| Thursday, 07 June 2012 11:13 |
अनिल चमड़िया वाम मोर्चे में दक्षिणपंथ का वह रूप सिंगूर, नंदीग्राम से लेकर तसलीमा नसरीन के पश्चिम बंगाल से निष्कासन के साथ बहुत साफ हो गया। यहां तक कि नक्सलवादियों के खिलाफ जिस मुखरता और जिस तरीके से वाम मोर्चे की सरकार लड़ रही थी, उससे वहां वाम मोर्चे और कांग्रेस-भाजपा के तौर-तरीकों के बीच अंतर समाप्त हो गया था। लड़ाई का यह नियम है कि वही जीतता है जिसका अखाड़ा होता है। दक्षिणपंथ के अखाडेÞ की अगुआई ममता बनर्जी कर रही थीं और उन्होंने पैंतीस साल पुराने वाम मोर्चे के किले को फतह कर लिया। देश के राजनीतिक परिदृश्य में वाम रुझान को बनाए रखना ही वाम मोर्चे की विशिष्टता और ताकत रही है। वोटों से तसलीमा नसरीन के पश्चिम बंगाल में रहने और न रहने का कोई रिश्ता नहीं था। लेकिन वाम मोर्चे ने उस मुद्दे को भी वोटों से जोड़ दिया। यह खालिस दक्षिणपंथी कार्यनीति होती है जिसका शिकार कमोबेश हर पार्टी हो चुकी है। दरअसल, भारत की संसदीय राजनीति में यह दौर ही ऐसा है कि जब वैसी पार्टियां दक्षिणपंथ का रुख कर रही हैं जिनके सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक आधार वाले वर्ग को वामधारा की सख्त जरूरत है। यहां लालू यादव का उदाहरण भी ले सकते हैं और मायावती का भी। मायावती ने उस सोशल इंजीनियरिंग के फार्मूले में अपनी सुरक्षा खोजनी शुरू की, जिसे भारतीय जनता पार्टी ने अपने विस्तार की रणनीति के रूप में इस्तेमाल किया। यह भूल कर कि सोशल इंजीनियरिंग शब्द उनके लिए नहीं बना है तो उसकी उन्हें जरूरत भी नहीं है। हारते ही उन्होंने कहा कि मुसलमानों ने उन्हें वोट नहीं दिया। दूसरी तरफ ममता बनर्जी के उदाहरण से समझें कि उन्होंने हवाई चप्पल के रूप में वाम की छवि से दक्षिणपंथ की विचारधारा को संगठित करने में कामयाबी हासिल कर ली। सरकार के दावे और विपक्ष द्वारा समर्थित इस बात को गहराई से समझने के लिए उपरोक्त बातें जरूरी थीं जिनमें नक्सलवाद को ही देश के सबसे बडेÞ खतरे में रूप में बताया जा रहा है। सांगठनिक क्षमता के रूप में देखें तो नक्सलवाद और खासतौर से हथियारबंद संघर्षों का प्रभाव देश के दो प्रतिशत गांवों में भी नहीं है। यह खुद सरकार स्वीकार करती रही है। भले ही प्रचार की रणनीति के तहत वह नक्सलियों या माओवादियों के प्रभाव को राज्यों और जिलों के स्तर पर पेश करती है। जाहिर है कि सरकार जब इसे सबसे बडेÞ खतरे के रूप में पेश करती है तो वह उनके हथियारबंद संघर्ष की क्षमता को लेकर ऐसा नहीं कर सकती। सरकार नक्सलवाद को देश के सामने मौजूद सबसे बड़ा खतरा बताती है। जबकि सच यह है कि कई बार लोग नक्सलवाद का नारा लगाते हुए उसकी राजनीति और सांगठनिक क्षमता को जानते और समझते भी नहीं हैं। हर समाज विकल्प के तौर पर उन राजनीतिक प्रयोगों की तरफ बढ़ता है जो तात्कालिक तौर पर उसे दिखाई देते हैं। लोगों और खासतौर से ग्रामीण इलाकों में विरोध की क्षमता को नेतृत्व देने वाला कोई सांगठनिक ढांचा भले न दिखता हो, पर वहां विरोध एक राजनीतिक शक्ल में दिखाई देने लगता है तो सरकार को चिंता होती है। सरकारी नीतियों पर संसदीय पार्टियों की रजामंदी के बाद भी विरोधों का खड़ा होना सरकार को नक्सलवाद के रूप में ही दिखाई देगा, क्योंकि अंग्रेजों के जाने के बाद भारतीय राजनीतिक पृष्ठभूमि में यह वैसा आंदोलन रहा है जिसने सबसे उग्र विरोध के रूप में अपनी पहचान बनाई है। देश की अधिकांश आबादी सामाजिक और आर्थिक गैरबराबरी का दंश झेल रही है। इसलिए स्वाभाविक ही उसका आकर्षण उन राजनीतिक शक्तियों की तरफ होता है जो किसी न किसी हद तक वामपंथी रुझान रखती हैं। यही कारण है कि मध्यमार्गी धारा के राजनीतिकों को भी सामाजिक-आर्थिक परिवर्तन की भाषा बोलनी पड़ती है। लालू यादव को जब गांधी मैदान में बड़ी रैली का आयोजन करना था तब उन्होंने उसे लांग मार्च का नाम दिया। आखिर विरोध की शब्दावली और प्रतीक कहां से आ रहे हैं! |
Friday, June 8, 2012
नक्सली खतरे की पड़ताल
नक्सली खतरे की पड़ताल
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