Monday, 11 March 2013 11:57 |
हरिराम मीणा जिसे हम हाशिये का समाज कहते हैं उसका अधिकतर देश का मूल निवासी है, यहां की सभ्यता और संस्कृति का निर्माता है और इस राष्ट्र की भूमि का असली वारिस है। जो मानसिकता समानता, सामूहिकता, प्रकृति और मानवेतर प्राणियों के साथ सहअस्तित्व, श्रम की महत्ता आदि में विश्वास नहीं करती, वह राष्ट्रहित में नहीं है। वैश्वीकरण के दौर में विज्ञान और तकनीकी की उपलब्धियों पर भी एक चालाक वर्ग का कब्जा होता जा रहा है, जो बाजार की ताकत के आधार पर शासन प्रणाली और लोकतांत्रिक व्यवस्था को अपने हित में इस्तेमाल करने की क्षमता रखता है। यह ऐसा प्रभावशाली वर्ग है जिसका एकमात्र लक्ष्य अधिकाधिक भौतिक लाभ अर्जित करना है। इस वर्ग को राष्ट्र-समाज के सरोकारों से अधिक मतलब नहीं है। परंपरागत वर्चस्वकारी वर्ग अब हाइटेक पूंजीनायक वर्ग बनता जा रहा है। बहुसंख्यक समाज की समस्याओं में कुछ समान हैं जिन्हें हम बहुआयामी शोषण, पहचान के संकट और अंतत: मानवाधिकारों के हनन के रूप में देख सकते हैं। विशिष्ट समस्या के तौर पर दलित वर्ग अब भी अस्पृश्यता का दंश झेल रहा है। आदिवासी समाज के लिए तो इस दौर में अस्तित्व का संकट सबसे बड़ी चुनौती के रूप में सामने आया है। अति पिछड़ा वर्ग श्रम के शोषण से अब भी जूझ रहा है और अल्पसंख्यक वर्ग आए दिन सांप्रदायिक हिंसा और उत्पीड़न का शिकार होता है। कुल मिला कर, इन समान और विशिष्ट समस्याओं की जड़ में प्रभुवर्ग का वर्चस्व है, जिसमें विकास के लिए आवश्यक संसाधनों पर उसके कब्जे को निर्णायक तत्त्व के रूप में देखा जा सकता है। मुक्ति का मार्ग एक ही है कि हाशिये के समाज (जिसे वास्तव में बहुसंख्यक समाज कहा जाना चाहिए) के विभिन्न घटक राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक मोर्चों पर लामबंद हों। वे शिक्षा, जागृति और नेतृत्व विकसित करें और लोकतांत्रिक व्यवस्था में अपना सशक्त प्रतिनिधित्व सुनिश्चित करें ताकि निर्णय उनके पक्ष में संभव हो सके और साथ ही वर्चस्वकारी वर्ग को यह अहसास हो कि परंपरा-दर-परंपरा उसकी चालाकियां समग्र मानव समाज के हित में नहीं हैं। वैश्वीकरण के इस दौर में प्रभुवर्ग द्वारा स्वयं के हित में चलाए जा रहे अभियान को यह कह कर उचित ठहराया जाता है कि निजीकरण-उदारीकरण-भूमंडलीकरण आम आदमी के हित में हैं। मोबाइल फोन जैसी कुछ तकनीकें आम आदमी के हित में हो सकती हैं, लेकिन बहुराष्ट्रीय कंपनियों का असल मकसद है प्राकृतिक संसाधनों का दोहन, बाजार पर नियंत्रण, अधिकाधिक मुनाफा, पूंजी और तकनीकी के बल पर अपना व्यावसायिक विस्तार आदि, जहां आम आदमी का हित गौण हो जाता है। यह दावा किया जाता है कि वैश्वीकरण से रोजगार की संभावना बढ़ेगी, लोगों की माली हालत और आधारभूत सुविधाओं में बढ़ोतरी होगी। लेकिन वास्तव में रोजगार युवा वर्ग के उस हिस्से के लिए ही संभव हो पा रहा है जो तकनीकी दृष्टि से शिक्षित और अनुभवी है या कुशल श्रमिक के रूप में अपने श्रम से व्यवसायकर्ता को अधिकाधिक आर्थिक लाभ पहुंचा सकता है। ऐसा युवा वर्ग पैदा करने के लिए तकनीकी और अन्य विशिष्ट शिक्षा प्रदान करने वाली संस्थाएं स्थापित की जा रही हैं, जो अधिकतर निजी क्षेत्र में हैं। ऐसी शिक्षा या सेवा के नाम पर स्वास्थ्य और अन्य जन-कल्याण के मद भी व्यवसाय-केंद्रित होकर रह जाते हैं। इस प्रक्रिया में राज्य की कल्याणकारी भूमिका सिकुड़ती जाती है। राज्य के अधिकारों को अपने हित में इस्तेमाल करने के लिए प्रभुवर्ग एक शक्तिशाली दबाव समूह के रूप में काम करने लगता है। वैश्वीकरण की यह समस्त प्रक्रिया सार्वजनिक और निजी दोनों ही क्षेत्रों में अपना बहुआयामी वर्चस्व कायम करने का मार्ग प्रशस्त करती है। यह सब कुछ अंतत: उसी चालाक भद्रलोक के हित में होता है जिसने अधिसंख्यक जन को हाशिये पर धकेलने की साजिशें कीं। और यही वर्तमान पूंजी-केंद्रित इस देश का- धन, धर्म और सत्ता का- यथार्थ है, जहां राष्ट्र-समाज 'इंडिया बनाम भारत' में विभाजित नजर आता है! http://www.jansatta.com/index.php/component/content/article/20-2009-09-11-07-46-16/40609-2013-03-11-06-28-26 |
Monday, March 11, 2013
हाशिये का समाज और राज
हाशिये का समाज और राज
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