Sunday, November 4, 2012

शब्द की तपिश

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Sunday, 04 November 2012 13:33

जनसत्ता 4 नवंबर, 2012: 'सदियों के संताप', 'बस्स! बहुत हो चुका', 'अब और नहीं' से होते हुए शब्द झूठ नहीं बोलते तक की यात्रा गवाह है कि ओम प्रकाश वाल्मीकि दलित आंदोलन के ध्वजवाहक होते हुए भी पूरी मनुष्यता के कवि हैं।

उनकी दलित चेतना की पहुंच में सामान्य, हाशिये पर खड़े, अश्पृश्यता का दंश झेलते मनुष्य हैं। वे विकास की दौड़ में पीछे छूट गए लोगों के साथ हैं: 'उनकी अंत:चेतना में/ सुलग रहा है/ आग का बवंडर/ वो किसी भी दिन/ जाग सकता है/ अपनी हजारों साल पुरानी/ चुप्पी तोड़ कर!' वाल्मीकि जी इस चुप्पी के कारणों को ठीक से इसीलिए पहचानते हैं, क्योंकि उनमें आंबेडकरवादी दर्शन की प्रतिबद्धता है तो मार्क्सवाद की रोशनी भी। 
'बंधुआ शब्द' कविता की पंक्तियां हैं: 'तुम्हारे हाथ में/ शस्त्र और शास्त्र थे/ जिह्वा पर सरस्वती/ ऊंच-नीच को तार्किकता/ देने के लिए/ हम तब भी चीख रहे थे/ जिसे नहीं सुनना/ तुम्हारी कूटनीति थी/ या फिर शिल्प कौशल/ हमारे भीतर-बाहर/ जो अंधेरा है/ उसे महसूस करना जरूरी नहीं है तुम्हारे/ क्योंकि/ शब्दों को बंधक बना कर/ तुम जानते हो/ अच्छी तरह इस्तेमाल करना।' दलित कविता को लेकर यह सवाल बार-बार उठता है कि वहां कला कहां है? वाल्मीकि का यह संग्रह ऐसे कई सवालों का जवाब है। 
कविता यहां समाजशास्त्रीय प्रश्नों के साथ भी है, क्योंकि कवि के केंद्र में ऐसा मनुष्य है जो उत्पीड़न के साथ ही अवमानना और असमानता, अश्पृश्यता के चंगुल में जकड़ा हुआ है। इसीलिए वाल्मीकि की कविता मानवीय मूल्यों और मनुष्य की अस्मिता के साथ खड़ी है और उनका दलित विमर्श केवल वर्ण-व्यवस्था के खिलाफ आक्रोश और विरोध तक सिमटा नहीं है। इस संग्रह की भूमिका में उन्होंने लिखा है कि 'समाज में रचा-बसा विद्वेष रूप बदल-बदल कर झांसा देता है। दलित कवि के सामने ऐसी भयावह स्थितियां निर्मित करने के अनेक प्रमाण हर रोज सामने आते हैं, जिनके बीच अपना रास्ता ढूंढ़ना आसान नहीं होता। सभ्यता, संस्कृति के घिनौने षड्यंत्र लुभावने शब्दों से भरमाने का काम करते हैं। जहां नैतिकता-अनैतिकता और जीवन-मूल्यों के बीच फर्क करना मुश्किल हो जाता है। फिर भी नाउम्मीदी नहीं है।' 
चूंकि वाल्मीकि के लिए सर्जना का आशय सामाजिक है, कला-आनंद का विषय नहीं, बल्कि वह मनुष्य की स्वाधीनता के लिए एक अस्त्र और शस्त्र की तरह है। इसीलिए वाल्मीकि के यहां कविता सिर्फ कविता नहीं, एक नए साहित्यशास्त्र की रचनात्मक और वैचारिक जमीन भी है, जहां विद्रोह और क्रांति का सृजन उसका मुख्य धर्म है। इसीलिए वंचित मनुष्य ही बार-बार उनकी कविता के केंद्र में आता है। यह ऐसा मनुष्य है, जिसकी आवाज अब तक अनसुनी रह गई थी या कहीं सुनी भी गई तो आग्रहों के साथ।  
वाल्मीकि सबसे पहले 'शब्द' की सत्ता से टकराते हैं, उसके आध्यात्मिक प्रत्ययों को पहचानने की कोशिश करते हैं। शब्द की दार्शनिक व्याख्या का परंपरागत शास्त्र उन्हें स्वीकार नहीं है तो इसके ठोस सामाजिक कारण हैं। वे लिखते हैं: 'हजारों साल रखा जिन्हें/ शब्द से दूर/ ब्रह्म से दूर/ जो पल-पल रच रहे थे/ हजारों शब्द अपने पसीने की गंध से/ जिसे छीन कर/ अपनी मिल्कियत बना कर बैठ गए थे/ कुछ चतुर लोग/ जो आज भी समझा रहे हैं शब्द के अर्थ/ अपनी संकुचित भाषा में/ बना कर शब्द को जड़/ और अर्थहीन/ शब्द सिर धुनता है/ शस्त्र विहीन सैनिक की तरह/ जिसका रुदन सुनाई नहीं पड़ता/ जड़ होती भाषा को।' 
उपेक्षित-तिरस्कृत शब्दों की ऐसी दुनिया से साक्षात्कार होता है, जिसे अस्पृश्य माना और अपमान, दंश की काल कोठरी में सदियों तक कैद रखा गया, पर ये शब्द अब अपनी भाषा में विद्रोह और क्रांतिधर्मिता के साथ अपनी अस्मिता और सत्ता का अहसास तो करा ही रहे हैं, परंपरागत मान्यताओं को भी प्रश्नांकित कर रहे हैं: 'भाषा हो जाती है असमर्थ/ नए सूर्य की धूप में/ चुधियां जाती हैं जिसकी आंखें/ रटने लगती हैं/ घिसी-पिटी क्रियाएं/ जो धीरे-धीरे प्रलाप में बदल कर खो जाती हैं/ रेतीले बवंडर में/ कितना बेबस हो जाता है शब्द/ जो कभी ब्रह्म था।' 
शब्द-ब्रह्म की अद्वैतता के बहाने शोषण के दुश्चक्र को वाल्मीकि पूरी क्रांतिधर्मिता और विवेक के साथ बेनकाब करके साहित्य चिंतन का नया शास्त्र प्रस्तुत करते हैं। उनके यहां जीवन संघर्षों से निकली हुई वैचारिकता है; विद्रोह, आक्रोश, अस्वीकार और प्रतिरोध का भाव है, तो साहित्यिक-सांस्कृतिक छल को बारीकी से पहचानने का हुनर भी, और उसे कलात्मक स्वरूप में ढालने का साहित्यिक विवेक भी। शब्दों की उस यात्रा को, जिसमें मनुष्यता के लिए जगह नहीं है, वाल्मीकि उसका पूरा रहस्य उजागर कर देते हैं: 'सुनता रहा/ हर रोज घृणा और द्वेष के मंत्र/ कितना खोखला लगता है शास्त्रीय भाषा का/ यह शब्द/ वसुधैव कुटुंबकम।' 

दलित लेखक जिस पीड़ा और वेदना के साथ लिख रहे हैं, उसमें सर्जनात्मकता के साथ प्रतिरोध की ताकत कुछ ही जगह है। ज्यादा जगहों पर सिर्फ प्रतिरोध है, पर वाल्मीकि जी रचनात्मकता की कसौटी पर खरे उतरते हैं। इसीलिए उनकी कविताओं में सभ्यता समीक्षा है तो नई सभ्यता के निर्माण का संकल्प भी और इसके लिए वे कविता के माध्यम से एक संघर्ष यात्रा से गुजरते हैं। यही उनकी रचनात्मक यात्रा है, जिसमें आंबेडकर और बुद्ध का वैचारिक दर्शन है तो स्वानुभव से अर्जित जीवन-संघर्ष, विद्रोह, आक्रोश, नकार का स्वर भी। पर उनकी कविता इससे आगे भी जाती है, जहां वह सांस्कृतिक छद्म, राजनीतिक प्रपंच, वर्ण-विद्वेष के सामाजिक कारणों और साहित्यिक छल को बेनकाब करने वाली काव्य-भाषा से लैस   दिखाई देती है। 'अंधेरे में शब्द' कविता में सदियों का संताप है, जो समय की आवाज बन कर वाल्मीकि की काव्ययात्रा में उपस्थित है। 
'भयभीत शब्द ने मरने से पहले/ किया था आर्तनाद/ जिसे न तुम सुन सके/ न तुम्हारा व्याकरण ही/ कविता में अब कोई/ ऐसा छंद नहीं है/ जो बयान कर सके/ दहकते शब्द की तपिश।' 
वाल्मीकि के लिए अंधेरा सिर्फ एक शब्द भर नहीं, पूरा इतिहास है, जिसे कई-कई पीढ़ियां हजारों सालों से एक बोझ की तरह ढोती चली आ रही हैं: 'अभ्यस्त होकर जिए/ पीढ़ी-दर-पीढ़ी/ अंधेरे की कवायद में/ घुटती रहीं सांसें/ दर्ज होता रहा/ हारते जाने का इतिहास/ कंटीली बाड़ से घिरे/ असंख्य लोगों का।' 
वाल्मीकि की कविता का एक महत्त्वपूर्ण अवदान यह भी है कि आक्रोश के समय भी वे सचेत हैं। वे जानते हैं कि उनकी भूमिका क्या है? वे शोषक सत्ताओं की राजनीतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक आर्थिक क्रूरताओं को पहचानते हैं। उन्होंने 'वसुधैव कुटुंबकम' कविता में भारतीय सभ्यता और संस्कृति की समीक्षा की है: 'सुनता रहा/ हर रोज घृणा और द्वेष के मंत्र/ कितना खोखला लगता है शास्त्रीय भाषा का/ यह शब्द!/ वसुधैव कुटुंबकम!' 
इन शब्दों के प्रवक्ताओं पर वाल्मीकि जी को भरोसा नहीं है तो इसके पीछे ऐतिहासिक कारण हैं। उनकी मान्यता है: 'तुम्हारे हाथ में/ शस्त्र और शास्त्र थे/ जिह्वा पर सरस्वती/ ऊंच-नीच को तार्किकता/ देने के लिए/ हम तब भी चीख रहे थे/ जिसे नहीं सुनना/ तुम्हारी कूटनीति थी/ या फिर शिल्प कौशल।' वाल्मीकि जी शोषण के पीछे की कूटनीतिक शक्तियों को ठीक से पहचानते हुए न केवल उनके प्रति आक्रोश से भर उठते हैं, बल्कि सृजन का रास्ता भी खोजते दिखाई देते हैं। इसीलिए वे बार-बार अंधेरे से जूझते दिखते हैं। अंधेरा चाहे भीतर का हो या बाहर का, उसके प्रति एक प्रकार की जद्दोजहद उनके यहां विद्यमान है। 'उनकी अंत:चेतना में/ सुलग रहा है/ आग का बवंडर/ जो किसी भी दिन/ जाग सकता है/ अपनी हजारों साल पुरानी/ चुप्पी तोड़ कर!' 
'लोकतंत्र' कविता भारतीय सामाजिक व्यवस्था की विसंगतियों को उद्घाटित और संवैधानिक संस्थाओं की कार्यप्रणाली की ओर संकेत करती है: 'जाति यानी उपनाम/ उपनाम यानी गोत्र, वंश, कुल/ यानी वर्ण/ यानी चाक-चौबंद व्यवस्था/ यानी ऊंची-नीची पायदान/ यानी इंसान होने की शर्त।' 
उनके यहां अतीत का दुख है तो वर्तमान की त्रासदी का बोध भी। इतिहास दृष्टि है तो समकालीन बोध भी, पर मुक्ति का स्वर प्रबल है: 'हथेली पर उगा सूर्य/ ऊपर उठ रहा है/ पूरे आत्मविश्वास के साथ/ सदियों पुराने अंधेरे को/ निगल जाने के लिए।' 
नदी, मां, पहाड़, जुगनू, काला सूरज जैसे प्रतीक उनके यहां आकर नई सर्जना और सामाजिक भूमिका से लैस हो जाते हैं। काव्यभाषा की सहजता महत्त्वपूर्ण है, पर इसके पीछे क्रांतिधर्मिता वाल्मीकि की काव्य चेतना की विशिष्टता। उनका विश्वास ठोस और पारदर्शी है, क्योंकि उनके शब्द झूठ नहीं बोलते: 'मेरा विश्वास है/\ तुम्हारी तमाम कोशिशों के बाद भी/ शब्द जिंदा रहेंगे/ समय की सीढ़ियों पर/ अपने पांव के निशान/ गोदने के लिए/ बदल देने के लिए/ हवाओं का रुख।' 
ये कविताएं स्थापित मान्यताओं के विरुद्ध पूरे विवेक से खड़ी हैं। वाल्मीकि जी एक नए काव्यानुशासन की खोज करते दिखाई देते हैं।

दीपक प्रकाश त्यागी
शब्द झूठ नहीं बोलते: ओम प्रकाश वाल्मीकि; अनामिका पब्लिशर्स एंड डिस्ट्रीब्यूटर्स लिमिटेड, 4697/3, 21-ए, अंसारी रोड, दरियागंज, नई दिल्ली; 200 रुपए।

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