Saturday, January 19, 2013

कामरेड कमला राम नौटियाल,अब नहीं होती मुलाकात!

कामरेड कमला राम नौटियाल,अब नहीं होती मुलाकात!

पलाश विश्वास

गंगा : गोमुख से गंगोत्री

Source:
यू-ट्यूब

गंगा का उद्गम स्थल हिमालय पर्वत की दक्षिण श्रेणियाँ हैं। प्रवाह के प्रारंभिक चरण में भारत के राज्य में दो नदियाँ अलकनन्दा व भागीरथी निकलती हैं। अलकनन्दा की सहायक नदी धौली, विष्णु गंगा तथा मंदाकिनी है। भागीरथी व अलकनन्दा देव प्रयाग में संगम करती है यहाँ से वह गंगा के रूप में पहचानी जाती है। गंगाजी के निकलने का स्थान जहाँ से गंगा नदी बन कर निकलती है। यह स्थान गंगोत्री में है। गोमुख हिमनदी ही भागीरथी (गंगा) नदी के जल का स्रोत है। उत्तरकाशी में यह हिंदुओं के लिए बहुत ही पवित्र स्थाोन है। यहाँ आने वाले प्रत्येंक यात्री स्नान करते हैं गोमुख गंगोत्री से 18 किलोमीटर की दूरी पर है। वीडियो द्वारा गोमुख से गंगोत्री के यात्रा के बारे में जानकारी है।

इस खबर के स्रोत का लिंक:
http://www.youtube.com

  1. उत्तरकाशी की छवियां

  2. - छवियों की रिपोर्ट करें
  3. उत्तरकाशी - विकिपीडिया


पहाड़ खासकर उत्तरकाशी में आम आदमी की आवाज को मुखरित करने वाले भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के वरिष्ठ नेता, प्रख्यात पर्वतारोही एवं पर्यावरणवादी कामरेड कमला राम नौटियाल का  देहरादून में निधन हो गया। वे 80 वर्ष के थे।कामरेड नौटियाल इलाहाबाद में अपने विद्यार्थी जीवन के दौरान आल इंडिया स्टूडेन्ट्स फेडरेशन के साथ जुड़ गये थे और छात्र राजनीति में सक्रिय रहे। उन्होंने एक पर्वतारोही की भूमिका निभाते हुए हिमालय के तमाम ग्लेशियरों को खोजा और उनका नामकरण किया। उन्होंने एक पर्यावरणवादी की भूमिका निभाते हुए हिमालय पर पेड़ों की कटान के खिलाफ व्यापक आन्दोलन किया जो बाद में चिपको आन्दोलन के नाम से विख्यात हुआ। वे चौदह वर्षों तक उत्तरकाशी नगर पालिका के चेयरमैन चुने जाते रहे और भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की राष्ट्रीय परिषद के वर्षों तक सदस्य रहे। उत्तराखण्ड आन्दोलन के वे अगुवा नेताओं में से एक थे। ज्ञातव्य हो कि भाकपा ने राज्य के गठन के पूर्व ही अपनी उत्तराखण्ड कमेटी का गठन कर दिया था, जिसके वे कई सालों तक संयोजक रहे। उनकी लोकप्रियता पहाड़ों के दूरदराज गांवों तक फैली थी।80 वर्षीय कामरेड नौटियाल कई सालों से अस्वस्थ चल रहे थे। उनके निधन से वामपंथी आन्दोलन ही नहीं उत्तराखण्ड की जनता को भी भारी क्षति पहुंची है जिसके लिए वे निरन्तर संघर्षरत रहे।   क्षेत्र के विभिन्न जन आंदोलनों का नेतृत्व करने के साथ उत्तरकाशी के आधुनिक स्वरूप की नींव रखने का श्रेय भी उन्हीं को जाता है। वर्ष 2002 और फिर 2007 में कामरेड नौटियाल ने विधानसभा का चुनाव भी लड़ा। 2002 में वे कांग्रेस प्रत्याशी विजयपाल सजवाण से मामूली अंतर से पराजित हो गए, लेकिन उनसे जननेता का ताज कोई नहीं छीन सका।

जनसंघर्षो के अगुआ कामरेड कमलाराम नौटियाल के अंतिम दर्शनों को पूरी लाल घाटी उमड़ पड़ी। ढोल नगाड़ों की थाप और लाल सलाम के नारों के साथ लोगों ने अपने नेता को अश्रुपूरित विदाई दी। उत्तरकाशी में भागीरथी के केदारघाट पर उनका अंतिम संस्कार किया गया।दिवंगत नौटियाल के निधन की खबर पाकर उनके आवास पर लोगों की भीड़ जुटने लगी थी। उनके पैतृक गांव भेटियारा समेत गाजणा, भटवाड़ी, धनारी व जिले की यमुना घाटी से भी अनेक लोग अपने नेता के अंतिम दर्शन को पहुंचे। गुरुवार की सुबह लाल झंडों के साथ उनके पार्थिव शरीर को बाहर लाया गया। लोगों ने पुष्प वर्षा कर उनके प्रति अपना सम्मान प्रकट किया। केदारघाट पर उनकी चिता को उनके पुत्र दिनेश नौटियाल ने मुखाग्नि दी। इस दौरान भी सीपीआइ कार्यकर्ता लाल सलाम के नारे लगाते रहे। शरीर पंचतत्व में विलीन होने के काफी देर बाद तक भी लोग केदारघाट पर जमे रहे। उनकी अंतिम यात्रा में गंगोत्री के विधायक व संसदीय सचिव विजयपाल सजवाण, नगर पालिका अध्यक्ष भूपेंद्र सिंह चौहान, जिला पंचायत अध्यक्ष नारायण सिंह चौहान, सीपीआइ जिला सचिव महावीर भट्ट, नगर व्यापार मंडल अध्यक्ष, जिला पंचायत सदस्य सुरेश चौहान, रणवीर सिंह राणा, कांग्रेस जिलाध्यक्ष घनानंद नौटियाल, बिहारीलाल नौटियाल, दिनेश सेमवाल, विजय सेमवाल जगमोहन रावत, नवीन पैन्यूली सहित अनेक लोग मौजूद रहे।

पिता के निधन के बाद २००१ में नैनीतील गया था।उसके बाद राकेश के पुत्र गौरव के असामयिक निधन के उपरांत एक बार जाना हुआ। तब नैनीताल में गिरदा का अंत हो चुका था। हम तो प्रिम और तुहीन से भी मिल नहीं सके। शेखर के बेटे सौमित्र और बेटी रुपीन की शक्ल तक भूल गये। बसंतीपुर स्थित तराई में अपने घर गये चार साल के करीब हो गये।हम भी बंधी हुई नदियों की तरह कोलकाता की बंद अंधी गली में कैद अवरुद्ध जलधारा में रुपान्तरित हो गये। जब डीएसबी से निकलकर ​​पहलीबार पहाड़ छोड़कर मैदान की तरफ भाग रहे थे, उस दिन भी मूसलाधार वर्षा हो रही थी। टूटू रहा था पहाड़। दरक रहे थे पहाड़ के हिस्से चीख रही थी घाटिंयां। न जाने कैसा रहा होगा नैनीझील का रंग. जो मौसम और मिजाज के मुताबिक बदलता रहता है। अपने प्रियजनों से बिछुड़ने का प्रतिबंम्ब तो हम नैनीझील के पानी की गहराइयों में तलाशते रहे हमेशा। जिस दिन बरेली से कोलकाता आना हुआ, अक्तूबर १९९१ को, उत्तरकाशी में उसी रात भयावह ​ ​भूकंप आया। पर तब तक दर्द का साझा करने का हक हकूक हम खो चुके थे। फिर कभी हम जख्मी लहूलुहान पहाड़ की जिस्म को फिर कभी छू नहीं सके। हम भी दूसरे प्रवासी पहाड़ियों की तरह गले गले तक नराई लिये पर्यटक बतौर पंजीकृत हो गये।सिर्फ हमारे बगल से बहती रही गंगा, जिसका स्पर्श हमें चाहे अनचाहे पहाड़ के करीब खींच लेता है। बहुत नजदीक है गंगासागर, जो कभी कभार गंगोत्री के उत्तुंग हिमाद्रिशिखर को नजदी खीच ले आता है।

गिरदा का निधन हुआ ​​तो मैं यहीं कोलकाता में था। भगतदाज्यू नहीं रहे। निर्मल चले गये। विपिन चचा, षष्ठीदत्त, लंबी सूची है। कुछ दिनों पहले जाजल में कुंवर प्रसून के ​​बाद प्रताप शिकर भी चल बसे। पहाड़ की अस्मिता और  पहचान से जुड़े एकक एक चेहरे का अवसान हो रहा है इसी तरह। यह उम्र बढ़ते जाने का ​​लक्षण भी है। विद्यासागर नौटियालल और शैलेश मटियानी के निधन के बाद उत्तराखंढ के साहित्यिक सांस्कृतिक जगत में जो शून्यता पैदा हुई, गिरदा के चले जाने के बाद पहाड़ में प्रतिरोध के स्वर ने जैसे धार खो दी, उसी तरह कामरेड नौटियाल के अवसान के बाद बहाड़ में बढ़ते भूमाफिया और​ ​ कारपोरेट राज के खिलाफ बेहद जरूरी लड़ाई का नेतृत्व ही विकलांग हो गया। झब सत्ता के गलियारे में आजीवन रहे कृष्णचंद्र पंत जैसे को पहाड़ इतनी आसानी से भूल गया, तो कामरेड नौटियाल को गैरसैन राजधानी की भावुकता में सारे बुनियादी मुद्दे और सामाजिक औगोलिक यथार्थ भुला देने वाली नय़ी उत्तराखंडी भूमंडलीय उपभोक्तावादी चेतना से कामरेड नौटियाल की स्मृति के प्रति न्याय की उम्मीद कैसे करें?

भागीरथी के उत्स पर भूस्खलन हो जाने से अवरुद्ध हिमालयी जलधारा ने १९७८ में गंगासागर तक को प्लावित कर जो कड़ी चेतावनी दी थी, कामरेड नौटियाल के निधन से वह फिर दीवार पर लिखी इबारत की तरह जिंदा हो गयी।उस हादसे के वक्त डीएसबी में मैं एमए प्रथम वर्ष का विद्यार्थी ​​था। शेखर पाठक और गिरदा आकाशवाणी से खबर पाते ही गंगोत्री की तरफ कूच कर गये थे। तब हम लोग नैनीताल समाचार से जुड़े थे। उन दोनों के लौटते ही मैं निकल पड़ा। टिहरी से बसयात्रा बार बार अवरुद्ध हो रही थी भूस्खलन और बाढ़ के कारण। तब टिहरी बांध बना नहीं था। पुरानी टिहरी अपने शानदार घंटाघर और चहल पहलवाली बाजार के साथ मौजूद थी।

भवानी भाई के यहां सुंदर लाल बहुगुणा तक पहुंचाने के लिए लाउडस्पीकर कंधे पर लादे टिहरी से निकलकर बार बार पैदल पगडंडियों से चलते हुए शाम तलक उत्तरकाशी पहुंचा था।तब आज के विख्यात पत्रकार और जीआईसी में हमारे पुरान सहपाठी गोविंद राजू उत्तरकाशी में थे। गंगोरी में जहां सुंदर लाल बहुगुणा डेरा डाले हुए थे, वहां बाढपीड़ितों में राजू के अपने लोग भी शामिल थे।​​ उत्तरकाशी और गंगोरीके बीच एक कवि, सर्वोदयी मद्यनिषेध, पशुबलि विरोधी आंदोलनों और चिपको आंदोलन में लोककवि घनश्याम सैलानी, जिसे पहाड़ शायद कभी भूल पाये, का घर था।कवि के साथ वह अंतरंग आलाप चरम दुर्योग के मध्य! उजेली में सर्वोदय का आश्रम था। मनेरी घाटी तक गोविंद हमारे साथ साथ चले थे। बस, वहीं तक। फिर हमारे रास्ते अलग अलग हो गये।

आज लोककवि  शेरदा अनपढ़ भी नहीं रहे। गिरदा की तरह वे भी अब अतीत के पन्नों में विलीन हो गये।

गंगोत्री की ओर कूच करने से पहले और वापसी के रास्ते दो दो बार कामरेड नौटियाल से हिमालय की सेहत और पहाड़ की अस्मिता और अस्तित्व पर लंबी बातें हुई थीं। तब भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी और माकपा दोनों टिहरी बांध के पक्ष में थीं, क्योकि वहां सोवियत पूंजी लग ​​रही थी। टिहरी में बच्चीराम कौंसवाल और जाजल घाटी के कामरेडों से भी इस सिलसिले में कापी गरमागरम बहसें होती रही थीं। पर कामरेड नौटियाल पर्यावरण कीस्रवोच्च प्राथमिकता समझते थे।

मैं पहली बार गढ़वाल गया था तब। लेकिन उस प्रलयंकर संकट में टिहरी और उत्तरकाशी के गांव गांव में भूस्खलन के बीच पगडंडी पगडंडी गांवों से गुजरते हुए बरसात और अंधेरे में बीच जंगल चलते हुए लोगों से जो गर्मजोशीभरा व्यहार मिला, तब उत्तरकाशी नगरपालिक के अध्यक्ष कामरेड नौटियाल के यहां उसी का घनत्व ही देखा। कम उम्र के एक छात्र से मित्रवत बर्ताव करके बाकायदा विमर्श करते हुए उन्हें कोई हिचकिचाहट नहीं हुई।

बंगाल में कामरेडों से नंदीग्राम और सिंगुर से पहले सर्वोच्च स्तर पर संवाद के अनुभव से महसूस करता हूं कि ​
​वैचारिक मतभेद के बावजूद कोई कामरेड कैसे मुद्दों को टालने में नहीं सीधे उनके मुखातिब होकर संबोधित करने की हिम्मत रखता है।

आज पहाड़ को ही नहीं, बल्कि देश को ऐसे कम्युनिस्ट नेतृत्व की बेहद जरुरत है, जिसका प्रतिनिधित्व करते थे कामरेड नौटियाल।​
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​फिर जब मैं दैनिक जागरण में था, साल याद नहीं है, १९८८-८९ में होगा, तब एकबार टिहरी होकर उत्तरकाशी गया। टिहरी डाम प्रोजेक्ट में तब​ ​ सविता के बड़े बाई सत्यदा काम करते थे, जो हाल ही में रिटायर हुए हैं। नय़ी टिहरी आकार ले रही थी और आहिस्ते आहिस्ते डूब में गायब हो ​​रही थी पुरानी टिहरी। लेकिन टिहरी वजूद में थी बाकायदा। मैं जाजल घाटी कुंवर प्रसून, प्रताप शिखर और धूम सिंह नेगी से मिलने चला गया तो टिहरी बांध कालोनी में अपने मामा के घर खेलते हुए टुसु जख्मी होगया, तो डूबते हुए टिहरी शहर में उसका इलाज हुआ।

उस वक्त हम अपने मूर्धन्य कवि , मित्र कहें कि परिचित, अब दुविधा में हूं, मंगलेश डबराल के पहाड़ में लालटेन का दर्शन करने उनके गांव तक गया। प्रमोद कौंसवाल के घर गया, जो बच्चीराम कौंसवाल के सुपुत्र, मंगलेश दाज्यू के भांजे होने के अलावा हिंदी के महत्वपूर्ण कवि और पत्रकार भी हैं। तब प्रमोद मेरठ से चंडीगढ़ जनसत्ता में चले गये थे। वे मेरठ में अमर उजाला में थे। उत्तरकाशी गये तो फिर नौटियाल जी से मुलाकातें हुईं। ​
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​फिर भूकंप, भूस्खलन और बाढ़ जैसी आपदाओं से घिरी उत्तरकाशी तक पहुंचाने वाली स्विट्जरलैंड जैसी सुंदर भागीरथी घाटी ही टिहरी डूब में पुरानी टिहरी की तरह शामिल हो गयी।

इस बीच पहल में मेरी लंबी कहानी `नयी टिहरी पुरानी टिहरी' आयी तो पहाड़ के कामरेडों की तीखी प्रतिक्रिया मिलती रहीं। बड़ी इच्छा थी कि कामरेड नौटियाल से इस बारे में बैठकर बतियायें।पर इसी बीच साहित्येतर `अमेरिका से सावधान' जारी रखने की मजबूरी के अलावा साहित्य से भी हमारा कोई लेना देना नहीं रहा। पत्रकारिता में किसी प्रिंट मीडिया या इलेक्ट्रानिक मीडिया में मेरे होने का सवाल नहीं है। हालांकि कहने को हिंदी के सर्वश्रेष्ष्ठ अखबार मैं हूं।

इस बीच अ ल ग उत्तराखंड  राज्य बनकर समूचा पहाड़ देवभूमि नाम को सार्थक बनाते हुए केशरिया रंग से सराबोर हो गया। ग्लोबीकरण से ग्लेशियर तक पिघलने लगे। भूकंप के खतरों और यथार्थ के बीच टिहरी बांध परमाणु बम की तरह दहकने लगा। पर्यटन और  विकास के नाम पर पहाड़ में भूमाफिया और कारपोरेट राज हो गया। उत्तराकंडी पहचान खत्म हो चली। उपभोक्ता संस्कृति यथावत जारी है। जारी ​​है पलायन। हालांकि कैश स्थानांतरण के डिजिटल माध्यम हो जाने से मानीआर्डर इकोनामी नहीं कह सकते।

पहाड़ अब ऊर्जा प्रदेश हैं। पहाड़ और मैदानों के बीच अलंघ्य दीवारें खड़ी हो गयी हैं। साम्राज्यवाद के खिलाफ संगर्ष की निरंतरता के लिए जिस गढ़वाल की पहचान है, उसकी अस्मिता अब गढ़वाल रेजीमेंट तक सीमाबद्ध है। उसीतरह कुंमाऊ रेजीमेंट कुंमायूं की पहचान।

कच्चामाल और रंगरुट के अलावा और जो बी कुछ पहाड़ से मैदानों में सप्लाई होता है, कामरेड नौटियाल की स्मृति में लिखे जा रहे इस आलेख में उसका उल्लेख भी नहीं किया  जा सकता। पाठक समझ लें।

ऐसे में कामरेड नौटियाल का होना कितना जरुरी था, इसका हिसाब तो पहाड़ के लोग लगायें क्योंकि अब तो हम पहाड़ का कुछ भी नहीं हुए। न नैनीताल समाचार और न पहाड़ में हमारे लिए कोई​​ जगह बची है।

क्या कामरेड नौटियाल के लिए थी?

हमने वह दौर देखा है , जब बड़ी से बड़ी घटना के लिए दिल्ली और लखनऊ से प्रकाशित होने वाले अखबारों में सूचना भर देखने को तरस जाते थे। अब तो पहाड़ मीडिया के अंतर्जाल में पूरीतरह गिरफ्तार है और बाकी देश की तरह इस मीडिया ​​को कामरेड नौटियाल जैसे लोग सेलिब्रिटी तो नजर नहीं आयेंगे!

तराई की खबर लिखने पर जगन्नाथ मिश्रा जैसे लोगों को सरेआम गोली मार दी जाती थी। हमारे अपने इलाके में घुसने में पाबंदी थी। गिरदा को हमारी पंतनगर गोलीकांड वाली रपट नैनीताल समाचार में छपने के बाद रूद्रपुर में बस से उतारकर धुन दिया गया था। तराई में बचाव के लिए केवल कृष्ण ढल के साथ हम​​भी रंगरूट की तरह बाल कटवाते थे। दाढी कटवाने को मजबूर होते थे ताकि मौके से बागने में व्यवधान न हो।

भाकपा की उत्तर प्रदेश राज्य कौंसिल ने कामरेड नौटियाल के निधन पर गहरा शोक व्यक्त किया है और उनके प्रति क्रान्तिकारी श्रद्धांजलि अर्पित की है। पार्टी ने शोक संतप्त परिवार के प्रति भी अपनी हार्दिक संवेदनायें प्रेषित की हैं।

भाकपा राज्य मंत्रिपरिषद अपने उत्तराखण्ड के सभी कार्यकर्ताओं  को अपनी संवेदना प्रेषित की है।

उत्तरकाशी

Submitted by Hindi on Mon, 08/01/2011 - 10:27
उत्तरकाशी उत्तर प्रदेश राज्य के अंतर्गत उत्तर में हिमालय की गोद में विस्तीर्ण उतराखंड विभाग में सबसे उत्तर-पश्चिम-क्षेत्र में स्थित जिला तथा उस जिले का प्रमुख केंद्र और कस्बा है। उत्तरप्रदेशीय हिमालय क्षेत्र के तिब्बत से लगे रहने के कारण भूराजनीतिक दृष्टि से और समुचित आर्थिक विकास एवं प्रशासनिक सुविधा के लिए इस क्षेत्र को अपेक्षाकृत छोटे जिलों में विभाजित किया गया है। इसी नीति के अंतर्गत टिहरी-गढ़वाल-क्षेत्र में से बना यह एक नवनिर्मित जिला है। अब यह नवनिर्मित उत्तराँचल राज्य का अंग है।

इस जिले की उत्तरी सीमा पर भारत तिब्बत अंतर्राष्ट्रीय सीमा, पूर्व में चमोली और टिहरी गढ़वाल, दक्षिण में टिहरी गढ़वाल तथा देहरादून, दक्षिण पश्चिम में हिमाचल प्रदेश के कन्नौर और महासू जिले हैं। इसका क्षेत्रफल 8,016 वर्ग कि.मी. है और इस प्रकार यह उत्तरप्रदेशीय हिमालयी जिलों में द्वितीय बृहत्तम (प्रथम चमोली 9,125 वर्ग कि.मी.) है और पूरे उत्तर प्रदेश में चतुर्थ बृहत्तम किंतु जनसंख्या में सबसे कम (1971 में कुल 1,47,805) और न्यूनतम घना आबाद (प्रतिवर्ग कि.मी., 18 व्यक्ति) जिला है। इसका कारण यह है इसका अधिकांश भाग वर्ष भर हिमाच्छादित उच्च पर्वतीय घासों तथा अनुर्वर एवं बीहड़ भागों से भरा है और जलवायु तथा प्राकृतिक संसाधान निवास के योग्य नहीं है। गंगोत्तरी एवं यमुनोत्तरी इसी जिले में पड़ते हैं-टोंस, यमुना और भागीरथी प्रमुख नदियाँ हैं। केवल सँकरी नदीघाटियों और दक्षिणी भागों में अधिकांश लोग भेड़ आदि पालकर तथा जौ, झरगोड़ा, कों दो, कुटकी आदि की खेती द्वारा अपना पालन करते हैं। जिले को चार तहसीलों (पुरौला, राजगढ़, डूँडा और भटवारी) में बाँटा गया है। उत्तरकाशी (1971 में जनसंख्या 6,020) जिले का केंद्र और व्यापारिक कस्बा है तथा एक ओर मोटर योग्य सड़क द्वारा टिहरी से और दूसरी ओर साधारण मार्गों द्वारा गंगोत्तरी, भटवारी, बरकोट आदि से जुड़ा हुआ है। जिले की कुल जनसंख्या में चौथाई लोग (34,189) अनुसूचित जाति के हैं।
http://hindi.indiawaterportal.org/node/32596

उत्तराखण्ड नदी बचाओ अभियान यात्रा

Author:
राजेंद्र जोशी
देहरादून। 21 नवंबर 2012 से उत्तराखण्ड नदी बचाओ अभियान सहित अन्य संगठनों द्वारा जल, जंगल, जमीन स्वराज यात्रा प्रारंभ की जायेगी जो नौ दिसंबर दिल्ली राजघाट में समाप्त होगी। पत्रकारों से वार्ता करते हुए सुरेश भाई ने कहा है कि प्रदेश में विगत दस सालों में उद्योग और उर्जा परियोजनाओं के नाम पर 25 हजार हेक्टेयर की भूमि अधिग्रहीत हो चुकी है और किसान खेती से बेदखल हो गये हैं। खेती छोटे किसानों के लिए अलाभकारी व बोझ और कंपनियों के लिए अथाह लाभ का ज़रिया बने। इससे यह साफ है कि किसी भी तरह से खेती की जमीन छोटे किसानों से छीन कर एक्सप्रेसवे, खनन, विशेष आर्थिक क्षेत्र, विद्युत परियोजनाएं, औद्योगिक कॉरीडोर, रिहायशी खरीद-फरोख्त व अनियोजित शहरीकरण के लिए पूंजीपतियों और देशी-विदेशी कंपनियों की भेंट चढ़ रही है। भारत सरकार का प्रस्तावित भूमि अधिग्रहण, पुनर्वास, पुनर्स्थापना अधिनियम 2011 इसका उदाहरण है।

उन्होंने कहा कि इसी तरह से राष्ट्रीय जल नीति 2012 के मसौदे से यह साफ है कि हमारा सार्वजनिक संसाधन जल भी अब निजी हाथों में दिया जा रहा है। भारत के हिमालयी राज्यों में लगभग एक हजार व स्वयं उत्तराखण्ड में साढ़े पांच सौ से उपर छोटी बड़ी जल विद्युत परियोजनाएं प्रस्तावित या निर्माणाधीन हैं। ये अधिकांश सुरंग आधारित हैं। उत्तराखण्ड में लगभग 20-22 लाख की आबादी के पांच गांव उन परियोजनाओं की सुरंगों के ऊपर स्थित हैं। उन्होंने कहा कि इन सब मुद्दों पर 21 नवंबर से 11 दिसंबर तक सर्व सेवा संघ, अन्य प्रदेशीय सर्वोदय मंडल व उत्तराखण्ड नदी बचाओ अभियान उत्तराखण्ड से उत्तर प्रदेश और हरियाणा होते हुए दिल्ली तक जल, जंगल,जमीन स्वराज यात्रा कर रहे हैं जो नौ दिसंबर को राजघाट दिल्ली पहुंचेगी जहां दो दिन का सार्वजनिक उपवास किया जायेगा। इस यात्रा के माध्यम से मांग की जायेगी कि रासायनिक खेती का बहिष्कार व सेन्द्रिय खेती को अपनाया जाये। ज़मीन समाज की जिजीविषा व आजीविका का साधन हो न कि व्यावसायिक खरीद-फरोख्त का। नदियों की धारा अविरल बहे और जल का निजीकरण बंद किया जाये। जल, जंगल, ज़मीन जैसी प्राकृतिक विरासतें जन समाज के नियंत्रण में हों।

यात्रा के संबंध में और जानकारी के लिए संपर्क करें
सुरेश भाई
9412077896
http://hindi.indiawaterportal.org/node/39981

बंधेगी गंगा तो मरेगी गंगा

Source:
जीएनएन न्यूज, 10 मई 2012

गंगोत्री के दर्शन को चलते चले जाइए लेकिन रास्ते में अपने प्रवाह-मार्ग में कहीं गंगा नहीं मिलेंगी। भागीरथी भी नहीं। उत्तराखंड के नरेंद्र नगर से चंबा तक सड़क मार्ग की यात्रा कर आगे बढ़िए और फिर देखिए महाकाय विकास के भीषण चमत्कार। अगर आपने 2005 के पहले कभी इस गंगोत्री के पथ पर गंगा के दर्शन किए होंगे तो निश्चित तौर पर आपकी आंखें ये देखकर फटी रह जाएंगी कि ये क्या हो गया है गंगा मां को? इसकी सांसे थम क्यों गई है? कहां है गंगा के प्रवाह की कल-कल ध्वनि? कहां हैं गंगा की उत्ताल तरंगे, इठलाती-बलखातीं लहरें और गंगा के पारदर्शी जल में गोते लगाते जलीय जीवों-मछलियों के नृत्य कहां है?


उत्तराखंड राज्य में बड़े बांधों की नहीं वरन् पहाड़ के लिये स्थायी विकास हेतु प्राकृतिक संसाधनों के जनआधारित उपयोग की जरुरत है। राज्य में नयी सरकार के नये मुख्यमंत्री ने राज्य में उर्जा उत्पादन को बढ़ाने की बात की है। यह बयान अपने में एक भय दिखाता है। इसका अर्थ जाता है कि बांधो पर नयी दौड़ शुरू होगी। अलकनंदा गंगा पर निर्माणाधीन विष्णुगाड पीपलकोटी बांध (444 मेगावाट) परियोजना को विश्व बैंक से कर्जा मंजूर हुआ है। टौंस घाटी में जखोल-सांकरी बांध (51 मेगावाट) परियोजना की वजह से यहां लोगों के पारम्परिक हक-हकूको पर पाबंदी है। किन्तु बांध की तैयारी है। जखोल गांव 2,200 मीटर की उंचाई पर है और भूस्खलन से प्रभावित है। बांध की सुरंग इसके नीचे से ही प्रस्तावित है। यहां लोगों ने मई 2011 से टेस्टिंग सुरंग को बंद कर रखा है। अगर इस तरह से गंगा पर बांध का निर्माण होता रहा तो गंगा की अर्थी उठाने के लिए तैयार हो जाएं।
http://hindi.indiawaterportal.org/node/37804


नई टिहरी: कामरेड कमलाराम नौटियाल के निधन पर वामपंथी दलों सहित विभिन्न ट्रेड यूनियन संगठनों ने शोकसभा आयोजित कर उन्हें श्रद्धांजलि दी।

रविवार को स्थानीय सुमन पार्क में आयोजित शोकसभा में भाकपा व माकपा नेताओं ने कहा कि दिवंगत कमलाराम नौटियाल गरीबों, मजूदरों व किसानों के मसीहा थे। उन्होंने उम्रभर गरीब तबकों व मजदूरों के लिए संघर्ष किया। उनके निधन से जहां मजदूर व किसानों ने अपने जननेता को खो दिया है वहीं वामपंथी आंदोलन के लिए भी उनका निधन अपूर्णनीय क्षति है। भाकपा के जिला सचिव जयप्रकाश पांडे ने कहा कि स्व. नौटियाल के निधन से पार्टी को जहां क्षति हुई है वहीं गरीब व दबे-कुचले लोगों के मसीहा को उनके जन संघर्षों के लिए याद किया जाता रहेगा। उन्होंने कहा कि स्व. नौटियाल ने धरासू गोली कांड के दौरान छ: माह की जेल यात्रा मजदूरों के साथ की और मांगें पूरी होने तक वह जेल में ही संघर्षरत रहे। माकपा के जिला सचिव भगवान सिंह राणा ने बताया कि बयाली का किसान आंदोलन और तिलाड़ी कांड में स्व. नौटियाल ने अहम भूमिका निभाई थी।

इस मौके पर दो मिनट का मौन रखकर उन्हें श्रद्धांजलि दी गई। शोकसभा में भाकपा के वरिष्ठ नेता खुशीराम उनियाल, एटक के जिलाध्यक्ष योगेंद्र नेगी, सीटू के चिंतामणि थपलियाल, भोजनमाता संगठन की भरोसी देवी, सुषमा उनियाल, टीएचडीसी वर्कर्स यूनियन के अध्यक्ष पूर्णानंद कोठारी, सचिव गोविंद राज, गजपाल सिंह बजवाल, खुशीराम आदि मौजूद थे।

ऋषिकेश: भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्यों ने कामरेड कमलाराम नौटियाल के निधन पर शोक सभा आयोजित कर उनकी आत्मशांति के लिए प्रार्थना की।

बाबा काली कमली न्यू बिल्डिंग में आयोजित सभा की अध्यक्षता करते हुए चौ. ओमप्रकाश ने का. कमलाराम नौटियाल के संघर्षो पर प्रकाश डालते हुए उनके छात्र एवं सार्वजनिक जीवन पर प्रकाश डाला। इस दौरान वरिष्ठ अधिवक्ता का. आरएस भंडारी, का. पूर्व पालिकाध्यक्ष वीरेंद्र शर्मा ने कहा कि उत्तराखंड में विश्वविद्यालय लाने का श्रेय स्व. नौटियाल को ही जाता है। इसके अलावा उन्होंने किसानों एवं मनेरी भाली परियोजना से जुड़े मजदूरों के हकों के लिए भी उन्होंने लंबी लड़ाई लड़ी है। इसके अलावा उत्तराखंड निर्माण में भी उनका योगदान सराहनीय रहा है। इस दौरान वेदप्रकाश शर्मा, कमला प्रसाद भट्ट, हरिप्रसाद गौड़ आदि ने कहा कि चिपको आंदोलन की शुरूआत भी का. गोविंद सिंह नेगी, गौरा देवी के साथ मिलकर का. नौटियाल ने की और इस आंदोलन को अंजाम तक पहुंचाया। इस दौरान दो मिनट का मौन धारण की कामरेड कमलाराम नौटियाल की आत्मशांति के लिए प्रार्थना की। इस दौरान चंद्रपाल, दिगंबर, पुरुषोत्तम बडोनी, रमेशचंद्र जैन, गोपाल कृष्ण, गिरीश राजभर, जेपी ध्यानी आदि उपस्थित थे।

उत्तरकाशी। सुमन सभागार में सर्वदलीय शोक सभा कर दिवंगत कामरेड कमलाराम नौटियाल को श्रद्धांजलि अर्पित की गई। इस दौरान वक्ताओं ने कामरेड के व्यक्तित्व एवं उनके द्वारा चलाए गए आंदोलनों पर प्रकाश डाला।
कामरेड शेर सिंह असवाल की अध्यक्षता में हुई शोक सभा में दो मिनट का मौन रखकर दिवंगत कमलाराम नौटियाल को श्रद्धांजलि अर्पित की गई। रणवीर राणा ने कामरेड नौटियाल के जीवन पर प्रकाश डालते हुए कहा कि उन्होंने उत्तरकाशी की जनता को उसकी ताकत का एहसास कराया। विशन सिंह चौहान ने कहा कि कामरेड नौटियाल के प्रयास नई पीढ़ी के लिए प्रेरणास्रोत हैं। इस मौके पर बीडी भट्ट, नारायण सिंह मलूड़ा, प्यार सिंह चौहान, शीशपाल पोखरियाल, विष्णुपाल सिंह रावत, हर्षनरेश भट्ट, रविंद्र नौटियाल, महावीर भट्ट, राम सिंह राणा, कमल सिंह राणा, हरीश रतूड़ी, मौहम्मद असलम ने भी विचार व्यक्त किए।

उत्तराखंड के प्राकृतिक संसाधनों की लूट कर रहीं परियोजनाएं

Author:
चारु तिवारी
Source:
समयांतर, जून 2012
उत्तराखंड के मुख्यमंत्री द्वारा जलविद्युत परियोजनाओं का निर्माण आवश्यक बताए जाने से लोग उनके पक्ष में खड़े होते दिख रहे हैं। इनमें समाजसेवी, साहित्यकार, बुद्धिजीवी एवं आम लोग भी शामिल दिख रहे हैं। भागीरथी पर बन रहे बांधों के खतरे सबके सामने हैं। टिहरी का जलस्तर बढऩे से कई गांव मौत के साये में जी रहे हैं। बावजूद इसके आंखें बंद कर राज्य को बिजली प्रदेश बनाने की जिद में बांध परियोजनाओं को जायज ठहराने की जो मुहिम चली है वह पहाड़ को बड़े विनाश की ओर ले जा सकती है। उत्तराखंड के प्राकृतिक संसाधनों के लूट की जानकारी देते चारु तिवारी।

पहाड़ी राज्य में जलविद्युत परियोजनाओं का निर्माण और इसे बिजली प्रदेश बनाने का सपना यहां की जनता की बेहतरी के लिए नहीं है। इस पूरी परिकल्पना के पीछे विकास के नाम पर एक बेहद शातिराना मुहिम चल रही है। सत्तर के दशक में टिहरी बांध के बाद विकास का यह दैत्याकार मॉडल लगातार यहां के लोगों को लील रहा है। प्राकृतिक धरोहरों के बीच रहने वाली जनता को लगातार उससे दूर करने की साजिश और इसे बड़े इजारेदारों को सौंपने की सरकारी नीतियां हिमालय के लिए बड़ा खतरा है।

उत्तराखंड के मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा ने लगता है अपने एजेंडे पर काम करना शुरू कर दिया है। उनके साथ उन लोगों की एक बड़ी जमात जुट गई है जो सत्ता के आसपास रहकर अपने हित साधने में लगी रहती है। मुख्यमंत्री ने आते ही राज्य में बन रही जलविद्युत परियोजनाओं का जिस तरह से पक्ष रखा है, उससे लगता है कि उन्होंने कारपोरेट, परियोजनाओं को बनाने वाली कंपनियों और स्थानीय ठेकेदारों का जबर्दस्त समर्थन किया है। द हिंदू में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार 17 अप्रैल को दिल्ली में नेशनल गंगा रीवर बेसिन अथॉरिटी की बैठक में विजय बहुगुणा ने कहा पर्यावरण और वन मंत्रालय ने जिन जल परियोजनाओं को तकनीकी मंजूरी दे दी है उन्हें कुछ लोगों की 'मात्र अनुभूत भावनाओं के कारण' बंद नहीं किया जाना चाहिए। आश्चर्यजनक रूप से उनकी इस बात का जबर्दस्त विरोध हुआ। विरोध करने वालों में राजेन्द्र सिंह सहित कई पर्यावरणविद् शामिल थे। इस घटना के पंद्रह दिन के अंदर ही राज्य में कई जगह बांधों के पक्ष में प्रदर्शन हुए। उसके बाद 4 मई को देहरादून में बुद्धिजीवियों का पद्मश्री लौटाने की धमकी का नाटक हुआ। यह खेल किस तरह से खेला जाएगा इसका अनुमान लोगों को पहले से ही था।

जब विजय बहुगुणा ने मुख्यमंत्री का पद संभाला था तो उनके विरोधियों को शंका थी कि उन्हें प्रदेश का मुखिया बनाने में इन्हीं लोगों का हाथ है। राष्ट्रीय स्तर पर गंगा को लेकर चलने वाले सरोकारों को काटने के लिए इस बात की सच्चाई तो तभी सामने आयेगी जब कभी इस की कोई निष्पक्ष जांच होगी। लेकिन कुछ बातें जो नजर आ रही हैं वे इस नापाक गठबंधन की ओर तो इशारा करती ही हैं, इस राज्य के भविष्य के लिए भी कोई शुभ संकेत नहीं मानी जा सकतीं। हैरानी की बात यह है कि मुख्यमंत्री ने अपनी कुर्सी को सुरक्षित करने के लिए आधारभूत कदम विधान सभा का सदस्य बनने से पहले ही ऐसे विवादास्पद मुद्दे को आगे बढ़ाना क्यों शुरू किया है जिसको लेकर राज्य में पहले से ही व्यापक विवाद और असंतोष है। इधर भाजपा के तराई के सितारगंज क्षेत्र के विधायक किरण मंडल को तोड़ लिया गया है। जिन अफरातफरी भरी संदेहास्पद स्थितियों में मंडल से इस्तीफा दिलवाया गया है वह बतलाता है कि बहुगुणा वहीं से चुनाव लडऩे जा रहे हैं। अब देखने की बात होगी कि इस चुनाव में कितने धनबल और बाहुबल का इस्तेमाल होता है।

इस बांध बनाओ मुहिम में मुख्यमंत्री के साथ बांध निर्माण कंपनियां, बड़े कारपोरेट घराने, स्थानीय ठेकेदार और राजनीतिक पार्टियों के नुमाइंदे तो हैं ही अब पहाड़ के बुद्धिजीवियों का एक वर्ग भी खासी धूम-धाम से शामिल हो गया है। सरकारी पुरस्कारों से सम्मानित, कभी सरकार में लालबत्ती पाने वाले, मुख्यमंत्रियों के मीडिया सलाहकार बनने की कतार में खड़े रहने वाले इन लोगों ने अब जलविद्युत परियोजनाओं को उत्तराखंड की आर्थिकी का आधार बताना शुरू कर दिया है। चारों तरफ से खतरे में घिरी पहाड़ की जनता जब हिमालय और अपनी प्राकृतिक धरोहरों को बचाने के आंदोलन को आगे बढ़ा रही है तब इन बुद्धिजीवियों को लगता है कि बांध बनेंगे, बिजली उत्पादित होगी तो यहां से पलायन रुकेगा। उन्होंने बांध विरोधी जनता को सीआईए के एजेंट से लेकर विकास विरोधी तमगों से नवाजा है।
उत्तराखंड में बांधों का विरोध कर रहे निवासीपिछले दिनों देहरादून में इन बुद्धिजीवियों ने घोषणा की कि यदि जलविद्युत परियोजनाओं पर काम शुरू नहीं हुआ तो वे अपने पद्मश्री पुरस्कार वापस कर देंगे। इनमें एक साहित्यकार लीलाधर जगूड़ी, एनजीओ चलाने वाले कोई अवधेश कौशल और गढ़वाल विश्वविद्यालय के पूर्व कुलपति ए एन पुरोहित शामिल हैं, जिन्हें पहाड़ के लोगों ने तब जाना जब इन्हें पद्मश्री पुरस्कार प्राप्त हुये। इस समूह गान में सबसे ज्यादा ऊंची आवाज में गानेवाले एक पत्रकार महोदय हैं जो फिर से अपना भाग्य आजमाने में लगे हैं। वह हर मुख्यमंत्री के मीडिया सलाहकार बनने के लिए लाइन में खड़े रहते हैं पर अब तक उन्हें उनके बड़बोलेपन के कारण किसी ने उपकृत नहीं किया। हो सकता है बेचारे की किस्मत इस बार जाग जाए!

यह बात किसी से छिपी नहीं है कि इस पहाड़ी राज्य में जलविद्युत परियोजनाओं का निर्माण और इसे बिजली प्रदेश बनाने का सपना यहां की जनता की बेहतरी के लिए नहीं है। इस पूरी परिकल्पना के पीछे विकास के नाम पर एक बेहद शातिराना मुहिम चल रही है। सत्तर के दशक में टिहरी बांध के बाद विकास का यह दैत्याकार मॉडल लगातार यहां के लोगों को लील रहा है। प्राकृतिक धरोहरों के बीच रहने वाली जनता को लगातार उससे दूर करने की साजिश और इसे बड़े इजारेदारों को सौंपने की सरकारी नीतियां हिमालय के लिए बड़ा खतरा है। इस साजिश में अब नये नाम जुड़ते जा रहे हैं। पिछले दिनों जलविद्युत परियोजनाओं पर जिस तरह से बुद्धिजीवियों, मीडिया घरानों, सामाजिक संगठनों के एक बड़े हिस्से ने अपनी पक्षधरता दिखाई है वह चकित करनेवाली है। अब तक ऐसा नहीं था कि मीडिया और बुद्धिजीवी इस तरह से खुल कर बांधों के पक्ष में काम कर रहे हों। इससे स्पष्ट लगता है कि इस में इन तमाम वर्गों का एक ऐसा गिरोह काम करने लगा है जो इस नव गठित राज्य में चल रही लूट में शामिल हो जाने को लालायित हैं और जिन्होंने भ्रष्ट नेताओं और पूंजीपतियों से अपने स्वार्थ के चलते घनिष्ठ संबंध बना लिए हैं।

विकास के नाम पर लोगों को बरगलाने का सिलसिला बहुत पुराना है। टिहरी बांध के विरोध में स्थानीय लोगों ने लंबी लड़ाई लड़ी। आखिर सरकार की जिद और विकास के छलावे ने एक संस्कृति और समाज को डुबो दिया। राज्य में प्रस्तावित सैकड़ों जलविद्युत परियोजनाओं से पूरा पहाड़ खतरे में है। इनसे निकलने वाली सैकड़ों किलोमीटर की सुरंगों से गांव के गांव खतरे में हैं। कई परियोजनाओं के खिलाफ लोग सड़कों पर हैं। बांध निर्माण कंपनियों का सरकार की शह पर मनमाना रवैया जारी है।

विजय बहुगुणा ने जिस तत्परता से जलविद्युत परियोजनाओं की वकालत शुरू की है तथा उसके बिना विकास को बेमानी कहा है, उससे कई तरह की शंकाओं का पैदा होना लाजमी है। बांधों के पक्ष में प्रायोजित प्रदर्शन किए जाने लगे हैं। इस बात को समझा जाना चाहिए कि आखिर अचानक इन सब लोगों का जलविद्युत परियोजनाओं से मोह क्यों जाग गया। यह सवाल तब और महत्त्वपूर्ण हो जाता है जब राज्य के विभिन्न हिस्सों में बांधों के खिलाफ लगातार जनआंदोलन चल रहे हैं। पिछले दिनों पिंडर पर बांध न बनाने को लेकर जबर्दस्त आंदोलन हुआ है और केदार घाटी में जनता ने नारा दिया है सर दे देंगे, लेकिन 'सेरा' (बड़े सिंचित खेत) नहीं देंगे। प्रशासन लगातार आंदोलनकारियों को जेल में डालता रहा है। कई स्थानों पर अभी भी लोग जनसुनवाइयों में बांधों का जमकर विरोध कर रहे हैं। जो मीडिया गौरादेवी के चिपको आंदोलन को बढ़-चढ़ कर छापता रहा है उसे अब गौरा के रैंणी गांव के नीचे की सुरंग नहीं दिखाई दे रही है।

जो लोग जनपक्षीय कवितायें लिख रहे थे वे अब बांधों के लिए गीत लिख रहे हैं पर मुख्यमंत्री के सानिध्य में। पत्रकारों को कंस्ट्रक्शन कंपनियां गंगा घाटी की सैर करा रही हैं। कई राष्ट्रीय पत्र-पत्रिकाएं इतनी बेशर्मी पर उतर आयी हैं कि उन्हें चमोली जनपद में अलकनंदा पर बन रहे बाधों से प्रभावित लोगों की चीत्कार सुनाई नहीं दे रही है। प्रदेश के दैनिक तो सत्ताधारी दल के सुर में सुर मिला ही रहे थे राष्ट्रीय अखबारों ने भी अपना योगदान शुरू कर दिया है। सबसे पहले दिल्ली से प्रकाशित होने वाले साप्ताहिक शुक्रवार में पद्मश्री बुद्धिजीवियों के बयानों को लेकर रिपोर्ट छपी है। अगला नंबर इंडिया टुडे हिंदी का आया जिसने 24 मई के अंक में बांधों के पक्ष में अविश्वसनीय संदर्भों पर आधारित रिपोर्ट छापी।

जलविद्युत परियोजनाओं को जिस शातिराना तरीके से मीडिया मात्र आस्था और पर्यावरण का सवाल बना रहा है वह उत्तराखंड की जनता के खिलाफ षड़यंत्र से कम नहीं है। असल में गंगा को सिर्फ आचमन या शुद्धता के लिए बचाने की बात कहकर बांधों के खिलाफ अभियान को कमजोर किया जा रहा है। मीडिया के शीर्षक अपने आप में एक कहानी है। इंडिया टुडे ने 'आस्था पर भारी विकास' से यही कहने की कोशिश की है। शुक्रवार साप्ताहिक का शीर्षक था 'अब बुद्धिजीवी संत समाज से टकराएंगे' असलियत यह है कि गंगा को बचाने के लिए गंगा के पास रहने वाले लोगों का बचना जरूरी है। यह मसला संत समाज और बांध निर्माण की पक्षधर सरकार के बीच का नहीं है। न ही गंगा को शुद्ध रखने का आंदोलन जनता का आंदोलन है। जनता का आंदोलन अपने खेत-खलिहानों को बचाने का है। दूसरा सवाल पर्यावरण का है। उत्तराखंड में इस समय पचास हजार से ज्यादा एनजीओ काम कर रहे हैं। ये सभी हिमालय और गंगा की चिंता में दुबले हो रहे हैं। इन्होंने गंगा, हिमालय और पर्यावरण का ठेका ले लिया है। इनके पूरे अभियान में कहीं जनता के हित नहीं हैं।
उत्तराखंड में बनते जलविद्युत परियोजनागंगा फिर से चर्चा में है। कभी सरकारी महकमे में बांधों को पर्यावरणीय संस्तुति देने वाले वैज्ञानिक अब साधु बन गए हैं। साधुओं का गुजारा बिना गंगा के नहीं होता है। कई पर्यावरणविद् और एनजीओ हैं जिनकी रोटी-रोजी इसी से है। सरकार राष्ट्रीय स्तर पर गंगा बेसिन प्राधिकरण में अपनी चिंता साझा करती है। इन सबके बीच मध्य हिमालय में बांधों का बनना जारी है। लोग अपनी जमीन-खेत बचाने के लिए सड़कों पर हैं। उत्तराखंड सरकार इस बात पर दुखी हो रही है कि जितनी विद्युत उत्पादन क्षमता उत्तराखंड की नदियों की है, उसे दोहन क्यों नहीं किया जा रहा है तो इससे पहले भाजपा सरकार ने गंगा को बाजार बनाकर बेचा है।

विकास के नाम पर लोगों को बरगलाने का सिलसिला बहुत पुराना है। टिहरी बांध के विरोध में स्थानीय लोगों ने लंबी लड़ाई लड़ी। आखिर सरकार की जिद और विकास के छलावे ने एक संस्कृति और समाज को डुबो दिया। राज्य में प्रस्तावित सैकड़ों जलविद्युत परियोजनाओं से पूरा पहाड़ खतरे में है। इनसे निकलने वाली सैकड़ों किलोमीटर की सुरंगों से गांव के गांव खतरे में हैं। कई परियोजनाओं के खिलाफ लोग सड़कों पर हैं। बांध निर्माण कंपनियों का सरकार की शह पर मनमाना रवैया जारी है। जिन स्थानों पर जनसुनवाई होनी है, वहां जनता के खिलाफ बांध कंपनियों और स्थानीय प्रशासन की मिलीभगत से भय का वातावरण बनाया गया है। राज्य की तमाम नदियों पर बन रही सुरंग-आधारित परियोजनाओं से कई गांव मौत के साये में जी रहे हैं। सरकार ने चमोली जनपद के चाईं गांव और तपोवन-विष्णुगाड परियोजना की सुरंग से रिसने वाले पानी से भी सबक नहीं लिया। यहां सुरंग से भारी मात्रा में निकलने वाले पानी से पौराणिक शहर जोशीमठ के अस्तित्व को खतरा है।

चमोली जनपद के छह गांव पहले ही जमींदोज हो चुके हैं। तीन दर्जन से अधिक गांव इन सुरंगों के कारण कभी भी धंस सकते हैं। बागेश्वर जनपद में कपकोट में सरयू पर बन रहे बांध की सुरंग से सुमगढ़ में मची भारी तबाही में 18 बच्चे मौत के मुंह में समा गए थे। भागीरथी पर बन रहे बांधों के खतरे सबके सामने हैं। टिहरी का जलस्तर बढऩे से कई गांव मौत के साये में जी रहे हैं। बावजूद इसके आंखें बंद कर राज्य को बिजली प्रदेश बनाने की जिद में बांध परियोजनाओं को जायज ठहराने की जो मुहिम चली है वह पहाड़ को बड़े विनाश की ओर ले जा सकती है। अब पूरे मामले को छोटे और बड़े बांधों के नाम पर उलझाया जा रहा है। असल में बांधों का सवाल बड़ा या छोटा नहीं है, बल्कि सबसे पहले इससे प्रभावित होने वाली जनता के हितों का है।

बताया जा रहा है कि पहाड़ में बड़े बांध नहीं बनने चाहिए। इन्हें रन ऑफ द रीवर बनाया जा रहा है, इसलिए इसका विरोध ठीक नहीं है। लेकिन यह सच नहीं है। उत्तराखंड में बन रही लगभग सभी परियोजनायें तकनीकी भाषा में भले ही रन ऑफ द रीवर बतायी जा रही हों या उनकी ऊंचाई और क्षमता के आधार पर उन्हें छोटा बताया जा रहा हो, लेकिन ये सब बड़े बांध हैं। सभी परियोजनायें सुरंग आधारित हैं। सभी में किसी न किसी रूप में गांवों की जनता प्रभावित हो रही है।

उल्लेखनीय है कि पिछले दिनों से गंगा को अविरल बहने देने और आस्था के नाम पर प्रो. जी.डी. अग्रवाल अनशन पर हैं। सरकार ने उनकी जान बचाने की कीमत पर पहले लोहारी-नागपाला परियोजना को बंद किया अब अलकनंदा पर बन रही पीपलकोटी परियोजना पर रोक लगा दी है। इसमें दो राय नहीं कि इस तरह की सुरंग आधारित सभी परियोजनाओं को बंद किया जाना चाहिए, लेकिन इसमें जिस तरीके से गंगा को सिर्फ आस्था के नाम पर सिर्फ 135 किलोमीटर तक शुद्ध करने की बात है, वह अर्थहीन है। असल में धर्म और आस्था के नाम पर चलने वाली भाजपा और संतों से डरने वाली कांग्रेस के लिए जनता का कोई मूल्य नहीं है। गंगा मात्र आचमन करने के लिए नहीं है। जल विद्युत परियोजनाओं का मतलब है वहां के निवासियों को बेघर करना। आस्था का सवाल तो तब आता है जब वहां लोग बचेंगे। प्रो. जी.डी. अग्रवाल उर्फ स्वामी सानंद के हिंदू परिषद के एजेंट के रूप में काम करने का किसी भी हालत में समर्थन नहीं किया जा सकता। पिछले चालीस वर्षों से जलविद्युत परियोजनाओं का विरोध कर रही जनता की इन सरकारों ने नहीं सुनी। लंबे समय तक टिहरी बांध विरोधी संघर्ष की आवाज को अगर समय रहते सुन लिया गया होता तो आज पहाड़ों को छेदने वाली इन विनाशकारी जलविद्युत परियोजनाओं की बात आगे नहीं बढ़ी होती। लोहारी-नागपाला ही नहीं, पहाड़ में बन रही तमाम छोटी-बड़ी जलविद्युत परियोजनाएं यहां के लोगों को नेस्तनाबूत करने वाली हैं।

इस बात का स्वागत किया जाना चाहिए कि केंद्रीय पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश ने देश के विभिन्न हिस्सों में मुनाफाखोर विकास की प्रवृत्ति पर लगाम लगाने के कुछ अच्छे कदम उठाये। उड़िसा, झारखंड, छत्तीसगढ़, हिमाचल प्रदेश आदि राज्यों में खान एवं जलविद्युत परियोजनाओं के खिलाफ व्यापक आंदोलन और जनगोलबंदी का परिणाम है कि अब ऐसी परियोजनाओं से पहले सरकारों को दस बार सोचना पड़ेगा। फिलहाल उत्तराखंड में बांध निर्माण कंपनियां और उनके एजेंट के रूप में काम कर रहे राजनीतिक लोगों ने जिस तरह बांधों के समर्थन का झंडा उठाया हुआ है, उसका भंडाफोड़ और उसे नाकाम करना जरूरी है।

जलविद्युत परियोजनाओं के खिलाफ मुखर हुई आवाज नई नहीं है। भागीरथी और भिलंगना पर प्रस्तावित सभी परियोजनाओं के खिलाफ समय-समय पर लोग सड़कों पर आते रहे हैं। लोहारी-नागपाला से फलेंडा और पिंडर पर बन रहे तीन बांधों के खिलाफ जनता सड़कों पर है। इस बीच जो सबसे बड़ा परिवर्तन आया है, वह है सरकार और बांध निर्माण कंपनियों का जनता को बांटने का षड़यंत्र। इसके चलते मौजूदा समय में पूरा पहाड़ समर्थन और विरोध में सुलग रहा है। केंद्र और राज्य सरकार के बीच एक ऐसा अघोषित समझौता है जिसके तहत वह न तो इन परियोजनाओं के बारे में कोई नीति बनाना चाहते हैं और न ही बिजली प्रदेश बनाने की जिद में स्थानीय लोगों के हितों की परवाह करते हैं। इसे इस बात से समझा जा सकता है कि यदि इन सरकारों की चली तो पहाड़ में 558 छोटे-बड़े बांध बनेंगे। इनमें से लगभग 1500 किलोमीटर की सुरंगें निकलेंगी। एक अनुमान के अनुसार अगर ऐसा होता है तो लगभग 28 लाख आबादी इन सुरंगों के ऊपर होगी। यह एक मोटा अनुमान सिर्फ प्रस्तावित बांध परियोजनाओं के बारे में है। इससे होने वाले विस्थापन, पर्यावरणीय और भूगर्भीय खतरों की बात अलग है।
17 अप्रैल को गंगा बेसिन प्राधिकरण की बैठकमौजूदा समय में एक नई बात छोटी और बड़ी परियोजना के नाम पर चलाई जा रही है। बताया जा रहा है कि पहाड़ में बड़े बांध नहीं बनने चाहिए। इन्हें रन ऑफ द रीवर बनाया जा रहा है, इसलिए इसका विरोध ठीक नहीं है। लेकिन यह सच नहीं है। उत्तराखंड में बन रही लगभग सभी परियोजनायें तकनीकी भाषा में भले ही रन ऑफ द रीवर बतायी जा रही हों या उनकी ऊंचाई और क्षमता के आधार पर उन्हें छोटा बताया जा रहा हो, लेकिन ये सब बड़े बांध हैं। सभी परियोजनायें सुरंग आधारित हैं। सभी में किसी न किसी रूप में गांवों की जनता प्रभावित हो रही है। कई गांव तो ऐसे हैं जो छोटी परियोजनाओं के नाम पर अपनी जमीन तो औने-पौने दामों में गंवा बैठते हैं, लेकिन वे विस्थापन या प्रभावित की श्रेणी में नहीं आते हैं। जब सुंरग से उनके घर-आंगन दरकते हैं तो उन्हें मुआवजा तक नहीं मिलता, जान-माल की तो बात ही दूर है। सरकार और परियोजना समर्थकों की सच्चाई को जानने के लिए कुछ परियोजनाओं का जिक्र करना जरूरी है।

जिस लोहारी-नागपाला को लेकर विवाद की शुरुआत हुई है, उसे रन ऑफ द रीवर का नाम दिया गया। इसमें विस्थापन की बात को भी नकारा गया। स्थानीय लोगों ने तब भी इसका विरोध किया था, लेकिन उनकी किसी ने नहीं सुनी। यह परियोजना 600 मेगावाट की है। इसमें 13 किलोमीटर सुरंग है। भागीरथी पर ऐसे 10 और बांध हैं। इनमें टिहरी की दोनों परियोजनाओं और कोटेश्वर को छोड़ दिया जाये तो अन्य भी बड़े बांधों से कम नहीं हैं। इनमें करमोली हाइड्रो प्रोजेक्ट 140 मेगावाट की है। इसके सुरंग की लंबाई आठ किलोमीटर से अधिक है। जदगंगा हाइड्रो प्रोजेक्ट 60 मेगावाट की है। इसकी सुरंग 11 किलोमीटर है। 381 मेगावाट की भैरोघाटी परियोजना जिसे सरकार ने निरस्त किया है, उसके सुरंग की लंबाई 13 किलोमीटर है। मनेरी भाली प्रथम 90 मेगावाट क्षमता की रन ऑफ द रीवर परियोजना है। यह 1984 में प्रस्तावित हुई। इसे आठ किलोमीटर सुरंग में डाला गया है। इसका पावरहाउस तिलोय में है। इस सुरंग की वजह से भागीरथी नदी उत्तरकाशी से मनेरी भाली तक 14 किलोमीटर तक अपने अस्तित्व को छटपटा रही है। इसके बाद भागीरथी को मनेरी भाली द्वितीय परियोजना की सुरंग में कैद होना पड़ता है। 304 मेगावाट की इस परियोजना की सुरंग 16 किलोमीटर लंबी है। इसके बाद टिहरी 1000 मेगावाट की दो और 400 मेगावाट की कोटेश्वर परियोजना है। आगे कोटली भेल परियोजना 195 मेगावाट की है। इसमें भी 0.27 किलोमीटर सुरंग है।

गंगा की प्रमुख सहायक नदी अलकनंदा पर दर्जनों बांध प्रस्तावित हैं। इन्हें भी रन ऑफ द रीवर के नाम से प्रस्तावित किया गया। इस समय यहां नौ परियोजनाएं हैं। इनमे 300 मेगावाट की अलकनंदा हाइड्रो प्रोजेक्ट से 2.95 किलोमीटर की सुरंग निकाली गई है। 400 मेगावाट की विष्णुगाड परियोजना की सुरंग की लंबाई 11 किलोमीटर है। लामबगढ़ में बनी इसकी झील से सुरंग चाईं गांव के नीचे खुलती है जहां इसका पावरहाउस बना है। यह गांव इसके टर्बाइनों के घूमने से जमींदोज हो चुका है। लामबगढ़ से चाईं गांव तक नदी का अता-पता नहीं है। तपोवन-विष्णुगाड परियोजना इस समय सबसे संवेदनशील है। इस परियोजना की क्षमता 520 मेगावाट है। इससे निकलने वाली सुरंग की लंबाई 11.646 किलोमीटर है। यह ऐतिहासिक और सांस्कृतिक शहर जोशीमठ के नीचे से जा रही है। इससे आगे 444 मेगावाट विष्णुगाड-पीपलकोटी परियोजना है। इससे 13.4 किलोमीटर सुरंग निकली है। 300 मेगावाट की बोवाला-नंदप्रयाग परियोजना से 10.246 किलोमीटर की सुरंग से गुजरेगी। नंदप्रयाग-लंगासू हाइड्रो प्रोजेक्ट 100 मेगावाट की है। इसमें पांच किलोमीटर से लंबी सुरंग बननी है। 700 मेगावाट की उज्सू हाइड्रो प्रोजेक्ट की सुरंग की लंबाई 20 किलोमीटर है। श्रीनगर हाइड्रो प्राजेक्ट जिसे पूरी तरह रन ऑफ द रीवर बताया जा रहा था उसकी सुरंग की लंबाई 3.93 किलोमीटर है। यह परियोजना 320 मेगावाट की है। अलकनंदा पर ही बनने वाली कोटली भेल- प्रथम बी 320 मेगावाट की परियोजना है। यह भी सुरंग आधारित परियोजना है। गंगा पर बनने वाली कोटली भेल-द्वितीय 530 मेगावाट की है। इसकी सुरंग 0.5 किलोमीटर है। चिल्ला परियोजना 144 मेगावाट की है, इसमें से 14.3 किलोमीटर सुरंग बनेगी।

जलविद्युत परियोजनाओं की सुरंगों के ये आंकड़े केवल भागीरथी और अलकनंदा पर बनने वाले बांधों के हैं। इसके अलावा सरयू, काली, शारदा, रामगंगा, पिंडर आदि पर प्रस्तावित सैकड़ों बांधों और उनकी सुरंगों से एक बड़ी आबादी प्रभावित होनी है। अब सरकार और विकास समर्थक इसके प्रभावों को नकार रहे हैं। उनका कहना है कि पर्यावरणीय प्रभाव और आस्था के सवाल पर विकास नहीं रुकना चाहिए। असल में यह तर्क ही गलत है। जलविद्युत परियोजनाओं के निर्माण का विरोध पर्यावरण और आस्था से बड़ा स्थानीय लोगों को बचाने का है। इसके लिए आयातित आंदोलनकारी नहीं, बल्कि पिछले चार दशकों से यहां की जनता लड़ाई लड़ रही है। नदियों को बचाने से लेकर अपने खेत-खलिहानों की हिफाजत के लिए जनता सड़कों पर आती रही है।

चिपको आंदोलन की प्रणेता गौरा देवी के गांव रैणी के नीचे भी टनल बनाना महान आंदोलन की तौहीन है। वर्षों पहले रैणी महिला मंगल दल ने परियोजना क्षेत्र में पौधे लगाये थे। परियोजना तक सड़क ले जाने में 200 पेड़ काटे गए और मुआवजा वन विभाग को दे दिया गया। पेड़ लगाने वाले लोगों को पता भी नहीं चला कि कब ठेका हुआ। गौरा देवी की निकट सहयोगी गोमती देवी का कहना है कि पैसे के आगे सब बिक गया।

जिस तरह इस बात को प्रचारित किया जा रहा है कि इन बांध परियोजनाओं की शुरुआत में लोग नहीं बोले, यह गलत है। लोहारी-नागपाला के प्रारंभिक दौर से ही गांव के लोग इसके खिलाफ हैं। भुवन चंद्र खंडूड़ी के मुख्यमंत्रित्वकाल में लोहारी-नागपाला के लोगों ने उसका काली पट्टी बांधकर विरोध किया था। श्रीनगर परियोजना में भी महिलाओं ने दो महीने तक धरना-प्रदर्शन कर कंपनी की नींद उड़ा दी थी। लोहारी-नागपाला परियोजना क्षेत्र भूकंप के अतिसंवेदनशील जोन में आता है, जहां बांध का निर्माण पर्यावरणीय दृष्टि से कतई उचित नहीं है। विस्फोटकों के प्रयोग से तपोवन-विष्णुगाड जलविद्युत परियोजना में चाई गांव विकास के नाम पर विनाश को झेल रहा है। यहां के लोगों ने 1998-99 से ही इसका विरोध किया था, लेकिन जेपी कंपनी धनबल से शासन-प्रशासन को अपने साथ खड़े करने में सफल रही। आठ साल बाद 2007 में चाई गांव की सड़कें कई जगह से ध्वस्त हो गईं। मलबा नालों में गिरने लगा, जिससे जल निकासी रुकने से गांव के कई हिस्सों का कटाव और धंसाव होने लगा। गांव के पेड़, खेत, गौशाला और मकान भी धंस गए। करीब 50 मकान पूर्ण या आंशिक रूप से ध्वस्त हुए तथा 1000 नाली जमीन बेकार हो गई। 520 मेगावाट वाली तपोवन-विष्णुगाड जलविद्युत परियोजना का कार्य उत्तराखंड सरकार और एनटीपीसी के समझौते के बाद 2002 में प्रारंभ किया गया, जिसमें तपोवन से लेकर अणमठ तक जोशीमठ के गर्भ से होकर सुरंग बननी है। निर्माणाधीन सुरंग से 25 दिसंबर 2009 से अचानक 600 लीटर प्रति सेकेंड के वेग से पानी का निकलना कंपनी के पक्ष में भूगर्भीय विश्लेषण की पोल खोलता है। इस क्षेत्र में विरोध करने वालों पर अनेक मुकदमे दायर किए गए हैं।

चिपको आंदोलन की प्रणेता गौरा देवी के गांव रैणी के नीचे भी टनल बनाना महान आंदोलन की तौहीन है। वर्षों पहले रैणी महिला मंगल दल ने परियोजना क्षेत्र में पौधे लगाये थे। परियोजना तक सड़क ले जाने में 200 पेड़ काटे गए और मुआवजा वन विभाग को दे दिया गया। पेड़ लगाने वाले लोगों को पता भी नहीं चला कि कब ठेका हुआ। गौरा देवी की निकट सहयोगी गोमती देवी का कहना है कि पैसे के आगे सब बिक गया। रैणी से छह किमी दूर लाता में एनटीपीसी द्वारा प्रारंभ की जा रही परियोजना में सुरंग बनाने का गांववालों ने पुरजोर विरोध किया। मलारी गांव में भी मलारी झेलम नाम से टीएचडीसी की विद्युत परियोजना चल रही है। मलारी ममंद ने कंपनी को गांव में नहीं घुसने दिया। परियोजना के बोर्ड को उखाड़कर फेंक दिया। प्रत्युत्तर में कंपनी ने कुछ लोगों पर मुकदमे दायर किए हैं। इसके अलावा गमशाली, धौलीगंगा और उसकी सहायक नदियों में पीपलकोटी, जुम्मा, भिमुडार, काकभुसंडी, द्रोणगिरी में प्रस्तावित परियोजनाओं में जनता का प्रबल विरोध है।
उत्तराखंड में बांधों के लिए कट रहे पेड़पिंडर नदी में प्रस्तावित तीन बांधों के खिलाफ फिलहाल जनता वही लड़ाई लड़ रही है। यहां देवसारी परियोजना के लिए प्रशासन ने 13 अक्टूबर 2009 को कुलस्यारी में जनसुनवाई रखी। कंपनी प्रशासन ने बांध प्रभावित क्षेत्र से करीब 17 किमी दूर करने के बावजूद भी 1300 लोग इसमें पहुंचे। दूसरी जनसुनवाई 22 जुलाई 2010 को देवाल में आयोजित की गई जिसमें करीब 6000 लोगों ने भागीदारी की। लोगों ने एकजुट होकर बांध के विरोध में एसडीएम चमोली को ज्ञापन सौंपा। इस जनसुनवाई में सीडीओ चमोली ने ग्रामीण जनता को विश्वास में लेते हुए गांव स्तर पर जनसुनवाई करने की बात कही। 15 सितंबर, 2010 को थराली तहसील में मदन मिश्रा के नेतृत्व में देवाल, थराली, नारायणबगढ़ के सैकड़ों लोगों ने बड़े बांधों के विरोध में जोरदार प्रदर्शन कर बांधों के खिलाफ अपना अभियान जारी रखा हुआ है। राजनीतिकों की जाने दें क्या ऐसा हो सकता है कि हमारे तथाकथित बुद्धिजीवियों को यह सब समझ में नहीं आ रहा हो?

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http://www.samayantar.com

परियोजनाओं के समर्थन का 'खेल'

Author:
प्रवीण भट्ट
Source:
नैनीताल समाचार, मई 2012
विजय बहुगुणा उत्तराखंड के मुख्यमंत्री बनते ही अपने एजेंडे पर काम करना शुरू कर दिया है। उनके साथ उन लोगों की एक बड़ी जमात जुट गई है जो सत्ता के आसपास रहकर अपने हित साधने में लगी रहती है। विजय बहुगुणा ने मुख्यमंत्री का पद संभाला था तो उनके विरोधियों को शंका थी कि उन्हें प्रदेश का मुखिया बनाने में इन्हीं लोगों का हाथ है। विजय बहुगुणा ने जिस तत्परता से जलविद्युत परियोजनाओं की वकालत शुरू की है तथा उसके बिना विकास को बेमानी कहा है, उससे कई तरह की शंकाओं का पैदा होना लाजमी है। बांधों के पक्ष में प्रायोजित प्रदर्शन किए जाने लगे हैं। इस बात को समझा जाना चाहिए कि आखिर अचानक इन सब लोगों का जलविद्युत परियोजनाओं से मोह क्यों जाग गया।

आँख मूंदकर परियोजनाओं के समर्थन में उतर गए इन बुद्धिजीवियों को यह समझना होगा कि फलिंडा, देवसारी, सिंगोली-भटवाड़ी परियोजनाओं से प्रभावित दर्जनों गाँवों के लोग आज भी अपने गाँवों को बचाने के संघर्ष में लगे हुए हैं। जबकि यह परियोजनाएँ भी कोई बड़े बाँध नहीं हैं। लेकिन जिस तरह से 'रन आफ द रिवर' के नाम से इन गाँवों में स्थानीय शासनतंत्र के साथ मिलकर कंपनियाँ ग्रामिणों को धोखा दे रही हैं, उससे यह आक्रोश उपजा है।

उत्तराखंड में जलविद्युत परियोजनाओं के सवाल पर चल रहा आंदोलन अब दो हिस्सों में बँट गया है। जलविद्युत परियोजनाओं का विरोध कर रहे लोग एक तरफ और जलविद्युत परियोजनाओं के समर्थक दूसरी ओर। नए मुख्यमंत्री ने गंगा-भागीरथी में निर्माणाधीन, बंद पड़ी तीन परियोजनाओं पाला मनेरी, मनेरी भाली और भैंरोघाटी को खोलने का समर्थन क्या किया, कांग्रेस से रिश्ता बना कर अपना हित साधने की फिराक में लगी एक पूरी जमात ही इन परियोजनाओं के समर्थन में उतर आई है। देहरादून में बाकायदा तीन परियोजनाओं को खोलने के लिए धरना-प्रदर्शन भी हो चुका है। समर्थन की आहट पाते ही पहाड़ों के सारे ठेकेदार सक्रिय हो गए और हफ्ते भर के भीतर ही उत्तरकाशी, चमोली और रुद्रप्रयाग से बाँधों के समर्थन में जनता के प्रदर्शन की खबरें मिलने लगी। असल में इस मामले को हवा 17 अप्रैल को तब मिली, जब गंगा नदी बेसिन प्राधिकरण की बैठक में एक बार फिर इन बंद पड़ी परियोजनाओं के बारे में कोई फैसला नहीं हो पाया।

यह बात ठीक है कि सिर्फ आस्था के नाम पर ऊर्जा की जरूरतों और बिजली उत्पादन को रोकना सही नहीं है, लेकिन रातोंरात बाँधों के समर्थन में उतर आए इन बुद्धिजीवियों या कवियों को क्या कहा जाए जो न सिर्फ कुछ साल पहले तक अपनी कलम से बाँधों के खिलाफ आग उगल रहे थे, बल्कि बाँधों के खिलाफ उपजे हर आंदोलन में बराबर के भागीदार थे। बाँधों की पैरोकारी कर रहे इन ज्ञानियों ने चारधाम यात्रा को रोकने तक का ऐलान कर दिया है। इस अभियान ने बिजली व्यवसाय से करोड़ों कमा रही ऊर्जा कंपनियों के कर्ताधर्ताओं को भी सक्रिय कर दिया है। समाचार पत्रों का व्यवसायी मस्तिष्क भी अचानक बाँधों के पक्ष में ही हो चला है। राज्य और केन्द्र सरकारें चुपचाप बाँधों के समर्थन में और विरोध में उतर रहे समाजसेवियों की लड़ाई के मजे ले रही है।

एक ओर गंगा में बन रहे बाँधों का विरोध अनशन, धरने और प्रदर्शनों के साथ ही न्यायालय में भी मामले चल रहे हैं, वहीं दूसरी ओर कुछ अन्य समाजसेवी खुलकर प्रस्तावित बाँधों के समर्थन में आ गए हैं। रूलेक संस्था और एक अन्य संगठन जनमंच बांधों के समर्थन में खुल कर उतरे हैं। 'जनमंच' ने मुख्यमंत्री से मिलकर बांधों के समर्थन का ऐलान कर बाँधों की मुखालफत करने वाले संतों को उत्तराखंड में प्रवेश न करने देने का ऐलान कर दिया है। जनमंच ने तो बाकायदा सुरेश भाई, विमल भाई और डॉ. रवि चोपड़ा जैसे पर्यावरणकर्मियों पर विदेशी पैसे से बांध विरोधी आंदोलन चलाने का आरोप तक लगा दिया है। उसका कहना है कि इसकी जानकारी खुफिया एजेंसियों को भी है।

गंगा नदी बेसिन प्राधिकरण की 17 अप्रैल की बैठक में बंद पड़ी परियोजनाओं को खोलने के संबंध में फैसला न हो पाने की आलोचना करते हुए बाँधों के समर्थक कह रहे हैं कि प्रधानमंत्री साधु संतों के दवाब में कोई निर्णय नहीं ले पाए। रुलेक और जनमंच 2008 में केन्द्रीय ऊर्जा मंत्रालय के आदेश पर एनटीपीसी द्वारा गठित एक कथित विशेषज्ञ समिति की सिफारिशों का हवाला दे रहे हैं। भारत सरकार के तत्कालीन ऊर्जा सचिव अब्राहम के नेतृत्व में गठित इस समिति में केन्द्रीय विद्युत प्राधिकरण, केन्द्रीय जल प्राधिकरण, केन्द्र जल एवं ऊर्जा शोध केन्द्र, राष्ट्रीय पर्यावरण अभियांत्रिकी शोध संसाधन, अंतरराष्ट्रीय सिंचाई एवं निकासी प्राधिकरण, सिंचाई विभाग उत्तर प्रदेश एवं उत्तराखंड के अधिकारी शामिल थे। इनके अलावा समिति में राजेन्द्र सिंह, प्रो. जीडी अग्रवाल व डा. रवि चोपड़ा को भी शामिल किया गया।

भागीरथी में आवश्यक, स्थाई व नैसर्गिक जलप्रवाह एवं अन्य तकनीकी मुद्दों की पड़ताल करने के लिए गठित इस समिति ने सुझाव दिए कि यदि केन्द्र सरकार लोहारी नागपाला योजना को पुनः आरम्भ करती है तो वे लोहारी नागपाला बाँध में मछलियों के स्थान परिवर्तन को सुसाध्य बनाने हेतु समुचित कदम उठाएँगे। पाला मनेरी और भैरोंघाटी योजना के अधिकारी मत्स्यपालन हेतु उचित स्थान विशेषज्ञों से चिन्हित करवा कर उन गतिविधियों को आरम्भ करेंगे। लोहारीनाग पाला योजना अधिकारी ऐसे स्थानों पर घाटों का निर्माण करवाएगी, जहाँ सड़क नदी के फिराव और बिजली घर के पास होगी, ताकि स्नान की उचित व्यवस्था हो सके। यहाँ उचित तकनीकों द्वारा लघु बाँध बनाए जाएँगे, जहाँ गले तक गहरा पानी घाटों के सामने रोकने का प्रावधान होगा।
पहाड़, पर्यावरण तथा लोगों के लिए खतरा साबित होते बांधनालोना, पाला बांध के प्रवाह की ओर (लोडगाड संगम के समीप) घाट बनेंगे। इनके अलावा यदि आवश्यक हुआ तो जिला प्रशासन द्वारा कहे जाने पर योजना अधिकारी उनका भी निर्माण करेंगे। घाटों का रखरखाव राज्य सरकार द्वारा योजना अधिकारियों से प्राप्त धनराशि से होगा। योजना अधिकारी परियोजना क्षेत्र में श्मशान घाटों का भी निर्माण करके जिला अधिकारियों को हस्तांतरित कर देगी। नदी को प्रदूषण एवं गंदगी से बचाने के लिए उत्तराखंड सरकार किसी भी नई रिहायशी योजना को नदियों के साथ वाली सड़कों के आसपास मंजूरी नहीं देगी, जिसकी नालियाँ सीधी भागीरथी नदी में गिरती हों। भैरों घाटी, लोहारीनाग पाला और पाला मनेरी योजना अधिकारी एक-एक धर्मशाला गंगोत्री राज्य मार्ग पर बनवाएँगे और उत्तराखंड शासन को रखरखाव व चलाने हेतु दे देंगे। तीनों परियोजनाओं के अधिकारी प्रदेश में आ रहे तीर्थ यात्रियों के लिये अपने क्षेत्र में राज मार्ग पर नियमित दूरियों पर शौचालय, पीने के पानी आदि की सुविधाएँ उपलब्ध करवाएँगे। भागीरथी नदी में प्रदूषण कम करने के लिए सीवर प्रशोधन संयंत्र बनाया जाएगा।

सरकारी अधिकारियों की भरमार वाली इस विशेषज्ञ समिति के इन सुझावों को पढ़ने पर साफ हो जाता है कि परियोजनाओं के केन्द्र में आम आदमी कहीं नहीं है। यह भी कि किस तरह से परियोजना के अधिकारी और विशेषज्ञ भी जनता को पटाकर योजना बना लेना चाहते हैं। वहीं बाँधों के समर्थन में उतरे अवधेश कौशल के तर्क तो और भी बचकाने हैं। उनका कहना है कि गंगा नदी को प्रदूषण से मुक्त रखने के लिए सरकार को चाहिए कि वह गोमुख से लेकर हरिद्वार तक विद्युत शवदाह गृहों का निर्माण करे। इससें गंगा की धारा प्रदूषण मुक्त अविरल बहेगी और शवदाह की लकड़ी भी बचेगी। पर्यावरण सुरक्षित रहेगा और गाँव के लोगों को अपने जीवनयापन और खाना बनाने के लिए लकड़ी भी मिलेगी।

आँख मूंदकर परियोजनाओं के समर्थन में उतर गए इन बुद्धिजीवियों को यह समझना होगा कि फलिंडा, देवसारी, सिंगोली-भटवाड़ी परियोजनाओं से प्रभावित दर्जनों गाँवों के लोग आज भी अपने गाँवों को बचाने के संघर्ष में लगे हुए हैं। जबकि यह परियोजनाएँ भी कोई बड़े बाँध नहीं हैं। लेकिन जिस तरह से 'रन आफ द रिवर' के नाम से इन गाँवों में स्थानीय शासनतंत्र के साथ मिलकर कंपनियाँ ग्रामिणों को धोखा दे रही हैं, उससे यह आक्रोश उपजा है। बाँधों के समर्थन में सुगबुगाहट शुरू होते ही ठेकेदारों ने इशारा मिलने पर कंपनियों के वाहनों में ग्रामीणों को भरकर समर्थन का ड्रामा शुरू करा दिया। यह संदेह उठना स्वाभाविक है कि इन कथित बुद्धिजीवियों की यह चिंता कहीं किसी आयोग, परिषद या संस्थान में पाँच साल का जुगाड़ बनाने के लिए तो नहीं है।

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http://www.nainitalsamachar.in


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  23. 27-10-2012 – वर्ष सन 2003 में फरवरी माह के आखिरी सप्ताह की बात है। कुछ दोस्तों ने कहा कि "संदीप भाई चलो महाशिवरात्रि नजदीक आ रही है कही घूम कर आते है"। मैंने कहा ठीक है चलो लेकिन मेरी एक शर्त है कि जहाँ भी जाना है, बाइक पर ही चलेंगे, अगर ...
  24. साँचा:उत्तरकाशी जिला - विकिपीडिया

  25. hi.wikipedia.org/.../साँचा:उत्तरकाशी_जिल...
  26. उत्तरकाशी जिले में नगर और कस्बे. उत्तरकाशी. उत्तरकाशी · गंगोत्री · बारकोट. अन्य जिलों में नगर और कस्बे. अल्मोड़ा · उधम सिंह नगर · चमोली गढ़वाल · चम्पावत · टिहरी गढ़वाल · देहरादून · नैनीताल · पिथौरागढ़ · पौड़ी गढ़वाल · बागेश्वर · रुद्रप्रयाग · ...
  27. Ganga Samagra – यात्रा पहुँची पवित्र नगरी उत्तरकाशी

  28. gangasamagra.in/?p=598
  29. 26-10-2012 – देश के कई प्रदेशों पश्चिम बंगाल, झारखण्ड, बिहार, उत्तर प्रदेश को पार करते तथा माँ गंगा के पवित्र तटों पर आरती, वंदन तथा गंगा भक्तों को उद्बोधित करते हुए गंगा संकल्प यात्रा भारत के प्रमुख तीर्थ स्थल उत्तरकाशी पहुँची | इससे पूर्व ...
  30. इतिहास: उत्तरकाशी में मिली महाभारत काल की गुफा

  31. aajkaitihas.blogspot.com/.../blog-post.htmlसाझा करें
  32. *
  33. DrMandhata Singh द्वारा - 2,604 Google+ मंडलियों में
  34. 03-06-2009 – इतिहास ब्लाग में आप जैसे जागरूक पाठकों का स्वागत है।​ अक्सर इतिहास से संबंधित छोटी-मोटी खबरें आप तक पहुंच नहीं पाती हैं। इस कमी को पूरा करने के लिए इतिहास ब्लाग आपको उन खबरों को संकलित करके पेश करता है, जो इतिहास, पुरातत्व ..



उत्तरकाशी

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मुक्त ज्ञानकोष विकिपीडिया से

उत्तरकाशी

—  शहर  —

*

द्रैपदी का डंडा, उत्तरकाशी की एक चोटी

*

उत्तरकाशी

समय मंडल: आईएसटी (यूटीसी+५:३०)

देश

* भारत

राज्य

उत्तराखंड

जिला

उत्तरकाशी

नगर पालिका अध्यक्ष

जनसंख्या

घनत्व

2,39,709 (2001 के अनुसार )

क्षेत्रफल

ऊँचाई (AMSL)

. km² (0 sq mi)

• 1,158 मीटर (3,799 फी॰)

*निर्देशांक: 30.44, 78.27
उत्तरकाशी ऋषिकेश से 155 किलोमीटर की दूरी पर स्थित एक शहर है, जो उत्तरकाशी जिले का मुख्यालय है। यह शहर भागीरथी नदी के तट पर बसा हुआ है। उत्तरकाशी धार्मिक दृष्‍िट से भी महत्‍वपूर्ण शहर है। यहां भगवान विश्‍वनाथ का प्रसिद्ध मंदिर है। यह शहर प्राकृतिक सौंदर्य से भरपूर है। यहां एक तरफ जहां पहाड़ों के बीच बहती नदियां दिखती हैं वहीं दूसरी तरफ पहाड़ों पर घने जंगल भी दिखते हैं। यहां आप पहाड़ों पर चढ़ाई का लुफ्त भी उठा सकते हैं।

[संपादित करें]पर्वतारोहण

उत्तरकाशी का एक अन्‍य आकर्षण पर्वतारोहण है। यहां आप पर्वतारोहण का मजा ले सकते हैं। हर-की-दून, दोदीतल, यमुनोत्री तथा गोमुख से पर्वतारोहण किया जा सकता है।

[संपादित करें]खानपान

उत्तरकाशी के अधिकांश रेस्‍टोरेंटों में शाकाहारी खाना मिलता है। कुछ होटलो में विशेष अनुरोध पर गढ़वाली भोजन बनाया जाता है। झंगुरा,मंडुआ तथा भट्ट यहां के प्रमुख भोजन है। इसके साथ-साथ रायता तथा रोटी भी यहां के लोग खाते हैं। सत्‍यम फूड यहां का सबसे बढि़या रेस्‍टोरेंट है।

[संपादित करें]स्थिति

प्रमुख स्‍थानों से दूरी
  • ऋषिकेश से 148 किलोमीटर उत्तर,
  • दिल्‍ली से 372 किलोमीटर उत्तर दक्षिण में

[संपादित करें]प्रमुख आकर्षण

[संपादित करें]विश्‍वनाथ मंदिर

चित्र:Vishvanathmain2.jpg

विश्वनाथ मंदिर

प्राचीन विश्‍वनाथ मंदिर भगवान शिव को समर्पित है। यह मंदिर उत्तरकाशी के बस स्‍टैण्‍ड से 300 मीटर की दूरी पर स्थित है। कहा जाता है कि इस मंदिर की स्‍थापना परशुराम जी द्वारा की गई थी तथा महारानी कांति ने 1857 ई.में इस मंदिर का मरम्‍मत करवाया। महारानी कांति सुदर्शन शाह की पत्‍नी थीं। इस मंदिर में एक शिवलिंग स्‍थापित है। उत्तरकाशी आने वाले पर्यटक इस मंदिर को देखने जरुर आते हैं।

[संपादित करें]शक्‍ित मंदिर

चित्र:Kuteti Devi Uttarkashi.JPG

देवी मंदिर

विश्‍वनाथ मंदिर के दायीं ओर शक्‍ित मंदिर है। इस मंदिर में 6 मीटर ऊंचा तथा 90 सेंटीमीटर परिधि वाला एक बड़ा त्रिशूल स्‍थापित है। इस त्रिशूल का ऊपरी भाग लो‍हे का तथा निचला भाग तांबे का है। पौराणिक कथाओं के अनुसार देवी दुर्गा (शक्‍ित) ने इसी त्रिशूल से दानवों को मारा था। बाद में इन्‍हीं के नाम पर यहां इस मंदिर की स्‍थापना की गई।

[संपादित करें]मनीरी

यह स्‍थान उत्तरकाशी से 13 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। यहां पर एक डैम बनाया गया है। डैम होने के कारण यह स्‍थान पर्यटकों के आकर्षण का केंद्र बन गया है। यह डैम भागीरथी नदी पर बना गया है। यहां बिजली उत्‍पादन किया जाता है।

[संपादित करें]गंगनी

यह स्‍थान मनीरी से गंगोत्री जाने के रास्‍ते पर स्थित है। यहां एक गर्म पानी का झरना है।

[संपादित करें]दोदीताल

चित्र:DODITAL.GIF

दोदीताल

यह ताल समुद्र तल से 3307 मीटर की ऊंचाई पर स्थित है। यह ताल चारों तरफ से घने जंगलों से घिरा हुआ है। यहां पर्यटकों की हमेशा भीड़ लगी रहती है। इस ताल में मछली मारने के लिए मंडल वन अधिकारी,उत्तरकाशी से अनुमति लेनी होती है।

[संपादित करें]दायरा बुग्‍याल

यह बुग्‍याल समुद्र तल से 10,000 फीट की ऊंचाई पर स्थित है। यहां से हिमालय का बहुत ही सुंदर नजारा दिखता है। यहां एक छोटी सी झील भी है।

[संपादित करें]सत ताल

सत ताल का अर्थ है सात झीलें। यह धाराली से 2 किलोमीटर ऊपर हरसिल के पास स्थित है। यह स्‍थान प्राकृतिक सौंदर्य से भरपूर है।

[संपादित करें]केदार ताल

यह ताल समुद्र तल से 15000 फीट की ऊंचाई पर स्थित है। थाल्‍यासागर चोटी का इसमें स्‍पष्‍ट प्रतिबिंब नजर आता है। केदार ताल जाने के रास्‍ते में कोई सुविधा नहीं मिलती है। इसलिए यहां पूरी तैयारी के साथ जाना चाहिए।

[संपादित करें]नचिकेता ताल

इस ताल के चारों तरफ हरियाली ही हरियाली है। ताल के तट पर एक छोटा सा मंदिर भी है। कहा जाता है कि नचिकेता जो संत उदाक के पुत्र थे उन्‍होने ही इस ताल का निर्माण किया था। इसी कारण इस ताल का नाम नचिकेता ताल पड़ा। इस ताल के पास ठहरने और खाने की कोई सुविधा नहीं है।

[संपादित करें]गोमुख

चित्र:GAUKUKH1.JPG

गौमुख: गंगा का उद्गम‎

गोमुख हिमनदी ही भागीरथी (गंगा) नदी के जल का स्रोत है। यह हिंदुओं के लिए बहुत ही पवित्र स्‍थान है। यहां आने वाला प्रत्‍येक यात्री को यहां जरुर स्‍नान करना चाहिए है। यह गंगोत्री से 18 किलोमीटर की दूरी पर है। यहां से 14 किलोमीटर दूर भोजबासा में एक पर्यटक बंगला है जहां पर्यटकों के ठहरने और भोजन की व्‍यवस्‍था होती है।

[संपादित करें]नंदन-वन-तपोवन

यह स्‍थान गंगोत्री हिमनद से 6 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। यहां से आसपास की पहाड़ी का बहुत सुंदर नजारा दिखता है।

[संपादित करें]सेममुखेम नागराज

मुख्य लेख : सेममुखेम नागराज
सेममुखेम नागराज एक प्रसिद्द नागतीर्थ है जो कि श्रद्धालुओं में सेम नागराजा के नाम से प्रसिद्ध है। प्राकृतिक सौन्दर्य युक्त इस स्थान पर नागराज का सिद्ध मन्दिर है।

[संपादित करें]नेहरु पर्वतारोही संस्‍थान

चित्र:UKI EVEN.JPG

उत्तरकाशी की शाम

इस संस्‍थान की स्‍थापना 1965 ई.में हुई। इस संस्‍थान में पर्वतारोहण सिखाया जाता है। यहां एक हिमालयन संग्रहालय भी है। इस संग्रहालय में पर्वतारोहण से संबंधित पुस्‍तकें, फिल्‍म्‍ा तथा स्‍लाइडस रखे हुए हैं। यहां एक दुकान भी हैं। इसमें पर्वतारोहण से संबंधित सामान मिलता हैं। लोकेशन: टहरी झील के नजदीक राष्‍ट्रीय राजमार्ग संख्‍या 108 पर। वेबसाइट: nimindia.org समय: सुबह 10बजे से शाम 5 बजे तक। मंगलवार बंद। शुल्‍क: वयस्‍क के लिए 5 रु.तथा बच्‍चों के लिए 2 रु.।

[संपादित करें]भ्रमण समय

मार्च से अप्रैल तथा जुलाई से अक्‍टूबर से यहां जाने का सबसे उत्तम समय है।

[संपादित करें]भ्रमण साधन

हवाई मार्ग
यहां सबसे नजदीकी हवाई अड्डा देहरादून में जौली ग्रांट है। यहां दिल्‍ली से एयर डक्‍कन की प्रतिदिन दो उड़ाने जाती है।
रेल मार्ग
देहरादून यहां का सबसे नजदीकी रेल स्‍टेशन है। दिल्‍ली, मुंबई तथा जयपुर से यहां के लिए सीधी रेल सेवा है।
सड़क मार्ग
उत्तरकाशी सड़क मार्ग द्वारा देश के प्रमुख शहरों से जुड़ा हूआ है। दिल्‍ली के कश्‍मीरी गेट से उत्तरकाशी के लिए बस खुलती हैं। इसके अलावा देहरादून से भी उत्तरकाशी के लिए सीधी बस सेवा है। ऋषिकेश से भी यहां के लिए बसें खुलती है।

[संपादित करें]देखें


[संपादित करें]बाहरी कड़ियां


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