---------- Forwarded message ----------
From: rajiv yadav <rajeev.pucl@gmail.com>
Date: 2012/9/26
Subject: tribute to poof. Banwarilal Sharma
To: rajeev yadav <media.rajeev@gmail.com>
प्रसिद्ध समाजवादी गांधीवादी नेता बनवारीलाल शर्मा जी का आज चंडीगढ़ में देहान्त हो गया। वे इस परंपरा के उन आखिरी स्तम्भों में थे, जिन्होंने देश को साम्राज्यवाद और भूमण्उलीकरण के चंगुल से बचाने में अपनी पूरी जिन्दगी लगा दी। इलाहाबाद में तो वे एक व्यक्ति से ज्यादा संस्थान के रुप में उपस्थित थे, जिनके होने का मतलब भूमण्डलीकरण विरोधी गोष्ठियों, शिविरों, फिल्म समारोहों और मीडिया वर्कशाप का लगातार होते रहना तो था ही, उनके होने का पर्याय यह भी था कि आप बिना रसायनिक खादों से उपजे अनाज और तेल भी उनके आजादी बचाओ आंदोलन के कार्यालय से प्राप्त कर सकते थे।
शर्मा जी से दो साल पहले महाराष्ट्र के हिंदी लोकमत समाचार के दिपावली विशेषांक 'हिंसा प्रति हिंसा' पर लिया गया साक्षात्कार।
वर्तमान हिंसा यूरोपीय विश्व दृष्टि की देन है
डा0 बनवारीलाल शर्मा
प्रसिद्ध गांधीवादी/राष्ट्ीय संयोजक आाजादी बचाओ आंदोलन
स्वराज विद्यापीठ 21 बी, मोतीलाल नेहरु रोड, इलाहाबाद
वर्तमान हिंसा व्यवस्था जनित हिंसा है। आप इसे 'स्ट्क्चरल वाइलेंस' कह सकते हैं। मौजूदा दौर के इस हिंसा को समझने के लिए थोड़ा पीछे जाना जरुरी है।
पिछले पांच सौ वर्षों से एक नए प्रकार की विश्वव्यवस्था काम कर रही है। जिसे यूरोप केंद्रित या अमरीका केंद्रित विश्वव्यवस्था कह सकते हैं। दरअसल पांच सौ वर्ष से पहले दुनिया में लुटेरे या महत्वकांक्षी राजा धन लूटने के लालच में निकल पड़ते थे। लेकिन इस दौरान हुई हिंसा कुछ समय बाद खत्म हो जाती थी। दो यात्राओं के बाद यह प्रवृत्ति बदली। पहली थी कोलम्बस की अमरीका खोज की यात्रा और दूसरी थी वास्कोडिगामा की यात्रा। इन यात्राओं के बाद शेष दुनिया के बारे में यूरोप की दृष्टि यह बनी कि यूरोप के बाहर बर्बर और असभ्य लोग रहते हैं, जहां अकूत धन-संपदा पड़ी हुयी है। इसलिए इन यात्राओं के बाद यूरोप के लोग अपने राजाओं से चार्टर लेकर अमरीका, अफ्रीका और एशिया की लूट के लिए निकल पड़े। इस आक्रामक लूट को उन्होंने 'सिविलाइजेशन मिशन' कहा। इस मिशन से जो अकूत सम्पत्ती और संसाधन बटोरे गए उसी के आधार पर यूरोप में पूंजीवाद का विकास हुआ और औद्योगिक क्रांति हुयी। इस तरह यूराप ने विकट हिंसा का सहारा लेकर शेष दुनिया से अपने औद्योगीकरण के लिए संसाधन बटोरे। यूरोप के देशों ने अमरीका-अफ्रीका-एशिया में अपने उपनिवेश बनाए और इस पूरी प्रक्रिया में भारी हिंसा की, जो
फौजी के साथ आर्थिक भी थी। जिसके चलते करोड़ो किसान और कारीगर अकालों में मर गए। 1942-43 का अकाल इसी की आखिरी कड़ी थी, जिसमें तीस-चालीस लाख लोगों की मृत्यु हुयी।
दूसरे विश्व युद्ध के बाद यूरोप की ताकतें कमजोर हुयीं और उनकी जगह अमेरिका ने ले ली। सोवियत संघ के उदय से शीत यु़द्ध की नींव पड़ गयी और 1990 तक यह शीत युद्ध चला जिसने नाटो, वारसाॅ पैक्ट, सेंटो और सीटो जैसे अनेक सैनिक गठबंधन खड़े करके दुनिया में विधिवत हिंसा का वातावरण बनाया। यानी हम कह सकते हैं कि उपनिवेशवाद के उदय के साथ पूंजीवाद को फैलाने के लिए पूरी दुनिया में हिंसा और प्रतिहिंसा का दौर चला जो अब भी जारी है।
1989 में बर्लिन की दीवार के ढहने और 1990 में सोवियत संघ के विघटन के बाद आशा थी की अब शीत युद्ध समाप्त हो जाएगा। लेकिन दुनिया के शोषण का नया तरीका अमरीका ने भूमंडलीकरण, निजीकरण की नीतियों में ढूंढ़ लिया जिसे वह बहुत आक्रामक तरीके से चला रहा है। आज इन नीतियों के तहत दुनिया भर में विश्व बैंक, अंर्तराष्ट्ीय व्यापार संगठन और अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष को आगे रखकर अमीरीका, यूरोपियन यूनियन और जापान जिस कार्पाेरेट व्यवस्था को आक्रामक तरीके से लाद रहे हैं उससे पूरी दुनिया खास तौर से तीसरी दुनिया के देशों में हिंसा का वातावरण तेजी से पनप रहा है। कारण ये कि इन नीतियों के तहत तीसरी दुनिया के देशों के शासक जनता से उनके लघु धंधे और संसाधन छीनकर अपना आधिपत्य जमा रहे हैं। दूसरे शब्दों में पुराने औपनिवेशिक नीतियों के तहत ही देश के अंदर ही केंद्रीकरण के बहाने जगह-जगह उपनिवेश बनाए जा रहे हैं। अगर पिछले बीस सालों यानी नब्बे के बाद से शुरु हुयी नयी आर्थिक नीतियों को देखें तो सरकारों ने लोकतंत्र के सबसे प्रमुख तत्व विकेद्रीकरण को हर स्तर पर नीतिगत तरीके से खत्म किया है। जिसके चलते लोगों में बेकारी-भुखमरी तो बढ़ी ही है, राज्य से अलगाव और परिणाम स्वरुप विद्रोह की भावना भी बढ़ी है। आज नक्सलवाद, पूर्वोत्तर का मसला या फिर कश्मीर का अलगाववाद राज्य से मनोवैज्ञानिक तौर पर जनता के अलगाव का ही तो नतीजा है। जिसे हिंसा से दबाने की राज्य की कोशिश जनता को भी हिंसक बना रही है।
जहां तक राष्ट् राज्य को हिंसा की जरुरत का सवाल है, तो मुझे लगता है कि राज्य को हिंसा का अधिकार तो है, लेकिन कानून के दायरे में रह कर ही। क्योंकि लोकतंत्र राज्य को अमन-चैन बनाए रखने और सम्पत्ती की रक्षा की जिम्मेदारी उसे सौंपता है और उसे इसके लिए कानून सम्मत हिंसा करने का भी अधिकार देता है। लेकिन मौजूदा राज्य व्यवस्था का जो चरित्र है, वो इस अधिकार का बेजा इस्तेमाल करता है। ऐसा इसलिए है कि आधुनिक राज्य अपने अन्र्तवस्तु में लोकतांत्रिक तो नहीं ही हैं, उनमें अधिनायकवादी और सैन्यवादी प्रवृत्ति भी बढ़ी है। इसीलिए हम देखते हैं कि राज्य दिन प्रति दिन और अधिक हिंसा की छूट कभी गैर कानूनी तो कभी पोटा टाडा जैसे कानूनी तरीकों से पाने की कोशिश करता है। इस तरह हम कह सकते हैं कि किसी राष्ट्-राज्य को हिंसा की कितनी जरुरत है, यह उसके लोकतंत्र के प्रति आस्था से तय होता है।
जहां तक संगठित हिंसा की समाप्ती का सवाल है, तो यह तभी संभव है जब देश में जो संसाधन हैं उन पर स्थानीय जनता की मिल्कियत हो, सरकार या विदेशी कंपनियों की नहीं। क्योंकि आज जितने भी संघर्ष हो रहे हैं वो लोगों द्वारा अपनी जीवन रक्षा और आजीविका बचाने और विस्थापन को रोकने के लिए ही हो रहे हेैं।
प्रस्तुति- शाहनवाज आलम
मो0- 09415254919
From: rajiv yadav <rajeev.pucl@gmail.com>
Date: 2012/9/26
Subject: tribute to poof. Banwarilal Sharma
To: rajeev yadav <media.rajeev@gmail.com>
प्रसिद्ध समाजवादी गांधीवादी नेता बनवारीलाल शर्मा जी का आज चंडीगढ़ में देहान्त हो गया। वे इस परंपरा के उन आखिरी स्तम्भों में थे, जिन्होंने देश को साम्राज्यवाद और भूमण्उलीकरण के चंगुल से बचाने में अपनी पूरी जिन्दगी लगा दी। इलाहाबाद में तो वे एक व्यक्ति से ज्यादा संस्थान के रुप में उपस्थित थे, जिनके होने का मतलब भूमण्डलीकरण विरोधी गोष्ठियों, शिविरों, फिल्म समारोहों और मीडिया वर्कशाप का लगातार होते रहना तो था ही, उनके होने का पर्याय यह भी था कि आप बिना रसायनिक खादों से उपजे अनाज और तेल भी उनके आजादी बचाओ आंदोलन के कार्यालय से प्राप्त कर सकते थे।
शर्मा जी से दो साल पहले महाराष्ट्र के हिंदी लोकमत समाचार के दिपावली विशेषांक 'हिंसा प्रति हिंसा' पर लिया गया साक्षात्कार।
वर्तमान हिंसा यूरोपीय विश्व दृष्टि की देन है
डा0 बनवारीलाल शर्मा
प्रसिद्ध गांधीवादी/राष्ट्ीय संयोजक आाजादी बचाओ आंदोलन
स्वराज विद्यापीठ 21 बी, मोतीलाल नेहरु रोड, इलाहाबाद
वर्तमान हिंसा व्यवस्था जनित हिंसा है। आप इसे 'स्ट्क्चरल वाइलेंस' कह सकते हैं। मौजूदा दौर के इस हिंसा को समझने के लिए थोड़ा पीछे जाना जरुरी है।
पिछले पांच सौ वर्षों से एक नए प्रकार की विश्वव्यवस्था काम कर रही है। जिसे यूरोप केंद्रित या अमरीका केंद्रित विश्वव्यवस्था कह सकते हैं। दरअसल पांच सौ वर्ष से पहले दुनिया में लुटेरे या महत्वकांक्षी राजा धन लूटने के लालच में निकल पड़ते थे। लेकिन इस दौरान हुई हिंसा कुछ समय बाद खत्म हो जाती थी। दो यात्राओं के बाद यह प्रवृत्ति बदली। पहली थी कोलम्बस की अमरीका खोज की यात्रा और दूसरी थी वास्कोडिगामा की यात्रा। इन यात्राओं के बाद शेष दुनिया के बारे में यूरोप की दृष्टि यह बनी कि यूरोप के बाहर बर्बर और असभ्य लोग रहते हैं, जहां अकूत धन-संपदा पड़ी हुयी है। इसलिए इन यात्राओं के बाद यूरोप के लोग अपने राजाओं से चार्टर लेकर अमरीका, अफ्रीका और एशिया की लूट के लिए निकल पड़े। इस आक्रामक लूट को उन्होंने 'सिविलाइजेशन मिशन' कहा। इस मिशन से जो अकूत सम्पत्ती और संसाधन बटोरे गए उसी के आधार पर यूरोप में पूंजीवाद का विकास हुआ और औद्योगिक क्रांति हुयी। इस तरह यूराप ने विकट हिंसा का सहारा लेकर शेष दुनिया से अपने औद्योगीकरण के लिए संसाधन बटोरे। यूरोप के देशों ने अमरीका-अफ्रीका-एशिया में अपने उपनिवेश बनाए और इस पूरी प्रक्रिया में भारी हिंसा की, जो
फौजी के साथ आर्थिक भी थी। जिसके चलते करोड़ो किसान और कारीगर अकालों में मर गए। 1942-43 का अकाल इसी की आखिरी कड़ी थी, जिसमें तीस-चालीस लाख लोगों की मृत्यु हुयी।
दूसरे विश्व युद्ध के बाद यूरोप की ताकतें कमजोर हुयीं और उनकी जगह अमेरिका ने ले ली। सोवियत संघ के उदय से शीत यु़द्ध की नींव पड़ गयी और 1990 तक यह शीत युद्ध चला जिसने नाटो, वारसाॅ पैक्ट, सेंटो और सीटो जैसे अनेक सैनिक गठबंधन खड़े करके दुनिया में विधिवत हिंसा का वातावरण बनाया। यानी हम कह सकते हैं कि उपनिवेशवाद के उदय के साथ पूंजीवाद को फैलाने के लिए पूरी दुनिया में हिंसा और प्रतिहिंसा का दौर चला जो अब भी जारी है।
1989 में बर्लिन की दीवार के ढहने और 1990 में सोवियत संघ के विघटन के बाद आशा थी की अब शीत युद्ध समाप्त हो जाएगा। लेकिन दुनिया के शोषण का नया तरीका अमरीका ने भूमंडलीकरण, निजीकरण की नीतियों में ढूंढ़ लिया जिसे वह बहुत आक्रामक तरीके से चला रहा है। आज इन नीतियों के तहत दुनिया भर में विश्व बैंक, अंर्तराष्ट्ीय व्यापार संगठन और अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष को आगे रखकर अमीरीका, यूरोपियन यूनियन और जापान जिस कार्पाेरेट व्यवस्था को आक्रामक तरीके से लाद रहे हैं उससे पूरी दुनिया खास तौर से तीसरी दुनिया के देशों में हिंसा का वातावरण तेजी से पनप रहा है। कारण ये कि इन नीतियों के तहत तीसरी दुनिया के देशों के शासक जनता से उनके लघु धंधे और संसाधन छीनकर अपना आधिपत्य जमा रहे हैं। दूसरे शब्दों में पुराने औपनिवेशिक नीतियों के तहत ही देश के अंदर ही केंद्रीकरण के बहाने जगह-जगह उपनिवेश बनाए जा रहे हैं। अगर पिछले बीस सालों यानी नब्बे के बाद से शुरु हुयी नयी आर्थिक नीतियों को देखें तो सरकारों ने लोकतंत्र के सबसे प्रमुख तत्व विकेद्रीकरण को हर स्तर पर नीतिगत तरीके से खत्म किया है। जिसके चलते लोगों में बेकारी-भुखमरी तो बढ़ी ही है, राज्य से अलगाव और परिणाम स्वरुप विद्रोह की भावना भी बढ़ी है। आज नक्सलवाद, पूर्वोत्तर का मसला या फिर कश्मीर का अलगाववाद राज्य से मनोवैज्ञानिक तौर पर जनता के अलगाव का ही तो नतीजा है। जिसे हिंसा से दबाने की राज्य की कोशिश जनता को भी हिंसक बना रही है।
जहां तक राष्ट् राज्य को हिंसा की जरुरत का सवाल है, तो मुझे लगता है कि राज्य को हिंसा का अधिकार तो है, लेकिन कानून के दायरे में रह कर ही। क्योंकि लोकतंत्र राज्य को अमन-चैन बनाए रखने और सम्पत्ती की रक्षा की जिम्मेदारी उसे सौंपता है और उसे इसके लिए कानून सम्मत हिंसा करने का भी अधिकार देता है। लेकिन मौजूदा राज्य व्यवस्था का जो चरित्र है, वो इस अधिकार का बेजा इस्तेमाल करता है। ऐसा इसलिए है कि आधुनिक राज्य अपने अन्र्तवस्तु में लोकतांत्रिक तो नहीं ही हैं, उनमें अधिनायकवादी और सैन्यवादी प्रवृत्ति भी बढ़ी है। इसीलिए हम देखते हैं कि राज्य दिन प्रति दिन और अधिक हिंसा की छूट कभी गैर कानूनी तो कभी पोटा टाडा जैसे कानूनी तरीकों से पाने की कोशिश करता है। इस तरह हम कह सकते हैं कि किसी राष्ट्-राज्य को हिंसा की कितनी जरुरत है, यह उसके लोकतंत्र के प्रति आस्था से तय होता है।
जहां तक संगठित हिंसा की समाप्ती का सवाल है, तो यह तभी संभव है जब देश में जो संसाधन हैं उन पर स्थानीय जनता की मिल्कियत हो, सरकार या विदेशी कंपनियों की नहीं। क्योंकि आज जितने भी संघर्ष हो रहे हैं वो लोगों द्वारा अपनी जीवन रक्षा और आजीविका बचाने और विस्थापन को रोकने के लिए ही हो रहे हेैं।
प्रस्तुति- शाहनवाज आलम
मो0- 09415254919
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