Thursday, June 2, 2011
जाति जनगणना की त्रासदी और प्रहसन
दिलीप मंडल(जनसत्ता में 2 मई को प्रकाशित)
आखिर जिसका अंदेशा था, वही हुआ। पिछले साल लगभग यही समय था, जब लोकसभा में जातिवार जनगणना पर बहस हुई थी। और यादव-त्रयी ने ही नहीं, जैसा कि आम तौर पर प्रचारित किया जाता है, बल्कि देश के तमाम राजनीतिक दल इस बात के लिए सहमत हो गए थे कि जनगणना में भारत की सामाजिक संरचना का लेखाजोखा होना चाहिए और इसके लिए जनगणना में जाति को शामिल किया जाना चाहिए। इस व्यापक सहमति में कांग्रेस और भाजपा से लेकर वाम दल और शिवसेना से लेकर तमाम क्षेत्रीय दल शामिल थे। इस प्रस्ताव का विरोध किसी भी पक्ष ने नहीं किया। ऐसा व्यापक आम सहमति के मौके संसदीय इतिहास में विरल होते हैं। इसे देखकर प्रधानमंत्री ने यह घोषणा भी कर दी कि सरकार सदन की भावना से अवगत है और कैबिनेट इस बारे में जल्द फैसला करेगी।
लोकसभा इस देश की सबसे बड़ी पंचायत है। देश की लोकतांत्रिक सत्ता की सबसे बड़ी पीठ। ऐसा कहा और माना जाता है कि लोकसभा में जो तय होता है, जैसा तय होता है, देश और सरकार उसी हिसाब से चलती है। जनगणना को लेकर लोकसभा में चर्चा मई, 2010 में हुई थी। एक साल बाद अब अगर देखें कि उस आम सहमति और प्रधानमंत्री के वादे का क्या हुआ, तो बेहद त्रासद तस्वीर सामने आती है। आज देखें स्थिति क्या है? हर दस साल पर होने वाली जनगणना 2011 की फरवरी में जाति संबंधी आंकड़े जुटाए बगैर संपन्न हो गई। इस जनगणना के लिए 25 लाख सरकारी शिक्षक देश में दरवाजे-दरवाजे गए। तमाम तरह के सवाल उन्होंने पूछे, लेकिन वह सवाल नहीं पूछा, जिसे पूछना लोकसभा में तय हुआ था। इस सवाल का जवाब अब किसी के पास नहीं है कि 2011 की जनगणना में जाति का कॉलम क्यों नहीं जोड़ा गया।
पीछे जाना तो संभव नहीं है, लेकिन बेहतर होता कि सरकार ने 2011 की फरवरी में ही जाति संबंधी आंकड़े जुटा लिए होते। इसकी कई वजहें हैं। भारत में जनगणना का काम जनगणना अधिनियम,1948 के तहत होता है। इस अधिनियम के तहत होने की वजह से जनगणना के काम में किसी भी सरकारी कर्मचारी अधिकारी को लगाने का वैधानिक अधिकार सरकार के पास होता है। इस कानून के तहत गलत सूचना देना अपराध है। हर दस साल पर होने वाली जनगणना के काम में सरकारी शिक्षकों को लगाया जा सकता है। लेकिन किसी और सर्वे के लिए उन्हें नहीं लगाया जा सकता। शिक्षा के अधिकार कानून के तहत भी यह प्रावधान है कि सरकारी शिक्षकों को चुनाव और जनगणना के अलावा किसी सरकारी काम में नहीं लगाया जा सकता। साथ ही जनगणना कानून की वजह से कोई व्यक्ति जनगणना के फॉर्म पर जो जानकारी देता है, उसकी व्यक्तिगत जानकारी गोपनीय रखी जाती है। आंकड़ा संकलन में ही इस जानकारी का इस्तेमाल होता है, इस वजह से कोई व्यक्ति सहजता से खुद से जुड़ी जानकारियां जनगणना कर्मचारी को दे देता है। संसद में जब इस बारे में सवाल पूछा गया कि अलग से जातिवार गणना कराने का क्या फायदा है तो सरकार इसका कोई जवाब नहीं दे पाई।
अब क्या होने वाला है, इस पर विचार करें तो यह पाएंगे कि जाति संबंधी जानकारी इकट्ठा करने पर लोकसभा में बनी सहमति का सरकार ने पूरी तरह मजाक बना दिया है। कैबिनेट ने इस काम को जिस तरह से कराने का फैसला किया है, उस पर बिंदुवार विचार करने की जरूरत है।
इस संदर्भ में एक महत्वपूर्ण पहलू है, सरकार की घोषणा का समय। प्रधानमंत्री ने जाति जनगणना के बारे में घोषणा संसद में की थी। लेकिन अब कैबिनेट ने ऐसे समय में जाति की गिनती का फैसला किया है, जब संसद का सत्र नहीं चल रहा है। सरकार ने कहा है कि यह गणना जून से दिसंबर 2011 के बीच कराई जाएगी। यानी जब संसद का मानसून सत्र शुरू होगा तब तक जाति के आंकड़े जुटाने का काम शुरू हो चुका होगा। यानी संसद के पास कैबिनेट के इस फैसले पर विचार करने का अवसर नहीं होगा। समय का मामला इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि फरवरी 2011 की जनगणना से जाति को बाहर करने का फैसला 9 सितंबर, 2010 को आया था। संसद का सत्र उस समय भी नहीं चल रहा था और सितंबर की घोषणा के एक पखवाड़े के अंदर देश के उन जिलों में जनगणना शुरू कर दी गई, जहां सर्दियों में बर्फ गिरती है। यानी सरकार के फैसले पर पुनर्विचार करने के लिए संसद को कोई मौका ही नहीं मिला, क्योंकि शीतकालीन सत्र शुरू होने से पहले ही जनगणना शुरू हो चुकी थी। उचित यह होता कि सरकार मानसून सत्र में संसद को यह बताती कि जाति की गिनती वह किस तरह कराना चाहती है, ताकि संसद में इस पर विचार-विमर्श होता और लोकतांत्रिक तरीके का पालन किया जाता। उम्मीद की जा सकती है कि मानसून सत्र में इस मसले पर संसद में जमकर बहस होगी और जाति गणना कुछ महीनों बाद ही सही, पर सलीके से संपन्न होगी।
सरकार की ताजा घोषणा में एक और पेंच यह है कि जाति गणना के काम को जनगणना अधिनियम से बाहर रखा गया है। इस वजह से जनगणना की प्रक्रिया को प्राप्त कानूनगत और प्रशासन संबंधी सुविधाएं प्राप्त नहीं होंगी। सरकार ने इसी वजह से कहा है कि जनगणना के काम में शिक्षकों को नहीं लगाया जाएगा। यह काम राज्य सरकारों के हवाले छोड़ दिया गया है। राज्य सरकारें इसमें अपने कर्मचारियों से लेकर आंगनबाड़ी कार्यकर्ताओं तथा महात्मा गांधी नरेगा के मजदूरों का इस्तेमाल करेगी। अप्रशिक्षित लोगों को आंकड़ा संग्रह में लगाए जाने की वजह से इस प्रक्रिया में मिले आंकड़ों की विश्वसनीयता संदिग्ध रहेगी। दूसरी प्रक्रियागत खामी यह है कि लोग जो जानकारी देंगे, उसे कागज पर नहीं भरा जाएगा। इस जानकारी को एक कंप्यूटरनुमा मशीन पर दर्ज करके तहसील स्तर पर कंप्यूटर सर्वर में डाला जाएगा। एक तो इतनी बड़ी संख्या में मशीन उपलब्ध कराना और फिर लोगों को प्रशिक्षित करना बेहद मुश्किल काम होगा। दूसरे, मशीन से आंकड़ा संग्रह करने के कारण इन आंकड़ों की दोबारा जांच की संभावना भी खत्म हो जाएगी।
सरकार जिस तरह से जाति गणना के साथ गरीबी रेखा से नीचे के लोगों का आंकड़ा जुटा रही है, उससे इस प्रक्रिया को लेकर सरकार की नीयत पर संदेह होता है। जाति जनगणना के साथ यह जरूरी है कि शिक्षा, रोजगार, सभी स्तरों की सरकारी नौकरियों और आर्थिक स्थिति से संबंधित जानकारियां जुटाई जाएं। अभी सरकार ने जो बताया है उसके हिसाब से इस तरह की जानकारियां नहीं मांगी जाएंगी। अगर सात महीने तक जाति गणना करने के बाद भी यह न मालूम हो कि देश में किस जाति में किस स्तर तक पढ़ाई करने वाले कितने लोग हैं और किन जातियों के लोग सरकारी नौकरियों में कम या ज्यादा हैं तथा अलग अलग वर्ग की नौकरियों में किन किन जातियों के लोग कितनी संख्या में हैं, तो इस कवायद का खास मतलब नहीं रह जाएगा। हजारों करोड़ रुपए खर्च करके सरकार जब आंकड़ा संग्रह करा रही है तो देश की सामाजिक सच्चाई पूरी विविधता के साथ सामने आनी चाहिए।
संसद में सभी दलों के सांसदों ने जातियों से संबंधित आर्थिक शैक्षणिक आंकड़े जुटाने की मांग की थी। इसका आदर किया जाना चाहिए। गरीबी रेखा को लेकर केंद्र सरकार की हमेशा शिकायत रही है कि राज्य सरकारें गरीबों की संख्या बढ़ाकर दिखाती है, ताकि केंद्र से ज्यादा आर्थिक मदद मिल सके। इसलिए सरकार गरीबों से संबंधित आंकड़ा जुटाना चाहती है। लेकिन इस काम को जाति जनगणना से साथ जोड़ना सही नहीं है। इसके लिए सरकार को अलग से एक आयोग बनाकर आंकड़े जुटाने चाहिए।
अब सरकार ने पूरे मामले को जहां पहुंचा दिया है उसमें यही हो सकता है कि वह 2021 की जनगणना में जाति को शामिल करने के बारे में अधिनियम पारित करे ताकि जाति के आंकड़े अलग से जुटाने में होने वाले खर्च और मुश्किलों से बचा जा सका। सरकार को इस संबंध में सारी आशंकाओं का जवाब देना चाहिए। फिलहाल सरकार यह कर सकती है कि अगले साल यानी 2012 की फरवरी में जाति जनगणना कराने की घोषणा करे। इस जनगणना में सामान्य जनगणना के तमाम सवालों के साथ ही जाति, शैक्षिक स्तर और विभिन्न वर्गों की नौकरियों के बारे में सवाल पूछे जाएं। यह काम जनगणना अधिनियम के तहत जनगणना आयुक्त के माध्यम से ही कराया जाए और इसमें सरकारी स्कूलों के शिक्षकों को ही आंकड़ा संग्रह करने के लिए लगाया जाए। इस वजह से विद्यार्थियों और शिक्षकों को होने वाली दिक्कतों के लिए सरकार को उनसे क्षमायाचना करनी चाहिए क्योंकि यही काम फरवरी 2011 में आसानी से पूरा हो सकता था। सरकार की मंशा इस मामले में शुरू से ही टालमटोल वाली रही है। कभी वह जाति का आंकड़ा जुटाने में होने वाली दिक्कतों की बात करती है तो कभी बायोमैट्रिक पहचान संख्या देने के क्रम में अगले कई सालों में जाति के आंकड़े जुटाने की बात करती है।
आजादी मिलने से पहले, 1941 में देश में जाति की आखिरी बार गिनती तो हुई थी, लेकिन विश्वयुद्ध की वजह से आंकड़ों का संकलन नहीं किया जा सका था। 1931 की जनगणना के जातिवार आंकड़ों के आधार पर देश में अब भी नीतियां बनती हैं, योजनाओं के लिए पैसे दिए जाते हैं। आजादी मिलने के समय देश में यह भावना जरूर रही होगी कि आधुनिक भारत में जाति का अस्तित्व धीरे-धीरे खत्म हो जाएगा। इसलिए 1951 की जनगणना में जाति की गिनती नहीं हुई। लेकिन यह सपना हकीकत में तब्दील नहीं हो पाया। जाति को लेकर आंख मूंदने से जाति खत्म होने की जगह मजबूत ही हुई है। इसलिए अब इस बात की जरूरत है कि जाति की हकीकत को स्वीकार किया जाए। इससे संबंधित आंकड़े जुटाए जाएं और नीति निर्माण में उन आंकड़ों का इस्तेमाल किया जाए। जाति को गिना जाए, ताकि जाति को खत्म करने की दिशा में ठोस कदम उठाए जा सकें। आंख बंद करने से यह दुश्मन पीछा छोड़ने वाला नहीं है। इसकी आंखों में आंखें डालकर इसे चुनौती देनी होगी। तभी जातिमुक्त भारत का महान सपना साकार हो पाएगा। सरकार को अब यह बात स्वीकार कर लेनी चाहिए।
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"आरक्षण" पर प्रतिबंध राष्ट्र-वादी सत्ता को मजबूत करेगा![12 Aug 2011 | 26 Comments | ]
वीरेंद्र यादव ♦ आरक्षण फिल्म पर प्रतिबंध का सिलसिला भारतीय जनतंत्र के लिए अच्छी खबर नहीं है। यह अभिव्यक्ति की आजादी के बरक्स राष्ट्रवादी सत्ता को मजबूती प्रदान करेगा। प्रकाश झा की फिल्म के बरक्स आरक्षण के समर्थन में फिल्म बनायी जा सकती है। लेकिन सत्तातंत्र के हाथों से प्रतिबंध का हथियार आसानी से नहीं छीना जा सकता। जरा सोचिए।
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आसमान के रास्ते आपके घर में घुस गया रूपर्ट मर्डोक![21 Jul 2011 | 6 Comments | ]
दिलीप मंडल ♦ मर्डोक के फुटप्रिंट भारत में भी हैं। और ये हल्के फुल्के नहीं हैं। भारत में टाइम्स ऑफ इंडिया समूह और सन टीवी नेटवर्क को ही इसके आपसपास कहीं का माना जा सकता है। बाकी भारतीय मीडिया समूह मर्डोक के भारतीय साम्राज्य के सामने बच्चे हैं। सरकारें आती जाती रहीं हैं, लेकिन मर्डोक का भारतीय साम्राज्य लगातार बढता गया।
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कोई बताएगा कि बिहार में मीडिया को ये हो क्या गया है?[13 Jun 2011 | 16 Comments | ]
दिलीप मंडल ♦ अगर आप बिहार से बाहर रहते हैं और ऐसी खबरों को लेकर सचेत नहीं हैं, तो इस बात की पूरी आशंका है कि अररिया के फारबिसगंज में हुए पुलिसिया हत्याकांड के बारे में नहीं जानते। अगर आप पटना में हैं, तो भी यह शायद आपके लिए बड़ी खबर नहीं होगी। राज्य को हिला दे, ऐसी बड़ी खबर तो आप इसे नहीं ही मानते होंगे। मीडिया ने बताया ही नहीं कि यह बड़ी खबर है, इसलिए आपको नहीं पता कि फारबिसगंज हत्यकांड बड़ी खबर है। मीडिया का एजेंडा तय करने की ताकत की वजह से ऐसा होता है।
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दबंग पिछड़ी जातियों का मिथ और ब्राह्मणवादी साजिश![31 May 2011 | 10 Comments | ]
दिलीप मंडल ♦ जो लोग राजनीति के अलावा शासन के किसी भी अंग – न्यायपालिका, शीर्ष अफसरशाही, सरकारी कंपनियों के संचालक पदों, उद्योग, समाचार माध्यम, कला-साहित्य संस्थाओं, एकेडेमिक्स आदि में नहीं हैं, वे प्रभावशाली किस बात के हुए? अगर वे प्रभावशाली हैं, तो उस प्रभाव को वे कहां छिपाकर रखते हैं? दो बीघा खेत और एक ट्रैक्टर से 21वीं सदी में प्रभाव नहीं आता। प्रभाव उन पदों पर होने से आता है। दबंग पिछड़ी जातियों का मिथ वे खड़ा कर रहे हैं, जो इन प्रभाव के पदों पर काबिज हैं।
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आपको IIT में दाखिला नहीं मिला है, तो आप कुछ ऐसा करें[30 May 2011 | 6 Comments | ]
दिलीप मंडल ♦ वे साफ कह रहे हैं कि ओबीसी, एससी और एसटी लिस्ट में जो लोग जनरल मेरिट लिस्ट में आये हैं, उन्हें जनरल लिस्ट की जगह कोटे में रखा गया है। यानी 51 परसेंट जनरल सीट पर कोई ओबीसी, एससी और एसटी नहीं है। मिसाल के तौर पर इस बार ओवरऑल मेरिट में 9वीं पोजिशन पर एक ओबीसी कैंडिडेट जे वरुण है, लेकिन उसे ओबीसी लिस्ट का टॉपर बना दिया गया है। जनरल मेरिट लिस्ट में आने वाले कैंडिडेट को कोटा की लिस्ट में डालकर लगभग 1600 छात्रों को मौके से वंचित किया गया।
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देखिएगा, आरक्षण की गोली से ही मरेगा जातिवाद![30 May 2011 | 6 Comments | ]
दिलीप मंडल ♦ आदर्श स्थिति यह है और इसके लिए सबको कोशिश करनी चाहिए – अगर एक सीट है, तो पहला दावा आदिवासी-दलित का बने। दूसरा दावा अति पिछड़ों का, फिर उन पिछड़ों का, जिनके बारे में कहा जा रहा है कि वे आगे बढ़ गये हैं। पुरुष और स्त्री में चुनना हो तो पहला दावा स्त्री का होना चाहिए। गांव के कैंडिडेट और शहरी कैंडिडेट में चुनने की बारी आये, तो प्राथमिकता गांव के कैंडिडेट को मिलनी चाहिए। मां हमेशा कमजोर बच्चे की रोटी में ज्यादा घी लगाती है। यह सु-नीति है और यही न्याय भी। राजनीतिक दलों पर इसके लिए दबाव बनाना चाहिए।
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क्या भारत को जातियों के कनफेडरेशन के रूप में देखा जाए?[29 May 2011 | 21 Comments | ]
मनोज कुमार ♦ जातियों की आबादी के अनुपात (60 फीसदी) में आरक्षण देने का एक ही आधार हो सकता है कि इस देश को जातियों के confederation के रूप में देखा जाए और हर जाति को एक sovereign nationality के तौर पर स्वीकार किया जाए। और फिर अलग-अलग धर्म भी हैं। ऎसी स्थिति में हमें common democratic citizenship की भविष्य में कोई उम्मीद छोड़ देनी चाहिए।
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कोटे के अंदर कोटा का सरकारी खेल समझिए![28 May 2011 | 3 Comments | ]
दिलीप मंडल ♦ खाना पका नहीं और मंगते और भिखारी पहले ही आ गये। अरे भाई 52% आबादी को दिया आबादी से लगभग आधा यानी 27 परसेंट आरक्षण। केंद्र सरकार ने संसद में बताया कि 7% ओबीसी पद भी भरे नहीं हैं। ऐसा तथाकथित प्रभावशाली पिछड़ी जातियों के होने के बाद हुआ। अब उन तथाकथित प्रभावशाली जातियों से बाहर होने से किसको फायदा होगा, यह समझने के लिए आइंस्टीन होने की जरूरत नहीं है। खाली सीटों किसे जाती हैं? ज्यादा सीटें खाली रहीं तो मलाई किसे मिलेगी?
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बुद्धिजीवियों ने दी जाति की गिनती से जुड़ी कुछ हिदायतें[27 May 2011 | 2 Comments | ]
प्रेस रीलीज ♦ पूरा देश इस बात को लेकर सहमत था कि 2011 में पूरी आबादी से जुड़े जाति संबंधी आंकड़े और शैक्षणिक आर्थिक सूचनाएं आ जानी चाहिए। गृह मंत्रालय ने देश को निराश किया है। जाति गणना का जो तरीका अभी चुना गया है, उसके पीछे कोई दृष्टि या योजना नहीं है और इसका असफल होना तय है। इसमें आम जनता का अरबों रुपया खर्च होगा। यह राष्ट्रीय बर्बादी होगी क्योंकि इससे कोई काम का आंकड़ा नहीं मिल पाएगा।
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यह भारत का षड्यंत्र काल है! और हम हैं अंधे-गूंगे-बहरे!![24 May 2011 | 4 Comments | ]
दिलीप मंडल ♦ OBC छात्रों की गर्दन सुप्रीम कोर्ट के जिस फैसले के आधार पर काटी जाती है, वह है 2006 का अशोक ठाकुर केस। आज सुप्रीम कोर्ट की साइट पर उस फैसले को पढ़ रहा था। अजीब तमाशा है। क्या किसी ने अब तक इस फैसले को पढ़ा नहीं। जज खुद कह रहा है कि यह सिफारिश है, फैसला नहीं। जज को यकीन है कि उसकी सिफारिश कभी लागू नहीं होगी। पांच जजों की बैंच के एक जज की सिफारिश को आधार बनाकर यूनिवर्सिटी और कॉलेजों ने इतना बड़ा खेल कर दिया। बाकी जगहों की बात छोड़िए, DU और JNU में भी।
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समीर दा एक जिंदादिल इंसान थे, हमेशा हंसते रहते थे[19 Aug 2011 | No Comment | ]
पंकज त्रिपाठी ♦ केरल में शूटिंग पैकअप होने के बाद अचानक तेज बारिश हुई। मुझे जिस गाड़ी में जाना था, वो कीचड़ में अटक गयी। समीर दादा ने देख लिया। कहा, मेरी गाड़ी से चल। रात के अंधेरे में हम दोनों एक गाड़ी में रबड़ के जंगलों के अंदर से गुजर रहे थे। ढेर सारी बातें हुई उस यात्रा में। अपनी कई फिल्मों के बारे में बात की। कहा था कि उनका कोई सहायक आर्ट डायरेक्टर बनता है तो बेइंतहां खुशी होती है।
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[19 Aug 2011 | No Comment | ]मोहल्ला दिल्ली, संघर्ष »
तिहाड़ जेल से अन्ना हजारे का संदेश[19 Aug 2011 | No Comment | ]
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पद्मभूषण पं राजन साजन मिश्र पर बनी एक और डाक्युमेंट्री[19 Aug 2011 | 3 Comments | ]
डेस्क ♦ बनारस संगीत घराने की एक मशहूर जोड़ी राजन साजन मिश्र की रही है, जिनके शास्त्रीय रागों के दीवाने हिंदुस्तान और हिंदुस्तान की सरहद के बाहर कहां कहां नहीं पाये जाते हैं। राजन साजन मिश्र को भारत सरकार ने संगीत में उनके योगदान के लिए पद्मभूषण से नवाजा है। लेकिन यह दुर्संयोग ही है कि उन पर आज तक एक भी डॉकुमेंटरी नहीं बनी थी। पहली बार मकरंद ब्रम्हे ने उन पर एक वृत्तचित्र तैयार किया है, जो अक्टूबर में रिलीज होगा।
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गिरफ्तारी से पहले अन्ना हजारे का संदेश[16 Aug 2011 | 4 Comments | ]
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साथियों के साथ अन्ना गिरफ्तार, इमरजेंसी ने दी दस्तक[16 Aug 2011 | 13 Comments | ]
डेस्क ♦ अन्ना हजारे और उनके सहयोगियों को घर से निकलते ही गिरफ्तार कर लिया गया है। ये हालात इमरजेंसी के हैं। लेकिन सरकार को, कांग्रेस को यह भी नहीं भूलना चाहिए कि इंदिरा गांधी-संजय गांधी के आपातकाल का जवाब जनता ने जोरदार विरोध के साथ और फिर कांग्रेस को सत्ता से हटा कर दिया था।
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सरकारी और जन नहीं, आमजन लोकपाल की बात की जाए[16 Aug 2011 | 2 Comments | ]
गोपाल कृष्ण ♦ सत्ता के बजाय अगर व्यवस्था परिवर्तन लक्ष्य है, तो केवल लोकपाल से तो ये होने से रहा। आपातकाल के दौरान हुए आंदोलन से जुड़े अधिकतर लोग अपनी-अपनी गैर सरकारी संस्थान की दुकान खोल कर क्यों बैठ गये? इससे पहले कि वे संन्यास लें या विस्मृति के गर्त में चले जाएं, हमें जवाब चाहिए।
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चकमक का शानदार सफर, 300वें अंक की तैयारी[16 Aug 2011 | 4 Comments | ]
डेस्क ♦ सितंबर में चकमक का 300वां अंक प्रकाशित होगा। यह अंक असल में सितंबर-अक्टूबर का जुड़वां अंक होगा। 200 से ज्यादा पन्ने होंगे इसमें। चकमक से जुड़े लोगों की कोशिश है कि इस 300वें अंक में पाठकों को बेहद आत्मीय, रोचक, समृद्ध और सुविविध सामग्री मिले। चकमक से जुड़े सुशील ने एक पत्र के जरिये बताया है कि पढ़ने-पढ़ाने के सिलसिले को चलाये रखना शुभचिंतकों की मदद के बिना मुमकिन नहीं होता।
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