Monday, July 28, 2014

रामराजमध्ये खूनी अस्सी दशक की दस्तक कयामती और जार्ज आरवेल का 1984


रामराजमध्ये खूनी अस्सी दशक की दस्तक कयामती और जार्ज आरवेल का 1984

सारा देश बुरी से बुरी खबरों के लिए अभ्यस्त है।बुरी से बुरी खबरों के लिए अच्छे, बेहद अच्छे दिन हैं।यह प्रायोजित टीआरपी समय है मूसलाधार। इसीलिए अखबारी खबरों की कतरने जोड़ने के बजाय सीधे अंतःस्थल से लिख रहा हूं आज का रोजनामचा।जो पढ़ लें,उनको भी सत श्री अकाल और जो न पढ़ें,उनको भी सत श्री अकाल। आखिरकार मेरा लिखा पढ़कर मोक्ष के रास्ते तो खुलने वाले नहीं है और न देहमुक्ति संभव है।

पलाश विश्वास
जार्ज आरवेल ने साम्यवादी व्यवस्था की परिणति का खाका खींचने के मकसद से 1984 और एनीमल फार्म जैसी रचनाएं लिखी हैं।

पूंजी के पीछे वामपंथ की अंधी दौड़ को रेखांकित करने और प्रतिरोध बतौर बंगाल में एनीमल फार्म का निषिद्ध प्रतिवादी मंचन चर्चित रहा है नंदीग्राम सिंगुर समय में।

अब मां माटी जमाने में वह एनीमल फार्म सूअर भगाओ अभियानमध्ये सांढ़ संस्कृति का ही धारक वाहक एपीसेंटर है।तो मुक्त बाजारी बंदोबस्त में सा्मयवादी व्यवस्था की परिणति बतौर बहुचर्चित आरवेल के उपन्यास 1984 का कथानक मुकम्मल सांढ़ संस्कृति का आइना है।

स्वतंत्र भारत में अस्सी का दशक सबसे खूनी रहा है।

हरित क्रांति के कारण साठ के मोहभंग और सत्तर के प्रतिरोध समय के आर  पार भारतीय उत्पादन प्रणाली में विदेशी पूंजी और विदेशी हितों के डाबल डोज का जहरीला असर कृषि संकट के आत्मघाती हिंसा परिदृश्य में बदल जाने का आधार दशक है अस्सी तो इसी दशक के मध्य भोपाल गैस त्रासदी जैसी औद्योगिक दुर्घटना मध्ये जैविकी हथियारों का व्यापक  विनाशकारी प्रयोग,पंंजाब और असम त्रिपुरा में गहराये कृषि संकट के धर्म क्षेत्रीयतावादी  हिंसक महाविस्फोट,आपरेशन ब्लू स्टार,राममंदिर का ताला खोलने से शुरु बाबरी विध्वंस आंदोलन और मंडल कमंडल घनघोर,सिखों के संहार और अल्फाई उन्माद के अलावा देश व्यापी सांप्रदायिक दंगों,अभूतपूर्व आर्थिक संकट भुगतान का खूंखार कटखना कोलाज हैं।

ताजा हालात के मध्य विचारनियंत्रक,स्वप्न नियंत्रक केसरिया कारपोरेट रोबोटिक सैम जायनी अठारह अक्षयिनी सेनाओं के चक्रव्यूह के मध्य तिलिस्मी गैसीय अंधकारमध्ये वह अस्सी का दशक फिर जीवंत होने लगा है।

असम के दंगा परिदृश्य से बचपन से साक्षात्कार होता रहा,वहां दंगाग्रस्त जिलों में पिता और चिकित्सक चाचा की पीड़ितों के बीच सक्रियता के मध्य तो सिखी सोहबत में पले बढ़े नैनीताली तराई के साझा चूल्हा बचपन के लहूलुहान होते जाना दशकों का भोगा हुआ यथार्थ है।

अस्सी के दशक में बाकायदा दैनिक अखबार के संस्करण प्रभारी मुखय संवादददाता की बस से उतारकर मार देये जाने की खबर वारदात हो जाने से पहले छापने की अभिज्ञता भी है,जिसमें घटनास्थल और मारे जाने वाले लोगों की तादाद  जैसे तमाम ब्यौरे हूबहू।

यह करिश्मा इसलिए संभव हुआ कि वे महामहिम संवाददाता स्वयं इस कांड के रचयिताओं में थे तो अपने संवाददाता की पट हम रोक नहीं सकते थे।

विडंबना यह कि,और उसी परिदृश्य में शहर में नये प्रतिद्वंध्वी अखबार की सुर्खियों से ही मलियाना और हाशिमपुरा की वारदातों को हमने जाना।

मीडिया के केसरिया हो जाने,उत्पादन प्रणाली के हिंदुत्वकरण जरिये कारपरेट हो जाने की यह कथा व्यथा मैंने अपने  लघु उपन्यास उनका मिशन में लिखा।

महाश्वेता दी और नवारुणदा के कहने पर यह उपन्यास संपूर्ण लिखा बांग्ला में भी और वाम धर्मनिरपेक्ष जमाने के बांग्ला अकादमी की अलमारी में शायद वह पांडुलिपि अब भी कैद होगी।

इस उपन्यास को समकालीन  परिदृश्य में पढ़ने के बाद पुस्तक के लिए कवर तैयार किया था मशहूर चित्रकार अशोकदा भौमिक ने।

हिंदी या बांग्ला में  यह उपन्यास आज भी पुस्तकाकार अप्रकाशित है।

मेरा गांव बसंतीपुर बंगाली शरणार्थी उपनिवेश का सीमांत गांव है और आज भी हमारी ग्रामसभा में बंगाली और सिख प्रधान बारी बारी से बनते हैं।

जैसे बिना रक्त संबंध बसंतीपुर के सारे लोग हमारे परिजन आत्मीय अंतरंग हैं,वैसे ही मेरे गांव के बाद अर्जुनपुर अमरपुर रायपुर से लेकर रूद्रपुर से काशीपुर तक  के सिख भूगोल में अनेक लोग मेरे परिजन रहे हैं।

इनमें सरदार भगत सिंह से लेकर शहीदे आजम भगतसिंह के परिजन भी शामिल रहे हैं।

बल्ली सिंह चीमा से हमारी सीधी मुलाकात नहीं है लेकिन हमारी टीम इतनी एकात्म रही है पहाड़ों और तराई में कि वह बिना किसी मुलाकात के मेरे परिवार में ही शामिल है।

कैप्टेन नजीर सिंह,अर्जुनपुर के सरदार वचन सिंह,सरदार तोता सिंह,सरदार हरदर सिंह,अमरपुर के सरदार शेर सिंह हमारे परिजनों के मध्य अभिभावक जैसे रहे हैं।

भूमि विवाद में बंसतीपुर के दस परिवारों के साथ अमरपुर वालों की लंबी मुकदमेबाजी हुई तो थी लेकिन दोनों गांवों के बीच मामला अदालत में निपटारा बंगालियों के हक में होने का बावजूद शुरु से लेकर आजतक रिश्ता मधुर कहें तो कम ही कहना होगा।

मेरे पिता बाजपुर के सरदार दलजीत सिंह और एसएन शर्मा के करीबी रहे तो उनके मुख्य प्रतिद्वंद्वी थे गदरपुर इलाके के सरदार भगत सिंह,जिनको पिताजी ने पहले तो ऱूद्रपुर के तराई विकास सहकारी संघ के चुनाव में सीधे मुकाबले में हरा दिया और अगले ही साल उन्हींके समर्थन से निर्विरोध चुने गये।

दोनों में आखिर तक बनी नहीं और दोनों तराई के दिग्गज नेता थे।

पिताजी से मेरी मित्रता जितनी रही है,उत्तरआधुनिक फिल्मी पिताओं के लिए वह भी ईर्षा का विषय हो सकता है।जब मैं कक्षा दो में था,पारिवारीिक,सामाजिक से लेकर राष्ट्रीय मसलों पर वे हमेशा मुझसे विचार विनिमय करते थे,ज्ञान नहीं देते थे।अपना अनुभव मीठा कड़वा शेयर करते थे।

तो उनके सबसे बड़े प्रतिद्वंद्वी भगतसिंह जी भी मुझसे सलाह मशविरा करने से चूकते न थे।हमारे प्रति उनका स्नेह किसी हाल में उनके अपने परिजनों के हिस्से से कम न था।

यही नहीं,बंगाली लड़कियों ने शायद ही मेरी तरफ घूमकर कभी देखा हो।इसके उलट मेरी सिख सहपाठिनों का स्कूल से लेकर डीएसबी तक मेरे साथ बेहतरीन दोस्ताना रहा है।स्कूल में भी सिख लड़किया मेरे प्रति नरम हुआ करती थीं।लेकिन बंगाली सिख समीकरण का दायरा तोड़कर बाहर निकलने की हिम्मत मुझमें तब थी ही नहीं।

लेकिन वह दायरा भी हमारे परिवार में ही टूटा,जब सरदार तोता सिंह के पोते और मेरे सहपाठी सुरजीत के भतीजे के साथ मेरी तहेरी बहन शिखा ने भागकर शादी कर ली।

गांव बसंतीपुर वालों ने अब भी यह रिश्ता कबूल नहीं किया है।गांव के पंचायती फैसले सर माथे उस बहन से हमारे परिवार का कोई रिश्ता भी नहीं है।

यहां तक कि शिखा अपने पिता,मां,अपने चाचा,चाची के निधन पर भी पारिवारिक शोक में शामिल हो न सकी।

लेकिन मैं उसके विलाप में शामिल होकर भी गांववालों के साथ रहा हूं।

जैसे तमाम सिख गांवों के लोग बाबा गणेशा सिंह और चौधरी नेपाल सिंह के नेतृत्व में ढिमरी ब्लाक किसान विद्रोह के वक्त पिता के हीरावल दस्ते में शामिल  रहे हैं वैसे ही मेरे गांव के लोगों ने मेरी मां के नाम पर यह जो गांव बसाया,उसमें सारे लोग राणाघाट कूपर्स कैंप और बंगाल के दूसरे कैंपों से बंगाल में शरणार्थी आंदोलन में पिता के साथी रहे हैं,तो वे ओडीशा में भी एक ही कैंप में रहे औ रनैनीताल में बस जाने का उनका सामूहिक फैसला था अस्मिताओं के आर पार का।

वे मानसिकता में,रीति रिवाज,सामाजिक बंधन में अब भी पूर्वी बंगाल की उनीसवी सदी में हैं और गांव अब इक्कीसवी सदी में है।

इस विरोधाभास के खिलाफ कबी कभार भाई पद्दोलोचन तल्ख टिप्पणी भी कर देते हैं।लेकिन खुद लहूलुहान होते जाने के बावजूद साझा चूल्हा,अरक्त आत्मीयता और संघर्ष और आंदोलन के उस अटूट रिश्ते के लिहाज से गांव के फैसले के खिलाफ अबतक मैं कुछ भी नहीं कह पाया।शायद आगे भी यह असंभव होगा।

मैं जब बरेली में था तो आपरेशन ब्लू स्टार में रानी का वह पति पुलिस हिरासत में ले लिया गया और अब तक लौटा नहीं है।

जैसे कि अस्सी के दशक में सिख परिवारों में खूब हुआ है, रानी की शादी उसके गुमशुदा पति के भाई से कराकर उसके परिवार ने उसकी सुरक्षा बहाल की है।

यह निजी ब्यौरा इसलिए कि सिख राजनीति और राष्ट्र से उसके टकराव की वजह से हमारे भी लहूलुहान होने का इतिहास भूगोल रहा है और इस नाते इस बारे में मेरा भी बोलने का हक बनता है।

जब आपरेशन ब्लू स्टार हुआ तब हम रांची में अछपे प्रबात खबर के प्रकाशन का इंतजार करते हुए डमी निकाल रहे थे और आपरेशनटेबिल पर पड़े देश को लेकर राजेंद्र माथुर और माननीय प्रभाषजोशी की अद्भुत युगलबंदी देख रहे थे।

दोनों ने हैरतअंगेज ढंग से आपरेशन ब्लू स्चटार को निर्देशित किया था संपादक की कुर्सी से।हमने अस्सी के दशक में कमांडो की सुरक्षा में घिरे प्रभाष जी को भी देखा और उनके साथ संपादकीय में काम करते रहने के बावजूद रघुवीर सहाय के मुकाबले उन्हें पत्रकारिता का मसीहा मानने से इसीलिए उनके जीवनकाल में ही उनके संपादकत्व के मातहत ही बार बार इंकार करता रहा हूं।

अस्सी का दशक आरवेल के कथानक के भारतीय अध्याय का प्रारंभ है।

आपातकाल से देश का उतना बड़ा सर्वनाश नहीं हुआ,जितना आपरेशन ब्लू स्टार के दौरान जारी कर्फ्यू,स्वरण मंदिर में सेन्य कार्रवाई, उसके खिलाफ सेना में विद्रोह,इंदिरा गांधी की हत्या और सिखों के संहार से हुआ।

उसवक्त रोजनामचा दर्ज कराने की तकनीक हमारी थी नहीं।अखबार पूरी तरह तब भी केसरिया बन गये थे।

राष्ट्रपति  भवन में देश के प्रथम नागरिक निर्वाक थे तो देश के गृहमंत्री सिख होने के बावजूद सिखों का कत्लेआम देखने को अभिशप्त और तब संघ परिवार पूरी तरह 1971 के मोड में इंदिरा के साथ।

आपातकाल के खिलाफ मीसाबंदी रहे संघियों की यह सामरसाल्ट इतिहास में कायदे से दर्ज भी नहीं है और इतिहास का कोई तीसरा अंपायर भी होता नहीं है।

मैं अब बार बार यही सोचता हूं कि संघ परिवार ने दरअसल बांग्लादेश मुक्ति संग्राम का समर्थन किया था या नक्सल दमन का या भूमि सुधार की सदियों पुरानी बहुजन समाज की मांग से उपजे कृषि विद्रोह के महाविस्फोट में जमींदारों,भूस्वामियों और राजे रजवाड़ों के हितों के लिए जनविद्रोह के विरुद्ध शुरु मौलिक सलवा जुडुम का समर्थन किया उन्होंने।

शक की गुंजाइश बहुत है,खास कर जल जंगल जमीन आजीविका  की लड़ाई में सत्तावर्गकी राजनीति के दमनकारी राष्ट्र में तब्दील हो जाने के बाद उनके विरुद्ध संघी सलवा जुड़ुम और पंजाब में कृषि संकट को टालने के लिए जैल सिंह बूटा सिंह बनाम संत भिंडरावाला,लोंगोवाल और तलवंडी की आत्मघाती राजनीति की परिणति बतौर भारत के सर्वश्रेष्ठ किसानों के खिलाफ राष्ट्र की सैन्य कार्रवाई और आदिवासियों की अविराम बेदखली के लिए आदिवासी भूगोल के खिलाफ राष्ट्र के निरंतर युद्ध और सलवा जुड़ुम के प्रेक्षापट भले ही अलग अलग हैं,यह समूचा कथानक लेकिन या तो जार्ज आरवेल का 1984 है या फिर फिल्म अवतार का वह एकाधिकारवादी वैज्ञानिक कारपोरेट जायनी आक्रमण।

पंजाब में और बाकी देश दुनिया में सिख धर्म और राजनीति फिर उसी अस्सी के मोड़ पर है।अकाल तख्त और शिरमणि गुरुद्वारा प्रबंधक कमिटी के माध्यमे पंजाब और बाकी देश की सत्ता की राजनीति जो सिखों के कत्लेआम में धर्मनिरपेक्ष धर्मोन्मादी राजनीतिक पक्षों की युगलबंदी हिंदुत्व के ध्रूवीकरण के जरिये मुक्तबाजारी अर्थव्यवस्था की बुनियादी आचरणविधि प्राविधि बन गयी,वही राजनीति फिर सिखों और सिखी की तबाही का सबब बनती नजर आ रही है।

अभीतक भारत विभाजन की त्रासदी का सिलसिला जारी है हालांकि सिख और पंजाबी साझा चूल्हा उस त्रासदी के दायरे से बाहर हैं और पूर्वी बंगाल के स्थापित जनसमुदाय अब उस रक्तपात की यादों को भुला चुका है।

पंजाब और बंगाल विभाजनपीड़ितों की त्रासदी के मुखातिब होने से इकार कर रहा है विभाजन के तुंरत बाद से।

तो यह भी सच है कि सत्ता की राजनीति में बदलकर अकाली राजनीति अब केसरिया है और कांग्रेस विरोध की एक चक्षु राजनीति की वजह से वर्णवर्चस्वी नस्ली सिख विरोधी राजनीति की नब्ज पकड़ने में नाकाम वह फिर सिखों को ही नहीं,बाकी देश को भी फिर वहीं अस्सी के दशक  की दहलीज पर खड़ा कर रही है।

सिखों के नरसंहार,मध्य भारत में और बाकी देश के आदिवासी इलाकों में संवैधानिक प्रावधानों,सुप्रीम कोर्ट के हुक्मनामा नागरिक मानवाधिकार व लोकतंत्र व कानून के राज के विरुद्ध  आदिवासियों के विरुद्ध सलवा जुड़ुम,भोपाल गैस त्रासदी से शुरु स्मार्ट शहरी औद्योगीककरण,बाबरी विध्वंस आंदोलन और मंडस कमंडल मुक्तबाजारी 1984 के अलग अलग एनीमल फार्म ही हैं,जिन्हें हम अस्मिताओं के तिलिस्म में कैद मुक्तबाजारी हैलोजिन लाइट और कार्निवाल मुखौटों की वजह से एह उपन्यास  के पाठ बतौर देख नहीं पा रहे हैं।

जबकि रामजन्म से पहले ही रामयण लिखा गया था,यह भी प्रचंड लोक आस्था है।

इसी परिप्रेक्ष्य में असम और पूर्वोत्तर में अस्सी के रक्ताक्त दशक और उल्फा समय को देखें तो हैरत अंगेज तरीके से आर्थिक सुधारों के दूसरे चरण के धर्मांध केसरिया ध्रूवीकृत जायनी समय में जैसे संकड ज्वालामुखी के मुहाने पर खड़े पंजाब पर गहराते संकट के बादल से मानसून समय का भारत अनजान है वैसे ही असम और त्रिपुरा समेत पूर्वोत्तर में नरसंहार संस्कृति के आवाहन बतौर घुसपैठियों के खिलाफ जिहाद के आवाहन को भी जनादेश की धूम में सिरे से नजरअंजदाज कर दिया गया है।हारे हुए असम के मुख्यमंत्री तरुण गोगोई,बंगाल की परिवर्तनकारी मुख्यमंत्री ममता बनर्जी और अच्छे समय़ के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी समेत पूरी राजनीति शरणारथी कार्ड खेलकर विभाजन समय की पुनरावृत्ति दोहराकर अस्सी के दशक की वापसी पर आमादा है।

अब फिर अल्फा ने शरणार्थियों के हक में हिंदुत्व की राजनीति को खारिज करते हुए असम से हर घुसपैठिये को खदेड़ने का अल्टीमेटम जारी करके राष्ट्र के विरुद्ध युद्ध घोषणा कर दी है।यह कोई बंदरघुड़की है,ऐसा भी नहीं है,ऐसा अल्फा इतिहास भी है।

इस वक्त मैं यूपी में नहीं हूं।आपरेशन ब्लू स्टार के वक्त में रांची में था।इंदिरा ह्ता के वक्त मैं मेरठ में था तो मंडल कमंडल ध्रूवीकरण मध्ये खाडी़ युद्ध के समय बरेली में।

अयोध्या से यरूशलम तक व्याप्त वह जायनी समयफिर लौटकर आ रहा है कयामत बनकर,दबे पांव हत्यारों की यह बढ़त हमें नजर नहीं आती और कानों में संगीत ठूंसा है विकास कामसूत्र का।

इजरायली हमले में गाजापट्टी और भारत में दंगे एकात्म हैं।

मैं यूपी के दंगापीड़ित इलाकों से हजार मील दूरी पर हूं लेकिन आगजनी का उन्माद को अपनी आंखों के समाने घटित होते देख रहा हूं।

असहाय शरणार्थी स्त्रियों और बच्चों के विलाप मेरे कान बहरा रहे हैं और कलकाता की मानसूनी हवाओं में भी मुझे इंसानी हड्डियों की चिटखने की आवाजे सुनायी पड़ रही हैं।

मीडिया में व्यापे तेज डियड्रेंट और कामुक अमेरिकी वियाग्रा और जापानी तेल के मध्य कंडोमी विज्ञापनों और रियल्टी शो में मुझे खून की नदियां बहती नजर आ रही है।

सारा देश बुरी से बुरी खबरों के लिए अभ्यस्त है।

बुरी से बुरी खबरों के लिए अच्छे, बेहद अच्छे दिन हैं।

यह प्रायोजित टीआरपी समय है मूसलाधार।

इसीलिए अखबारी खबरों की कतरने जोड़ने के बजाय सीधे अंतःस्थल से लिख रहा हूं आज का रोजनामचा।

जो पढ़ लें,उनको भी सत श्री अकाल और जो न पढ़ें,उनको भी सत श्री अकाल।

आखिरकार मेरा लिखा पढ़कर मोक्ष के रास्ते तो खुलने वाले नहीं है और न देहमुक्ति संभव है।

हालात किस तेजी से बिगड़ रहे हैं,मुझे अक्सरहां मिलते रहे मेल में से एक यहां जरुर पढ़ लें और समझ लें कि क्या भयानक मंजर है।

Sent: Sunday, July 27, 2014 7:09:03 PM
Subject: Re: [Akhouti vidvan] ਫੂਲਕਾ ,  ਕੰਵਰ ਸੰਧੂ , ਜੋਗਿੰਦਰ ਸਿੰਘ ਸਪੋਕਸਮੈਨ ਸਮੇਤ...  "Dr Awatar Singh Sekhon (Machaki) writes to Sardar Gurbinder Singh on the Cancellation of Gathering of the 26th July, 2014"

Sardar Gurbinder Singh ji,

Waheguru ji ka Khalsa,
Waheguru ji ki Fateh!

WHO CANCELLED THE MEETING CALLED BY SIKH NATION'S, "robbed" PUNJAB, TRAITOR, CHIEF BAND LEADER (JATHEDAR) OR HIS APPOINTEE GADHAAR-e-AZAM, HANERA SINH BADAL?

Gurbachan Sinh, a member of the Rashtriya Sikh Sangat (the RSS of Sikhs), created by Hanera Sinh Badal, a "joe-boy" of the Brahmins-Hindus-Turbaned Brahmins' fundamentalists and militants, like a criminal AB Vajpayee, the then Wazir-e-Azam of thealleged Indian demo[n]cracy, his other bootlickers like LK Advani, Shushma Swaraj, Toagadia, Arun Jaitly (a defeated BJP candidate from Amritsar recently in the cabinet of the killer of Muslims of Gujarat State, Narendra MODI)) and likewiseBrahmins-Hindus, etc., has cancelled the meeting of 27th July, 2014, or directed by Hanera Sinh Badal? It leaves no doubt that the cancellation of this meeting has just been a face saving for Gurbanchan Sinh's master, Hanera Sinh Badal. The appointees of Hanera Sinh Badal to The Akal Takht Sahib's band leaders (jathedars), undoubtedly, have demonized The Darbar Sahib Complex, including all Gurdwaras under the control of the Shiromani Gurdwara Prabhandhak Committee (SGPC). The SGPC which a majority of Sikhs of the Guru Khalsa Panth call in the 'mini parliament' of the Sikhs, although theydo not know the 'History of Sikhs, their religious and historical places, from the Sikh point of view'. These band leaders do not know their own history, but they are in the 'front line' to disobey Guru Granth Sahib, Sikh Rahit Maryada alias the Sikh Code of Conduct when an ordinary person comes to pay his respect (?) to The Darbar Sahib, and these all band leaders will stand up, disrespect the Sikh Traditions, Guru Granth Sahib and give this ordinary person and his wife, who worships 'Shiv ling' - the Hindus' God Shiva's sex organ ( see PTC of last week, as monitored in North America at the Mountain Standard Time). What can you expect and what can the Guru Khalsa Panth can expect from those people who are all out to demonize the Guru Khalsa Panth, Sardar Gurbinder Singh ji?

Hanera Sinh Badal, a traitor of the Guru Khalsa Panth and now seems to be acting like Vinobha Bhave, according to his photographs appeared at thewww.facebook.com/sikhgroups, is another stunt of Hanera Sinh to make the fool of the Sikhs of the "robbed" Punjab, Haryana and the Sikh Diaspora. Hanera Sinh's presentstunt may not work out as the 'Dham Yudh Morcha, Panth Khatre Vich Hai, etc.' , because he is a chapliachutt/bootlickers of the Brahmins-Hindus, a mukatdhari, bearing the Hindus-Brahmins' paint on his forehead. He did not do it once or twice but several times to please these Brahmins-Hindus, who had been "subservient" to the Afghans, Mughals, Sikhs, British, Portuguese, etc., for 3500 years before the 15th day of August, 1947. Watch out the Sikhs, this Hanera Sinh and his clan have forgotten the Sikh History and is asking you to forget your enriched history and follow this Turbaned Brahmin. His tactics may not work out, because he has lost the faith of the people who had put him in the office the Chief administrator of the "robbed" Punjab. How long will you, Hanera Sinh Badal and fellows, keep on playing with the future of the citizens of the "robbed" PUNJAB, the Sikhs' Holy and Historic Homeland PUNJAB? To say the least, the citizens, if they are for the interest of the Motheland PUNJAB, Hanera Sinh Badal, his joe boys and joe girls, are nothing but the fired guns. So is Gurbanchan Sinh and his band leaders (jathedars) wandering in the premises of The Darbar Sahib Complex, Amritsar ji.

What has happened in Haryana, had to happen and will happen in every state of the alleged Indian demo[n]cracy; because the Sikhs there have every right to control and look after the Gurdwaras, including the "Coffer" of the Haryana Gurdwara Prabhandhak Committee. Just watch out, Hanera Sinh Badal, it is not the Waheguru jialias the Almighty's ever given right for you to "control" the Sikhs' Darbar Sahib Complex and the Supreme Seat of Sikh Polity. Gurbachan Sinh must read the writings written on the wall. It is the "Guru-de-Sikh" who will be controlling and looking after their Gurdwaras and their coffers (Gohlak), too.

Because of the above, Hanera Sinh Badal and Company had no option but to direct Gurbachan Sinh to "cancel the meeting of the 26th July, 2014; for the interest of the Guru Khalsa Panth. Since when you Hanera Sinh and company started to care for the "robbed" PUNJAB alias the Sikh Nation? Did you and other turbaned Brahmins care of the "robbed" Sikh Nation, PUNJAB, when the alleged Indian demo[n]cracy waged an "Undeclared" war on the Sikh Nation, "robbed" PUNJAB in the form of "Operation Bluestar" of June, 1984? Why did you watch the entire act of "Operation Bluestar" by sitting in your farm house? Why did you send your 'kaka/Bachu' Sukhbir out of the "robbed" Punjab, during "Operation Bluestar" of June, 1984?

Why have you kept Bhai Balwant Singh Rajoana, on the death row. in a jail in Patiala? Why have you been keeping all 'innocent' Sikh infants, Bibis, male folks and paroled people in the jails of the "robbed" Punjab and outside Punjab, Hanera Sinh? You owe an answer to all these questions to the Guru Khalsa Panth and before the Guru Granth Sahib. Let the time come, your Brahmins-Hindus of the BJP, RSS, Bajrang Dal friends, including the killer, murderer and the organizer of the "Genocide of Muslims of Gujarat, 2002-2003", the then Chief Minister of Gujarat, will kick at your back.

Best wishes.

Your brother,

Awatar Singh Sekhon (Machaki)
*****



From: "Gurbinder Singh" <notification+oodgffo1@facebookmail.com>
To: "Akhouti vidvan" <Akhoutividvan@groups.facebook.com>
Sent: Sunday, July 27, 2014 5:18:27 AM
Subject: [Akhouti vidvan] ਫੂਲਕਾ ,  ਕੰਵਰ ਸੰਧੂ , ਜੋਗਿੰਦਰ ਸਿੰਘ ਸਪੋਕਸਮੈਨ ਸਮੇਤ...



Gurbinder Singh

5:18am Jul 27
ਫੂਲਕਾ , ਕੰਵਰ ਸੰਧੂ , ਜੋਗਿੰਦਰ ਸਿੰਘ ਸਪੋਕਸਮੈਨ ਸਮੇਤ ਭਾਰਤ ਸਰਕਾਰ ਨਾਲ ਮਿਲ ਚਲਣ ਵਾਲੀਆਂ ਸਾਰੀਆਂ ਧਿਰਾਂ ਹਰਿਆਣੇ ਲਈ ਵਖਰੀ ਕਮੇਟੀ ਦੇ ਮਸਲੇ ਨੂੰ ਕਨੂੰਨੀ ਮਸਲਾ ਕਹਿ ਕੇ ਭਾਰਤੀ ਅਦਾਲਤਾਂ ਵਿੱੱਚ ਸਿੱੱਖਾਂ ਨੂੰ ਜਾਣ ਦੀ ਸਲਾਹ ਦੇ ਰਹੇ ਨੇ ਜਿਥੋਂ ਕਦੇ ਵੀ ਸਿੱੱਖਾਂ ਨੂੰ ਇੰਨਸਾਫ ਨਹੀਂ ਮਿਲਿਆ । ਕੀ ਅਕਾਲ ਤਖਤ ਸਾਹਿਬ ਦੀ ਛਤਰ ਛਾਇਆ ਹੇਠ ਸਾਂਝੀ ਪੰਥਕ ਕਮੇਟੀ ਬਣਾ ਕਿ ਫੈਸਲਾ ਨਹੀਂ ਹੋ ਸਕਦਾ ? ਸਿੱੱਖ ਆਪਣੇ ਧਾਰਮਿਕ ਮਸਲੇ ਹਿੰਦੂ ਜੱੱਜ ਕੋਲੋਂ ਕਰਵਾਉਣਗੇ ?

Nineteen Eighty-Four

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