Thursday, July 4, 2013

Status Update By TaraChandra Tripathi कुछ शब्द ’लोक’ और ’वेद’ ये दो शब्द प्राचीन काल से ही जन­धारणाओं की अभिव्यक्ति में विशेष रूप से प्रचलित रहे हैं। ’वेद’, वह है, जो रूढ़ हो चुका है और ’लोक’, एक ऐसी सतत प्रवहमान धारा है, जो अपने कलेवर में नित्य नूतनता का समावेश करती रहती है। इसे प्रकृति भी कहा जा सकता है। ’लोक’ रूढ़ होते-होते वेद बन सकता है, पर ’वेद’ कभी भी लोक नहीं हो सकता। धीरे-धीरे भाषा और साहित्य में एक शब्द और कूद पड़ा ’पुराण’। पुराण अर्थात पुराना। अपने परिवेश, अतीत और समाज को अपने ढंग से समझने की लोक­कल्पनात्मक चेष्टा ही पुराणों में अभिव्यक्त हुई थी, पर अभिजात वर्ग के हाथ में आते ही वह भी रूढ़ होकर ’वेद’ का अनुचर हो गया। ’लोक’ फिर भी नवीनता की खोज में दौड़ता रहा। फलतः हर अंचल के रीति­रिवाजों में नये तत्वों का समावेश हुआ। अनेक जातियों के समागम से सामाजिक परिवेश बदला। जीवन के नये आयामों के साथ कदम मिलाती धारणाओं का रूपान्तरण हुआ, लेकिन पुराण लोक के साथ दौड़ने में असमर्थ रहे। पुराण और ’लोक’ के बीच का यह अन्तर हर युग में दिखाई देता है। यही पीढ़ीगत अन्तर या ’जैनरेशन गैप’ है। गतिशीलता का य

Status Update
By TaraChandra Tripathi
कुछ शब्द
'लोक' और 'वेद' ये दो शब्द प्राचीन काल से ही जन­धारणाओं की अभिव्यक्ति में विशेष रूप से प्रचलित रहे हैं। 'वेद', वह है, जो रूढ़ हो चुका है और 'लोक', एक ऐसी सतत प्रवहमान धारा है, जो अपने कलेवर में नित्य नूतनता का समावेश करती रहती है। इसे प्रकृति भी कहा जा सकता है। 'लोक' रूढ़ होते-होते वेद बन सकता है, पर 'वेद' कभी भी लोक नहीं हो सकता। 

धीरे-धीरे भाषा और साहित्य में एक शब्द और कूद पड़ा 'पुराण'। पुराण अर्थात पुराना। अपने परिवेश, अतीत और समाज को अपने ढंग से समझने की लोक­कल्पनात्मक चेष्टा ही पुराणों में अभिव्यक्त हुई थी, पर अभिजात वर्ग के हाथ में आते ही वह भी रूढ़ होकर 'वेद' का अनुचर हो गया।
'लोक' फिर भी नवीनता की खोज में दौड़ता रहा। फलतः हर अंचल के रीति­रिवाजों में नये तत्वों का समावेश हुआ। अनेक जातियों के समागम से सामाजिक परिवेश बदला। जीवन के नये आयामों के साथ कदम मिलाती धारणाओं का रूपान्तरण हुआ, लेकिन पुराण लोक के साथ दौड़ने में असमर्थ रहे। पुराण और 'लोक' के बीच का यह अन्तर हर युग में दिखाई देता है। यही पीढ़ीगत अन्तर या 'जैनरेशन गैप' है। गतिशीलता का यह नैरंतर्य, लोक­जीवन की यह अमरता उसकी धरती से जुड़े होने की देन है। लोक वह वृक्ष है जिसकी जड़ें पाताल में है।

'गतिशील' और 'प्रगतिशील' शब्दों को ही लें। 'गतिशील' शब्द का प्रयोग किसी प्राणी, वस्तु या घटना के संदर्भ में और 'प्रगतिशील' शब्द का प्रयोग सामाजिक विकास की गति के साथ अनुकूलन कर पाने की मानवीय क्षमता के संदर्भ में होता है। अनुकूलन, एक हद तक अपने गतानुगतिक परिवेश से ऊपर उठ कर परिस्थितियों को समझना और उनके अनुरूप अपने आप को ढालना है। यह लंबे कालान्तराल में सभी जीवों में दिखाई देता है। उनमें अनेक प्रकार के दैहिक रूपान्तरण दिखाई देते हैं। लेकिन अनुकूलन केवल दैहिक रूपान्तरण तक ही सीमित नहीं रहता। व्यवहार में परिस्थितिजन्य अन्तर में भी प्रकट होता है। वन्य पशु भी विवश होने पर अपने आप को परिस्थितियों के अनुरूप ढाल कर पालतू पशु बन जाते हैं। यही स्थिति मानव समूहों में भी दिखाई देती है।

किसी प्रभावशाली समूह के प्रभाव में आकर अपने स्वत्व को नकारना, अनुकूलन नहीं है। यह दासता है। अनुकूलन तो, बदली हुई परिस्थितियों में, अपने स्वत्व को अक्षुण्ण रखते हुए, व्यवहार में आंशिक परिवर्तन करना है। जो समुदाय तथाकथित आधुनिकता के व्यामोह में स्वत्व को गर्हित समझ कर दूसरों के स्वत्व को, खास तौर पर सत्ताधारियों के स्वत्व को ही, सब कुछ समझ कर अपनाते हैं, वे अपनी धरती से विच्छिन्न होते चले जाते हैं। धरती से विच्छिन्न होकर किसी भी समुदाय की अस्मिता देर तक जीवित नहीं रह सकती। दूसरी ओर, आँख मूँद कर अपनी प्रथाओं से चिपके रहने से भी सामाजिक विकास अवरुद्ध हो जाता है। चिपकना तो जड़ता या रूढ़ होते जाने का प्रतीक है।
आज की आपाधापी में अपने स्वत्व से विच्छिन्न होते जाने की प्रवृत्ति और भी घातक होती जा रही है। यही आन्तरिक दासत्व है जिस पर तथाकथित सम्पन्न वर्ग गर्व करता है। आवश्यकता तो चिपकने और विच्छिन्न होने से बचकर अपनी धरती को समझने, दूसरे शब्दों में धरती पर वृक्ष की तरह उग कर उसके रस से पुष्ट होते हुए खुली हवा में श्वास लेने की है। 

'परंपरा', समाज में चली आयी मान्यताओं की अभिव्यक्ति है। यह रूढ़ि शब्द से भिन्न है। रूढ़ि जड़त्व का प्रतीक है तो परंपरा अतीत से चली आयी हुई मान्यताओं की स्वीकृति मात्र होने के कारण नये प्रयोगों का आधार बनती है। बिना परंपरा को समझे प्रयोग या परंपरा में बदलाव हो ही नहीं सकता। 
'प्रयोग', परंपरा का आधार लेकर उससे मुक्त होने, और समाज को कुछ नया देने तथा संस्कृति में कुछ नया जोड़ने का प्रयास है। यह गतानुगतिकता और जड़ता के बंधनों को तोड़ कर खुली हवा में श्वास लेने और अपना रास्ता खुद खोजने के संकल्प की अभिव्यक्ति है। हर पीढ़ी की प्रयोगधर्मिता ने ही कपि मानव को आधुनिक सभ्य मानव का रूप प्रदान किया है। यह मानव समाज और संस्कृति की जीवनी शक्ति का प्रतीक और उसकी अमरता का, नित्यनूतनता का, उत्स है।

एक शब्द है 'चरित्र'। किसी व्यक्ति के आचरण और स्वभावगत विशेषताओं को चरित्र शब्द से संकेतित किया जाता है। आमतौर पर समाज की मान्यताओं के अनुरूप कार्य एवं व्यवहार करने वाले को सच्चरित्र और उसके अनुकूल कार्य एवं व्यवहार न करने वाले को चरित्रहीन कहा जाता है।
चरित्रहीन को दुश्चरित्र नहीं कहा जा सकता। दुश्चरित्र तो न केवल समाज की मान्यताओं के प्रतिकूल कार्य करता है अपितु कभी-कभी मानवता की सीमा को भी लाँघ जाता है। 

हमारे देश में तो 'चरित्र' केवल स्त्री.पुरुष संबंधों तक ही सीमित रह गया है। अनुचित साधनों से अर्थोपार्जन करना, सामग्री में मिलावट करना, मनमाना व्याज वसूल करना, अपने पद और सत्ता का दुरुपयोग करना, भाई-भतीजावाद, शासकीय दायित्व का निर्वाह न करना, उत्कोच, अभिलेखों में हेरफेर 'चरित्र' के अन्तर्गत लिया ही नहीं जाता। यदि कोई व्यक्ति इन सारे कामों में लिप्त होने पर भी पकड़ा नहीं जाता अथवा अपने राजनीतिक या आर्थिक प्रभाव से बेदाग छूट जाता है तो उसे चरित्रहीन नहीं, चतुर माना जाता है। उसका मूल्यांकन उसके द्वारा वैध अथवा अवैध साधनों से अर्जित सम्पत्ति के आधार पर किया जाता है। यहाँ तक कि यदि कोई संपन्न व्यक्ति चोरी-छिपे वेश्यावृत्ति या कालगर्ल रैकेट में भी लिप्त हो तो समाज उस पर बहुत कम ध्यान देता है। लोग एक लंबी उसाँस लेकर 'समरथ को नहिं दोष गुसाईं। रवि पावक सुरसरि की नाईं' कहकर चुप हो जाते हैं और प्रभुओं को कर्तव्याकर्तव्य करने में समर्थ मान कर उन्हें शेष समाज से पृथक दर्जा दे देते हैं. जन­सामान्य से कहा जाता है कि भले ही कोई कार्य लोकहित का हो पर बड़े लोग उसे सही नहीं मानते, तो उसे नहीं करना चाहिए।( यद्यपि शुद्धं लोकविरुद्धं नाचरणीयं नाचरणीयम्। )

'धर्म' मानव समाज की व्यवस्था को बनाये रखने वाले कर्तव्य और अकर्तव्य के विवेक एवं व्यवहार का नाम है। दूसरे शब्दों में यह 'जियो और जीने दो' के आधार पर विकसित पारस्परिकता है। उपनिषद्कारों द्वारा एक ही वाक्य, 'आत्मनः प्रतिकूलानि परेशां न समाचरेत' (या जैसा व्यवहार हम अपने लिए नहीं चाहते, वैसा व्यवहार दूसरों के साथ नहीं करना चाहिए) वाक्य में धर्म का सार प्रस्तुत कर दिया था, पर हम इस सार या धर्म की आत्मा को भूल कर, उसे जटिल कर्मकांड की ओर धकेलते हुए अधर्म की सीमा तक घसीट लाने में भी नहीं चूकते और उपासना पद्धति, या बाहरी आडंबर को ही धर्म मान बैठते हैं। 

किसी भी धर्म की पारंपरिक उपासना ­पद्धति ही संप्रदाय है। अतीत में तो इन उपासना पद्धतियों को पाषंड या पाखंड नाम दिया गया था। संप्रदाय या पाखंड, अन्तर्मन के समन्वय से रहित बाहरी व्यवहार या दिखावा । अशोक के युग में इन विविध उपासना पद्धतियों को पाषंड कहा जाता होगा। इसीलिए उसने अपने बारहवें शिलालेख में 'सब पाषंडां सार बढ़ी' कह कर सभी पाषंडों में 'सार' या आन्तरिक तत्वों की वृद्धि की कामना की थी। शंकर ने तो इन पाषंडों या संप्रदायों को उदर निमित्तं बहुकृत वेशं कहा है तो तुलसी ने 'जिमि पाखंड विवाद ते लुप्त होयँ सद्ग्रन्थ' कहकर इन सांप्रदायिक विवादों को सद्ग्रन्थों के लुप्त होने का मूल कारण माना है। 

सबसे बड़ा अन्याय तो 'पाशविक' के साथ हुआ है। अपने मानव होने के अहंकार से प्रेरित होकर हम इस शब्द का प्रयोग अत्यन्त क्रूर और हिंसक आचरण के अर्थ में करते हैं। लेकिन पूरे जीव­जगत में एक भी पशु मनुष्य की तरह हिंसक नहीं है और न क्रूर ही। बहुत से मामलों में तो पशु सामान्य मनुष्य से कहीं उच्चतर आध्यात्मिक धरातल पर स्थित होता है। स्थितप्रज्ञ होता है। वह न तो द्वेष रखता है और न आकांक्षा ही। शुभ और अशुभ की चिन्ता नहीं करता। जो कुछ मिल जाता है, उसी से संतोष कर लेता है। न उसे लोभ है न घृणा। मादा पशु के प्रति वह तभी आकर्षित होता है जब वह भी उसकी ओर प्रवृत्त होती है। अन्यथा वह वैरागी सा अपने काम में लगा रहता है। वह कल की चिन्ता नहीं करता। हमारी तरह सात पीढ़ियों के लिए नहीं बटोरता। वर्तमान में जीता है। मनोरंजन के लिए आखेट नहीं करता। हाथ में आयुध लिए हत्या के लिए सन्नद्ध मनुष्य को देख कर भी वह उसके प्रति घृणा नहीं करता। फिर पाशविक शब्द का इतना बुरा अर्थ क्यों? यह सब तो मानवीय प्रवृत्तियाँ हैं। हम अपने बुद्धि बल से उन पर हावी हैं। उनकी सारी शक्तियों को कब्जे में किए हुए हैं। अतः हमने 'पाशविक' को ही गर्हित मान लिया।

प्रायः हम बड़े गर्व के साथ अपने आप को बुद्धिजीवी कहते हैं। बुद्धि के बल पर जीने वाला। अपने श्रम पर जीने वाले लोगों से उच्चतर कोटि का प्राणी। हमारे अंचल में बच्चे को नहलाने के बाद 'स्यावैकि जै बुद्धि स्यूँ क जस तराण' ( तुझे सियार की सी बुद्धि और शेर का सा बल प्राप्त हो) आशीर्वाद देने की परंपरा थी। सियार दूसरों के द्वारा मारे गये जानवर को हड़पने की चेष्टा में रहता हैं। शेर के आगे-पीछे घूमता है, पर उसके प्रहार से भी बचा रहता है। मौका पाकर उसका भोजन भी चट कर जाता है। इस कथन से लगता है कि लोक में 'बुद्धि' चालाकी या धूर्तता का एक पर्याय था। यदि इस संदर्भ में बुद्धिजीवी शब्द पर विचार करें तो उसका अभिप्राय अध्ययनशील विवेक­संपन्न व्यक्ति की अपेक्षा दूसरों के श्रम पर जीने वाला, चालाक और तिकड़मबाज व्यक्ति ही जान पड़ता है। 

बौद्धिक और बुद्धिजीवी शब्द के अभिप्राय में भारी अन्तर है। बौद्धिक शब्द सृजन, मनन­चिन्तन, अन्वेषण और विश्लेषण का पर्याय है। 'बौद्धिक' सृजनकर्ता है तो बुद्धिजीवी उपभोक्ता। दूसरे शब्दों में दूसरों के श्रम और बौद्धिक सृजन को अपने स्वार्थपूर्ति के लिए उपयोग करने वाला।

इसी प्रकार अंगे्रजी में एक शब्द है नेटिव। सीधा सा अर्थ है स्थानीय। अंगे्रजों ने इस के साथ पिछड़ेपन और असभ्यता को और लपेट दिया। कारण वही। वे विजेता थे और हम पराजित। हालत यहाँ तक बिगड़ी कि 'नेटिव' सुनते ही अफ्रीका के काले-­कलूटे अधनंगे आदिवासी नजर आने लगे। 
यह केवल अंगे्रजों ने ही किया हो, ऐसा नहीं है। हर विजेता जाति और सत्ताधारी जाति ने यही किया है। कुमाऊँ में ही चन्द राजाओं के साथ बाहर से आयी जातियों ने यहाँ के मूल निवासियों को हेय माना और उनके लिए तरह­-तरह के नियम निर्धारित किये. ताकि वे विजेताओं के सामने दूसरे दर्जे के नागरिक बने रहें। यहाँ के स्थानीय ब्राह्मणों को पितलिया बामण अथवा हलफोड़ ब्राह्मण कहा जाने लगा। उनके लिए जाति सूचक पीतल का प्रतीक चिह्न अपने पास रखना अनिवार्य कर दिया गया। यहाँ तक कि विजेताओं के देवस्थलों में पीतल की देव प्रतिमाएँ रखने का निषेध हो गया। 
स्थानीय खश समुदाय में हीनता बोध भी इन बाहर से आयी जातियों ने उत्पन्न किया। खसिया शब्द में लंठ, उजड्ड और गवाँर का बोध कराने में भी इन नवागतुकों का ही योगदान रहा है।

गवाँर शब्द भी तो मूलतः 'गाँव में रहने वाला' का बोधक था। गाँव वालों की दम पर ठाठ करने वाले नगरवासियों ने, उनका आभार स्वीकार करने के स्थान पर गवाँर शब्द को 'असभ्य' बना दिया। शास्त्रों के अनुसार सभ्य भी तो वह है जिसको सभा में बैठना आता हो- सभायां साधु। फिर सभा भी तो जन सामान्य की बैठक नहीं है। समाज के प्रतिष्ठित लोगों की सभा है- न सा सभा यत्र न सन्ति वृद्धाः। वृद्ध भी वयोवृद्ध नहीं, नीति या कानून के जानकार। नीति या कानून ? वही, जो हमारे सत्ताधारियों ने तय कर दिया है। चक्कर ही चक्कर है। इसीलिए हम गँवार हैं। 

गवाँर शब्द को सुनते ही मुझे तीसरी कसम का गाड़ीवान याद आने लगता है। भोला-भाला सीधा और सच्चा। तब क्या गँवार होने की अपेक्षा बात-बात में कानून झाड़ने वाला, दूसरों की जड़ काटने वाला होना अच्छा है?

मुझे लगता है जो भी पराजित हुआ वही हेय हो गया। चारणों ने विजेताओं को प्रसन्न करने के लिए पराजितों की निन्दा करना आरंभ कर दिया। किसी के सींग उगा दिये तो किसी के भयंकर दाढ़। उनमें से गौर वर्ण का तो किसी को रहने ही नहीं दिया। सब के सब काले-कलूटे। आर्य का अर्थ श्रेष्ठ कर दिया और अनार्य का गर्हित और नीच। जब कि मूल में यह मात्र प्रजाति या जाति नाम थे। इनका उक्त अर्थों से कोई लेना देना ही नही था। 

सच पूछें तो अपनी सभ्यता के विचार से आर्य ग्रामीण थे और अनार्य सामान्यतः पुरवासी या नागर। जो सुर नहीं थे वे असुर थे। एक ही सभ्यता के दो समूह थे। मिथक था उनके पिता एक थे केवल माता अलग­-अलग थीं। दोनों अग्निपूजक थे। सोम रस पीने का चाव रखते थे। 
सुरों से नहीं पटी तो असुर अलग हो गये। देवासुर संग्राम में देवताओं ने धोखे से उनको परास्त कर दिया। हर तरह से मूर्ख बनाया और अन्त में उनको भयावह रूप भी दे दिया।

यही स्थिति अन्य अनेक शब्दों की हुई हैं। 'पहाड़ी' का अर्थ घरेलू नौकर हो गया। पुर्बिया का अर्थ उजड्ड। पहाड़ में देसी शब्द चालबाज हो गया। कहावत बन गयी-'मरा देसी भी जीवित पहाड़ी को खा जाता है'। कुमाऊँ वालों ने उत्तराखंड के दो भागों का नया नामकरण कर दिया - पहाड़ और गढ़वाल। जैसे गढ़वाल पहाड़ी भू-भाग न हो। 
यह सब अन्तहीन लोक कल्पना का चमत्कार है। जिसके कारण शब्दों के अर्थों के भाव चढ़ते-उतरते रहते हैं।

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