।


अब गांवों में ऐसे क्वॉर्टर बहुत कम बचे हैं।60 के दशक तक ये गांव जंगल से घिरे थे। 


पचास के दशक में बाघ,चीते भी जहां तहां  घूमते नज़र आते थे। उन जंगली जानवरों से बचने और तराई में अक्सर आने वाली आंधियों के मुकाबले ये एक कमरे के क्वार्टर किसी किले से कम नहीं था।जिसमें बड़े बड़े परिवार समा जाते थे।


 जहरीले सांपों से बचने के लिए भी ये क्वार्टर बड़े काम के थे। इसी क्वार्टर को घेरकर मिट्टी और सन की झोपडियां हुआ करती थी।


मेरे घर में 2006 तक माताजी,पिताजी, ताईजी,ताऊजी,चाचाजी,चाचीजी के निधन हो जाने के बाद तक यह क्वार्टर था। एक अदद क्वार्टर और उसे घेरे झोपड़ियां।


मेरा और मेरे भाई बहनों का जन्म इसी  तरह के एक कमरे के क्वार्टर में हुआ था,जिसके बरामदे में चिमनी बनी हुई थी। जहां रसोई हुआ करती थी।जो


बिजली आई 1969 में। लैंप पोस्ट लगे थे। घरों में बिजली नहीं थी। लू से बचने के लिए आम और नीम के पेड़ हुआ करते थे। गर्मी की रातें क्वार्टर की छत पर बीतती थी और छत पर ही केले का पेड़ लगाकर दिवाली के दिये जलाए जाते थे।


यह मेरे दोस्त टेक्का उर्फ नित्यानन्द मण्डल का है। अब भी जवान सदाबहार टेक्का की दादी ललिता देवी का राजपाट यहीं से चलता था। 


इसी क्वार्टर से ललिता जी यानी टेक्का कीं दादी का बक्सा तोड़कर उनका खजना लूटकर हाईस्कूल पास करने से पहले हमारा हीरो टेक्का बम्बई भाग गया था हीरो बनने। बंबई के रास्ते आगरा में ठहर कर टीवी ठीक करने का काम सीखकर आया।सिनेमा का भूत उतर गया।लेकिन हाईस्कूल पास करने के बाद पढ़ाई अधूरी छोड़ दी।


ललिता जी बहुत दबंग थी।इतनी दबंग की अपने बेटों टेक्का के पिता भोला नाथ और   नरेन्द्र नाथ के साथ गांव के मुखिया मंदार मण्डल की भी पिटाई कर देती थी। कार्तिक    काका अपने चाचा निबारन साना और दीदी मांदरी के साथ आये थे।


 शुरुआत में कार्तिक काका की शादी तक ललिता जी उनके साथ थी। उनकी भी पिटाई हो जाती थी। हम किस खेत की मूली थे? 


नहाने के वक्त गांव के सभी बच्चों को तेल लगाकर नहलाना और खाने के वक्त पकड़कर खिलाना भी ललिताजी की दिनचर्या थी। वे गांववालों के साथ मछली मारने में भी अगुआई करती थी।


हर क्वार्टर की अलग कथा है। ये क्वार्टर सही मायने में हमारे पुरखों के स्मारक हैं।

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