Sunday, February 3, 2013

वेदना का बहाव

वेदना का बहाव


Sunday, 27 January 2013 17:06

मोहनकृष्ण बोहरा 
जनसत्ता 27 जनवरी, 2013: तसलीमा नसरीन की आत्मकथा का छठवां खंड 'नहीं, कहीं कुछ भी नहीं...' उनका गहरा आत्म-प्रक्षालन है। यह पूरा खंड पत्र-शैली में लिखा गया है। मां ईदुलआरा के नाम लिखा गया बेटी तसलीमा नसरीन का पत्र। तीन सौ पृष्ठों से भी अधिक विस्तृत पत्र! मां की मृत्यु के बाद जिस शिद्दत से उन्होंने मां को याद किया है और उनके प्रति की गई अपनी अवमाननाओं के लिए जो पश्चाताप किया है, उससे यह पत्र अत्यंत मार्मिक बन गया है। 
इन यादों में अतीत की वे घटनाएं भी आ गई हैं, जो पिछले खंडों में छूट गई थीं। मां की बीमारी, स्वीडन में हुआ उसका गलत उपचार, अमेरिका में उसके कैंसर का उपचार नहीं हो पाना आदि से जुड़ा घटना-क्रम भी इसमें विशेष पठनीय है। यह क्रम मां के स्वीडन पहुंचने और वापस देश लौटने, फिर अमेरिका जाने और देश लौटने से लेकर उसकी मृत्यु तक चलता है। मां की मृत्यु के बाद खुद तसलीमा के यूरोप लौटने और उसके बाद की घटनाओं का विवरण भी उसने मां के सामने रखा है। उधर, देश में पिता की बीमारी और इलाज में भाई द्वारा बरती गई लापरवाही की वजह से हुई उसकी मृत्यु का प्रसंग भी इसमें है। पिता की वसीयत और उसमें बेटियों के साथ किए गए अन्याय की शिकायत भी इसमें दर्ज है। ये तमाम हालात तसलीमा अपनी मां को बताती हैं। इस तरह, दिवंगत होकर भी मां इसमें बेटी के लिए एक जीवंत उपस्थिति है। इन घटनाओं के वर्णन में वर्तमान से अतीत में लेखिका की आवाजाही सतत बनी रही है। 
मां की धर्म-वृत्ति से तसलीमा को शुरू से चिढ़ थी। वे मां को निर्बुद्धि समझती ही नहीं, कहती और जब-तब उस पर खीझती भी रहती थीं। मां उन्हें 'पढ़ी हुई किताब' या 'बांची हुई चिट्ठी' लगती थी! लेकिन इस खंड में आकर ही हम पुख्ता रूप से जान पाते हैं कि मां के प्रति उनमें नफरत थी, बल्कि वह गहरी जड़ें जमाए हुए थी! इस दृष्टि से तसलीमा की यह आत्म-स्वीकृति उनकी ईमानदारी का नमूना है। यों, लेखिका की ईमानदारी हम सभी खंडों में देख सकते हैं। अपनी दुर्बलताओं को उन्होंने अकुंठ भाव से स्वीकार किया है। मगर इसमें मां को सही रूप में नहीं समझ पाने और गलत कारणों से उससे नफरत करने के लिए घोर आत्म-धिक्कार का ज्वार भी उनमें रह-रह कर उठा है। अपनी इस ग्लानि से बहे अश्रु-जल से ही उन्होंने मां के प्रति रहे अपने कलुषित-मन का प्रक्षालन किया है। 
इस बात का दुख उनकी आत्मा को आद्यंत कोंचता रहा है कि मां जब तक जीवित रही, उन्होंने उसके गुणों की पहचान नहीं की, जबकि वह अपूर्व गुणवती महिला थी। उन्होंने बड़ी शिद्दत से यह प्रश्न उठाया है कि सभी की सेवा करने वाली मां को परिवार ने सिवाय उपेक्षा और अवमानना के क्या दिया? पति ने क्या दिया? पति ने रखैल में मन रमा कर उसकी रातों की नींद और दिन का चैन छीन लिया। वह जीवन भर रक्तचाप से पीड़ित रही। पति डॉक्टर था। पत्नी का उपचार करना-करवाना उसकी जिम्मेदारी थी, लेकिन उसने क्या किया? खुद तसलीमा ने क्या किया? वे भी तो डॉक्टर थीं! इस मुद्दे पर तो उन्होंने खुद की इतनी भर्त्सना की है कि यहां तक लिख दिया है कि मां की मौत की जिम्मेदार मैं हूं। मैंने ही मां को मारा है! जो-जो कसूर मां के नहीं थे, उनके लिए भी उन्होंने जब-तब मां को ही कोसा, इस बात को याद कर-कर वे जगह-जगह आत्म-ग्लानि से भर गई हैं। 
तसलीमा के बचपन में उसके मामा शराफ और बाद में चाचा अमान ने यौन शोषण किया था, इसलिए इन दोनों के प्रति उनमें गहरी घृणा भर गई थी। ये प्रसंग उन्होंने मां को नहीं बताए। कालक्रम में पति की उपेक्षा की शिकार ईदुलआरा (तसलीमा की मां) अपने देवर अमान के प्रति अनुरक्त हुई। हालांकि यह झुकाव अल्पजीवी ही था, लेकिन तसलीमा ने जब इसे लक्ष्य किया, तब वे मां से विरत हो गर्इं। उनके बलात्कारी के प्रति मां की अनुरक्ति! जो घृणा उनमें अमान के प्रति थी, संबंध-भाव से वहीं मां के प्रति भी हो गई! यह बचपन का प्रसंग था। धीरे-धीरे कारण तो विस्मृत हो गया, लेकिन मां के प्रति घृणा रह गई! 

मां इस प्रसंग में निर्दोष थी। अगर वह जानती कि अमान ने तसलीमा के साथ कुकर्म किया है, तो वह भला अमान को घर में टिकने देती? जब तसलीमा के खिलाफ फतवा जारी हुआ, तो पीरबाड़ी ने मां के सामने शर्त रखी कि बेटी या पीरबाड़ी में से एक को चुनना होगा। उसने बेटी को अपना लिया; इस्लाम तो उसने नहीं छोड़ा, पर पीरबाड़ी छोड़ दी। वह मां अमान को घर में कैसे रखती! तसलीमा के साथ हुई दुर्घटनाओं का सूत्र मां के लिए लुप्त ही रहा। इस लुप्त सूत्र का विचार किए बिना ही तसलीमा मां से ऐंठी रहीं। यह ऐंठन उनके निर्वासन-काल में भी काफी समय तक नहीं गई। 
स्वीडन से लौटने के लिए मां ने छोटे बेटे से बात की थी। तसलीमा ने उसका न जाने क्या अर्थ लगा कर मां को इतना लांछित किया और बुरा-भला कहा कि वह रो पड़ी। उन्होंने मां से यह भी कहा कि तुम लालची हो। तुम चीजें खरीदने आई थी। सामान खरीद लिया, अब खिसक लेना चाहती हो, जबकि हकीकत यह थी कि बेटी ने मां को अब तक जो कुछ भेजा था, उस सबसे वह बेटी के लिए ही सामान लेकर आई थी! जो कुछ उसके पास था, वह भी उसने बेटी की आलमारी में ही सजा दिया था! ऐसी मां को भी उसने लांछित किया! इस सारे प्रसंग में मां की जगह अपने को रख कर तसलीमा ने विचार किया तो अपने दुर्वचनों के लिए उन्होंने अपने को यहां तक धिक्कारा है- 'तुम्हारी जगह अगर मैं होती, तो मुझ जैसी पत्थर-दिल बेटी के   टुच्चे अहंकार, कुत्सित आत्माभिमान पर कस कर एक लात जमाती और चल देती। उसके बाद उस बेटी का मुंह देखने की जरूरत कभी महसूस नहीं करती।' 
यह कथन जहां तसलीमा का प्रचंड स्वाभिमान दर्शाता है, वहीं मां की चरम सहिष्णुता भी सूचित करता है। उसे यह कांटा भी गड़ता रहा है कि उसने कभी मां को अपने पास नहीं बुलाया (जैसे भाइयों और पिता को बुलाया था)। मां तो खुद चल कर आई थी। अपना अंत निकट जान कर बेटी से मिलने। लेकिन उन्होंने तो उसके रहने-खाने, नहाने-धोने, कहीं घुमाने-फिराने का भी कोई ठीक से प्रबंध नहीं किया! उसके पास बैठने का समय भी उन्हें कहां था! वे तो जब-जब उसके रोजे-नमाज को ही कोसती और अकारण ही उसे लांछित करती रहीं! लेकिन उसने कभी बेटी की बातों का जवाब नहीं दिया। बेटी के लिए उसमें सदा प्यार, करुणा और ममता ही बनी रही! 
मां के हृदय की इस विशालता को देख कर ही उसके प्रति तसलीमा की धारणा बदली। पुनरवलोकन पर उन्होंने पाया कि मां किसी भी प्रसंग में दोषी नहीं थी, उन्हीं ने मां को गलत समझा और अकारण जीवन भर उसका दिल दुखाती रहीं। अपने दुर्व्यवहार और दुर्वचनों का कुछ मार्जन उन्होंने कैंसर-पीड़ित मां की सेवा करके, तो कुछ उसके उपचार पर और उसकी खुशी के लिए दिल खोल कर खर्च करके किया। लेकिन इससे भी उनकी आत्मा का बोझ हल्का नहीं हुआ। मां से उन्होंने बार-बार यही कहा है कि तुम मुझे क्षमा मत करना। मैं इस योग्य नहीं हूं।

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