Friday, February 15, 2013

'डील' में काला

'डील' में काला

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भारत के लिए विशेष रूप से तैयार किया आगस्टा वेस्टलैण्ड 101 हेलिकॉप्टरभारत के लिए विशेष रूप से तैयार किया आगस्टा वेस्टलैण्ड 101 हेलिकॉप्टर

इटली की कंपनी फिनमैकेनिका के आगस्टावेस्टलैण्ड 101 हेलिकॉप्टर सौदे में घूसखोरी के आरोप के बाद सिर्फ इटली में ही नहीं बल्कि भारत में भी राजनीतिक बवाल मचा हुआ है। घूस तब दी जाती है जब दाल में कुछ काला करना होता है। इसलिए अगर इटली की कंपनी द्वारा घूस देने की बात सामने आ रही है तो स्वाभाविक तौर पर यह सवाल उठता है कि भारत में शुरू की गई खरीद प्रक्रिया को प्रभावित करने के लिए ही घूस दी गई होगी। भारत के वीवीआईपी परिवहन के लिए जिन 12 हेलिकॉप्टरों के लिए निविदा निकाली गई थी उसमें आखिरकार आगस्टावेस्टलैण्ड को हेलिकॉप्टर सप्लाई का आदेश दे दिया गया।

निश्चित तौर पर रक्षा खरीद की एक प्रक्रिया होती है जो बड़ी लंबी होती है। रक्षा खरीद में होनेवाली इस देरी से भले ही जरूरतों पर असर पड़ता है लेकिन लंबी प्रक्रिया के पीछे एक जटिल व्यवस्था होती है। एक रक्षा सौदे को कई स्तरों पर सहमति हासिल करनी होती है तब जाकर खरीद का आर्डर मिल पाता है। हो सकता है कि इसका निहितार्थ भ्रष्टाचार पर रोक लगाना हो लेकिन यह कम आश्चर्यजनक नहीं है कि इस जटिल प्रक्रिया के बाद भी रक्षा खरीद में ही सबसे अधिक भ्रष्टाचार की खबरें सामने आती हैं, और राजनीतिक तूफान खड़े होते हैं। सरकारे बनती बिगड़ती हैं। इटली हो या कि भारत दुनिया के अधिकांश देशों रक्षा सौदों की दलाली तभी सामने आती है जब किसी समूह द्वारा इसका राजनीतिक फायदा उठाना होता है। मसलन, ताजा विवाद भी इसलिए पैदा हुआ क्योंकि इटली में आम चुनाव हैं और कार्यवाहक प्रधानमंत्री मारियो मोन्टी खुद को भ्रष्टाचार विरोधी साबित करना चाहते थे इसलिए अपने विरोधी को चंदा देनेवाली हेलिकॉप्टर कंपनी पर कानूनी फंदा डाल दिया।  

हेलिकॉप्टर कंपनी के चेयरमैन गिरफ्तार हुए तो वहां से ज्यादा बवाल भारत में इसलिए मच गया क्योंकि उन्होंने जो घूस दी है वह भारत के नेताओं और अधिकारियों ने ही खाई है। अब मीडिया खोद खोदकर नई नई खबरें ला रहा है और बता रहा है कि कौन कौन घूसखोर हो सकता है। लेकिन हम इस बहस में पड़ने की बजाय आइये जरा उस सौदे की तफ्सीस करते हैं जिसे अंजाम दिया गया। क्या वास्तव में घूस खाकर हमारे नेताओं और अधिकारियों ने गलत सौदा कर लिया है? हमार रक्षा मंत्री कह रहे हैं कि अगर दलाली की बात सच पाई जाती है तो इस खरीद सौदे को रद्द कर दिया जाएगा। क्या वास्तव में ऐसा करके वे कोई बहादुरी करेंगे? आगस्टावेस्टलैण्ड कंपनी को बाहर दर देने से जो आयेंगे क्या वे सही प्रोडक्ट दे पायेंगे?

चलिए हम उन तीन कंपनियों का जायजा लेते हैं जो इस रक्षा आपूर्ति सौदे की निविदा प्रक्रिया में शामिल थीं। वैसे तो इस मोल तोल में चार कंपनियां शामिल थीं लेकिन रुस की कंपनी पहले ही बाहर हो चुकी थी जिसके बाद इटली की फिनमैकेनिका, फ्रांस की यूरोकॉप्टर और अमेरिका की सिरोस्की मुख्य बोलीकर्ता के तौर पर इस खरीद प्रक्रिया में शामिल थे। फिनमैकेनिका ने जो हेलिकॉप्टर दांव पर लगाया था उसका नाम था आगस्टावेस्टलैण्ड 101। फ्रांस की कंपनी यूरोकॉप्टर ने अपने एनएच 90 का प्रस्ताव किया था जबकि सिरोस्की ने एस-92 हैलिकॉप्टर के खरीदारी का प्रस्ताव भारत को दिया था। 

भारत की जरूरत एक ऐसे रक्षा हेलिकॉप्टर की थी जिसे वीवीआईपी परिवहन के लिए इस्तेमाल किया जा सके। हमारे प्रधानमंत्री या राष्ट्रपति अभी जिस हेलिकॉप्टर की फ्लीट को परिवहन के लिए इस्लेमाल करते हैं वह उनकी जरूरतों के लिहाज से पुराना पड़ चुका है। लिहाजा अमेरिकी मेरीन वन की तर्ज पर भारत सरकार ने भी अपनी मेरीन वन तैयार करने की योजना बनाई थी। भारत पहले ही बोइंग से तीन बिजनेस जेट लेकर उन्हें वीवीआईपी ट्रांसपोर्ट में नियुक्त कर चुका है। इसलिए जब मेरीन वन की ही तर्ज पर वीवीआईपी हेलिकॉप्टर की खोज की गई तो मेरीन वन को भी ध्यान में रखा गया होगा।

अगर खुद फिनमैकेनिका समूह के सीईओ स्वीकार कर लेते हैं कि उन्होंने घूस दिया है तो निश्चित रूप से लेनेवाले लोग भी होंगे ही। उसकी जांच हो और उसका पताया लगाया जाना चाहिए, लेकिन इस घूसखोरी के आरोपों के बीच अपने आप को पाक साफ बताने के लिए सौदे को रद्द करना कहीं से समझदारी नहीं होगी। रक्षा सौदेबाजी में घूसखोरी कोई नई बात नहीं है। सब जानते हैं दुनिया के हर रक्षा सौदेबाजी में घूसखोरी होती है। जो देखने की बात है वह यह कि क्या घूस खाकर हमारे खरीदार घास फूस उठा लाये हैं? अगर हां तो जरूर सौदा रद्द कर दिया जाना चाहिए, लेकिन अगर नहीं तो फिर सौदा रद्द करने पर देश फायदे में रहे न रहे दल और दलाल समूह जरूर फायदा उठा लेगे।  

जो तीन कंपनियां इस बोली प्रक्रिया में शामिल थीं, उसमें अमेरिकी की सिरोस्की कंपनी का हेलिकॉप्टर एस 92 दोहरे इंजन वाला सैन्य परिवहन हेलिकॉप्टर है। हालांकि यह सिरोस्की कंपनी के सिविल डिपार्टमेन्ट द्वारा बनाया और बेचा जाता है लेकिन दुनिया में इसका ज्यादातर इस्तेमाल वीवीआईपी नहीं बल्कि सैनिकों को लाने ले जाने के लिए किया जाता है। एस-92 में दो पायलट के अलावा19 सैनिकों को लादने की क्षमता होती है। एक बार उड़ान भरने के बाद यह हेलिकॉप्टर 900 किलोमीटर की दूरी तय कर सकता है। 2004 से यह हेलिकॉप्टर हवा में है। इसी तरह दूसरा प्रस्ताव यूरोकॉप्टर की तरफ से था जो अपनी एनएच-90 हेलिकॉप्टर वीवीआईपी परिवहन के लिए भारत सरकार को बेचना चाहता था। एनएच-90 हेलिकॉप्टर भी 2007 से सेवा में है। यूरोकॉप्टर जिस एनएच -90 हेलिकॉप्टर को भारत में बेचने का प्रस्ताव किया था उसका निर्माण फ्रांस, इटली और जर्मनी द्वारा संयुक्त रूप से स्थापित की गई कंपनी एनएच इंडस्ट्रीज के द्वारा किया जाता है। अगर आगस्टावेस्टलैण्ड हेलिकॉप्टर को भारत का सौदा न मिलता तो ज्यादा संभवना थी कि भारत सरकार एनएच-90 को ही अपनी पसंद बनाता। क्योंकि यह सिरोस्की से बेहतर वीवीआईपी परिवहन कॉप्टर है और प्रतिरक्षा के ज्यादा बेहतर उपकरणों से सुसज्जित है। इसमें रॉल्स रॉयस का बेहतर इंजन लगाया गया है, हालांकि इसकी रेंज सिरोस्की एस-92 से भी कम 800 किलोमीटर ही है। इन दोनों हेलिकॉप्टरों की कीमत क्रमश: 30 और 35 मिलियन डॉलर है।

इन दोनों कंपनियों के अलावा आगस्टावेस्टलैण्ड ही वह तीसरी कंपनी थी जो इस रेस में शामिल थी। तकनीकि तौर पर आगस्टावेस्टलैण्ड कहीं से कमतर नहीं था। इस हैलिकॉप्टर में दो की बजाय तीन इंजन लगे हैं जो वीवीआईपी ट्रांसपोर्ट के लिहाज से इसे और अधिक सुरक्षित बनाते हैं। जबकि इस हेलिकॉप्टर को विशेष तौर पर वीआईपी ट्रांसपोर्ट के लिहाज से ही विकसित किया गया है इसलिए इसके इंटरियर और स्पेस को विशेष तौर पर वीआईपी और वीवीआईपी को ध्यान में रखकर विकसित किया गया है। आगस्टावेस्टलैण्ड के 101 सीरीज के कुल हेलिकॉप्टरों में 15 प्रतिशत सिर्फ वीआईपी और वीवीआईपी परिवहन के लिहाज से ही इस्तेमाल किये जाते हैं जो बाकी के अन्य दो प्रतिस्पर्धियों से इसे अलग करता है। इस हेलिकॉप्टर में बेहतर प्रतिरक्षा प्रणाली लगाई जा सकती है और इसमें हवा में ही ईंधन भरने की सुविधा है। जाहिर है, वीवीआईपी के लिहाज से यह न सिर्फ अति सुविधाजनक और सुरक्षित हेलिकॉप्टर साबित हो सकता है। और सबसे आखिर में कीमत में यह हेलिकॉप्टर बाकी के दो प्रतिद्वंदियों से कामी कम था। आगस्टावेस्टलैण्ड 101 के एक यूनिट की कीमत 21 से 22 मिलियन डॉलर के बीच है।

तो इसका मतलब इतना साफ है कि रक्षा खरीद के दौरान जो बातचीत हुई और परीक्षण किये गये उसमें वीवीआईपी की सुविधा और सुरक्षा से कहीं कोई समझौता करने जैसी बात नहीं है। भारतीय रक्षा विभाग ने जो खरीद का फैसला लिया वह कमोबेश हर पैमाने पर खरा साबित होता था। तो फिर अगर घूसखोरी की बात इटली में आई है तो हंगामा भारत में क्यों हो? हंगामा तब जायज होता जब दलाली खाने के नाम पर भारतीय प्रशासन ने कूड़े कबाड़ का सौदा कर लिया होता। जिस रेंज में इस हेलिकॉप्टर का सौदा किया गया उस रेंज में यह हेलिकॉप्टर सबसे सस्ता ही नहीं सबसे अच्छा विकल्प है। इटली में उपजे विवाद का कारण समझ में आता है कि प्रधानमंत्री मोन्टी इसे राजनीतिक मुद्दा बनाकर अपनी जीत पक्की करना चाहते हैं लेकिन भारत में सिर्फ इसलिए विवाद पैदा करके समझौते को खत्म कर देना चाहिए कि इस पूरे प्रकरण में दलाली देने की बात आई है? जिस बोफोर्स तोप सौदे में दलाली के नाम पर राजीव गांधी की सरकार को उखाड़ फेंका गया था वह बोफोर्स तोप न होती तो शायद भारत कारगिल के मैदान में कभी न जीत पाता। पूरा का पूरा बोफोर्स तोप सौदा राजनीतिक सौदेबाजी का हथियार बनकर रह गया। सवाल तो तब खड़ा हो जब घटिया सौदागरी की जाए।

आज की तारीख में भारत दुनिया का सबसे बड़ा रक्षा खरीदार है। नोसेना, वायु सेना और थल सेना सब ओर भारी खरीदारी चल रही है जो कमोबेश इस पूरे दशक चलती रहेगी। बड़े व्यापक पैमाने पर भारतीय सेनाएं अपना आधुनिकीकरण कर रही हैं। जाहिर है, इससे दुनियाभर के रक्षा व्यापारियों को अथाह समुद्र में गोता लगाने का मौका मिल रहा है। कहीं ऐसा तो नहीं है कि कुछ लोगों के इशारे पर जानबूझकर इस सौदे पर सवाल उठाये जा रहे हों ताकि इटली की यह कंपनी पूरे भारत से ही बाहर हो जाए जो कि इस वक्त कई राज्य सरकारों के साथ ही नहीं बल्कि निजी घरानों को भी अपने हेलिकॉप्टर बेंच रही है। आंध्र प्रदेश की सरकार के अलावा उत्तर प्रदेश सरकार के मुकिया भी इसी कंपनी के बनाये हेलिकॉप्टर में उड़ान भरते हैं। किसी रक्षा खरीद को इसलिए खारिज कर दिया जाए कि उसमें कमियां हैं, समझ में आता है लेकिन रक्षा सौदों में दलाली देनेवाले ही दलाली की खबरें चलाते हैं और लोकतंत्र को भी कॉरपोरेट वार का हिस्सा बना लेते हैं। कहीं ऐसा तो नहीं है कि इस मामले में भी कुछ दलाल ही दाल में काला दिखा रहे हैं और हम पूरी दाल को काला बता रहे हैं? कौन जाने, हो भी सकता है। आखिरकार लोकतंत्र और लोकतातांत्रिक प्रणालियां दलालों के दरवाजे की दासी जो ठहरी। 

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