Wednesday, 07 November 2012 11:34
भारत डोगरा
जनसत्ता 7 नवंबर, 2012: यूपीए सरकार ने जिस तरह खुदरा कारोबार में विदेशी निवेश को आगे बढ़ाने की जिद पकड़ी है उसकी ठीक ही व्यापक आलोचना हुई है। कोई ठोस प्रमाण दिए बिना ही सरकार ने कह दिया कि इससे बड़े पैमाने पर रोजगार सृजन होगा, जबकि हकीकत इसके विपरीत है। कुछ समय के लिए खुदरा में बहुराष्टÑीय कंपनियों का प्रवेश जरूर चकाचौंध उत्पन्न कर सकता है, पर शीघ्र ही यह स्पष्ट हो जाएगा कि इससे जितने रोजगार उत्पन्न होंगे उससे कहीं अधिक छिनेंगे। इसकी वजह यह है कि बड़ी बहुराष्टÑीय कंपनियों की अपेक्षा छोटे स्थानीय उद्यम अधिक श्रम-सघन तरीकों से कार्य करते हैं और रोजगार सृजन की उनकी क्षमता कहीं अधिक है।
भ्रष्टाचार के बढ़ते आरोपों से घिरी सरकार ने इस ओर भी ध्यान नहीं दिया कि खुदरा कारोबार की जिन बहुराष्टÑीय कंपनियों के लिए वह स्वागत-द्वार खोल रही है, उनमें से कुछ कंपनियों पर भ्रष्टाचार को बढ़ावा देने के और स्वयं भ्रष्टाचार में लिप्त होने के गंभीर आरोप लगते रहे हैं। जिन विकसित देशों में ये कंपनियां केंद्रित हैं वहां भी उनके कर्मचारियों, उपभोक्ताओं और किसानों को उनसे ढेर सारी शिकायतें हैं। भूमंडलीकरण से गहराई से जुड़ी ये कंपनियां विश्व-बाजार के उत्पादों को बढ़ा कर देश के किसानों के बाजारों को बढ़ाएंगी नहीं बल्कि दीर्घकालीन दृष्टि से उन्हें कम ही करेंगी।
इन तथ्यों और पक्ष-विपक्ष दोनों ओर के राजनीतिक दलों के विरोध को पूरी तरह नजरअंदाज कर हठधर्मिता से खुदरा क्षेत्र में विदेशी निवेश जैसे तथाकथित आर्थिक सुधारों के निर्णयों को तेजी से आगे ले जाना कांग्रेस को महंगा पड़ेगा। कांग्रेस नेतृत्व अगर दूसरों के विरोध की चिंता न करे तो भी उसे कम से कम इस ओर तो अपने हित में ही ध्यान देना पड़ेगा कि उसके अपने निष्ठावान कार्यकर्ता और गहरे मूल्यों की परंपरा वाले कांग्रेसी भी घोषित आर्थिक सुधारों की सच्चाई को समझ कर निराश हो रहे हैं। आज भी कांग्रेस में गांधी-नेहरू परंपरा के ऐसे अनेक सदस्य बचे हैं (जिनमें काफी बुजुर्ग और अनुभवी व्यक्ति ज्यादा हैं) जिनकी ईमानदारी और निष्ठा की जनता इज्जत करती है। अगर कांग्रेस को देश के एक बड़े क्षेत्र में नवजीवन मिलना है तो इन गहरी निष्ठा वाले वरिष्ठ सदस्यों को समुचित महत्त्व और सम्मान देकर आगे लाना चाहिए ताकि ऐसे ही निष्ठावान सदस्यों की नई पीढ़ी तैयार हो सके।
पर ऐसे अधिकतर निष्ठावान सदस्य आज कांग्रेस में अपने को हाशिए पर धकेला गया महसूस कर रहे हैं। इतना ही नहीं, उन्हें थोड़ा कुरेदिए तो पता चलेगा कि वे स्वयं की उपेक्षा से ही नहीं बल्कि अपनी पार्टी के नेतृत्व के तथाकथित आर्थिक सुधारों से भी आहत और निराश हैं। कारण, दिल की गहराई से वे अच्छी तरह समझ रहे हैं कि यह गांधी की विरासत के विरुद्घ है। एक ओर खादी और स्वदेशी की विचारधारा की धज्जियां उड़ाई जा रही हैं तो दूसरी ओर ऐसी बहुराष्टÑीय कंपनियों को निरंतर बढ़ती भूमिका दी जा रही है जिनका प्रसार गांधीजी के सोच के ठीक विपरीत है।
यही नहीं, बाजार-केंद्रित आर्थिक सुधार के विवादास्पद फैसलों को आगे बढ़ाने के फेर में केंद्र सरकार ने लोकतांत्रिक मूल्यों और प्रक्रियाओं को भी दरकिनार कर दिया है। संसदीय बहुमत खुदरा क्षेत्र में एफडीआइ के खिलाफ है, मगर सरकार को इसकी कोई परवाह नहीं है। संसद में पिछले साल तब के वित्तमंत्री प्रणब मुखर्जी ने आश्वासन दिया था कि सभी दलों से राय-मशविरे के बाद ही इस मामले में कोई निर्णय किया जाएगा। मगर संसद में दिए इस आश्वासन की लाज भी केंद्र सरकार ने नहीं रखी। देश के करोड़ों खुदरा कारोबारी सरकार के फैसले का विरोध कर रहे हैं, मगर उनकी कोई बात सुनने को सरकार तैयार नहीं है। दूसरी तरफ वह कॉरपोरेट संस्थाओं और रेटिंग एजेंसियों की हिदायतों पर तुरंत विचार करने को तैयार हो जाती है।
यूपीए सरकार ने ऐसी नीतियों को जबर्दस्ती 'सुधार' का नाम दे दिया है जो वास्तव में भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए गंभीर समस्याएं उत्पन्न कर सकती हैं, विदेशी लूट की संभावना बढ़ाती हैं और विश्व आर्थिक संकट से अधिक प्रभावित होने की दिशा में धकेलती हैं। इसके स्थान पर विभिन्न स्तरों पर आत्म-निर्भरता, समता और रोजगार बढ़ाने वाली ऐसी नीतियां चाहिए जो मूलत: गांधीजी के आर्थिक सोच के अनुरूप हों।
अगर अभी तक इन जन-विरोधी नीतियों के बावजूद यूपीए सरकार बची रही है तो इसका एक कारण यह रहा है प्रमुख विपक्षी दल भारतीय जनता पार्टी भी खुदरा क्षेत्र में विदेशी प्रवेश का विरोध करने के बावजूद अधिकतर अन्य मामलों में तथाकथित आर्थिक सुधारों से मिलती-जुलती नीतियों की ही पैरवी करती रही है। भाजपा के नेतृत्व वाली राजग सरकार भी खोखले आर्थिक सुधारों की नीतियों पर चलती रही थी। यह भी निश्चित है कि चाहे किसी की सरकार हो, अगर वह बहुराष्टÑीय कंपनियों के निर्बाध प्रसार की नीतियों को अपनाएगी तो बड़े घोटालों की आशंका भी बढ़ेगी।
इस संदर्भ में यह समझ आता है कि राजग और यूपीए, दोनों सरकारों के दौर में आमलोगों और विशेषकर गरीब लोगों का आर्थिक संकट, महंगाई, घोटाले और अर्थव्यवस्था की लूट, यह सब क्यों बढ़ते रहे हैं। पर यूपीए सरकार के हाल के फैसले तो यही बताते हैं कि उसने इन गलतियों से कोई सबक नहीं सीखा है।
दूसरी ओर, भाजपा के शासनकाल में छत्तीसगढ़ प्राकृतिक संसाधनों की जैसी लूट और घोटालों के दौर से गुजर रहा है वैसा पहले कभी नहीं हुआ था। विडंबना यह है कि इस सब को भाजपा के केंद्रीय नेतृत्व का भरपूर समर्थन मिला हुआ है। एक तरफ केंद्र में भारतीय जनता पार्टी भ्रष्टाचार के मुद््दे पर यूपीए सरकार को घेरने में जुटी रहती है, मगर वह दूसरी तरफ अपनी राज्य सरकारों की करतूतों पर चुप्पी साधे रहती है। क्या इस तरह के दोहरे रवैए से भ्रष्टाचार रोका जा सकता है? भाजपा भ्रष्टाचार के खिलाफ संघर्ष कर रही है या कांग्रेस के साथ नूरा-कुश्ती? केंद्र सरकार और अनेक राज्य सरकारों की बढ़ती जन-विरोधी नीतियों के बीच जमीन और जनता से जुड़े आंदोलनों की सार्थकता बढ़ रही है। जहां एक ओर केंद्र सरकार बढ़-चढ़ कर जन-विरोधी निर्णय ले रही है, वहीं दूसरी ओर महाराष्टÑ और छत्तीसगढ़ जैसे कुछ राज्यों में भी सरकारों ने दिखा दिया है कि भ्रष्टाचार और संसाधनों की लूट में वे नए रिकार्ड कायम करने की ओर अग्रसर हैं।
इस चिंताजनक माहौल में जिस तरह कुछ जन-आंदोलनों ने कमजोर वर्ग के मुद््दों से जुड़े अहिंसक जमीनी संघर्ष को जीवित रखने का व्यापक प्रयास किया है, वह जन-संघर्षों के लिए ही नहीं, हमारे लोकतंत्र के लिए भी उम्मीद की एक किरण है। पिछले महीने पीवी राजगोपाल के नेतृत्व में निकली विशाल जन-सत्याग्रह पदयात्रा ने प्रेरणा और उम्मीद का माहौल बनाया। इस सत्याग्रह को मिले व्यापक समर्थन के कारण सरकार को कुछ हद तक उनकी मांगों को स्वीकार करना पड़ा। पर क्या वह अपने आश्वासन पर गंभीरता से अमल करेगी? यह सवाल इसलिए उठता है क्योंकि राजगोपाल की अगुआई में हुए पिछले सत्याग्रह के बाद उनकी मांगों पर गौर करने के लिए खुद प्रधानमंत्री की अध्यक्षता में एक समिति गठित हुई थी, पर उसकी एक भी बैठक नहीं हुई।
फिर भी किसी महत्त्वपूर्ण पहल की उम्मीद इस कारण बनी हुई है कि अपनी अनेक गंभीर विसंगतियों के बीच यूपीए सरकार कभी-कभी जनपक्षीय कार्यों की झलक भी दिखा जाती है। आदिवासी मामलों के केंद्रीय मंत्री किशोर चंद्र देव ने जिस तरह खनन में आदिवासी हितों की रक्षा के लिए आंध्र प्रदेश में पहल की और अनुसूचित जनजातीय क्षेत्रों में आदिवासी हितों की रक्षा के लिए संवैधानिक प्रावधानों को क्रियान्वित करने का आदेश दिया, वह एक बहुत अच्छी पहल है। अब देखना है कि निहित स्वार्थों से ऊपर उठ कर यह संदेश कहां तक जाता है। रेहड़ी-पटरी वालों के हितों की रक्षा के एक कानून का मसविदा भी यूपीए सरकार ने तैयार किया है। मछुआरों की आजीविका की रक्षा के लिए ठोस कदम उठाने का आश्वासन स्वयं प्रधानमंत्री ने सोलह अक्तूबर को दिया।
ग्यारह अक्टूबर को जन-सत्याग्रह से हुए समझौते में केंद्र सरकार ने भूमि-सुधारों को बेहतर ढंग से आगे ले जाने की बात कई स्तरों पर कही और सत्रह अक्तूबर को इसके लिए समिति का गठन भी हो गया। इस समिति ने नब्बे दिनों के भीतर राष्टÑीय भूमि सुधार नीति का पहला मसविदा तैयार करने की जिम्मेदारी संभाल ली है। इतने ही समय में आवास भूमि और कृषिभूमि वितरण के कानूनों का मसौदा भी तैयार किया जाएगा।
जन-सत्याग्रह की तरह जो अन्य जन-आंदोलन भी गहरी निष्ठा से निर्धन वर्ग और जन-हित के मुद््दे उठा रहे हैं, हाल के समय में उनकी प्रासंगिकता बढ़ी है। आम लोगों के बढ़ते आर्थिक संकट, विषमता, प्राकृतिक संसाधनों की लूट, महंगाई के मुद््दों को और निष्ठा से, निरंतरता और सूझबूझ से उठाने की जरूरत बढ़ रही है। इन दिनों भ्रष्टाचार-विरोधी आंदोलनों की सर्वाधिक चर्चा है। इन्होंने उपयोगी कार्य तो किया है पर केवल एक आरोप से दूसरे आरोप की ओर बढ़ते रहने से भी कोई टिकाऊ उपलब्धि नहीं हो पाएगी। जरूरत इस बात की है कि साथ-साथ समाधान के प्रयास भी हों।
हाल ही में सिंचाई और बांधों में भ्रष्टाचार के मामले का पर्दाफाश हुआ। यह पर्दाफाश मुख्य रूप से महाराष्टÑ के संदर्भ में हुआ, पर देश के अनेक अन्य क्षेत्रों में भी बांधों और सिंचाई परियोजनाओं में बहुत भ्रष्टाचार हो रहा है। महाराष्टÑ में कई जन-संगठनों ने बहुत मेहनत से इस बारे में विस्तृत तथ्य एकत्र किए हैं जो एक प्रशंसनीय प्रयास है, हालांकि व्यापक स्तर पर इसके कुछ पक्ष ही चर्चित हुए हैं।
अब आगे जरूरत इस बात की है कि इस जानकारी का उपयोग केवल हंगामा करने के लिए या किसी नेता को कठघरे में खड़ा करने के लिए न किया जाए, बल्कि इन परियोजनाओं और भ्रष्टाचार से प्रभावित किसानों और अन्य गांववासियों की स्थिति सुधारने के लिए किया जाए। इस तरह के सवाल हमें पूछने होंगे कि चाहे अनुचित कार्य हुआ हो, पर क्या अभी इसे सुधारा जा सकता है ताकि गलतियों के बावजूद जितना लाभ किसानों को मिलना चाहिए उतना मिल सके।
इस तरह आंदोलनों को अनुचित नीतियों और भ्रष्टाचार का पर्दाफाश करने के साथ-साथ लोगों से जुड़ कर उनकी समस्याओं का समाधान करते हुए आगे बढ़ना चाहिए।
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