Sunday, September 30, 2012

ईमानदारी भुनाने के लिए बाजार चाहिए, वरना जियेंगे कैसे?

ईमानदारी भुनाने के लिए बाजार चाहिए, वरना जियेंगे कैसे?

पलाश विश्वास

हमारे पूर्वज अत्यंत भाग्यशाली रहे होंगे कि उन्हें खुले बाजार में जीने का मौका नहीं मिला। उपभोक्ता समय से मुठभेड़ नहीं हुई उनकी। चाहे जितनी दुर्गति या सत् गति हुई हो उनकी, ईमानदारी भुनाने के लिए बाजार में खड़ा तो नहीं होना पड़ा!

ईमानदारी पर कारपोरेट अनुमोदन और प्रोयोजन का ठप्पा न लगा तो उस ईमानदारी के साथ बाजार में प्रवेशाधिकार मिलना असंभव है। और हाल यह है कि बाजार से बाहर आप जी नहीं सकते। घर, परिवार, समाज और राष्ट्र सबकुछ अब बाजार के व्याकरण और पैमाने पर चलता है। बाजार की महिमा​ ​ से रोजगार और आय के साधन संसाधन पर आपका हमारा कोई हक नहीं, लेकिन विकासगाथा के इस कारपोरेट समय में जरुरतें इतनी अपरिहार्य हो गयी हैं कि उन्हें पूरा करने के लिए बाजार पर निर्भर होने के सिवाय कोई चारा ही नहीं है।

साठ के दशक के अपने बचपन में जब हरित क्रांति का शैशवकाल था, विदेशी पूंजी का कोई बोलबाला नहीं था, अपने प्रतिबद्ध समाजसेवी शरणार्थी कृषक नेता पिता पुलिनबाबू की गतिविदियों के कारण भारतीय गांवों को बड़े पैमाने पर देखने का मौका मिला था। तब भी उत्पादन प्रणाली, आजीविका ​​और अर्थ व्यवस्था, यहां तक कि राजनीति में भी कृषि केंद्र में था। शहरों कस्बों की बात छोड़िये, महानगरों में भी संस्कृति, जीवनशैली में कृषि​ ​ प्रधान भारत का वर्चस्व था। बजट और पंचवर्षीय योजनाओं में सर्वोच्च प्रथमिकता कृषि हुआ करती थी। गरीबी का एकमात्र मतलब खाद्य असुरक्षा हुआ करती थी। लेकिन पिछले बीस साल के मनमोहनी युग में कृषि हाशिये पर है और हम ग्लोबल हो गये। हमारी आधुनिकता उत्पादन औक कृषि से​ ​ अलगाव पर निर्भर है। कितनी उपभोक्ता सामग्री हमारे पास उपलब्ध हैं और कितनी सेवाएं हम खरीद सकते हैं, इसपर निर्भर है हमारी हैसियत जो कृषि और ग्रामीण भारत की हर चीज भाषा,संस्कृति, परंपरा और जीवनशैली को मिटाने पर ही हासिल हो सकती है।विडंबना तो यह है कि बाजार के ​​अभूतपूर्व विस्तार, आर्थिक सुधार और सामाजिक योजनाओं पर सरकारी खर्च के जरिये ग्रामीण बारत की पहचान, वजूद मिटाने में गांवों का ही ज्यादा इस्तेमाल हो रहा है।हम बचपन से जो सबक रटते रहे हैं, सादा जीवन और उच्च विचार, आज उसकी कोई प्रासंगिकता नहीं है। गांवों में भी बाजार इस कदर हावी हो गया है कि सर्वत्र पैसा बोलता है। ईमानदारी की कहीं कोई इज्जत नहीं है। ईमानदार को लोग बेवकूफ मानते हैं। समझते हैं कि स्साला इतना बेवकूफ है कि बेईमानी करके दो पैसा कमाने का जुगाड़ लगाने की औकात नहीं है इसकी। गनीमत है कि नगरों महानगरों में हर शख्स अपने अपने द्वीप में ​​अपनी अपनी मनोरंजक उपभोक्ता दुनिया में इतना निष्णात है कि उसे दूसरे की परवाह करने की जरुरत नहीं पड़ती।

हम जिस दौर से गुजर रहे हैं, वह संक्रमण​काल ​है। विदेशी पूंजी हमारे रग रग में संक्रमित हो रही है और हम इसे स्वास्थ्य का लक्षण मान रहे हैं। बायोमै​​ट्रिक पहचान, शेयर बाजार और नकद सब्सिडी से जुड़कर हम डिजिटल हो गये हैं।पर इसकी अनिवार्य परिणति अति अल्पसंख्यकों के बाजार वर्चस्व के ​​जरिये बाकी निनानब्वे फीसद लोगो के हाशिये पर चले जाना है।

छह हजार जातियों और विविध धर्म कर्म, भाषाओं उपभाषाओं, संस्कृतियों,​​ कबीलों में अपनी अपनी ऊंची हैसियत से सामंतों की तरह इठलाते हुए हमें इसका आभास ही नहीं है कि इस कारपोरेट समय में जल जंगल जमीन नागरिकता लोकतंत्र मानव नागरिक अधिकार हमसे बहुत तेजी से छिनता जा रहा है और हम तेजी से वंचित बहिष्कृत समुदाय में शामिल होते जा रहे हैं, जिससे अलग होने की कवायद में हम अपने अपने मुकाम पर हैं।

विकासदर और रेटिंग एजंसियां बाजार के लिए हैं,आर्थिक सुधार के लिए हैं।

गरीबी और गरीबी रेखा की परिभाषाएं योजनाओं के लिए हैं और आरज्ञण राजनीति के लिए।

जाति, धर्म ,भाषा कुछ भी हों, परिभाषाएं कुछ भी कहें, हम तेजी से फेंस के दूसरे पार होते जा रहे हैं और उन लोगों के में शामिल होते जा रहे हैं, जिनके पास कुछ नहीं होता।

पूंजी और बाजार निनानब्वे फीसद जनता को हैव नाट में तब्दील किये बिना अपना वर्चस्व बनाये रख नहीं सकते।

हमारे चारों तरफ अश्वमेध के घोड़े दौड़ रहे हैं। नरबलि उत्सव चल रहा है। बिना आहट मौत सिरहाने​ है। पर हमलावर हवाओं की गंध से हम बेखबर है।​

विकास के लिए विस्थापन हमारा अतीत और वर्तमान है। यह विस्थापन गांवों से शहरों की तरफ, कस्बों से महानगरों की ओर, कृषि से​  औद्योगीकरण की दिशा में हुआ। जल जंगल जमीन से विस्थापित होने का अहसास हममें नहीं है। हमारे भीतर न कोई जंगल है, न गांव और ​​न खेत। हमारे भीतर न कोई हिमालय है, न कोई गंगा यमुना नर्मदा गोदावरी, न कोई घाटी है और न झरने। माटी से हमें नफरत हो गयी है। सीमेंट के जंगल और बहुमंजिली इमारतों में हमें आक्सीजन मिलता है। संवाद और संबंध वर्चुअल है। दांपत्य फेसबुक। समाज टेलीविजन है।

अभी तो सब्सिडी खत्म करने की कवायद हो रही है। कालाधन के सार्वभौम वर्चस्व के लिए अभी तो विदेशी फूंजी निवेश के दरवाजे खोले जा रहे ​​हैं। विनिवेश, निजीकरण और ठेके पर नौकरी, कानून संविधान में संशोधन हमने कबके मान लिया। अपने ही लोगों के विस्थापन, देश निकाले को मंजूर कर लिया बिना प्रतिरोध। बिना सहानुभूति। हम मुआवजा की बाट जोहते रहे। दुर्घटनाओं, जमीन और बलात्कार तक का मुआवजा लेकर खामोशी ​​ओढ़ते रहे।

अब बैंकों में जमा पूंजी, भविष्यनिधि और पेंशन तक बाजार के हवाले होना बाकी है।

बाकी है जीटीसी और टीटीसी।
कंपनी कानून बदलेगा।

संपत्ति कानून भी बदलेगा।
बेदखली के बाद सड़क पर खड़ा होने की इजाजत तक न मिलेगी।
विस्थापन की हालत  में बस या रेल किराया तक नहीं होगा कहीं जाने के लिए।
गांवों में तो अब आसमान जमीन खाने लगा है। पहाड़ों में हवाएं नहीं हैं। समुंदर भी पानी से बेदखल होगा। जंगलों का औद्योगीकीकरण ​​हो गया। नागरिकता भी छीन जायेगी।
रिवर्स विस्थापन के लिए कोई गांव कोई देश नहीं है हमारे लिए।​
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​सार्वजनिक उपक्रमों के निजीकरण, एअर इंडिया कर्मचारियों की भुखमरी, बाजार के साथ साथ हिंदुत्व के पनुरूत्थान, गुजरात नरसंहार, सिखों के​​ नरसंहार, बाबरी विध्वंस, किसानों की आत्महत्याएं, शिक्षा और स्वास्थ्य के बाजारीकरण, बाजारू राजनीति, सबकुछ सबकुछ हमने मान लिया। अब क्या करेंगे?

सेल्समैन, दलाल, एजंट, मैनेजर और काल सेंटरों में चौबीसों घंटा बंधुआ, शाइनिंग सेनसेक्स फ्रीसेक्स स्कैम इंडिया में इसके अलावा रोजगार का एकमात्र विकल्प राजनीति है। एजंडा और टार्गेट के साथ जीना मरना है। कंप्यूटर का जमाना लद गया। रोबोटिक्स भविष्य है।​
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​जुगाड़ और बेईमानी के बिना जी पायेंगे क्योंकि आदिवासियों का विकास कारपोरेट कंपनियों की मर्जी पर निर्भर है। विकास विदेशी पूंजी पर। बिना मनमोहन की जय बोले वामपंथियों,अंबेडरकरवादियों, हिंदुत्ववादियों और समाजवादियों का धंदा चलता नहीं है। मीडिया कारपोरेट है। धर्म कर्म कारपोरेट। आंदोलन और स्वयंसेवी संस्थाएं कारपोरेट। पप्पू पास होगा जरूर, पप्पी भी लेगा जरूर, पर कारपोरेट मेहरबानी चाहिए। कारपोरेट मुहर के बिना आप आदमी ही नहीं है। आपका आधार नहीं है। ​​
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​आज ३० तारीख है।पिछला महीना तो जैसे तैसे उधारी पर खींच लिया।
इस महीने उधार नहीं चुकाये, तो राशन पानी , दवाएं बंद।

वेतन बढ़ा नहीं। बिल बढ़ता जा रहा है। तरह तरह के बिल। जिनके घर मरीज हैं, उनके यहां मेडिकल बिल।जिनके बच्चे पढ़ रहे हैं, नालेज इकानामी के रंग बिरंगे बिल। जिनके घर बेरोजगार युवाजन हैं, उनके रोजगार तलाशने का बिल। ईंधन का बिल।बिजली बिल।परिवहन बिल। बिना बिल मकान किराया। सबकुछ बढ़ती का ​​नाम दाढ़ी।भागने को कोई जगह नहीं है। दीवार पर पीठ है। डिजिटल होने का दर्द अलग।आन लाइन होने का अलग। मामला मुकदमा में फंसाये जाने​ ​ पर अलग। हर दर्द जरूरी होता है।कमीना होता है।​

नौकरी है तो , यह हालत!

नौकरी न रही तो गुजारा कैसे हो? पेंशन, भविष्यनिधि, जमा पूंजी, सबकुछ विदेशी पूंजी के हवाले।
मुफ्त कुछ नहीं मिलाता।
दफनाये जाने के लिए दो गज जमीन भी नहीं!
न हवा और न पानी।
अब यह भी नहीं कह सकते, रहने को घर नहीं, सारा हिंदुस्तान अपना!
कौन भूमि पुत्र है, कौन नहीं, यह कौन तय करेगा?
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​आखिर करें तो क्या करें
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