'जनवादी समाज और जाति का उन्मूलन' की भूमिका: आनंद तेलतुंबड़े
जाने-माने जनवादी अधिकार कार्यकर्ता और चिंतक आनंद तेलतुंबड़े ने यह भूमिका आधार प्रकाशन से रुबीना सैफी के संपादन में प्रकाशित हुई अपनी किताब जनवादी समाज और जाति का उन्मूलनके लिए लिखी है. किताब में शामिल निबंध जाति के उन्मूलन को एक केंद्रीय कार्यभार के रूप में देखते हुए एक सच्चे जनवादी समाज के निर्माण की चुनौतियों, संघर्षों, वैचारिकी और जरूरत को रेखांकित करते हैं. अनुवाद: रेयाज उल हक
मुझे युवा अध्येता रूबीना सैफी द्वारा तैयार किए गए इस संकलन की भूमिका लिखते हुए बहुत खुशी हो रही है, जिसके निबंध मैंने अलग अलग वक्त में अलग अलग विषयों पर लिखे हैं लेकिन वे किसी न किसी तरीके से जाति के सवाल के साथ जुड़े हुए हैं. ये मूल लेख अंग्रेजी में हैं और पढ़नेवालों के एक बड़े तबके के लिए वे यहां हिंदी में पेश किए जा रहे हैं.
जाति को लेकर मेरा नजरिया ज्यादातर लोगों और स्थापित बौद्धिक जमात से बहुत अलग है, और इसीलिए वर्ग को लेकर मेरा नजरिया भी अलग है. बुनियादी तौर पर मैं इन दोनों अवधारणाओं को आपस में एक दूसरे से अलग अलग करके देखने के रुझान में समस्याएं पाता हूं. खास तौर से बौद्धिक बहसों में जाति और वर्ग का इस कदर अलग अलग होना मुझे उलझन में डालता है. मार्क्सवादी सिद्धांत में वर्ग, इतिहास में द्वंद्ववाद को आगे बढ़ाने की एक अवधारणात्मक श्रेणी थे. इस खांचे में जातियों को कैसे और कहां समोया जा सकता था? वे कैसे एक साथ वजूद में रह सकती हैं? इसी तरह मैं आंबेडकर द्वारा जातियों की जड़ को हिंदू धर्मशास्त्रों में देखने और धर्म बदल लेने के उनके समाधान को लेकर भी बेचैनी महसूस करता हूं. मुझे इस पर हैरानी थी कि आंबेडकर ने कम्युनिस्टों के इस दावे के लिए सामान मुहैया कराया कि जातियां महज ऊपरी ढांचे का हिस्सा थीं. आंबेडकर वाजिब ही कम्युनिस्टों से परेशान थे कि उन्होंने जातियों के सवाल को नजरअंदाज किया और क्रांति को लेकर अड़े हुए थे. लेकिन जब आंबेडकर ने अपनी जाति-विरोधी दलील को पेश किया, तो अनजाने में ही, उनकी दलील ने कम्युनिस्टों की मदद की. यह सब तो एक बात, आखिर जाति कैसे बस हिंदू धर्मशास्त्रों में ही हो सकती है, या फिर हिंदू धर्म की तरकीब हो सकती है? अगर ऐसा है तो भारत के दूसरे धर्मों में जातियों के वजूद को कैसे समझा जा सकता है? मैं इस खयाल को हजम नहीं कर पाया कि किसी एक इंसान ने कुछ लिख दिया और समाज उसके आधार पर ढल गया. जातियों के पैदा होने की कुछ भौतिक वजह होनी चाहिए. धर्म के आधार पर विचारधारा इसको कायम रखने में अपना योगदान दे सकती है, लेकिन यकीनन यह इसे पैदा नहीं कर सकती.
शुरू-शुरू में मुझे अपने नजरिए के लिए आंबेडकरियों और मार्क्सवादियों दोनों से ही खासे विरोध का सामना करना पड़ा. आंबेडकरी मार्क्सवाद की अपनी सतही धारणाओं के साथ आसानी से मुझे मार्क्सवादी करार देते थे. मार्क्सवादियों को उतना सतही होने की भी जरूरत नहीं थी, उनके लिए मेरा दलित होना ही मुझसे आंबेडकरी के रूप में पेश आने के लिए काफी था. यह एक ऐसा नसीब है, जो भारत में हरेक प्रगतिशील दलित कार्यकर्ता के हिस्से आता है. आप हमेशा ही जाति के खोखल में वापस फेंक दिए जाते हैं या फिर आपको जाति से बाहर कर दिया जाता है, उसी तरह जैसे जातियां बुनियादी तौर पर काम करती हैं. इसने भी इसे साबित किया कि भारतीय समाज में अभी भी कितना जहर है कि मार्क्सवादी भी इससे बचे नहीं रह सकते. यह बुश की उस दलील से मिलती जुलती है, कि या तो आप हमारे साथ हैं या फिर हमारे खिलाफ. इसके लिए दलितों को माफ किया जा सकता था, पहली बात तो इसलिए कि मार्क्सवादियों के उलट वे अपने को राह दिखाने वाले किसी महान सिद्धांत का दावा नहीं करते और दूसरी कि वे शासक वर्गों द्वारा की जा रही हर तरह की सियासी धांधलियों से महफूज नहीं हैं.
लेकिन इन सबसे मुझे फिक्र नहीं हुई; क्योंकि मैं जानता था कि मैं क्या था. इसके उलट, इस पूरे दौरान मुझे इन वादों के बारे गंभीर संदेह पैदा होने लगे, जो अपने मानने वालों में पहचान पर आधारित पूर्वाग्रहों का जहर भरने के अलावा कोई काम नहीं करते. मैंने अनेक ऐसे लोगों को देखा है, जो पक्के आंबेडकरी होने का दावा करते थे, मगर लेकिन जिन्होंने असल में आंबेडकर की लिखी हुई एक भी किताब नहीं पढ़ी है. और इसी तरह मैं ऐसे मार्क्सवादियों को जानता हूं (अब वे महज मार्क्सवादी ही नहीं हैं, वे मार्क्सवादी-लेनिनवादी और माओवादी हैं) जो इसी तरह से मार्क्सवाद के बुनियादी उसूलों से अनजान हैं. यह इन संभावित क्रांतिकारी आंदोलनों के लिए हंसी के काबिल, लेकिन साथ ही त्रासदी भरी हुई हालत है (हालांकि आंबेडकरी शायद इसे क्रांति कहें या न कहें, लेकिन जातियों का उन्मूलन भारत में किसी क्रांति से कम नहीं है) कि वे अपनी नादानी पर फिदा होने वाली खोखली पहचानों में सिमट कर रह गए हैं. बेशक, दोनों तरफ ऐसे लोग हैं जो अपने क्रांतिकारी वायदों को लेकर काफी संजीदा हैं लेकिन वे अपने चारों ओर मौजूद, पहचान पर काम करने वाली भीड़ में दब गए हैं. मेरा लिखी हुई रचनाओं का अनुवाद होता है, उन पर जवाब आते हैं और उनके आधार पर आगे चीजें लिखी जाती हैं, यह तथ्य दिखाता है कि उन्हें नजरअंदाज नहीं किया जा सकता. और फिर बोहेमियाई खुशफहमियों के हाथों बिक चुके नौजवानों के उस बड़े से नवउदारवादी हिस्से को अलग कर देने के बाद भी, नौजवानों की एक बढ़ती हुई आबादी है, जो अपने भविष्य को लेकर बहुत उलझन में है. यह आबादी मेरी बातों को सुनती हुई लगती है. इस नजरिए से, मुझे महसूस होता है कि यह किताब मेरे विचारों को समझने में और भी मदद करेगी.
जाति और वर्ग पर मेरी समझदारी न तो प्रयोगों से पैदा हुई है और न ही किताबों से. अपनी सार्वजनिक सक्रियता (एक्टिविज्म) के जरिए भी जाति के सवाल पर सोचना मैंने काफी बाद में शुरू किया. हालांकि मैं एक दलित के रूप में पैदा हुआ था, लेकिन दूसरों के उलट मुझे अपने बचपन में जाति के कड़वे अनुभवों का सामना नहीं हुआ हालांकि दलितों का ढांचागत अलगाव दूसरे किसी भी गांव की तरह मेरे गांव में भी था. दलितों और गैर-दलितों को एक सड़क अलग करती थी, जो आगे चल कर खेतों से होते हुए एक पतली सी पगडंडी में बदल जाती और दो खेतों के बाद दलितों के एक कुएं तक और फिर आखिर में एक दूसरे गांव तक ले जाती थी. हालांकि दलितों और दूसरों के बीच आपसी रिश्तों में यह कोई मायने नहीं रखता था. लोगों ने शायद इस बात को अपने अंदर जज्ब कर लिया था कि उन्हें क्या करना है और वे अपनी अपनी दुनिया के दायरों में जी रहे थे.
अब मैं पीछे मुड़ कर देखता हूं तो लगता है कि इसकी बड़ी वजह गांव की अजीबोगरीब राजनीतिक अर्थव्यवस्था थी. यह गांव कोयले, चूनापत्थर, डोलोमाइट वगैरह से भरपूर था, यहां देश की सबसे पुरानी कोयले की खदानों में से एक खदान थी, हालांकि यह मेरे पूरे बचपन के दौरान बंद रही थी. दूसरी तरफ यहां दो दर्जन चूना भट्ठियां थीं और उनके लिए चूनापत्थर का खनन होता था. पूरा इलाका गतिविधियों से भरपूर था. सबसे अहम तथ्य ये था कि कोलियरी की वजह से मुख्य गांव से दोएक किलोमीटर दूर एक महानगरीय आबादी वाला एक औद्योगिक कस्बा (टाउनशिप) विकसित हो गया था, जिसमें देश के करीब-करीब सभी इलाकों से आए लोग रहते थे, लेकिन उनमें दलित आबादी सबसे ज्यादा थी. यहां तक कि हमारे गांव से भी ज्यादातर दलित मर्द और औरतें दोनों, चूना कारखानों और चूनापत्थर की खदानों में काम करते थे. इस तरह दूसरे गांवों के उलट, यहां के दलित अपने गुजर-बसर के लिए कुनबी किसानों पर निर्भर नहीं थे. इसके उलट, दलितों को हर हफ्ते नकद मजदूरी मिलने के कारण वे ज्यादातर किसानों से बेहतर हालत में दिखते थे, जिनके पास नकद रकम सिर्फ अपनी पैदावार बेचने के बाद ही आती थी. सूखी जमीन पर खेती के कारण वैसे भी आमदनी कम ही थी. इसका असर दलितों और गैर-दलितों के बीच रिश्तों में दिखता था, जिन्हें किसी न किसी रिश्ते के नाम से ही बुलाया जाता था, जैसे कि मामा, काका (चाचा), आजा, आजी (दादा, दादी) वगैरह.
इसके बजाए, मेरे बचपन का अनुभव अपने आसपास की गैरबराबरी को लेकर बेचैनी वाला था. गांव में भी, जहां कोई भी बहुत अच्छी हालत में नहीं था, कुछ लोगों के पक्के घर थे जो अपने चूने से रंगी दीवारों के साथ आस पास की मिट्टी की झोंपड़ियों के बीच अलग ही दिखते थे. इन कुछ घरों को छोड़ कर, जो सड़क के दोनों और स्थित थे, दलितों और दूसरों के घरों के बीच कोई खास फर्क नहीं था. घरों के अलावा, ज्यादातर लोगों के पास मवेशी थे, जिन्हें मैं गांव के किसी भी बच्चे की तरह पसंद करता था, लेकिन हमारे पास एक भी जानवर नहीं था. असल में हमारा परिवार अकेला परिवार था, जिसके पास न जमीन थी न जानवर. अपनी मां से मैं भोलेपन से पूछता कि हमारे पास कोई बकरी क्यों नहीं है और फिर इसकी मांग करते हुए आसमान सिर पर उठा लेता कि वो अभी के अभी मेरे लिए एक बकरी लेकर आएं. किसी तरह वो जवाब देने की कोशिश करतीं लेकिन जल्दी ही वो सब्र खो देतीं और मुझे पीटने लगतीं. न तो उनकी पिटाई ने मुझे उन सवालों को उठाने से रोका और न ही उनके जवाब मुझे कायल कर पाए.
जवाब का इंतजार करते उन सभी सवालों का एक दिन अचानक ही जवाब मिल गया, या शायद ऐसा मुझे लगा, जब मुझे अपनी तीसरी कक्षा में अव्वल आने पर मुझे ईनाम में एक किताब दी गई. असल में मैं बीमार होने की वजह से परीक्षा ही नहीं दे सका था, लेकिन मेरे शिक्षकों को इससे कोई फर्क नहीं पड़ा. इम्तहान दूं या न दूं, मेरे लिए अव्वल जगह तय थी. ईनाम में मिली हुई किताब जोसेफ स्तालिन की मराठी जीवनी थी. यहां तक कि जिस शिक्षक ने तहसील के कस्बे की अकेली दुकान से वह किताब खरीदी थी, उसे भी इसका अंदाजा नहीं था कि वह क्या थी. यह उनके लिए बस एक किताब थी, जो स्कूल के रिवाज के मुताबिक इनाम में देने के लिए उनके बजट के भीतर थी. लेकिन मेरे हाथ में यह किताब एक बम का गोला बन जानेवाली थी. एक तरह से इसने मुझे भीतर तक इस कदर बिखेर दिया कि अब मैं वह पहले वाला बच्चा नहीं रह गया. मैंने उस किताब को पढ़ा और बार बार पढ़ा. स्तालिन की शख्सियत बहुत असरअंदाज थी, लेकिन मार्क्सवाद, समाजवाद, साम्यवाद और रूस में बोल्शेविक क्रांति जैसे एकदम नए शब्दों ने मुझे बांध लिया. एक झटके में मुझे महसूस हुआ कि मेरे सारे सवालों के जवाब हासिल हो गए. आठ साल की नाजुक उम्र में, मैंने मार्क्सवाद, साम्यवाद और रूसी क्रांति के बारे में जानकारी खोजनी शुरू कर दी. जब भी मैं शहर में अपने मामा के घर जाता, मैं उन्हें सुत्रवे बुक सेलर के यहां खींच ले जाता, जो अपनी छोटी सी गुमटी में अपना किताबों और कैलेंडरों का सौदा फैलाए रहते. वे बुजुर्ग मेरी मांगें सुन कर हैरान होते. लेकिन उन्होंने मेरे मामा के जरिए मुझे किताबें भेजनी शुरू कर दीं. मैंने सोचा कि मैं कम्युनिस्ट बन चुका था जिसका मिशन भारत में एक ऐसी क्रांति लाना थी, जिसमें सभी बच्चों के पास चूना पुती दीवारों वाले पक्के मकान, उनके अपने खेत, अपनी बकरियां, गाएं और भैंसे और बेशक बहुत सारी मुर्गियां होंगी.
अगले साल मैंने भगत सिंह के बारे में पढ़ा, जिन्होंने फौरन मेरे नायक के रूप में स्तालिन की जगह ले ली. मैंने कल्पना से उनकी एक तस्वीर बनाई और उसका शीर्षक रखा ‘भारत रत्न शहीद भगत सिंह’, जो मेरे स्कूल छोड़ने के बरसों बाद भी स्कूल के दफ्तर में सजा रहा. यह तब की बात है, जब मैंने नहीं जाना था कि ‘भारत रत्न’ एक सरकारी सम्मान है. यह हमेशा एक प्रेरणा देने वाले शहीद के लिए मेरी तस्दीक थी, जिसका मेरे नायक के रूप में रुतबा आज कर जस का तस बना हुआ है.
जाति के साथ मेरी मुलाकात गांव में एक अनोखी घटना से हुई, जिसमें मेरी मां ने एक नायक जैसी भूमिका निभाई थी. एक शाम, जब वे पीने का पानी लाने के लिए हमारे कुएं पर गईं, तो औरतों के बीच हलचल थी जिन्होंने पानी पर गंदगी तैरती हुई देखी थी. ऐसा शक किया गया कि कुनबी परिवार के बच्चों ने यह हरकत की थी, जो उस खेत के मालिक थे, जिनमें हमारा कुआं था. शायद उन्होंने सोचा होगा कि दलित लोग कुएं का इस्तेमाल बंद कर देंगे, और तब यह कुआं उनका हो जाएगा और खेतों की सिंचाई करने के काम आएगा. मेरी मां अभी अभी खेतों में हाड़तोड़ मेहनत करके लौटी थी. वो आगबबूला हो गईं और उन्होंने औरतों को कहा कि वे उनके साथ गांव में सवर्णों के कुएं तक चलें. आशंका के मुताबिक, कुछ कुनबी औरतों ने इसका विरोध किया और दलित औरतों के घड़े फेंक दिए. मेरी मां ने उनमें से एक को पीट कर उन्हें डरा कर भगा दिया और पानी लाने के लिए कुएं तक पहुंच गईं. खबर फैली कि महार औरतों ने कुएं को गंदा कर दिया है और कुछ आगे बढ़े हुए कुनबियों ने इसका विरोध करने के लिए लोगों को जमा किया.
अगली सुबह जब मेरी मां दलित औरतों को लेकर कुएं से पानी लाने गईं तो वहां मर्दों की भीड़ लगी हुई थी. उन्होंने रोकने की कोशिश की लेकिन दलित औरतों के चेहरों पर चुनौती के भाव देख कर वे पीछे हट गए. कुछ झड़प हुई, लेकिन दलित औरतों को जीत हासिल हुई. इसने गांव में एक साफ-साफ तनाव पैदा कर दिया. ऐसी अफवाहें थीं कि कुनबी लोग दलितों पर हमले करेंगे. उस शाम दलितों की एक बैठक बुलाई गई. हम बच्चे लड़ाई लड़ने का मौका मिलने से खासे उत्साहित थे. लेकिन मर्द लोग डरे हुए थे. उनमें से कुछ ने सिर पर आ खड़ी हुई इस मुसीबत के लिए औरतों को दोष देने की कोशिश की. लेकिन मेरी मां की चुनौती को देख कर और दूसरी औरतों द्वारा उनके साथ खड़े होने की वजह से वे पीछे हट गए. हालांकि मैं दूसरे बच्चों के साथ इस बहस को देख रहा था, लेकिन मैं अपनी ब्रिगेड का नेतृत्व करने का मौका मिलने की कल्पना में खो चुका था. बैठक के बाद, हमने पास के मैदान से पत्थर जमा करने, घरों से लोहे के सरिए और छुरियां निकालने और तैयार रहने का फैसला किया. हमने अपनी फॉर्मेशन तय की और जिम्मेवारियां आपस में बांट लीं यानी जंग की रणनीति तय हो गई.
लेकिन कोई भी हम पर हमला करने नहीं आया. अगली सुबह गांव के कोलियरी वाले हिस्से में खबर भेजी गई, जहां दलित कहीं ज्यादा संगठित और जुझारू थे. कुछ नौजवान महिलाएं एक समूह में आईं और पानी भरने जा रही हमारी गांव की औरतों की हिफाजत में खड़ी रहीं. कुनबी लोग पास फटकने से भी डर रहे थे. दोपहर बाद कोलियरी के अनेक लोगों के साथ एक बैठक हुई, जिसमें तय किया गया कि जिला आरपीआई के नेता को बुलाया जाए और इस मुद्दे पर एक बड़ी जनसभा की जाए. इस बीच, महारों को कोलियरी से मिली मदद से डरे हुए कुनबी इस मामले को दोस्ताना तरीके से सुलझाना चाहते थे. यह तय किया गया कि वे दलितों को तब तक कुएं से पानी लेने देंगे, जब तक हमारे कुएं की सफाई नहीं हो जाती, जो इसके फौरन बाद कर दी गई. लेकिन दलित गांव में साफ साफ तनाव बना रहा, क्योंकि उन्हें डर था कि कुनबी लोग हालात के सामान्य होने के बाद अपनी बेइज्जती का बदला ले सकते हैं. इस पूरे दौरान कोलियरी के नौजवान मर्दों और औरतों की एक टोली अक्सर हमारे गांव का दौरा करती रही, जिसकी वजह से कुनबियों को सुलह-सफाई का रुख अपनाना पड़ा था. जैसा कि तय किया गया था, एक बड़ी भारी जनसभा हुई जिसमें आरपीआई के जिला अध्यक्ष मि. सोंडावले आए थे. हिंदू धर्म की निंदा करते हुए और जातिवादी कुनबियों को धमकाते हुए ढेरों भाषण दिए गए. बात में ग्राम पंचायत द्वारा गांव के हमारे हिस्से में एक सार्वजनिक कुआं बनाने का फैसला किया गया, जिसका उपयोग सभी जातियों द्वारा होना था. यह वो घटना थी, जिसने जाति नाम के शैतान से मेरी भेंट करवाई.
लेकिन इस मुलाकात में जातियों का सताने वाला पहलू शामिल नहीं था. यह बात समझ में आई कि जिन लोगों को कुनबी कहा जाता है, उन लोगों से हम अलग थे और अलग रहते थे. इतना ही. कमतर होने का कोई खयाल नहीं था. जाति के साथ इस मुठभेड़ में अगर ऐसा कुछ था भी तो यह था कि जीतनेवाले हम थे. कुनबियों को झुकते हुए पूरे गांव के एक आम कुएं पर आने के लिए मान जाना पड़ा था. स्कूल में पढ़ाई-लिखाई में अच्छा प्रदर्शन करने की वजह से मेरा सम्मान था, हालांकि मेरे अजीबोगरीब व्यवहार से कुछ शिक्षकों द्वारा खास तौर से मुझे पसंद नहीं करते थे. उन दिनों एक बोर्ड के तहत आनेवाले स्कूलों के बीच एक होड़ होती था. चौथी और सातवीं कक्षाओं के लिए इम्तहान बोर्ड द्वारा किसी बड़े गांव में लिए जाते थे. अगर किसी गांव का छात्र बोर्ड में अव्वल आता तो यह उसके लिए बड़ी इज्जत की बात होती थी. चूंकि मैं अपने गांव के लिए यह सम्मान ला सकता था, इसलिए पूरा गांव मेरा आदर करता था. इससे भी आगे बढ़ कर कुछ कुनबी परिवार हमें मट्ठा, दही, घी और खेती की कुछ उपज दे जाते, क्योंकि हमारे परिवार के पास कोई जमीन या मवेशी नहीं थे. शायद इसमें गांव में जातियों की आपसी निर्भरता की झलक मिलती थी.
जाति के साथ मेरी मुलाकात में रत्ती भर भी कमतरी का खयाल जुड़ा हुआ नहीं था. अपने गांव के स्कूल से सातवीं पास करने के बाद जब मैं शहर में उच्च विद्यालय में गया, तो मैं मामा के घर में रहने लगा. यह घर स्कूलों के झुंड की ओर ले जाने वाली एक सड़क के किनारे था, जिस पर कुछ ब्राह्मण लड़के चलते थे. उन्हें रोक कर उनसे ‘आंबेडकर की जय’ बुलवाना हमारा खेल हुआ करता था. बेचारे लड़के मान जाते और तंग किए जाने से बच जाते. बाद में, वे सड़क के उस हिस्से से दौड़ कर भाग जाते और कुछ तो एक लंबा रास्ता पकड़ लेते और उस सड़क से ही आने से बचते. उच्च विद्यालय में हमें ब्राह्मण बच्चों के खिलाफ एक सीधी लडाई लड़नी पड़ी, जिन्हें आरएसएस की काली टोपियां पहनने की इजाजत थी, जो स्कूली पोशाक का उल्लंघन थी. जब मैं दसवीं में पहुंचा और तब तक पढ़ाई-लिखाई में अच्छे प्रदर्शन के चलते मेरा कहना मानने वाले बच्चों की एक बड़ी तादाद हो गई थी, एक दिन हमने दलित छात्रों को सुबह की प्रार्थनाओं में नीली टोपियां पहनाईं. इस पर पीटी टीचर द्वारा आपत्ति जताई गई, जो खुद भी एक दलित थे. लेकिन हमने उन्हें चुनौती दी. मुसलमान हेडमास्टर ने हमसे बातचीत की और वादा किया कि वे ब्राह्मण अभिभावकों से अपने बच्चों को सिर्फ स्कूली पोशाक पहना कर भेजने को कहेंगे. इसके बाद जल्दी ही, काली टोपियां गायब हो गईं. जाति के साथ ऐसे अनुभव थे, जो मेरे बचपन के इस ‘कम्युनिस्ट’ भरोसे से मेल खाते थे कि अगर हमने संघर्ष किया तो हम जीत सकते हैं.
इस पूरे दौरान, आंबेडकर एक मिथक थे, जिनके बारे में कोई जानकारी नहीं थी, सिवाय उन गीतों के जो कुछ उत्सवों के मौकों पर लाउडस्पीकरों पर जोर जोर से बजते थे. सिर्फ नागपुर पहुंचने बाद ही मैं यूनिवर्सिटी के पुस्तकालय में उनकी किताबें पढ़ पाया. इस पढ़ाई के साथ साथ होस्टलों में साथी छात्रों के साथ होने वाले भेदभाव की कहानियों ने मुझे जाति के बारे में, और आंबेडकर और मार्क्स के आपस में एक दूसरे की जगह लेने वाले नजरियों के बारे में सोचने पर मजबूर किया जिसके दौरान जाति को बार बार वर्ग के बरअक्स खड़ा करके देखता. तभी मुझे उन तरीकों में कुछ गलत होने का हल्का-हल्का अहसास होने लगा था जिनके तहत जाति और वर्ग के खिलाफ लड़ाइयों को एक दूसरे के समांतर रखा जाता है, जबकि व्यापक तौर पर उनके विषय एक दूसरे में शामिल थे. इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस में अपनी पढ़ाई पूरी करने के बाद इंजीनियरिंग कॉलेज में पहुंचने के बाद मैंने अपने होस्टल में, एक दूसरे से पूरी तरह अलग थलग रहने वाले दूसरे छात्रों के साथ दो स्टडी सर्किल शुरू किए, एक स्टडी सर्किल में मार्क्स पर विचार किया जाता और दूसरे में आंबेडकर पर. हम हफ्ते में एक बार मिलते, जब मैं इन लोगों की किसी रचना की व्याख्या करता और इसके बाद बहस होती. मैं वहां अपने नजरिए को परखना चाहता, लेकिन मैं निराश हो जाता क्योंकि उन्हें चुनौती देने वाला वहां कोई नहीं था. नक्सलवादी आंदोलन आम चर्चा में था और अखबारों से रोज ही कोई न कोई खबर या नजरिया सामने आता.
मैंने सोचा कि बेकार ही बौद्धिक की तरह लगने के बजाए, आत्मकथात्मक लगने का जोखिम उठाते हुए यह लंबी भूमिका एक गांव के एक बच्चे के रोज-ब-रोज के आम अनुभवों की दुनिया में वर्ग और जाति के आपसी मेल-जोल को देखने का शायद बेहतर तरीका होगी. मैं सार्वजनिक रूप से अपने बारे में बोलने से बचता हूं कि कहीं यह एक और दलित जीवनी न बन जाए जो हमेशा ही लेखक की अपनी शख्सियत को सामने लाने के लिए सामाजिक पहलू पर हावी हो जाती है. मेरी नजर में यह छोटा सा ब्योरा इसके बारे में समझाता है कि जाति और वर्ग के बारे में मेरे विचारों के बीज कैसे पड़े और कैसे हालात ने उन्हें एक खास तरीके से ढाला. यह आलोचनात्मक सोच की भूमिका को देखने में मदद कर सकती है.
मैं नहीं जानता कि रूबीना ने किस आधार पर इन निबंधों को चुना है. ये मुझे खासे बेतरतीब लगे. लेकिन उन्होंने जिस भी आधार पर इन्हें चुना हो, ये इस मायने में कारगर हैं कि एक परिचय के रूप में यह संकलन जाति और वर्ग के संबंध में अनेक मुद्दों पर मेरे नजरिए का एक जायजा पेश करता है. मैं उनके और विस्तार में जाने के उकसावे में पड़ने से खुद को रोकूंगा और पाठकों को खुद फैसला करने के लिए इसे उन्हीं पर छोड़ देना पसंद करूंगा. इस पहलकदमी के लिए मुझे रूबीना का और तारीफ के काबिल इस अनुवाद के लिए रेयाज का जरूर ही शुक्रिया अदा करना चाहिए.
किताब: जनवादी समाज और जाति का उन्मूलन
लेखक: आनंद तेलतुंबड़े
प्रकाशक: आधार प्रकाशन, पंचकूला, हरियाणा
मूल्य: 200.00 (पेपरबैक)
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