| Friday, 08 June 2012 11:16 |
सुधींद्र भदौरिया पर सवाल है कि संविधान बनने में विलंब दर्शाने वाले कार्टून के जरिए हम नई पीढ़ी को क्या सिखा रहे हैं? हम अपने पड़ोसी देश नेपाल को देखें, जो जनसंख्या और क्षेत्रफल दोनों में हमसे छोटा है। नेपाल पिछले पांच वर्षों से संविधान निर्माण की चुनौती से जूझ रहा है। तीसरी बात यह कि कार्टून बनाना संविधान द्वारा दिए गए अभिव्यक्ति के मौलिक अधिकार का हिस्सा है, यह तर्क देना तथ्य को गलत ढंग से प्रस्तुत करना होगा। एनसीइआरटी सरकारी धन से पुस्तक तैयार और प्रकाशित करती है। इस तरह के प्रकाशन से अगर सामूहिक दलित संवेदना को ठेस पहुंचती है और सर्व-समाज को भी आपत्ति होती है तो क्या उसे सरकारी धन का अपव्यय नहीं समझा जाएगा? संसद में इस भावना की गूंज होना हमारे लोकतंत्र के लिए आवश्यक है। हाल में हमने यह भी देखा कि उत्तर प्रदेश में बने दो दलित प्रेरणा स्थलों के स्वरूप को राज्य की नई सरकार बदलना चाहती है। उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव का कहना है कि हम इन स्थलों पर सार्वजनिक इस्तेमाल के संस्थान बना कर सदुपयोग करेंगे। यह भावना किसी स्थल के मूल चरित्र को बदलने की मंशा से प्रेरित लगती है। जब मायावती ने यह निर्णय लिया कि उत्तर प्रदेश में दलित प्रेरणा स्थल बनाए जाएंगे उस समय समाजवादी पार्टी राज्य में मुख्य विपक्षी पार्टी थी। यह उस समय उत्तर प्रदेश की सरकार द्वारा लिया गया निर्णय था। पर इसमें हुए खर्च पर अब अनावश्यक विवाद खड़ा किया जा रहा है। कुल बजट का एक प्रतिशत अपने उन महापुरुषों की स्मृति को संजोने में खर्च हुआ है तो यह स्वागतयोग्य निर्णय था। महात्मा बुद्ध इतिहास में प्रथम महापुरुष हैं जिन्होंने उस दौर में व्याप्त गैर-बराबरी और सामाजिक कुरीतियों को दूर करने में अद्भुत योगदान दिया। बीसवीं सदी में बाबासाहब ने भारत में जाति आधारित असमानता दूर करने के लिए न केवल अद्वितीय योगदान दिया बल्कि पूरे देश में ऐसा अलख जगाया कि आज भी भारत हिलोरें ले रहा है। उनके विचारों को कांशीराम ने जमीन पर उतारा। उन्होंने दलित और पिछड़े वर्गों के साथ सर्वसमाज को जोड़ा। इस अभियान के नतीजे के तौर पर मायावती उत्तर प्रदेश की पहली महिला मुख्यमंत्री बनीं। इससे दलितों, महिलाओं और अति पिछड़ों में आशा का संचार हुआ कि वे भी सत्ता प्राप्त कर सकते हैं। सर्वसमाज के निर्धन लोगों की भी यही भावना थी। इसके अलावा संत कबीर, संत रविदास, स्वामी परियार, नायकर, महात्मा फुले और बिरसा मुंडा जैसे महापुरुषों की मूर्तियां लगा कर पहली बार इन महापुरुषों के ऐतिहासिक योगदान को एक स्थान पर संजोने का प्रयास हुआ। सावित्रीबाई फुले ऐसी आदर्श महिला के तौर पर देखी जाएंगी जिन्होंने सभी सामाजिक समूहों की कन्याओं को ज्ञान के दीदार कराने की कोशिश की। इस देश में हजारों पार्क हैं और ढेरों यादगार संस्थान हैं। पर आजादी के बाद पहली बार किसी सरकार ने इन महापुरुषों के स्मारक बनवाए। किसी भवन या पार्क-निर्माण के पीछे एक कल्पना और दृष्टि होती है। इस कल्पना और दृष्टि के साथ छेड़छाड़ को उनके स्वरूप के साथ छेड़छाड़ ही नहीं बल्कि इन महापुरुषों की स्मृति को मिटाने के प्रयास के तौर पर भी देखा जाएगा। आज के दौर में हमें अगर समग्र राष्ट्र के तौर पर आगे बढ़ना है तो दबे-पिछड़े सामाजिक समूहों का आदर करना होगा। राष्ट्र-निर्माण और विकास-प्रक्रिया में जहां इन्हें विशेष अवसर मिलना चाहिए वहीं इनके साथ हो रहा अन्याय तत्काल बंद हो। इसी नीति पर चल कर हम सौहार्दपूर्ण और समतामूलक समाज बना पाएंगे। |
Friday, June 8, 2012
वंचित समाज और राजनीति
http://www.jansatta.com/index.php/component/content/article/20-2009-09-11-07-46-16/21284-2012-06-08-05-48-21
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