विकल्प की राजनीति तलाशते हुए खप गए किसी बूढ़े विचारक का भविष्य ?
वैकल्पिक राजनीति के एंटी-क्लाइमैक्स
हंस की सालाना गोष्ठी : 31 जुलाई, 2014
मैंने जितनी कविताएं लिखी हैं/ उससे कहीं ज्यादा देखे हैं हाथ/ कृपया मेरी बात सुनकर हँसें नहीं/ मैंने अपना हाथ भी देखा है/ मेरा भविष्य आपके हाथ में है…।
यह एक ताज़ा मरे हुए कवि की पंक्तियाँ हैं। कवि के मरने के बाद इस पंक्ति का क्या अर्थ बनता है? एक मरे हुए कवि का भविष्य क्या हो सकता है? अगर वह इस देश में मनुष्यों की औसत आयु पूरी कर के मरा हो,तब? अपनी उम्र जीकर मर चुके किसी भी व्यक्ति के भविष्य पर क्या कोई बात संभव है?
मुझे दरअसल मर जाने वाले बूढ़े लोगों से खास लगाव रहा है। पता नहीं क्यों, जब अपना जीवन जी चुका कोई व्यक्ति मर जाता है, तब मुझे लगता है कि उसे थोड़ा और जीना चाहिए था। मेरे जानने वाले बहुत से बूढ़ों की मौत बीते दिनों में हुई है। कई करीबी थे, कई दूर के। कई बिल्कुल अपरिचित। कई एकदम अजनबी। हालांकि सब के सब किसी न किसी मोर्चे पर ‘विकल्प की तलाश‘ से जुड़े हुए थे। एक कृष्णन दुबे थे। बहुत किस्से सुनाते थे। कम्युनिस्ट आंदोलन की पुरानी कहानियाँ। अखबारों के मालिकान के कारनामे। आज देवता सरीखे पूजे जाने वाले कुछ पत्रकारों के पुराने पाप। मैं उन्हें लिखने को कहता रह गया और वे चले गए। उनकी इच्छा थी कि मरते वक्त उन्हें लाल झंडा ओढ़ाया जाए। उस सुबह झंडा कहीं नहीं मिला। न अजय भवन में, न गोपालन भवन में। ताज़ा-ताज़ा जंगल से लौटी अरुंधती रॉय के पास भी नहीं। वो तो जावेद नक़वी का सब्र था कि एक सफ़ेद कपड़े को उन्होंने लाल में रंगवाया और कुछ देर से ही सही, गाड़ी पर बांध कर हवा में सुखाते हुए श्मशान तक पहुंचे। कृष्णन दुबेका भविष्य उन्हें आखिरी मौके पर मिल गया क्योंकि वह नक़वी जैसे हाथों में था। इसके बाद वे भुला दिए गए।
अभी हफ्ता भर पहले डी. प्रेमपति चले गए। वे जिंदगी भर विकल्प की राजनीति तलाशने में जुटे रहे। बुधवार को दिल्ली में हुई उनकी शोक सभा में वैकल्पिक राजनीतिक खेमे से ताल्लुक रखने वाले जितने बुजुर्ग पहुंचे थे, शायद इससे पहले एक साथ मैंने इतनों को कभी नहीं देखा। हमारे समय को बदलने में बरसों से अपने-अपने तईं जुटी समूची आखिरी पीढ़ी आंखों के सामने थी। कुर्सियाँ कम पड़ गई थीं, इतने लोग थे। किसी ने भीड़ पर आश्चर्य जताया, तो दूसरे ने जवाब दिया कि प्रेमपतिजी को थोड़े पता होगा कि इतने लोग उनकी शोकसभा में आए थे। एक बुजुर्ग ने चलते-चलते कहा था- ”ऐसे ही एक-एक कर के लोग मरते जाएंगे और बाकी लोग आते रहेंगे।” प्रेमपति ने अपने भविष्य की बेशक ऐसी कल्पना नहीं की रही होगी। ज़ाहिर है, उनका भविष्य भी जिम्मेदार हाथों में ही रहा होगा। उन्हें शायद ताकीद करने की अब ज़रूरत ना पड़े कि जिनके हाथों में वे दुनिया छोड़ गए थे, उन लोगों ने उनके जाने के बाद क्या किया।
ऐसा ही होना भी चाहिए। जो चला गया, अगर वह ठीक से गया हो, तो उसे सहज भुला ही दिया जाना चाहिए। उसका भविष्य जिन्हें तय करना था, उन्होंने अपना काम कायदे से किया और बात खत्म। विकल्प की तलाश में जुटे व्यक्ति को अपने भविष्य की मुनादी करने की क्या ज़रूरत? आखिर क्यों वह कोई ऐसी परंपरा शुरू करे जिसके बहाने उसके मरने के बाद भी परंपरा के बहाने उसे याद किया जाता रहे? गुरुवार शाम रचना यादव ने जब कहा कि राजेंद्र यादव के अवदान पर प्रेमचंद जयंती का सालाना जलसा इस बार रखने का पहले पहल आया विचार उन्होंने त्याग दिया, तो मुझे यह बात ठीक ही जान पड़ी। व्यक्ति के बजाय बात मुद्दे पर हो तो बेहतर, जैसा राजेंद्रजी करते आए थे। लेकिन इस विचार में यह कहां लिखा है कि मर चुके व्यक्ति को प्रेत की तरह मंच पर अगोरन बनाकर छोड़ दिया जाए? गुरुवार की शाम ऐवान-ए-ग़ालिब सभागार के मंच की दाहिनी तरफ़ जब-जब नज़र गई, ब्लैक एंड वाइट फ्रेम में से राजेंद्रजी घूरते नज़र आए। हमारी आंखों को मृत तस्वीरों पर मालाओं और अगरबत्तियों की आदत रही है। इनके बिना वह सूना-सादा फ्रेम 31 जुलाई की शाम लगातार सब से कुछ कह रहा था। यादवजी चुपचाप सब कुछ घटता देख रहे थे।
राजेंद्र यादव अब भी सब कुछ देख रहे हैं
कुर्सियाँ आधे से ज्यादा खाली थीं। लोग अनमने थे। किसी पुरानी आदत के अचानक छूट जाने की एक अपरिचित सी गंध सभागार में व्याप्त थी, जब अभय कुमार दुबे ने स्वागत करते हुए रघुवीर सहाय के हवाले से कह डाला, ”…हल्की सी दुर्गंध से भर गया सभाकक्ष।” राजेंद्रजी चश्मे के पीछे से देख रहे थे कि ऐंकर बने दुबे ने कैसे मंच संचालन की शुरुआत में ही सबके लिए 15-15 मिनट की कड़ी मियाद तय कर दी, लेकिन खुद भूमिका बांधने में 22 मिनट तक बोलते रह गए थे। वे देख रहे थे कि कैसे जगमति सांगवान ”मुंशी प्रेमचंद के नायक-नायिकाओं के सपनों को साकार करने” का बीड़ा उठा रही थीं। उन्होंने बखूबी इस बात पर ध्यान दिया कि मुकुल केसवन ने कैसे 15 मिनट का तय वक्त कांग्रेस के ”ज़ूलॉजिकल नेशनलिज्म” को अंग्रेज़ी में सही साबित करने में गंवा दिया और एक कुशल टीवी ऐंकर की भांति दुबे ने केसवन की बात पर मुहर भी मार दी। राजेंद्रजी ने तब मुंह बिचकाया, जब अरुणा रॉय ने अपने 25 मिनट के संबोधन में 15 मिनट यह समझाने में गंवा दिए कि वे राष्ट्रीय सलाहकार परिषद की सदस्य क्यों बनीं और सत्ता के सामने उन्होंने कितना सच बोला है।
”सच”… हां, सच इस सभा का मंत्र रहा। राजेंद्रजी सच पर बहुत ज़ोर देते थे। वे लेखकों की फिसलनों पर उनसे उगलवाते थे। अरुणा ने कहा कि सत्ता के सामने सच बोलो। इसका दूसरा भाष्य यह बनता था कि जनता के सामने सच बोलो, यह ज़रूरी नहीं। इसीलिए चार वक्ता बीत गए और ”वैकल्पिक राजनीति की तलाश” महिला आरक्षण से शुरू होकर कांग्रेस व एनएसी तक ही पहुंच सकी। अकेले देवी प्रसाद त्रिपाठी ने दूसरे तरीके से इस बात को रखा, जब उन्होंने संवादहीनता का मसला उठाया और कार्यक्रम के दो घंटे बाद पहली बार ”वामपंथ”, ”माओवाद” और ”नेपाल” का जि़क्र किया। राजेंद्रजी के फ्रेम पर अचानक एक मुस्कान उभरी। वे जानते थे कि कोई हो न हो, डीपीटी अपने अंदाज़ में कुछ काम की बातें ज़रूर कह जाएगा। त्रिपाठी के कहे पर पहली बार पूरा सभागार अपनी मरणासन्न मूर्च्छावस्था से जागा तो, लेकिन टीवी के ऐंकर को यह बात नागवार गुज़री। डीपीटी का वक्त खत्म हुआ, तो छूटते ही अभय कुमार दुबे बोले, ”विकल्प की राजनीति का एक संकट ये है कि मन कहीं और रहता है और देह कहीं और। जैसे डीपीटी की देह एनसीपी में है लेकिन मन अब भी वामपंथ में।” लोग हंसे। मैंने देखा कि राजेंद्रजी ने इस बात को बहुत तवज्जो नहीं दी, मानो दुबे से पूछना चाह रहे हों कि दुबे से चौबे और चौबे से छब्बे बनने के क्रम में उन्होंने अपनी देह और मन को कहां-कहां गिरवी रखा है, पहले यह बताएं। बहरहाल, वे चुप रह गए।
राजेंद्रजी को अध्यक्षीय संबोधन का इंतज़ार नहीं था क्योंकि वे जानते थे कि यह एक दुहराव ही होगा। वही निकला भी। और लोग भी निकलने को हुए कि अचानक आठ बजे एक बुरी ख़बर आई। दरअसल, बुरी ख़बर आ तो शाम को साढ़े चार बजे ही गई थी, लेकिन ऐंकर अपनी ब्रेकिंग न्यूज़ की नई-नई आदत से मजबूर था। उसने पूरी नाटकीयता और कर्कश संवेदना से कहा, ”अभी-अभी एक बुरी खबर हमारे पास आई है। बांग्ला के कवि नवारुण भट्टाचार्य नहीं रहे। हम उनके लिए दो मिनट का मौन रखेंगे।” राजेंद्रजी हतप्रभ थे। उनकी मुलाकात तो साढ़े तीन घंटा पहले नवारुण से हुई थी, फिर सभा की शुरुआत में ही मौन क्यों नहीं रखा गया? वे सोच ही रहे थे कि सभागार में बचे-खुचे लोग मौन में अचानक खड़े हुए और ठीक 45 सेकंड बाद दुबे की आकाशवाणी हुई, ”बैठ जाइए”। सबने घड़ी देखी। एक साथ पीछे से तीन-चार आवाज़ें निकलीं, ”अरे, अभी तो एक मिनट भी नहीं हुआ।”
सभागार से सबके बाहर निकल जाने के बाद राजेंद्र यादव जब दाहिने कोने से खाली हॉल को बेचैनी में अगोर रहे थे, तब उनके बगल में बैठे नवारुणदा पछता रहे थे कि उन्होंने अपना हाथ क्यों देख लिया था। देख ही लिया था तो उसे कविता में लिख क्यों डाला। सभागार में रह-रह कर 2011 में कहा नामवर सिंह का वह कुख्यात वाक्य गूंज रहा था, ”राजेंद्र, इन लौंडों को ज्यादा सिर पर न चढ़ाओ, ये तुम्हारे किसी काम नहीं आएंगे, हाथ काटकर ले जाएंगे और तुम्हें पता तक नहीं चलेगा।” उधर, सभागार के बाहर सारे लोग जब एक-दूसरे से मिल रहे थे, तो ऐसे तुच्छ कार्यों में बिना समय गंवाए अभय दुबे किसी पेशेवर की तरह एबीपी न्यूज़ को अपनी बाइट दे रहे थे। ”वैकल्पिक राजनीति की तलाश” का यह सफलतम एंटी-क्लाइमैक्स था जिसके प्रायोजक अम्बुजा सीमेंट के मालिकान का धर्मार्थ संस्थान नेवतिया फाउंडेशन औररमाडा प्लाज़ा थे और जिसका संचालन अभय कुमार दुबे नाम के व्यक्ति के हाथ में था।
पुनश्च: विकल्प की राजनीति तलाशते हुए खप गए किसी बूढ़े विचारक का, संपादक का, कवि का फिलहाल वही भविष्य हो सकता है जो डी. प्रेमपति, राजेंद्र यादव या नवारुण भट्टाचार्य का है। बूढ़ों का एक भविष्य और होता है। अगर आपने नाम सुना हो या याद हो, तो एक होते थे गोविंद राम निर्मलकर। याद दिलाने के लिए पद्मश्री और संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार का जिक्र किया जा सकता है। दिमाग पर ज़रा और ज़ोर डालें, तो ”चरणदास चोर” का चोर और ”आगरा बाज़ार” का ककड़ी बेचने वाला पात्र। बीते रविवार यानी 27 जुलाई को उन्होंने रायपुर के जि़ला अस्पताल में बेहद गरीबी और बीमारी में दम तोड़ दिया। न पद्मश्री काम आया, न अकादमी पुरस्कार। सरकार से मिलने वाली 1500 की पेंशन में न वे खुद को बचा सके, न ‘नाचा’ शैली को। दिल्ली उन्हें जीते जी भुला चुकी थी। उनके मरने पर ही लोगों को पता चला कि वे जि़ंदा थे। मुझे भी। और यह बताने में मुझे कोई संकोच नहीं है क्योंकि मैं जानता हूं कि यह खबर अब भी कई लोगों तक नहीं पहुंची है। वैकल्पिक रंगमंच की तलाश में हबीब तनवीर के नया थिएटर को पैरों पर खड़ा करने वाले गोविंद राम निर्मलकर का भविष्य किसके हाथों में था, क्या यह सवाल पूछने का अब कोई अर्थ बनता है?
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