Friday, July 5, 2013

ग्लोबल वार्मिंग से घटने लगे हैं ग्लेशियर

ग्लोबल वार्मिंग से घटने लगे हैं ग्लेशियर

अमित चौधरी | आईबीएन-7 | Jul 02, 2013 at 10:15am | Updated Jul 02, 2013 at 10:52am


नई दिल्ली। जिंदगी देने वाली नदियों पर भी ग्लोबल वार्मिंग का असर दिखने लगा है। हिमाचल प्रदेश में बहने वाली दो नदियों की चाल इसकी वजह से बदल गई। चार सौ साल पहले केदारनाथ मंदिर के इर्द-गिर्द ग्लेशियर की ही हुकूमत थी। धीरे-धीरे ये पिघल कर सिमट गया। पिछले 50 साल में हिमालय में इनके पिघलने की रफ्तार तेज हो गई। हिमाचल प्रदेश में लाहौल स्फीति का छोटा शिन्ग्री ग्लेशियर भी अलग नहीं है। इसी ग्लेशियर की बर्फ से चेनाब में पानी आता है।

हिमालय में ऐसे 15000 ग्लेशियर नदियों के पानी के स्रोत है। इनमें से 9500 ग्लेशियर भारतीय इलाके में हैं और इनमें से 1239 अकेले हिमाचल प्रदेश में हैं। अब ऐसे सभी ग्लेशियरों पर ग्लोबल वार्मिंग का खतरा मंडरा रहा है। नौ किलोमीटर लंबे छोटा शिंग्री ग्लेशियर से चेनाब नदी में पानी आता है। यह पिछले 50 सालों में एक किलोमीटर तक पिघल चूका है और अगर हालत जल्द नहीं सुधरे तो यह महत्वपूर्ण ग्लेशियर जल्द ही खत्म हो जाएगा।

खतरा छोटा शिंग्री पर ही नहीं है। हिमालय का सबसे बड़ा ग्लेशियर होने के बावजूद गंगोत्री भी बढ़ती गर्मी का ताप झेल नहीं पा रहा। गंगा के पानी का स्रोत ये ग्लेशियर 30 साल में डेढ़ किलोमीटर तक पिघल चुका है। हिमाचल सरकार के स्टेट सेंटर फॉर क्लाइमेंमट चेंज के आंकड़े के मुताबिक राज्य में छोटे ग्लेशियर बढ़े हैं लेकिन बड़े ग्लेशियर खत्म हो रहे हैं।

लाहौल स्फीति में ही 1962 से 2001 के बीच ज्यादातर ग्लेशियर पिघल गए। 10 वर्ग किलोमीटर के 5 ग्लेशियर घटकर महज 2 रह गए। 5 से 10 वर्ग किलोमीटर के 8 ग्लेशियर की जगह अब 5 ही बचे हैं। 3 से 5 वर्ग किलोमीटर के ग्लेशियर भी अब 12 की बजाए 8 ही हैं। जानकार बढ़ती गर्मी को ग्लेशियर पिघलने की वजह बताते हैं। सासे के संयुक्त निदेशक डॉ एम् आर भूटियानी बताते हैं कि जब इन ग्लेशियर की बर्फ कम हो रही है। मलबा बाहर आ रहा है। पठार और अधिक तप रहा है जो गर्मी को और तेजी से बढ़ा रहा है।

यूनिवर्सिटी ऑफ क्वींसलैंड की एक स्टडी के मुताबिक हिरोशिमा पर गिरे परमाणु बम ने धरती का तापमान जितना बढ़ाया, हर सकेंड उसका चार गुना तापमान ग्लोबल वार्मिंग की वजह से बढ़ रहा है। तापमान बढ़ने की दर भारत में कुछ ज्यादा ही है। एक स्टडी के मुताबिक हर सौ साल में दुनिया का तापमान 0.7 डिग्री सेल्सियस की दर से बढ़ रहा है तो भारत में ये रफ्तार तीन गुनी है। यहां सौ साल में 1.7 डिग्री के दर से तापमान बढ़ रहा है। इसका असर बर्फबारी की मात्रा पर भी दिखने लगा है। 30 साल में लाहौल स्पिति में बर्फबारी का ट्रेंड बदल गया है। पहले यहां 20 से 25 फीट बर्फ गिरती थी। अब 7 या 8 फीट बर्फ ही पड़ती है।

पूरे हिमालय में छोटा शिंग्री जैसे लगभग 1500 ग्लेशियर है। इनमें से ज्यादातर तेजी से पिघल रहे हैं। इन ग्लेशियरों का भविष्य खतरे में है और खतरे में है इनसे निकलने वाली गंगा, सतलुज, ब्यास जैसी नदियां भी जिनके पानी पर पहाड़ी और मैदानी इलाकों के करोडो लोग जिंदा हैं।

ग्लेशियर ज्यादा पिघलेंगे तो नदी का पानी बढ़ेगा। भाखड़ा बांध में इस बार सतलुज का पानी पिछले साल के मुकाबले दोगुना आया। 25 साल में पहली बार ऐसा हुआ। यहां रोजाना सतलुज का 70 हजार क्यूसेक पानी आ रहा है। भाखड़ा-ब्यास प्रबंधन बोर्ड इसे अच्छा संकेत नहीं मान रहा। बोर्ड के सिंचाई सदस्य एसएल अग्रवाल कहते हैं कि ग्लेशियर हमारी नदियों के लिए काफी जरूरी है। इन पर हो रहे बदलाव पर नजर रखने के लिए हम एक नया प्रोजेक्ट शुरू कर रहे हैं।

एक तरफ जहां सतलुज में जलस्तर बढ़ रहा है, वहीं मानसून में रौद्र रूप के लिए बदनाम ब्यास नदी बरसात खत्म होते ही पहाड़ी नाले में बदल जाती है। ब्यास में बरसात और रोहतांग दर्रे के झरनों का पानी आता है। बर्फबारी कम होने से ये झरने सूखने लगे हैं। डॉ एम् आर भूटियानी का कहना है कि ब्यास नदी सिर्फ बरसाती नदी बन कर रह गई है। साफ है सतलुज और ब्यास दोनों नदियां एक दूसरे से एक दम उलट बर्ताव करने लगी हैं।

पूरे उत्तर भारत में इंसान, पशु-पक्षी, पेड़-पौधों की जिंदगी यहां बहने वाली नदियों पर टिकी है और इन नदियों की जान इन ग्लेशियरों पर। अगर इन ग्लेशियरों को बचाना है तो हमें अपने पर्यावरण को साफ-सुथरा रखना होगा।

http://khabar.ibnlive.in.com/news/102363/1

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