Sunday, August 31, 2025
हमने आग को चूम लिया
“इमरोज़ बंबई चले गए। गुरुदत्त ने नौकरी, कमरा, सब पेश किया, पर नहीं जानती–तकदीर ने इमरोज़ से कुछ हौले से क्या कहा, कि ठीक तीन दिन के बाद इमरोज़ ने मुझे बंबई से फ़ोन किया–मैं दिल्ली आ रहा हूँ –
यह तकदीर का कोई रहस्य था, जो उसने अपनी उंगलियों से खोल दिया, और मैं जान पाई कि बीस सालों से जो एक साया–सा दिखाई देता रहा–वह इमरोज़ का साया था–जाने किस जन्म का, और अब एक हकीकत बनकर–धरती पर उतर आया है–
इमरोज़ जिंदगी में आए–एक हकीकत बन कर, और साहिर से वह रिश्ता हमेशा बना रहा–उसकी आखिरी सांस तक–
“याद आता है–बरसों पहले एक बार जब साहिर दिल्ली आए, मुझे और इमरोज़ को अपने पास बुलाया–वहाँ, जिस होटल में वे ठहरे थे। हम लोग करीब दो घण्टे वहाँ रहे। साहिर ने विस्की मंगवाई थी–और मेज़ पर तीन गिलास पड़े थे, जब रात गहरी होने लगी, तो हम लोग वापस आए थे। फिर रात करीब आधी होने लगी थी–जब मुझे साहिर का फोन आया–अब भी तीन गिलास मेज़ पर पड़े हैं, और मैं तीनों गिलासों से बारी–बारी से पी रहा हूँ, और लिख रहा हूँ–मेरे साथी ख़ाली जाम–
यह सिर्फ कुदरत जानती है कि कोई धागा था, पता नहीं किस जन्म का, जो इस जन्म में भी–हम तीनों के गिर्द लिपटा रहा–
1990 में जब जालंधर दूरदर्शन ने मुझ पर फिल्म बनाई, तो मुझे अपने–साहिर से और इमरोज़ से जो रिश्ता था, उसका कोई जिक्र करने को कहा। उस वक्त मैंने कहा–
दुनिया में रिश्ता एक ही होता है–तड़प का, विरह की हिचकी का, और शहनाई का, जो विरह की हिचकी में भी सुनाई देती है–यही रिश्ता साहिर से भी था, इमरोज़ से भी है – यह साहिर की मुहब्बत थी, जब लिखा –
“फिर तुम्हें याद किया, हमने आग को चूम लिया
इश्क ज़हर का प्याला सही, मैने एक घूंट फिर से मांग लिया,
और इमरोज़ की सूरत में–अहसास की जो इन्तहा देखी, एक दीवानगी का आलम था, जब कहा–
कलम ने आज गीतों का काफ़िया तोड़ दिया
मेरा इश्क यह किस मुकाम पर आया है।
उठो! अपनी गागर–पानी की कटोरी दे दो
मैं राहों के हादसे, उस पानी से धो लूंगी–
राहों के हादसे – आकाश गंगा का पानी ही धो सकता है–एक दर्द था–जिसने मन की धरती को ज़रखेज़ किया और एक दीवानगी–उसकी बीज बन गई मन की हरियाली बन गई.
-अमृता प्रीतम(अक्षरों के साये; राजपाल एंड संज)
ज्ञान,विज्ञान,विचार पर आस्था भारी,पूरी दुनिया कट्टरपंथियों के शिकंजे में
बंगाल में मुसलमान कट्टरपंथियों के विरोध के कारण जावेद अख्तर का विरोध और उनका कार्यक्रम रद्द किया जाना बेहद दुखद और शर्मनाक है। #जावेद_अख्तर एक बेहतरीन शायर और सेकुलर इंसान हैं। इसका विरोध बंगाल के सुशील समाज और खास तौर पर वामपंथियों को करना चाहिए क्योंकि वे मिजाज से तरक्कीपसंद वाम हैं। लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ। क्यों?क्या वामपंथी अब वाम विचारों का भी समर्थन नहीं करते?
मुझे ममता बनर्जी के राज में हुए इस हादसे से कोई हैरत नहीं हुई।क्योंकि इसी बंगाल से बांग्लादेश में अल्पसंख्यक उत्पीड़न पर लिखे अपने उपन्यास लज्जा के कारण निर्वासित लेखिका Taslima Nasrin को भी बंगाल की वाम सरकार ने खदेड़ दिया था मुस्लिम कट्टरपंथियों के विरोध के कारण।
सत्ता बदल जाने और #MamtaBanerjee के मुख्यमंत्री बनने के बाद स्थिति वैसे ही नहीं बदली,जैसे खालिदा जिया के राज में तस्लीमा का निर्वासन हुआ, शेख हसीना या मोहम्मद युनूस ने भी तस्लीमा को घर लौटने की सूरत नहीं बनी।
ममता दीदी खुद प्रतिक्रियावादी हैं।घोर वाम विरोधी हैं। वाम का सफाया करके उन्होंने पश्चिम बंगाल को कट्टरपंथ के हवाले कर दिया है।इसमें कोई शक?
इस देश में कट्टरपंथी अब हर कहीं हावी हैं। विचारों की,अभिव्यक्ति की कोई स्वतंत्रता कहीं नहीं है।जावेद साहब का भाजपाई राज्यों में विरोध न होने की बात कितनी सही है,हमें नहीं जानते।
पाकिस्तान किसी कार्यक्रम में जाने का विरोध न होने के कारण वहां के कट्टरपंथ को या बांग्लादेश में वामपंथियों के जाने की इजाजत की वजह से वाहन के कट्टरपंथी उभर को जैसे नजरअंदाज नहीं किया जा सकता, भारत में भी कट्टरपंथियों की निरंकुश तानाशाही को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता।
आदिम युग से ज्ञान विज्ञान, मनुष्यता, सभ्यता का विकास आस्था के विरुद्ध सवाल उठाए जाने के कारण ही हुआ।इसके लिए महान दार्शनिक सुकरात, महान वैज्ञानिक गैलीलियो जैसे लोगों की शहादते नज़ीर हैं।
आज आस्था पूरी दुनिया पर हावी है।
सवालों और विचारों की कोई गुंजाइश नहीं है।
सत्ता हो या सियासत,कट्टरपंथ की कठपुतलियां हैं।
वाम ही वाम के खिलाफ है।
तरक्कीपसंद ही तरक्की के खिलाफ है।
भावनाएं तर्क और विज्ञान पर हावी हैं।
साहित्य, पत्रकारिता, मीडिया, कला, संगीत, रंगकर्म, फिल्म सबमें आस्था और भावना हावी है। विचारों और सवालों का निषेध है।
हम अंधा युग में हैं
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Friday, August 29, 2025
লিটিল ম্যাগাজিনের আজকের সংকট
লিটিল ম্যাগাজিনের আজকের সংকট: প্রতিবাদের বদলে আত্মপ্রচার
অয়ন মুখোপাধ্যায়
বাংলা সাহিত্যের ভুবনে লিটল ম্যাগাজিন একসময় ছিল বিকল্প চেতনার প্রাণকেন্দ্র। ষাটের দশক থেকে আশির দশক পর্যন্ত অসংখ্য ক্ষুদ্র পত্রিকা জন্ম নিয়েছিল প্রতিবাদী সাহসিকতার ভিতর দিয়ে। তারা মূলধারার বাজার-চালিত সাহিত্যকে চ্যালেঞ্জ করেছিল, রাষ্ট্রের দমননীতির বিরুদ্ধে দাঁড়িয়েছিল, আবার সাধারণ মানুষের সংগ্রামকেও সাহিত্যের আলোয় এনেছিল। ইতিহাস সাক্ষী, মনে পড়ে ভিয়েতনাম যুদ্ধের বিরুদ্ধে প্রতিবাদ ধ্বনিত হয়েছিল কলকাতার একদল তরুণ কবির সম্পাদিত ছোট পত্রিকার পাতায়; নকশালবাড়ির আন্দোলনের পক্ষে তীব্র কণ্ঠস্বর তুলেছিল এই ক্ষুদ্র পত্রিকাগুলোই; এমনকি ১৯৭১-এর মুক্তিযুদ্ধ চলাকালীন সময়ে বহু লিটল ম্যাগাজিন বিশেষ সংখ্যা বের করেছে, শরণার্থী শিবিরের দুর্দশা ও পাকিস্তানি সেনাদের বর্বরতা প্রকাশ্যে এনেছে।
সংখ্যার দিক থেকেও তখনকার বিস্তার ছিল বিস্ময়কর। ১৯৭০-এর দশকের মাঝামাঝি এসে পশ্চিমবঙ্গে সাত-আটশ ক্ষুদ্র পত্রিকা নিয়মিত বা অনিয়মিতভাবে প্রকাশিত হতো। কোন একটি নাম নয় এইরকম অসংখ্য লিটিল আজও ইতিহাসের অংশ। পরবর্তী সময়ে হাল আমলে সিঙ্গুর নন্দীগ্রামের সময়। লিটল ম্যাগাজিনের রাজনৈতিক ভূমিকা ছিল স্পষ্ট অর্থাৎ লিটল ম্যাগাজিন কেবল সাহিত্য প্রকাশের মাধ্যমই ছিল না, বরং রাজনৈতিক প্রতিবাদের প্রাণবন্ত মঞ্চও ছিল।
কিন্তু সেই ধারাটি আজ মারাত্মক সংকটের মুখে। ২০০০ সালের পর থেকে লিটল ম্যাগাজিনের সংখ্যা ক্রমশ কমতে শুরু করে। একসময়ের বিস্ফোরণ সঙ্কুচিত হয়ে দাঁড়িয়েছে দুই-আড়াইশ সক্রিয় পত্রিকায়, তারও অধিকাংশ জেলা বা মহকুমা শহরে সীমাবদ্ধ। আরও বড় সমস্যা হলো, আজকের অনেক লিটল ম্যাগাজিনই প্রতিবাদের জায়গা ছেড়ে এসে নিছক সাহিত্য-আড্ডার মতো হয়ে উঠেছে। কবিতা, ছোটগল্প, বই-সমালোচনা প্রকাশের বাইরে তারা আর বিশেষ কিছু করছে না। রাষ্ট্রীয় ফ্যাসিবাদ, কর্পোরেট দখলদারি কিংবা হিন্দুত্ববাদী রাজনীতির মতো বৃহৎ সংকটগুলোকে স্পষ্টভাবে প্রশ্নবিদ্ধ করছে না।
এখানেই মূল সমস্যা। কারণ লিটল ম্যাগাজিনের ঐতিহাসিক দায় ছিল— মূলধারার বাইরে দাঁড়িয়ে সাহিত্যের ভেতর দিয়ে মতাদর্শগত লড়াইকে এগিয়ে নেওয়া। অথচ এখন দেখা যাচ্ছে, বহু সম্পাদক ও লেখক ব্যক্তিগত স্বীকৃতি, পুরস্কার কিংবা সরকারি অনুদানের মোহে সেই দায় থেকে সরে আসছেন। ইংরেজি অনুবাদের মাধ্যমে আন্তর্জাতিক পুরস্কারের সুযোগ, কিংবা মোটা অঙ্কের গ্রান্ট পাওয়ার লোভ— সব মিলিয়ে সাহিত্যচর্চা ক্রমশ আত্মপ্রচারের উপকরণে পরিণত হচ্ছে।
সবচেয়ে উদ্বেগজনক প্রবণতা হলো, তথাকথিত “বিপ্লবী” লেখকেরা আজ সুস্পষ্টভাবে আরএসএস-বিজেপির প্রকল্পকে প্রশ্ন করতে চাইছেন না। প্রথাগতভাবে এরা তৃণমূল-বিরোধিতার জায়গা থেকে লিখে আসছেন, যা অস্বাভাবিক নয়। কিন্তু আশ্চর্যজনক হলো, একইসঙ্গে তারা ফ্যাসিস্ট হিন্দুত্ববাদের বিরুদ্ধে স্পষ্ট অবস্থান এড়িয়ে যাচ্ছেন। বরং ইংরেজি অনুবাদে বই প্রকাশ করে, সংঘী নিয়ন্ত্রিত আন্তর্জাতিক মঞ্চে পুরস্কার গ্রহণ করে কিংবা নরমভাবে হিন্দুত্ববাদী বই প্রকাশে সম্মতি দিয়ে তারা অজান্তেই আরএসএস-বিজেপির বৃহত্তর নেটওয়ার্কের অংশ হয়ে উঠছেন।
এখানে দ্বিচারিতা স্পষ্ট। জনসমক্ষে এরা বামপন্থী ভাবমূর্তি বজায় রাখছেন, কবিতার ভেতর বিপ্লবী রোমান্টিসিজম ছড়িয়ে দিচ্ছেন; কিন্তু বাস্তবে তারা সহযোগিতা করছেন হিন্দুত্ববাদী সাংস্কৃতিক প্রকল্পকে। এর পেছনে ব্যক্তিগত স্বীকৃতির লোভ, আন্তর্জাতিক সার্টিফিকেটের আকাঙ্ক্ষা এবং আর্থিক সুবিধার প্রলোভন কাজ করছে। ফলে লিটল ম্যাগাজিন, যে প্রতিষ্ঠান একদিন ছিল প্রতিরোধের প্রতীক, আজ তা হয়ে উঠছে ক্ষমতার নেটওয়ার্কের অংশ।
অবশ্যই, সব লিটল ম্যাগাজিনকে একই তরবারির আঘাতে কাটা যায় না। এখনও কিছু ক্ষুদ্র পত্রিকা আছে যারা নিরন্তর প্রতিবাদী কণ্ঠস্বর বজায় রাখছে— গ্রামীণ স্তরে, শ্রমিক আন্দোলনের পাশে, কিংবা নারী-দলিত প্রশ্নে স্পষ্ট অবস্থান নিচ্ছে। কিন্তু সংখ্যার বিচারে তারা সীমিত, এবং প্রভাবের দিক থেকে তারা প্রায় অদৃশ্য। শহুরে আলোচনার মঞ্চে বা বইমেলার চকচকে স্টলে এই কণ্ঠগুলো চাপা পড়ে যাচ্ছে।
এমন প্রেক্ষাপটে প্রশ্ন উঠছে— লিটল ম্যাগাজিনের ভবিষ্যৎ কী? তারা কি আবার সেই পুরনো দায়িত্ব ফিরে নিতে পারবে? নাকি আত্মপ্রচারের বাজারেই মিলিয়ে যাবে?
এ প্রশ্নের উত্তর নির্ভর করছে নতুন প্রজন্মের সম্পাদক-লেখকদের উপর। যদি তারা আবার সাহস করে রাষ্ট্রীয় ফ্যাসিবাদ, কর্পোরেট দখলদারি ও হিন্দুত্ববাদকে প্রশ্ন করে, তবে লিটল ম্যাগাজিনের ভেতরে নতুন আন্দোলনের সম্ভাবনা আছে। অন্যথায়, আজকের এই আত্মমুগ্ধ পরিসর ইতিহাসে নিছক সাহিত্য-আড্ডার জায়গা হিসেবেই নথিভুক্ত হবে।
লিটল ম্যাগাজিনের জন্ম হয়েছিল প্রতিবাদ থেকে, তার ইতিহাস গড়া হয়েছিল রক্ত-ঘামের লড়াই দিয়ে। সেই ঐতিহ্যই আজ চ্যালেঞ্জের মুখে। সাহিত্যিক সততা ও মতাদর্শগত দায় যদি হারিয়ে যায়, তবে লিটল ম্যাগাজিন কেবল নামমাত্র ঐতিহ্য হিসেবেই টিকে থাকবে— কার্যকর প্রতিরোধের অস্ত্র হিসেবে আর নয়।
অতএব আজকের সম্পাদক ও লেখকদের সামনে দায় একটাই— ব্যক্তিগত স্বীকৃতি ও সুবিধার প্রলোভন ছেড়ে আবার প্রতিবাদের পথে দাঁড়ানো। না হলে লিটল ম্যাগাজিনের পতাকা যাদের হাতে অর্পিত হয়েছিল, ইতিহাস তাদেরই বিশ্বাসঘাতক বলে নথিবদ্ধ করবে।
বাংলাদেশী সন্দেহে বাঙালিদের মারছে কে? কেন?
বাংলাদেশী সন্দেহ করে পশ্চিমবঙ্গের বাঙালিদের মারছে। এতে কিছু পাবলিক মারাত্মক ক্রুদ্ধ। ক্রুদ্ধ এমনিতে হলে কোনো ক্ষতি নেই, কারণ হওয়াই উচিৎ। দুটো কারণে মারাত্মক ক্রুদ্ধ হওয়া উচিৎ। (১) বাঙালিদের মারবার অধিকার কে দিয়েছে শা* তোদের? তোরা শা* কে? এই হলো এক নম্বর। (২) যারা মারছে, তারা রেসিস্ট, বদমাশ, গুণ্ডা। তার ওপর বিজেপি-মার্কা, অমিত মালবিয়া-মার্কা বাঁদর। সুতরাং তাদের মানুষ বলে মনে করার কোনো কারণ নেই। এবারে আমার ফ্যালাসি বা কনফিউশন হলো, বাংলাদেশী হলে তাদের মারবার অধিকার কে দিয়েছে? প্রথম কথা বাংলাদেশী তারা নয়। বার বার প্রমাণিত হচ্ছে, তারা ভারতীয় বাঙালি, এবং নিজের দেশের যে কোনো জায়গায় গিয়ে থাকবার এবং কাজকর্ম করার অধিকার তাদের আছে। ঠিক যেমন ইউপি, বিহার, ওড়িশা, আসাম, ঝাড়খণ্ড, তেলেঙ্গানা সব জায়গার মানুষ পশ্চিমবঙ্গে এসে থাকে, কাজকর্ম করে, এবং বংশপরম্পরায় আছে। তাদের মারধোর করার অধিকার কারুর নেই। আমি ওই জাতিবিদ্বেষের বদলে জাতিবিদ্বেষ, রেসিজমের বদলে রেসিজম, ঘৃণার বদলে ঘৃণা -- এই পলিটিক্সে বিশ্বাস করি না। পশ্চিমবঙ্গে অবাঙালিদের ওপর অত্যাচার শুরু হলে আমি প্রথম তার প্রতিবাদ করবো। দরকার হলে আইনের পথে যাবো। আমার প্রচুর হিন্দিভাষী বন্ধু আছে, যারা আজকের এইসব মুখে বাঙালি কিন্তু মনে বলিউড, তাদের থেকে অনেক বেশি বাঙালি। তাদের গায়ে কেউ হাত তুল্লে আমি ছেড়ে দেবো না। কিন্তু আমার এই ফ্যালাসি হলো, পশ্চিমবঙ্গীয় বাঙালি হলে তাকে অ্যাটাক করলে আমরা মিছিল মিটিং করবো, আর বাংলাদেশী বাঙালিদের ওপর আক্রমণ হলে তা ঠিক আছে, মোটামুটি মেনে নেওয়াই যায় -- এই তত্ত্বে আমার বিশাল অ্যালাৰ্জি। এই তত্ত্বের আসল মানে হলো, মুসলমান বাঙালি হলে তার ওপর অ্যাটাক করলে অসুবিধে নেই, কারণ বাংলাদেশী বাঙালি মানেই হলো আসলে মুসলমান বাঙালি, এবং ওগুলো সব অনুপ্রবেশকারী এবং হয়তো বা টেররিস্ট -- এই হলো আসল ইনার মিনিং। অর্থাৎ, ভেতরে ভেতরে ইসলামোফোবিয়া এবং বাংলাদেশ-বিদ্বেষ। যারা মিছিল মিটিং করছে, খোঁজ নিয়ে দেখুন, তাদের মধ্যে একটা বিরাট পার্সেন্টেজ আছে, যাদের আসল মিটিং মিছিল করার উদ্দেশ্য হচ্ছে মুসলমান বিদ্বেষ। এরা চায় আর একটা নতুন ধরণের দাঙ্গার পরিবেশ পশ্চিমবঙ্গে সৃষ্টি হোক। এদের পিছনে কারা আছে, I have no idea . কিন্তু অনুমান করতে পারি।
Dr Parth Bannerjee
Thursday, August 28, 2025
এন আর সি র বাঁকা পথ
সাহিত্যিক কপিলকৃষ্ণ ঠাকুরের এই লেখা এনআরসি লাগু করার চক্রান্তকে বুঝতে সাহায্য করবে। যারা ভারতের নাগরিকত্বকে অত্যন্ত জটিল, সংবেদনশীল ও ভেদাভেদের হাতিয়ার করে ক্ষমতা দখল করে গদিতে বসে আছেন, তাঁদের শরণাগত হয়ে নাগরিকত্ব ও মানবাধিকার হারানো বাঙালিদের অবধারিত নিয়তি।
Kapil Krishna Thakur লিখেছেন
এন আর সি’র বাঁকা পথ
২০১৯ সালে এন আর সি বিরোধী আন্দোলনে উত্তাল হয়ে উঠেছিল গোটা দেশ। দেশবাসীকে প্রথমে সিএএ ও পরে এন আর সি-র ক্রনোলজি সমঝে দেওয়া স্বরাষ্ট্রমন্ত্রী অমিত শাহ কিছুটা থমকে ছিলেন, সন্দেহ নেই। কিন্তু, তিনি তাঁর উদ্দেশ্য ও লক্ষ্য থেকে সরে দাঁড়িয়েছেন এমন কখনও হয়নি। বরং, নতুন নতুন কৌশলে সে উদ্দেশ্য সাধনে তাঁর চেষ্টার অন্ত থাকেনি। সম্প্রতি বিহারে ভোটার তালিকার নিবিড় সংশোধনের উদ্দেশে নির্বাচন কমিশনারের বিজ্ঞপ্তি জারি তারই এক পদক্ষেপ বলে একাধিক বিরোধী দলের পক্ষ থেকে অভিযোগ তোলা হয়েছে। বিজ্ঞপ্তিটি শুধুমাত্র বিহারের জন্য নয়, পশ্চিমবঙ্গের মুখ্যমন্ত্রী জানিয়েছেন, এই বিজ্ঞপ্তি তাঁদের হাতেও এসেছে। এই উদ্যোগকে তিনি এন আর সি-র থেকেও ভয়ঙ্কর বলে কঠোর সমালোচনা করেছেন। রাজ্যের বিজেপি নেতারা যথারীতি উল্টো সুরে বলেছেন, ভোটার তালিকা থেকে রোহিঙ্গাদের নাম বাদ যাবার ভয়ে মুখ্যমন্ত্রী চিন্তিত। ভুয়ো ভোটার পশ্চিমবঙ্গে অনেক রয়েছে, তা বাদ যাওয়া সঙ্গত। ২০১৭ সালের পরে আসা কিছু রোহিঙ্গা শরণার্থীর নামও অন্তর্ভুক্ত হওয়া অসম্ভব নয়। তা খুঁটিয়ে দেখায় আপত্তি কিছু নেই। কিন্তু, গোটা বিষয়টি কি এতটাই সরল? সম্ভবত নয়, এবং এ জন্যই নির্বাচন কমিশনারের সদ্য জারি করা বিজ্ঞপ্তিটির বিশ্লেষণ জরুরি।
বিজ্ঞপ্তি অনুসারে ভারতের নাগরিকত্বের প্রমাণ ছাড়া ভোটার তালিকায় কারও নাম লিপিবদ্ধ হবে না। ১ জুলাই ১৯৮৭ সালের আগে যাদের জন্ম তাদের জন্মস্থানের প্রমাণপত্র চাওয়া হবে। ১ জুলাই ১৯৮৭ সাল থেকে ১২ ডিসেম্বর ২০০৪ সালের মধ্যে যাদের জন্ম, তাদের বাবা বা মায়ের একজনের নাগরিকত্বের প্রমাণপত্র এবং তার পরে যাদের জন্ম তাদের বাবা-মা দু’জনেরই নাগরিকত্বের প্রমাণপত্র দেখাতে হবে। অন্যথায় ভোটার তালিকা থেকে তাদের নাম বাদ যাবে। ২০০৩ সালের ভোটার তালিকায় যাদের নাম নেই, তাদের নাগরিকত্বের প্রমাণপত্র বাধ্যতামূলক। বুঝতে সমস্যা হওয়ার কথা নয়, সাল তারিখের এই মারপ্যাঁচ আসলে বিজেপি প্রণীত নাগরিকত্ব আইনকে অনুসরণ করেই এগোচ্ছে। যা কার্যত অমিত শাহ কথিত ক্রনোলজিকে বাস্তবায়িত করারই কৌশলী পদক্ষেপ। বিজেপি নেতারা রোহিঙ্গাদের প্রসঙ্গ টেনে আনছেন মুসলিম বিদ্বেষকে জাগ্রত করে মূল বিষয়টি আড়াল করার জন্য। ভোটার তালিকা সংশোধনের এই নতুন কৌশলে সব থেকে ক্ষতিগ্রস্ত হবেন ছিন্নমূল মানুষেরা। সম্প্রতি স্ফুটমান বিজেপির বাঙালি বিদ্বেষ এতে পরিতৃপ্ত হবে সন্দেহ নেই। একই সঙ্গে ভূমিহীন গরিব, আদিবাসী এবং কোটি কোটি পরিযায়ী শ্রমিক ভোটার তালিকার বাইরে চলে যাবেন। ফলে নাগরিক পঞ্জির মধ্যে তাদের স্থান পাবার সুযোগ থাকবে না।
স্বাধীনতার পূর্বে ভারতে সার্বজনীন ভোটাধিকার ছিল না। ১৯৫২ সাল থেকে এই অধিকার চালু হয়। তথ্যানুসারে ১৯৩৫ সালে বাংলায় ২৮% মানুষের ভোটাধিকার ছিল। যারা নির্দিষ্ট পরিমাণ ট্যাক্স দিতে পারতেন বা বাড়ি ও সম্পদের অধিকারী ছিলেন, তারাই শুধু ভোটদানের অধিকার পেতেন। এছাড়া ধনীব্যক্তির স্ত্রী এবং শিক্ষিত ব্যক্তিরাও ভোট দিতে পারতেন। গরিব কৃষক মজুর বা আদিবাসী মানুষ ও সাধারণ মহিলারা সে অধিকার থেকে বঞ্চিত ছিলেন। স্বাধীন ভারতে এই বৈষম্যের বিলোপ ঘটানো হয়। বর্তমান কেন্দ্রীয় সরকার কি ঘুর পথে ব্রিটিশ যুগের সেই ব্যবস্থাকেই ফিরিয়ে আনতে আগ্রহী? তাঁদের উদ্যোগের পরিণাম শেষ পর্যন্ত কী দাঁড়াবে, সাধারণ মানুষের একটা বড় অংশ দেশহীন ও গণতান্ত্রিক অধিকারের বাইরে নিক্ষিপ্ত হবেন কিনা, এ নিয়ে সংশয় জেগে উঠেছে। ভোটার তালিকা ত্রুটিমুক্ত হোক, কিন্তু, তা আসামের এন আর সি’র মতো একটি ভয়ংকর ত্রুটিপূর্ণ তালিকার ফাঁদে দেশবাসীকে নিক্ষেপ করুক, তা প্রার্থিত হতে পারে না।
২৭.০৬.২৫
অঘোষিত যুদ্ধ
এখন সংবাদপত্রের পাতা খুললে প্রায় প্রতিদিন পাঠককে যে খবরগুলি পাঠ করতে হয়, দুর্ভাগ্যজনক ভাবে তাতে জাতীয় গৌরব বৃদ্ধির কোনও উপাদান থাকে না। মহত্তর মূল্যবোধ, জাতীয় সংহতি, স্বদেশীয়ের প্রতি গভীর মমত্ব, প্রতিটি নাগরিকের গণতান্ত্রিক অধিকার ও মর্যাদার প্রতি শ্রদ্ধা, সকল ভাষা, ধর্ম ও সংস্কৃতির প্রতি সম্মান - আশ্চর্যজনক ভাবে জাতীয় জীবন থেকে এ সবই যেন কর্পূরের মতো উবে যেতে বসেছে। কারণটি যে মোটেই অরাজনৈতিক নয়, বরং, বিশেষ একটি রাজনৈতিক দলের গোপন কর্মসূচির বহিঃপ্রকাশ, তা এতদিনে সচেতন ভারতবাসীর কাছে স্পষ্ট। দুর্বল দলিতের প্রতি অত্যাচার সবল সবর্ণের একটি নিয়মিত অভ্যাস হিসাবে গণ্য হয়ে এসেছে স্মরণাতীত কাল থেকে। বিজেপির উথ্থান তাকে সম্প্রসারিত করেছে মুসলিম জীবনের অন্দরে। খ্রীস্টান ও বৌদ্ধরাও তার তালিকার বাইরে নয়। আর অবলা নারী তো চিরকালই হয়েছে সকল আধিপত্যকামীর সহজ শিকার।
তালিকায় নতুন সংযোজন বাংলা ও বাঙালি। বাংলাভাষায় কথা বলার অপরাধে বহির্বঙ্গে, বিশেষত, বিজেপি শাসিত রাজ্যগুলিতে চরম দুর্ভোগের শিকার এখন বাংলাভাষী মানুষেরা। প্রায় প্রতিদিন সংবাদপত্রের পাতায় উঠে আসছে হেনস্থার খবর। দিল্লি, গুজরাট, রাজস্থান, মহারাষ্ট্র, উত্তরপ্রদেশ, ছত্তিশগড় রয়েছে এই জাতীয় সংবাদের শিরোনামে। সর্বত্র শাসকদলের পরিচয় এক ও অভিন্ন। ওড়িশায় যতদিন অন্য শাসক ছিল, বাংলাভাষীদের হেনস্থার খবর পাওয়া যায়নি। বিজেপির শাসন কায়েম হওয়ার পরেই দলিত নির্যাতন এবং বাংলাভাষীদের উপর নিগ্রহে সে দ্রুত প্রথম স্থান অধিকার করতে উঠে পড়ে লেগেছে। সুতরাং, বিষয়টি কোনওমতেই কাকতালীয় নয়। বরং, ভাবার কারণ রয়েছে যে, এটি বিজেপির গোপন কর্মসূচিরই অংশ। বহির্বঙ্গ দূরস্থান, খোদ কলকাতা বিশ্ববিদ্যালয়ের এক ছাত্রী নিবাসে দুই ছাত্রীকে বাংলায় কথা বলার অপরাধে বাংলাদেশী তকমা দিয়ে হেনস্থা করা হয়েছে। কেন হিন্দিতে কথা বলবে না, এ জন্য খোদ কলকাতায় বঙ্গভাষীর নিগ্রহ! ভাবলে বিস্মিত হতে হয়। দুষ্কৃতীদের বিরুদ্ধে মৌলিক অধিকার হরণ ও জাতীয় সংহতি বিনষ্টের জন্য কেউ অভিযোগ দায়ের করেনি। আসামে, তামিলনাড়ুতে এমনকি মহারাষ্ট্রেও এমন ঘটলে পরিণতি অন্যরকম হতো।
অনেকে একে তুচ্ছ ঘটনা বলে উড়িয়ে দিতে চাইবেন, ধোঁয়াকে আগুন নয় বলে উপেক্ষা করার পরামর্শ দেবেন। কেউ কেউ পরিযায়ী শ্রমিকদের – যাদের অধিকাংশ মুসলিম – হেনস্থা বলে নিশ্চিন্ত থাকতে চাইবেন, বাস্তবে এ সবই শেষ বিচারে হয়ে উঠবে আত্মঘাতি। এক সময় বঙ্গবাসী জ্ঞান-বিজ্ঞানের ডালি নিয়ে বাইরে যেত, এখন তাকে নিরুপায় শ্রমিকের বেশে যেতে হয়, এ অত্যন্ত লজ্জার নিশ্চয়ই, কিন্তু, তাই বলে সে কেন নিগ্রহের শিকার হবে? নিগ্রহ শুধু তো শ্রমিকের নয়, ক্ষুদ্র ব্যবসায়ী এমনকি অসংখ্য চাঁদসী ডাক্তার- যাদের সকলেই হিন্দু – আছেন এই তালিকায়। অনুসন্ধানে প্রকাশ পাবে, অনুপ্রবেশকারীর অভিধা দিয়ে বাকি ভারতের চোখে বাঙলার হিন্দু ও মুসলমান উভয়কেই সুকৌশলে কেমন ভাবে অপর করে তোলা হয়েছে। বাংল ভাষা ও বাঙালি তাই সন্দেহের বস্তু। যে কেউ যখন তখন তাকে নিগ্রহ করতে পারে। গোবলয়ের কাছে হিন্দি-হিন্দু-হিন্দুস্থান তত্ত্বটির পরীক্ষামূলক প্রয়োগেরও এটি সুসময়। বাংলাকে ধ্বংস করতে হলে তার সংস্কৃতিকে আগে ধ্বংস করতে হবে। সংস্কৃতি ধ্বংস হবে ভাষাকে বিনষ্ট করতে পারলে। সুতরাং, ঘর বাইরে চাপ বাড়াতে হবে, যাতে কেউ বাংলায় কথা না বলে, বাংলা ভাষায় পড়াশুনার কথা না ভাবে, সর্বোপরি নিজেকে বাঙালি বলতে কুন্ঠায় মরে। বঙ্গ জয়ের এমন সহজ রাস্তা আর কী আছে? নানা দিক থেকে অঘোষিত যুদ্ধ তাই শুরু হয়েছে। বিজেপি বাংলার ক্ষমতায় আসীন হলে বিজয় সম্পূর্ণ হবে, সন্দেহ নেই।
০৪.০৭.২৫
উন্মোচিত স্বরূপ
ফলের নামেই যেমন গাছের পরিচয়, তেমনই কর্মসূচির মাধ্যমেই কোনও দল বা সরকারের পরিচয় ফুটে ওঠে। এই নিরিখে বলা যায়, কেন্দ্রে বিজেপি এবং কয়েকটি রাজ্যে তার ‘ডাবল ইঞ্জিন সরকার’ প্রতিষ্ঠিত হওয়ার পর বিজেপির স্বরূপ ক্রমশ উন্মোচিত হচ্ছে। প্রতিদিন নতুন নতুন কর্মকাণ্ড ও বক্তব্য প্রকাশের মধ্য দিয়ে বিজেপি নেতৃবৃন্দ প্রতি মুহূর্তে নিজেদের চিনিয়ে চলেছেন। হয়তো আরও অনেক কিছু দেখা এখনও বাকি, তবু, এরই মধ্যে যে চারিত্র বৈশিষ্ট্য সামনে এসেছে, তার ভিত্তিতে বিজেপি দল ও সরকারের প্রকৃতি বিচার করা যেমন কঠিন নয়, তেমন তার লক্ষ্য এবং উদ্দেশ্যও সহজবোধ্য। একদা নোটবন্দীর মাধ্যমে আম জনতাকে অর্থনৈতিক সঙ্কটের আবর্তে ঠেলে দিয়েছিলেন তাঁরা, এখন ভোটবন্দী করে নাগরিক অধিকারের কফিনে শেষ পেরেকটি পুঁততে চান। তাঁদের ভাবনা যুক্তরাষ্ট্রীয় ব্যবস্থার বিপরীত, এককেন্দ্রিক শাসন ব্যবস্থার পক্ষে। বিজেপি চায় গোবলয়ের ভাষা ও সংস্কৃতি সমগ্র দেশের উপর চাপিয়ে দিতে। নানা কৌশলে হিন্দির চাপ বাড়িয়ে রাজ্যের ভাষাগুলিকে বিপন্ন করতে তাঁরা কুন্ঠিত নয়। বহু ভাষা, বহু সংস্কৃতির যে তাঁরা বিরোধী, আসাম সরকারের কার্যকলাপেও তা স্পষ্ট। মুখ্যমন্ত্রী হিমন্ত বিশ্বশর্মা অক্লেশে ঘোষণা করে দেন, আসামে কেউ মাতৃভাষা বাংলা লিখলে তাকে বিদেশী ঘোষণা করা হবে। সংবিধান স্বীকৃত শুধু নয়, ভারতের দ্বিতীয় বৃহত্তম ভাষা বাংলার উপরে এই ফরমান জারি করতে তাঁকে বেশি কিছু ভাবতে হয়নি, কারণ, হিটলারের ইহুদি বিদ্বেষের মতো ভারতে বিজেপির নতুন আমদানি এই বাঙালি বিদ্বেষ। এর একটি গোপন লক্ষ্যও আছে। ভয়ের বাতাবরণ তৈরি করে বাংলা ভাষার চর্চা ও শিক্ষা থেকে বাঙালিকে নিরস্ত করা। দ্বিতীয় বৃহত্তম ভাষা গোষ্ঠীর মানুষকে এভাবে কব্জা করতে পারলে বাকি ভারত জয় করা তাদের পক্ষে সহজ হয়ে যাবে।
কর্পোরেটদের স্বার্থ আগলাতে শ্রমিক ও কৃষক বিরোধী পদক্ষেপে তাঁরা স্বচ্ছন্দ। বাঙালি পরিযায়ী শ্রমিকদের উপর আক্রমণ একদিকে যেমন শ্রমিক বিরোধী ভাবনা থেকে, অন্যদিকে প্রগতি চিন্তা ও উদার সংস্কৃতির বাহক বাঙালির প্রতি বিদ্বেষ থেকেও। নির্যাতন মূলক শ্রম আইন, প্রবঞ্চনা মূলক কৃষি আইন, আদিবাসীদের হাত থেকে অরণ্য ছিনিয়ে নেবার আইন- শোষক শ্রেণির পক্ষেই তাঁদের অবস্থানকে প্রকটিত করে। বিজেপি খুব ঘটা করে ইন্দিরা গান্ধীর জারি করা জরুরি অবস্থার লোক দেখানো সমালোচনা করে, বাস্তবে গণতান্ত্রিক মূল্যবোধের কাণাকড়ি মূল্যও তাঁদের কাছে নেই । বিজেপি শাসিত রাজ্যগুলিতে কথায় কথায় বুলডোজার চালিয়ে গরিব ও সংখ্যালঘুদের উচ্ছেদ করা হয়। শেষ লক্ষ্য ধনিক ও বণিকের হাতে জমিগুলো তুলে দেওয়া। যেন কেউ প্রতিবাদ না করতে পারে, কিম্বা বস্তিবাসীদের উচ্ছেদ করলেও নিয়মানুযায়ী ক্ষতিগ্রস্ত মানুষগুলি যাতে ক্ষতিপূরণ দাবি করতে না পারে, তার জন্য বেনাগরিক বলে তাদের দাগিয়ে দেওয়া। নাগরিকত্ব আইন সংশোধনও করা হয়েছে সেই উদ্দেশ্য মাথায় নিয়ে। সম্প্রতি মহারাষ্ট্রের বিজেপি সরকার ধ্বনি ভোটে পাশ করিয়েছে ‘মহারাষ্ট্র বিশেষ জনসুরক্ষা বিল’। নামে জনসুরক্ষা হলেও জন সাধারণের কন্ঠরোধই এর উদ্দেশ্য। বলা হয়েছে ‘শহুরে নকশালদের’ দমন করাই এর লক্ষ্য। শহুরে নকশাল কারা? বাস্তবে ফ্যাসিবাদী ও স্বৈরাচারী সরকারী সিদ্ধান্তের বিরুদ্ধে কেউ যাতে মুখ খুলতে না পারে, এই আইন সরকারকে সেই সুরক্ষা দেবে। বিজেপির কৌশল হলো ধর্ম বা কোনও জনগোষ্ঠীর বিরুদ্ধে প্রচার তুঙ্গে তুলে সাধারণের দৃষ্টি সেই দিকে ঘুরিয়ে দিয়ে নিঃশব্দে নিজেদের কাজ করে যাওয়া। সেই কৌশলে তাঁরা সফল।
১৮.০৭.২৫
দৈনিক কালান্তর পত্রিকায় ২৮ জুন, ৫ জুলাই ও ১৯ জুলাই প্রকাশিত সম্পাদকীয় তিনটি আপনার কথামতো পাঠিয়ে দিলাম।
भारत में कैसे नागरिकता मिलती है
भारत में कैसे मिलती है नागरिकता?
भारतीय नागरिकता को लेकर संविधान का आर्टिकल 5-11 नागरिकता के बारे में बात करता है. उसके मुताबिक़, 26 जनवरी, 1950 को संविधान बनने के समय भारत में रहने वाला हर वो व्यक्ति भारतीय नागरिक माना जाएगा, जिसका:
जन्म भारत में हुआ हो
माता-पिता में से किसी एक का जन्म भारत में हुआ हो
संविधान लागू होने के पांच साल पहले से भारत में रह रहा हो
इसके अलावा इन अनुच्छेदों में पाकिस्तान से भारत आए व्यक्ति, जिनके माता-पिता या दादा-दादी अविभाजित भारत में पैदा हुए हों, या,
वो व्यक्ति जो भारत से पाकिस्तान चले गए हों, लेकिन बाद में फिर बसने के लिए भारत में लौट आए हों, या,
या, ऐसा व्यक्ति, जिसके माता-पिता या दादा-दादी अविभिाजित भारत में पैदा हुए हों, लेकिन वो फिलहाल भारत के बाहर रह रहा हो, इन्हें भी भारतीय नागरिक माना गया है.
भारत में नागरिकता प्रमाणित करने के लिए आधिकारिक तौर पर कोई कागज़ नहीं दिया जाता.
संविधान कहता है कि भारत में पैदा होने वाला शख्स भारतीय नागरिक है. भारत में पैदा होने वाली संतान या उनके वंशज भी भारतीय नागरिक माने जाते हैं.
इसके अलावा भारत में पैदा हुआ शख्स जो अब बाहर रह रहा है, उसे भी भारतीय नागरिकता देने का इंतज़ाम है.
भारत में जन्मे लोग बर्थ सर्टिफ़िकेट या जन्म प्रमाणपत्र दिखाकर साबित कर सकते हैं कि उनका जन्म भारत में हुआ है, इस लिहाज़ से वो भारत के नागरिक हुए.
जन्म प्रमाण पत्र ग्राम पंचायत, नगर पालिका या फिर नगर निगम जारी करता है. अगर जन्म प्रमाण पत्र नहीं है तो आप आवेदन करके बनवा सकते हैं. इसके लिए फॉर्म भरना होता है.
फॉर्म ऑनलाइन/ऑफलाइन दोनों तरीकों से भरकर जमा कर सकते हैं. ऑनलाइन फॉर्म dc.crsorgi.gov.in/crs की वेबसाइट पर भी मिल जाएगा. इसे भरकर नज़दीकी जन्म और मृत्यु पंजीकरण कार्यालय में देना होगा.
तथ्य बीबीसी के सौजन्य से
नागरिकता के प्रमाण दो किताबें पुलिनबाबू और छिन्नमूल
#छिन्नमूल
#पुलिनबाबू
नागरिकता के प्रमाण के लिए आधार, राशनकार्ड, मतदाता पहचानपत्र मान्य नहीं है।
ये किताबें लेकिन विस्थापितों की नागरिकता के दस्तावेज हैं।
गांव गांव पहुंचने लगी हमारी किताबें
लोग पढ़ने लगे अपने पुरखों का इतिहास, जन इतिहास।
विस्थापन और भारत विभाजन की त्रासदी के मध्य विस्थापन का सरहद के आर पार संघर्ष की आप बीती और संघर्ष महागाथा।
विभाजन पीड़ित बंगाली विस्थापित समाज घुसपैठ करके भारत में नहीं आए।विभाजन विभीषिका में अखंड भारत के नागरिक अपने ही देश में इतिहास, भूगोल, आजीविका, मातृभाषा, समाज,संस्कृति, अर्थ व्यवस्था, राजनीति, कानून के राज,संविधान, परिवेश,पर्यावरण, नागरिकता, नागरिक अधिकार और मानवाधिकार से बेदखल हो गए।
विभाजन से मिली आजादी के बाद देश के भीतर भी विस्थापन और बेदखली, प्रवास और पलायन अनंत है।
यह भी पुलिनबाबू के महासंग्राम की पृष्ठभूमि है।जिस आदिवासी भूगोल में बंगाली विस्थापित समाज को प्रत्यारोपित किया गया,वहां के आदिवासी मूलनिवासी, हिमालय के बाशिंदा और द्वीप वासी भी जल जंगल जमीन से बेदखल सलवा जुडूम के शिकार हैं।
1947 से 1964 के बीच आए बंगाली विस्थापितों में सिर्फ दस प्रतिशत का पुनर्वास हुआ। विकास के नाम बेदखली के शिकार लोगों का 1947 से अब तक कहीं कोई पुनर्वास नहीं हुआ। 1964 के बाद भारत आए किसी शरणार्थी का पुनर्वास नहीं हुआ।
भारत सरकार और राज्य सरकारों, राजनीतिक दलों और शासक वर्ग को सतह के नीचे जीवन यापन कर रहे इन मनुष्यों की कोई चिंता कभी नहीं थी।
उत्तराखंड में बंगाली विस्थापित,सिख और पंजाबी विस्थापित, पूर्वांचल के लोग आज बस गए थे। इसके साक्ष्य आधार कार्ड, राशन कार्ड और वोटर कार्ड भी नहीं देते। लेकिन इन दोनों किताबों ने तथ्यों समेत इसके साक्ष्य प्रस्तुत किए हैं।
इसीलिए गांव गांव पढ़ी जा रही हैं दोनों किताबें।
हमारे अथक सदाबहार महायोद्धा Nityanand Mandal गांव गांव घूम रहे हैं। दोनों किताबें प्राप्त करने में वे आपकी मदद करेंगे। आज नित्यानंद खानपुर नंबर एक में गए,जहां अम्बरीष विश्वास ने अमेजन से pulinbabu:visthapan ka yatharth मंगवाकर दो बार पढ़ भी चुके हैं।तीसरी बार पढ़ना शुरू किया है।
यह पुस्तक amazon ऑनलाइन स्टोर से प्राप्त की जा सकती है
अम्बरीष बाबू ने Rupesh Kumar Singh की बंगाली विस्थापित समाज की आपबीती की किताब छिन्नमूल के दूसरे संस्करण के लिए नित्यानंद को फोन किया तो कड़ी धूप में वे हो आए खानपुर दो नंबर।
आधा देश अपनी जल जंगल जमीन आजीविका से बेदखल विस्थापित हैं। किसान और मजदूर विस्थापित हैं।बाकी भी बेदखल हो रहे हैं।
हमने आपकी नागरिकता के दस्तावेज और आपका इतिहास इन दो किताबों में प्रस्तुत किए हैं। काम जारी है।
आप प्रेरणा अंशु के दफ्तर दिनेशपुर और अनसुनी आवाज़ Ansuni Awaaz के रुद्रपुर दफ्तर से किताब प्राप्त कर सकते हैं।
ये किताबें सर्वसमाज की विरासत है।
पलाश विश्वास
28.05.2025
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*मेरी नयी किताब छिन्नमूल अमेजन पर उपलब्ध है।*
आप घर बैठे किताब *उपरोक्त लिंक ओपन करके ऑर्डर* कर सकते हैं।
आपकी प्रतिक्रिया का इंतजार रहेगा।
*छिन्नमूल पढ़ना बेहद जरूरी है।*
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Rupesh Kumar Singh
आखिर किताब आ ही गई।
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Palash Biswas
अमेजन से ऑर्डर करिए। क्षेत्र की आपबीती को समझिए।
🙏🙏🙏
Pulinbabu : Visthapan Ka... https://www.amazon.in/dp/9364073428?ref=ppx_pop_mob_ap_share
Wednesday, August 27, 2025
अमेरिका से हथियार खरीदना क्यों बंद नहीं करते मोदीजी, टैरिफ के जवाब में?
हथियारों के सौदागर अमेरिका से समझौता कराने की जुगत में। सबसे ज्यादा मुनाफा इसी धंधे में है।इसी से सभी मालामाल।
अमेरिका एक मात्र उद्योग है हथियार उद्योग?
हथियारों की खरीद बंद तो अमरीकी अर्थव्यवस्था ठप।
भारत से अमेरिका को कौन बचा रहा है?
भारत के पास फिलहाल ये अमेरिकी हथियार
एएच-64 अपाचे कॉम्बेट हेलीकॉप्टर सीएच-47 चिनूक ट्रांसपोर्ट हेलीकॉप्टर सी-130 हरक्यूलिस ट्रांसपोर्ट एयरक्राफट सी-17 ग्लोबलमास्टर, हेवी ट्रांसपोर्ट एयरक्राफ्ट एमएच-60आर सीहॉक नेवल हेलीकॉप्टर पी-81 पोसाइडन पेट्रोल एंड एएसडब्ल्यू एयरक्राफ्ट एस-61 सी किंग एएसडब्ल्यू हेलीकॉप्टर एमक्यू-9बी सी/स्काईगार्डियन आर्म्ड ड्रोन एफ 404 टर्बोफैन फाइटर इंजन एजीएम-114 हेलफायर एंटी टैंक मिसाइल डब्ल्यूजीयू-59 एयर टू सर्फेस रॉकेट स्टिंगर पोर्टेबल सर्फेस टू एयर मिसाइल जीबीयू-97 गाइडेड बमजेडैम प्रीसिजन गाइडेड बम जीबीयू-39 गाइडेड ग्लाइड बम मार्क-54 एएसडब्ल्यू टॉरपीडो हारपून एंटी शिप मिसाइल
आईएनएस जलाश्वफायर फाइंडर काउंटर बैटरी रडारएम-777 टॉड 155 एमएम होवित्जर तोपेंएम-982 एक्सकैलिबर गाइडेड आर्टिलरी शेल्ससिग सॉर सिग 716 असॉल्ट राइफल
रॉयटर्स ने अपनी खबर में क्या कहा था?
रॉयटर्स ने अपनी खबर में कहा था कि अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के 50 प्रतिशत टैरिफ लगाए जाने के बाद भारत में असंतोष देखने को मिल रहा है. केंद्र सरकार ने नए अमेरिकी हथियार और विमान खरीदने की अपनी योजना को स्थगित कर दिया है. इस मामले से परिचित तीन भारतीय अधिकारियों ने यह जानकारी दी है. समाचार एजेंसी रॉयटर्स ने यह जानकारी दी है.
साथ ही खबर में कहा गया था कि डोनाल्ड ट्रंप ने 6 अगस्त को भारत द्वारा रूसी तेल की खरीद को लेकर नाराजगी जताई थी और भारतीय वस्तुओं पर 25 प्रतिशत का अतिरिक्त टैरिफ लगाया था. उन्होंने कहा कि इसका मतलब है कि भारत यूक्रेन पर रूस के आक्रमण को वित्तपोषित कर रहा है. इससे भारतीय निर्यात पर कुल टैरिफ 50 प्रतिशत हो गया. यह किसी भी अमेरिकी व्यापारिक साझेदार के लिए सबसे ज्यादा है.
अमेरिका से हथियारों की खरीद पर रोक की रिपोर्ट का रक्षा मंत्रालय ने किया खंडनरॉयटर्स की एक खबर में दावा किया गया था कि भारत ने नए अमेरिकी हथियार और विमान खरीदने की अपनी योजना को स्थगित कर दिया है. हालांकि अब इसे रक्षा मंत्रालय ने खारिज कर दिया है.
भारत ने अमेरिका से हथियार और विमान खरीदने की योजना को स्थगित नहीं किया है. रक्षा मंत्रालय ने रॉयटर्स की उस खबर को खारिज कर दिया है, जिसमें अमेरिका से हथियार और विमान खरीदने की योजना को स्थगित करने का दावा किया गया था. रक्षा मंत्रालय ने भारत द्वारा अमेरिका के साथ रक्षा खरीद संबंधी वार्ता रोकने संबंधी खबर को झूठा और मनगढ़ंत बताया है. साथ ही कहा कि रक्षा खरीद के विभिन्न मामलों में मौजूदा प्रक्रियाओं के अनुसार प्रगति हो रही है. रॉयटर्स ने भारत पर अमेरिका के 50 फीसदी टैरिफ का हवाला देकर दावा किया था कि भारत ने अमेरिका से हथियार और विमान खरीदने की योजना को स्थगित कर दिया है.
खाड़ी देशों से लेकर रूस तक पूरी दुनिया युद्ध से किसी न किसी तरह प्रभावित है और इन युद्धों में सबसे ज़्यादा फायदा किसी और का नहीं बल्कि अमेरिका को हुआ है, ये बात खुद बाइडन प्रशासन के आखिरी साल में हुए अमेरिकी हथियारों की बिक्री के आंकड़े कहते हैं. अमेरिकी स्टेट डिपार्टमेंट द्वारा जारी वैश्विक रक्षा सौदों की ताज़ा रिपोर्ट के अनुसार, वर्ष 2024 में अमेरिका ने 27.57 लाख करोड़ रुपये की कीमत के हथियार और रक्षा समझौते किए, जो 2023 के मुकाबले 29 प्रतिशत ज्यादा है.
साल 2024 में हुए सीधे रक्षा सौदों में अमेरिकी कंपनियों ने 17.37 लाख करोड़ रुपये के हथियार बेचे, जो 2023 में 13.63 लाख करोड़ रुपये था. वहीं 2024 में सरकार से सरकार के बीच हुए सौदों की कीमत 10.20 लाख करोड़ रुपये रही, जो 2023 में हुए 7 लाख करोड़ रुपये के रक्षा सौदों की तुलना में 45.7% अधिक है.
अमेरिकी सरकार और अन्य सरकारों के बीच हुए 10.20 लाख करोड़ रुपये के रक्षा सौदे में – 8.38 लाख करोड़ रूपए के हथियारों की बिक्री, मित्र देशों को हथियार खरीदने के लिए 1.02 लाख करोड़ रुपये की आर्थिक सहायता और साझेदार देशों की क्षमता बढ़ाने के लिए 79 हज़ार करोड़ रुपये की मदद शामिल है.
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