Friday, June 8, 2012

वंचित समाज और राजनीति

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Friday, 08 June 2012 11:16

सुधींद्र भदौरिया 
जनसत्ता 8 जून, 2012: दलितों और आदिवासियों को विकास और सम्मान से दूर रखने का अभिजात वर्ग का प्रयास चिंता का विषय है। हिसार के भगाना गांव के दलितों को गांव की शामलात, चरागाह और सामूहिक कार्यों की पंचायती जमीन से दूर करना टकराव पैदा कर रहा है। ये दलित बहुजन समाज पार्टी की अगुआई में चंडीगढ़ के सचिवालय परिसर में धरने पर बैठे हुए हैं, पर कोई सुनवाई नहीं है। प्रशासन के कान पर जूं तक नहीं रेंग रही है। प्रशासन को शिकायत दर्ज कराई गई कि सामूहिक इस्तेमाल के तालाब से उन्हें पानी नहीं लेने दिया जाता, खेल के मैदान को खोद दिया गया ताकि बच्चे खेल न पाएं। 
इनके घरों को जाने वाली गलियों पर छह फुट ऊंची दीवार खड़ी कर दी गई जिससे ये हताश हो जाएं। इसी प्रकार आदिवासियों के साथ भी सौतेला व्यवहार होता रहा है। वे अपने जल, जंगल, जमीन से योजनाबद्ध तरीके से काटे जा रहे हैं। बाबासाहब आंबेडकर ने संविधान की धारा 342 के तहत उनके विकास की वकालत की, ताकि उनका आर्थिक पिछड़ापन और शोषण समाप्त हो। भारत की 8.2 प्रतिशत जनसंख्या होने के बावजूद उनको अनदेखा किया जा रहा है। इसी अलगाव के कारण उनमें असंतोष बढ़ता जा रहा है, जो राष्ट्रीय एकता और शांति के लिए हितकर नहीं है।
शिक्षा, स्वास्थ्य और रोजगार की दृष्टि से देखा जाए तो इनकी स्थिति बहुत दयनीय है। दस करोड़ जनसंख्या होने के बावजूद इनकी राष्ट्रीय भागीदारी नगण्य है। आज झारखंड, छत्तीसगढ़, महाराष्ट्र और आंध्र प्रदेश के आदिवासी क्षेत्रों में तरह-तरह की योजनाएं लागू की जा रही हैं, पर इनका सशक्तीकरण नहीं हो पा रहा है। यहां माओवाद की जड़ें इसलिए भी मजबूत हो रही हैं, क्योंकि इनकी प्राकृतिक संपदा हथियाने के लिए बहुराष्ट्रीय कंपनियां या फिर देश के ही उद्योग घराने मुनाफाखोरी की मानसिकता से प्रेरित होकर आते हैं और लाभान्वित होकर निकल जाते हैं। चूंकि ये भौगोलिक तौर पर कुछ क्षेत्रों में हैं इसलिए राष्ट्रीय स्तर पर जितना राजनीतिक दबाव बनना चाहिए नहीं बन पाता। इनके बिरसा मुंडा जैसे पुरखों ने आजादी के लिए कुरबानी दी और स्थानीय अन्याय और शोषण के विरुद्ध भी आवाज उठाई।
पर हम देखते हैं कि इतनी कुरबानी के बावजूद बांधों के नाम पर और कोयला, बाक्साइट, अल्युमीनियम, लौह अयस्क और तांबे के खनन की खातिर इन इलाकों को आर्थिक रूप से खोखला किया जा रहा है। इन इलाकों में केंद्र सरकार या राज्य सरकारों के माध्यम से लगभग पांच लाख हेक्टेयर जमीन कारोबारियों को दी गई है। जिस प्रकार खुदरा में एफडीआइ का प्रलोभन दिखाया जाता है उसी प्रकार खनिज खनन में भी इस प्रलोभन का इस्तेमाल होता है।
सरकारों को मिलने वाली खनन की रॉयल्टी भी न के बराबर है। मसलन, लौह अयस्क पर दो सौ पचास से तीन सौ रुपए प्रति टन तक है, पर बाहरी बाजार में इसे सात हजार रुपए प्रति टन पर बेच कर मुनाफा कमाया जाता है। छोटा नागपुर, संथाल परगना और छत्तीसगढ़ के दंतेवाड़ा जैसे इलाकों में जाकर देखें तो सड़क और पानी उपलब्ध नहीं हैं। नौकरी की तलाश में इनके लोग जब दिल्ली और मुंबई जैसे महानगरों में जाते हैं तो ठगी और जुल्म के शिकार होते हैं।
आरक्षित श्रेणी को पदोन्नति में भी विशेष अवसर प्रदान करने का संवैधानिक कदम उठाया जाए, यह मांग पिछले दिनों बसपा अध्यक्ष मायावती ने संसद में उठाई। सरकार ने सभी राजनीतिक दलों के नेताओं को बुला कर इस पर चर्चा करने का आश्वासन दिया। इस तरह सरकार ढीला-ढाला रवैया अपना कर मामले को टालने की कोशिश करती दिखाई दे रही है।
संसद के इसी सत्र में एनसीइआरटी की राजनीति विज्ञान की पाठ्यपुस्तक का मामला भी उठा। यह पाठ्यपुस्तक ग्यारहवीं कक्षा के लिए थी। विवादित कार्टून को सामान्य दृष्टि से देखें तो ऐसा प्रतीत होगा कि बाबासाहब आंबेडकर संविधान समिति रूपी घोंघे पर बैठे हैं और उसे कार्य पूरा करने के लिए हांकने का प्रयास करते दिखाई दे रहे हैं। बाबासाहब के ठीक पीछे तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू चाबुक ताने खडेÞ हैं और आशय यह प्रतीत होता है कि इस कार्य को शीघ्र पूरा करने के लिए वे बाबासाहब पर दबाव बना रहे हैं। यह कार्टून सन 1949 के आसपास बना और इसे बनाने वाले शंकर ने उस समय प्रकाशित भी करवाया था। लेकिन 2006 में तैयार की गई एनसीइआरटी की पाठ्यपुस्तक में, जो स्कूली बच्चों के लिए तैयार की गई, संविधान समिति पर प्रकाशित विचार या व्याख्या के साथ भी यह कार्टून छापना क्या उचित कदम था? 
सुहास पलशीकर और योगेंद्र यादव ने राजनीति शास्त्र के स्कूली छात्रों के पठन-पाठन के लिए जो पुस्तक लिखी उसमें दलित चेतना पर पड़ने वाले असर को अनदेखा कर दिया, ऐसा लगता है। उनका यह तर्क कि हमने पहली बार बाबासाहब आंबेडकर को संविधान निर्माण में किए उनके योगदान को पंडित नेहरू के समकक्ष लाकर रखा, काबिल-ए-एतराज और हास्यास्पद दोनों है। योगेंद्र यादव का यह कहना कि बाबासाहब को उन्होंने एनसीइआरटी की पुस्तक के माध्यम से बड़ा दर्जा दिया, भारतवासियों के एक बहुत बड़े हिस्से के गले न उतरने वाली बात है।

बाबासाहब देश के हर कोने में रहने वाले करोड़ों लोगों के हृदय में बसे हैं, और समतामूलक समाज के चल रहे अभियान के प्रेरणा-पुरुष हैं। इस दिशा में विकसित होती चेतना के आधार हैं। दूसरा कथन कि संविधान समिति घोंघे की रफ्तार से चल रही थी,   हास्यास्पद इसलिए भी है कि जितनी बड़ा चुनौती भरा काम उन्होंने संविधान समिति के जरिए पूरा किया उसका एहसास इनको नहीं है। जाति, धर्म, क्षेत्र, लिंग और वैचारिक  अवधारणाओं में बंटी समिति, जो भारत के बंटवारे के बाद बैठी थी, कोई आसान कार्य नहीं कर रही थी। संविधान सभा की बहसों को देखते हुए यह लगता है कि बाबासाहब ने भारत के दीर्घकालिक राजनीतिक हितों और आवश्यकताओं को तो ध्यान में रखा ही, अल्पकालिक हितों को जोड़ कर एक ऐतिहासिक उपलब्धि देश को प्रदान की। संविधान में दिए गए मौलिक अधिकार और राज्य के मार्गदर्शक सिद्धांत हमारे राष्ट्र को एक सूत्र में बांधते हैं और आगे बढ़ने के लिए प्रेरित भी करते हैं।
पर सवाल है कि संविधान बनने में विलंब दर्शाने वाले कार्टून के जरिए हम नई पीढ़ी को क्या सिखा रहे हैं? हम अपने पड़ोसी देश नेपाल को देखें, जो जनसंख्या और क्षेत्रफल दोनों में हमसे छोटा है। नेपाल पिछले पांच वर्षों से संविधान निर्माण की चुनौती से जूझ रहा है। तीसरी बात यह कि कार्टून बनाना संविधान द्वारा दिए गए अभिव्यक्ति के मौलिक अधिकार का हिस्सा है, यह तर्क देना तथ्य को गलत ढंग से प्रस्तुत करना होगा। 
एनसीइआरटी सरकारी धन से पुस्तक तैयार और प्रकाशित करती है। इस तरह के प्रकाशन से अगर सामूहिक दलित संवेदना को ठेस पहुंचती है और सर्व-समाज को भी आपत्ति होती है तो क्या उसे सरकारी धन का अपव्यय नहीं समझा जाएगा? संसद में इस भावना की गूंज होना हमारे लोकतंत्र के लिए आवश्यक है।
हाल में हमने यह भी देखा कि उत्तर प्रदेश में बने दो दलित प्रेरणा स्थलों के स्वरूप को राज्य की नई सरकार बदलना चाहती है। उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव का कहना है कि हम इन स्थलों पर सार्वजनिक इस्तेमाल के संस्थान बना कर सदुपयोग करेंगे। यह भावना किसी स्थल के मूल चरित्र को बदलने की मंशा से प्रेरित लगती है। जब मायावती ने यह निर्णय लिया कि उत्तर प्रदेश में दलित प्रेरणा स्थल बनाए जाएंगे उस समय समाजवादी पार्टी राज्य में मुख्य विपक्षी पार्टी थी। यह उस समय उत्तर प्रदेश की सरकार द्वारा लिया गया निर्णय था। पर इसमें हुए खर्च पर अब अनावश्यक विवाद खड़ा किया जा रहा है। 
कुल बजट का एक प्रतिशत अपने उन महापुरुषों की स्मृति को संजोने में खर्च हुआ है तो यह स्वागतयोग्य निर्णय था। महात्मा बुद्ध इतिहास में प्रथम महापुरुष हैं जिन्होंने उस दौर में व्याप्त गैर-बराबरी और सामाजिक कुरीतियों को दूर करने में अद्भुत योगदान दिया। बीसवीं सदी में बाबासाहब ने भारत में जाति आधारित असमानता दूर करने के लिए न केवल अद्वितीय योगदान दिया बल्कि पूरे देश में ऐसा अलख जगाया कि आज भी भारत हिलोरें ले रहा है। उनके विचारों को कांशीराम ने जमीन पर उतारा। उन्होंने दलित और पिछड़े वर्गों के साथ सर्वसमाज को जोड़ा। इस अभियान के नतीजे के तौर पर मायावती उत्तर प्रदेश की पहली महिला मुख्यमंत्री बनीं। 
इससे दलितों, महिलाओं और अति पिछड़ों में आशा का संचार हुआ कि वे भी सत्ता प्राप्त कर सकते हैं। सर्वसमाज के निर्धन लोगों की भी यही भावना थी। इसके अलावा संत कबीर, संत रविदास, स्वामी परियार, नायकर, महात्मा फुले और बिरसा मुंडा जैसे महापुरुषों की मूर्तियां लगा कर पहली बार इन महापुरुषों के ऐतिहासिक योगदान को एक स्थान पर संजोने का प्रयास हुआ। सावित्रीबाई फुले ऐसी आदर्श महिला के तौर पर देखी जाएंगी जिन्होंने सभी सामाजिक समूहों की कन्याओं को ज्ञान के दीदार कराने की कोशिश की। इस देश में हजारों पार्क हैं और ढेरों यादगार संस्थान हैं। पर आजादी के बाद पहली बार किसी सरकार ने इन महापुरुषों के स्मारक बनवाए।     
किसी भवन या पार्क-निर्माण के पीछे एक कल्पना और दृष्टि होती है। इस कल्पना और दृष्टि के साथ छेड़छाड़ को उनके स्वरूप के साथ छेड़छाड़ ही नहीं बल्कि इन महापुरुषों की स्मृति को मिटाने के प्रयास के तौर पर भी देखा जाएगा। 
आज के दौर में हमें अगर समग्र राष्ट्र के तौर पर आगे बढ़ना है तो दबे-पिछड़े सामाजिक समूहों का आदर करना होगा। राष्ट्र-निर्माण और विकास-प्रक्रिया में जहां इन्हें विशेष अवसर मिलना चाहिए वहीं इनके साथ हो रहा अन्याय तत्काल बंद हो। इसी नीति पर  चल कर हम सौहार्दपूर्ण और समतामूलक समाज बना पाएंगे।

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