Friday, October 8, 2021

जोगेंद्रनाथ मण्डल खलनायक और बाकी लोग? असली खलनायक तो भारत,पाकिस्तान और बांग्लादेश के शासक बने।पलाश विश्वास

 स्मृति दिवस पर अखण्ड भारत के कानून मंत्री और बाबासाहब भीम राव अम्बेडकर को पूर्वी बंगाल से    संविधान सभा में भेजने वाले महाप्राण जोगेंद्र नाथ मण्डल को श्रद्धांजलि। 



बंगाल के बाहर 22 राज्यों में जंगल,पहाड़ और पठारी आदिवासी बहुल इलाकों में छितरा दिए गए करोड़ों विभाजनपीडित दलित बंगाली इसी की सजा भुगत रहे हैं।जिन्होंने बाबासाहब को चुना,उनकी नागरिकता नहीं है।उनकी जमीन का मालिकाना हक नहों है।वे बाघों का चारा बना दिये गए। बांग्ला इतिहास भूगोल भाषा संस्कृति से बाहर कर दिए गए और बाबासाहब के सबसे निर्णायक समर्थक होने के बावजूद जन्हें न आरक्षण मिला है और न जीवन के किसी क्षेत्र में प्रतिनिधित्व।


 जिन्होंने भारत का विभजन किया वे मनुस्मृति राज में शासक बन गए। जोगेंद्र नाथ मण्डल खलनायक बना दिये गए और पूर्वी बंगाल के दलित बाघों का चारा। जिनमे 10 प्रतिशत का भी अब्जितक पुनर्वाद नहीं हुआ। 


बाबा साहब को चुनने के कारण उनके हिन्दुबहुल जैशोर,खुलना ,बरीशाल और फरीदपुर जिले पाकिस्तान को देकर उन्हें हमेशा के लिए विस्थापित बना दिया गया।


बचपन में महाप्राण के सहयोगी रहे मेरे पिता पुलिनबाबू से उनके संस्मरण इस अफसोस के साथ सुनते थे कि महाप्राण को सत्तावर्ग के दुष्प्रचार की वजह से उन्होंने के लोगों ने भारत विभजन का खलनायक बना दिया गया जबकि सत्ता हस्तांतरण की सौदेबाजी में न वे कहीं थे और न गांधी। 


जोगेंद्रनाथ मण्डल तो बाबासाहब के सहयोगी थे,जो न विभजन रोक सकते थे और न विभजन कर सकते थे। बंगाल की तीनों अंतरिम सरकारों में दलित मुसलमान गठजोड़ सत्ता में थी। 


अखण्ड बंगाल और अखण्ड भारत में जो सत्ता से बाहर होते,उन्होंने मिलकर विभजन को अंजाम दिया ताकि मजदूर किसानों का राज कभी न हो और भारत में फासिज्म का मनुस्मृति राजकाज हो।


पाकिस्तान के मंत्री पद से इस्तीफा देकर बनागल लौट आये इन्हीं जोगेंद्र नाथ मण्डल से नदिया जिले के रानाघट के पास हरिश्चंद्रपुर गांव में  पुलिनबाबू उनके पकिसयं जाने के फैसले के खिलाफ लड़ बैठे और इतनी तेज बहस हो गयी कि पुलिनबाबू बैठक छोड़कर पूर्वी पाकिस्तान जाकर भाषा आंदोलन में शामिल होकर ढाका में गिरफ्तार होकर जेल चले गए। 


तब अमृत बाजार पत्रिका के सम्पादक तुषारकान्ति घोष ने पूर्वी पाकिस्तान के जेल से उन्हें रिहा करवाया।


न पुलिनबाबू कुछ लिखकर रख गए और न जोगेंद्र नाथ मण्डल बाबा साहब अम्बेडकर की तरह लेखक थे। इज़लिये पूर्वी बंगाल के बारे में हम वही जैनते हैं जो बंगाल के विभाजन और पूर्वी बंगाल के दलितों के सर्वनाश के लिए भारत का विभजन करने वालों ने लिखा।


कोलकाता में जोगेंद्रनाथ मण्डल के बेटे जगदीश चन्द्र मण्डल और महाप्राण और पिताजी के सहयात्री ज्ञानेंद्र हालदार से मिलकर कुछ बातें साफ हुई। 


जगदीश चन्द्र मण्डल ने बड़ी मेहनत से अम्बेडकर और महाप्राण के पत्राचार, उस समय के सारे दस्तावेज इकट्ठा कर जोगेंद्रनाथ मण्डल पर चार खंडों की किताब लिखी और पुणे समझौता व मरीचझांपी नरसंहार पर अलग किताबें लिखी तो बातें खुलने लगी।


इसके बाद नागपुर विश्विद्यालय के डॉक्टर प्रकाश अगलावे की पहल पर संजय गजभिये के महाप्राण पर शोध और उनपर मराठी में लिखी किताब से पूरा किस्सा सामने आ गया। लेकिन आम बंगालियों और खासतौर पर दलित विस्थापितों  की नज़र में महाप्राण अब भी खलनायक है और उत्तर व दक्षिण भारत के लोग तो उन्हें जानते भी नहीं।


यही वजह है कि भारत विभजन की त्रासदी के असल खलनायक ही भारत,पाकिस्तान और बांग्लादेश में निरंकुश शासक बने रहे।


यह भारत के इतिहास की सिंधु सभ्यता के पतन और बौद्ध धम्म के पतन के बाद की सबसे बड़ी त्रासदी है।

Monday, September 6, 2021

बसंतीपुर के खिलाड़ी

 बसंतीपुर के तीन खिलाडी,दो को कभी कोई मौका नहीं मिला पदक का,तीसरे के पदकों का सफर शुरू

पलाश विश्वास


भारत विभाजन की त्रासदी में हमारे लोग पीढ़ी दर पीढ़ी अपने वजूद के लिए संघर्ष करते रहे हैं।सात दशक बीत चुके हैं। हम अभी इस महात्रासदी से उबरे नहीं है।


 ग्रीक त्रासदी हो या शेक्सपीयर लिखित त्रासदी या महाकाव्यों के आख्यान- सारी त्रासदियों का आखिर अंत होता है।


 जल प्रलय के बाद भी बची रहती है पृथ्वी और प्रकृति। लेकिन भारत विभाजन की यह त्रासदी हो या यूद्धस्थल बने देशो में मनुष्यता के नक्शे की आधी आबादी, राजनीतिक विस्थापन और पलायन की त्रासदी का कोई अंत नहीं होता।


बांग्लादेश की जनसंख्या 13 करोड़ है और पश्चिम बंगाल की जनसंख्या 11 करोड़। पश्चिम बंगाल में ये 11 करोड़ लोग सारे के सारे बांग्लाभाषी नहीं हैं। जिनमें बड़ी संख्या में गैर बांग्ला भाषी लोग हैं तो बंगाली आबादी का आधा हिस्सा पूर्वी बंगाल के विस्थापितों की है। 


इन विस्थापितों में आधे ऐसे हैं सात दशकों में जिनका कभी पुनर्वास नहीं हुआ।


बाकी भारतवर्ष के 22 राज्यों में और राजधानियों की मेहनतकश शूद्र अतिशूद्र बंगाली विस्थापितों की संख्या कम से कम 11 करोड़ के हैं। 


बांग्लादेश की आबादी का एक बहुत बड़ा हिस्सा राजनीति और अर्थब्यवस्था के कारण सिर्फ पड़ोसी भारत में नहीं, यूरोप, अमेरिका, एशिया ,आस्ट्रेलिया और अफ्रीका तक में विस्थापित हैं।


भारतवर्ष में रोज़गार और आजीविका के लिए हर गांव कस्बे से लोगों का विस्थापन और पलायन होता है। गांव,किसान और खेती की तबाही,जल जंगल,जमीन और आजीविका से बेदखली की वजह से यह सिलसिला अंधाधुंध शहरीकरण और बाजारीकरण से तेज़ हॉट जा रहा है। उत्तरराखण्ड के गांवों में घरों के खंडहर यही बताये हैं।


 विकास के नाम बेदखल हुई जनसंख्या भारत विभाजन के शिकार लोगों से ज्यादा हैं।


 आंतरिक उपनिवेश के ये बलि प्रदत्त मनुष्य हैं। चाहे हिमालय हो,या आदिवासी भूगोल जड़ जमीन से उखड़े लोगों की त्रासदी पश्चिम एशिया,अरब और अफगानिस्तान की त्रासदियों से छोटी नहीं है। 


इलियड, महाभारत, ग्रीक त्रासदी और शेक्सपीयर के लिखे त्रासदी नाटकों की त्रासदियों से कहीं बड़ी है यह अंतहीन त्रासदी।


इसी अंतहीन त्रासदी के शिकार लोगों का गांव है बसंतीपुर। जो 1951 में यहां उत्तराखण्ड की तराई के घने जंगल को आबाद करने वाले लोगों ने अपने नेता पुलिनबाबू की पत्नी और मेरी मां बसन्ती देवी के नाम पर बसाया।


 हमारे लोगों को  बचपन और युवावस्था में खेलने कूदने और लिखने पड़ने के वे मौके दशकों तक नहीं मिले,जो बाकी शरणार्थियों,विस्थापितों, वनवासियों को नहीं मिलते। गरीबी,बेरोज़गारी में सात दशक बीते।


भारत विभाजन के बाद विभिन्न आंदोलनों के साथी बसंतीपुर गांव को बसाने वाले लोग हैं।जिनका यह साझा परिवार है। जिसके प्रेजिडेंट थे मांदार बाबू। चौथी पीढ़ी तक यह परिवार खेलों के प्रति समर्पित है। मांदार बाबू का सामाजिक योगदान बहुत बड़ा है,जिसपर हम सिलसिलेवार ढंग से चर्चा करते रहेंगे।


टनकपुर से लेकर कोटद्वार हरिद्वार तक हिमालय की तलहटी का विशाल यह अरण्य प्रदेश ब्रिटिश हुकूमत ने गोरखों को हराकर जीता था और जो दस्तावेजों में वन विभाग और तेजस्व विभाग का होंने के बावजूद आज भी ब्रिटिश राजपरिवार की सम्पत्ति है। 


लालकुआं और हल्द्वानी से लेकर पन्तनगर तक फैले 50 वर्गकिमी इलाके के बिन्दुखत्ता को भारत सरकार या उसका राजस्व विभाग या वनविभाग इसीलिये बेदखल कर सकते। 


बेदखली का मुकदमा निर्णायक तौर पर सरकार हार चुकी है। इस जमीन पर सरकार दावा नहीं कर सकती।


ब्रिटिश क्राउन यानी खाम की व्यवस्था रही है तराई में 1952 तक,जो भारत सरकार के अधीन थी भी नहीं।


 तत्कालीन उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री पंडित गोविंद बल्लभ पंत और भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने इस तराई पट्टी पर भारत सरकार के निर्णायक कब्जे के लिए भारत विभाजन के शिकार पंजाबी, सिख और बंगाली शरणार्थियों को बसाकर इस जंगल को आबाद करके ब्रिटिश क्राउन की खाम बंदोबस्त का अंत कर दिया। इसीके मुताबिक कालोनाइजेशन योजना बनी।


तब नेहरू सोवियत संघ के सहकारी कम्मुन की व्यवस्था से प्रभावित थे। कालोनाइजेशन की योजना उसी सहकारी मॉडल पर बनी। 


जमीन लीज पर दी गई और उसके बंदोबस्त का जिम्मा हर कालोनी की सहकारी लैंड सेटलमेंट सोसाइटी को दी गयी। यह ग्राम सभा बनने के पहले की व्यवस्था थी,जब गांव की यह जमीन खारिज दाखिल करने का अधिकार भी गांव की इस सहकारी समिति को दे दिया गया।पंचायती व्यवस्था लागू होने पर इस व्यवस्था का अंत हो गया।


हर गांव में इस समिति का एक प्रेजिडेंट होता था।एक कैशियर और एक सेक्रेटरी। लिखा पढ़ी के लिए इलाके के गांवों का एक साझा सरकारी सचिव भी होता था।


मांदार मण्डल आजीवन इसी समिति की वजह से बसंतीपुर के प्रेजिडेंट रहे। उसीतरह जैसे अतुल शील सेक्रेटरी और शिशुवर मण्डल कैशियर।


मांदार मण्डल फुटबॉल और वालीबॉल के अद्भुत खिलाड़ी थे। दिनेशपुर के 36 बंगाली गांवों के अलावा 50-60 के दशक में तराई भाबर के लगभग सभी गांवों में कबड्डी,वालीबॉल और फुटबॉल की बेहतरीन टीमें हुआ करती थी। 


शहरों और स्कूल कालेज में हॉकी मुख्य खेल था। बैडमिंटन भी प्रचलित था। क्रिकेट का चलन इंग्लैंड की टीम के कप्तान टोनी लुइस के भारत दौरे से 70 के दशक में शुरू हुआ और कप्ताल लॉयड की टीम के 1975 के दौरे के बाद क्रिकेट ने एथेलेटिक्स से लेकर हॉकी फुटबॉल वालीबॉल समेत सारे खेलों को चलन से बाहर कर दिया।


उत्तर प्रदेश की टीमों में तराई भाबर का प्रतिनिधित्व मुश्किल था। नैनीताल के जैसे कुछ जगह के खिलाड़ी जरूर नेशनल टीम के हिस्सा बने। जैसे जब हम जीआईसी नैनीताल के छात्र थे,तब  वहां से सैय्यद अली ओलंपिक हॉकी टीम में थे। 


आम मेहनतकश ग्रामीणों के लिए कोई मौका नहीं था। लेकिन तराई भाबर के गांवों में तब हर खेल के टूर्नामेंट होते थे।तब छात्र और युवा इसतरह नशे,पब्जी और सट्टेबाजी, फ्लर्टिंग के शिकंजे में नहीं थे। खूब खेलते थे।पढ़ने लिखने की संस्कृति के अलावा सांस्कृतिक गतिविधियां और खेलकूद प्रतियोगिताएं तराई भाबर के गांवों की कथा में जरूर शामिल थी।


बसंतीपुर की जात्रा पार्टी हो या बसंतीपुर की नेताजी जयंती,पूरे उत्तराखण्ड में इनकी धूम थी। 


सांस्कृतिक गतिविधियों में बसन्तीपुर की खास पहचान थी।इस आलेख की अनेक तस्वीरे बसंतीपुर जात्रा पार्टी और नेताजी जयंती की हैं।इन गतिविधियों को 90 के दशक तक मांदार बाबू के सुपुत्र कृष्ण पद मण्डल और नित्यानंद मण्डल के नेतृत्व में बसन्तीपुर के युवाओं ने बखूबी जारी रखा। तब कृष्ण ग्राम सभा के सभापति थे।


हमारे खास दोस्त, बचपन के साथी कृष्ण बेहद फुर्तीले,हर खेल के जबरदस्त खिलाड़ी थे कृष्ण,हमारे बचपन के साथी,जिसे कभी कोई मंच या मौका पदक जीतने के लिए नहीं मिला।


 वह जब तक जीवित रहा,देश में जहां भी होता था,हर बार लौटकर दिन में कहीं भी रहे,रात में हम उसके घर में उसके साथ होते थे। हम कोलकाता में थे,तभी असमय उसका निधन हो गया।


देश के लिए स्वर्ण पदक जीतने का सिलसिला 1928 में जयपाल सिंह मुंडा ने जीता था। लेकिन तराई भाबर के लिए पहली बार देश को पदक दिया बंगाली विस्थापितों का बेटे मनोज सरकार ने टोक्यो के पैरा ओलंपिक में कांस्य पदक जीतकर।यह उपलब्धि बहुत खास है।













तराई भाबर में शुरू से हमारे लोगों में प्रतिभाओं की कमी नहीं थी।लेकिन उन्हें पदक जीतने का कोई मौका नहीं मिला। सात दशक बाद यह सिलसिला शुरू हुआ। आगे नमेँ ढेरों पदकों की उम्मीद है।


मसलन कृष्ण का बेटा प्रियांशु उत्तराखण्ड से नेशनल एतजेलिटिक्स में पदक जीतने लगा है। वह देहरादून के महाराणा प्रताप स्पोर्ट्स कालेज का छात्र है। लक्ष्मी मण्डल और प्रदीप मण्डल का यह बेटा एथेलिटिक्स में देश के लिए जरूर पदक जीतेगा, इस शुभकामना के साथ आज यही तक। उनका छोटा बेटा अंशुमान भी एथलीट है।


मांदार बाबू,पुलिनबाबू, अतुल शील,शिशुवर मण्डल और बसंतीपुर के पुरखों की कथा जारी रहेगी।

Friday, August 20, 2021

प्रसंग- नेताजी को श्रद्धांजलि। पलाश विश्वास

 प्रसंग -नेताजी को श्रद्धांजलि



अफसोस यह है कि हमारा ज्ञान सूचनाओं पर आधारित है। सूचनाएं सही गलत हो,इससे फर्क नहीं पड़ता किसीको। परीक्षा प्रणाली ज्ञान के बदले सूचना की जांच करता है। 


इसलिए नए लोग शार्ट कट से सूचना जुटाकर ज्यादा से ज्यादा अंक जुटाने की गलाकाट प्रतिस्पर्धा में लगे हैं।


सूचनाओं की जांच का विवेक ज्ञान और गहन अध्ययन

 से बनता है,जिसका कोई शार्ट कट नहीं होता।


शिक्षा का मतलब सीखना,जेनन,समझना,गहन चिंतन मंथन और निष्कर्ष का विवेक होता है। इसके बिना डिग्री और सर्टिफिकेट, शत प्रतिशत अंक से कुछ नहीं बनता।


गूगल डिक्शनरी है और विश्वकोष। कौन फीड करता है।इससे कोई मतलब नहीं। 


कुंजी में रेडीमेड जवाब है। सिलेबस और विषय की जानकारी के बिना,पाठ्य पुस्तकों के दर्शन किये बिना यह ऑन लाइन शिक्षा और सूचना तंत्र का करिश्मा है कि जिस नेताजी को स्वतंत्रता संग्राम का प्रतीक माना जाता है, उनके बारे में अंग्रेजों का फैलाया भरम भी हम बेहिचक अंतिम सत्य मानकर चल रहे हैं। 


सत्य क्या है,उसकी किसी को कोई परवाह नहीं है।


इसी कारण मरने से पहले मृत्यु का शोक इतना वायरल है।


मरने से पहले हम मरे हुए लोग हैं।

Thursday, August 19, 2021

लोधा शबर जनजाति की चुनी कोटाल को क्यों आत्महत्या करनी पड़ी?

 चुनी कोटाल, महाश्वेता देवी और आदिवासी

पलाश विश्वास



शबर जनजाति पर म्हाश्वेतादि ने अपनी पत्रिका बर्तिका के जरिये सिलसिलेवार काम किया था। यह सामग्री बांग्ला में है।पहले बर्तिका के सारे अंक हमारे पास होते थे।अब एक भी नहीं है।


 बर्तिका के जरिये आदिवासी समाज के लिए उन्होंने व्यापक काम किया है,जो उनके कथा साहित्य से कम महान नहीं है।


आज कोलकाता के मशहूर बांग्ला अख़बार में खेड़िया शबर जनजाति की विश्विद्यालय की दहलीज तक पहुंची स्त्री रमणिता के बारे में खबर छपी है।


गौरतलब है कि इससे बरसों पहले लोधा शबर जनजाति की एक स्त्री विश्विद्यालय से शोध कर रही थी।जिनका नाम था चुनी कोटाल।


विश्विद्यालय में लोधा शबर जनजाति  कोटासे होने की वजह से उनका दमन उत्पीड़न इतना ज्यादा हुआ कि चुनी कोटाल को आत्महत्या करनी पड़ी। 


हम सभी,खासतौर पर महाश्वेता देवी , विवहलित हो हए थे।आंदोलन भी चला।


लेकिन दमन और उत्पीड़न का सिलसिला रुका नहीं है। आरक्षण तो नाम मात्र का है।कितने आदिवासी समूहों को आरक्षण का फायदा हुआ?


आदिवासियों के लिए विश्विद्यालय आज भी वर्जित क्षेत्र है। आज भी विभिन्न विश्विद्यालयोन में ऐसे दमन उत्पीड़न की शिकायतें मिलती हैं।


दिलोदिमाग लहूलुहान हो जाता है और हम कुछ कर नहीं पाते। ऐसी कहानियां जरूर आम जनता को जानना चाहिए।


आरक्षण की राजनीति और राजनेताओं को छोड़ दें तो आरक्षण से दलितों,आदिवादियों,अल्पसंख्यकों और स्त्रियों का कितना उत्थान हुआ और क्यों नहीं हुआ 70 साल बाद भी,चुनी कोटाल की कथा उसका जवाब है।


 आगे सरकारी क्षेत्र के निजीकरण और उत्पादन प्रणाली, अर्थव्यबस्था कारपोरेट हवाले होने के बाद ओबीसी कोटे का वोटबैंक सधने के अलावा क्या बनेगा,इस पर ओबीसी समुदायों को सोचना होगा कि ओबीसी कोटे के भी कहीं दलित और आदिवासी आरक्षण जैसा हश्र तो नहीं होगा?


जनजातियों के बारे में हिंदी में ऐसे काम जो भी हुए,उसे आम जनता के सामने लाने की जिम्मेदारी हमारी है।


कृपया 6398418084 व्हाट्सअप नम्बर पर मुझसे संपर्क करें।


पलाश विश्वास

कार्यकारी संपादक ,प्रेरणा अंशु

Mail-prernaanshu@gmail.com

Website- prerna anshu.com

Monday, August 16, 2021

राजनीतिक आज़ादी नहीं है,अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता भी नहीं,बाकी अग्निपथ।पलाश विश्वास

 इस अग्निपथ पर हमसफ़र मिलना मुश्किल


समीर भी, हमारी लड़ाई सामाजिक मोर्चे की है।लड़ाई जारी रहेगी।तुम्हारे मेरे होने न होने से कोई फर्क नही पड़ेगा


पलाश विश्वास





कल हमारे छोटे भाई और रिटायर पोस्ट मास्टर समीर चन्द्र राय हमसे मिलने दिनेशपुर में प्रेरणा अंशु के दफ्तर चले गए। रविवार के दिन मैं घर पर ही था। हाल में कोरोना काल के दौरान गम्भीर रूप से अस्वस्थ होने की वजह से उसे जीवन में सबकुछ अनिश्चित लगता है।


इससे पहले जब वह आया था,रूपेश भी हमारे यहां था। उसदिन भी उसने लम्बी बातचीत छेड़ी थी। 


उसदिन उसने कहा था कि गांवों में स्त्री की कोई आज़ादी नहीं होती।हमें उन्हें आज़ाद करने के लिए हर गांव में कम से कम 5 युवाओं को तैयार करना चाहिए। 


हम सहमत थे।


उस दिन की बातचीत से वह संतुष्ट नहीं हुआ। उसके भीतर गज़ब की छटपटाहट है तुरन्त कुछ कर डालने की। आज हमारे बचपन के मित्र टेक्का भी आ गए थे। बाद में मुझसे सालभर का छोटा विवेक दास के घर भी गए।


बात लम्बी चली तो मैंने कहा कि मैं तो शुरू से पितृसत्ता के खिलाफ हूँ और इस पर लगातार लिखता रहा हूँ कि स्त्री को उसकी निष्ठा,समर्पण,दक्षता के मुताबिक हर क्षेत्र में नेतृत्व दिया जाना चाहिए। लेकिन पितृसत्ता तो स्त्रियो पर भी हावी है। इस पर हम प्रेरणा अंशु में सिलसिलेवार चर्चा भी कर रहे हैं। जाति उन्मूलन, आदिवासी,जल जंगल जमीन से लेकर सभी बुनियादी मसलों पर हम सम्वाद कर रहे हैं ज्वलन्त मसलों को उठा रहे हैं।


हमारे लिए सत्ता की राजनीति में शामिल सभी दल।एक बराबर है। विकल्प राजनीति तैयार नहीं हो सकी है। न इस देश में राजनैतिक आज़ादी है। 


सामाजिक सांस्कृतिक सक्रियता के लिये भी गुंजाइश बहुत कम है। 


अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता नहीं है।


स्त्री आज़ादी के नाम पर पितृसत्ता के लिए उपभोक्ता वस्तु बन रही है। क्रयक्षमता उसका लक्ष्य है और वह गांव और किसिन के पक्ष में नहीं ,बाजार के पक्ष में है या देह की स्वतंत्रता ही उसके लिए नारी मुक्ति है तो मेहनतकश तबके की,दलित आदिवासी और ग्रामीण स्त्रियों की आज़ादी,समता और न्याय का क्या होगा?


समीर अम्बेडकरवादी है।


 हमने कहा कि अम्बेडकरवादी जाति को मजबूत करने की राजनीति के जरिये सामाजिक न्याय चाहते हैं,यह कैसे सम्भव है?


साढ़े 6 हजार जातियों में सौ जातियों को भी न्याय और अवसर नहीं मिलता। 


संगठनों,संस्थाओं और आंदोलनों पर,भाषा, साहित्य, सँस्कृति,लोक पर भी जाति का वर्चस्व। 


फिर आपके पास पैसे न हो तो कोई आपकी सुनेगा नहीं।कोई मंच आपका नहीं है।


समीर हरिदासपुर प्राइमरी स्कूल में दूसरी कक्षा में पढता था और उसका मंझला भाई सुखरंजन मेरे साथ। उनका बड़ा भाई विपुल मण्डल रंगकर्मी और सामाजिक कार्यकर्ता थे। जिनका हाल में निधन हुआ।


70 साल पुराना वह हरिदासपुर प्राइमरी स्कूल बंद है। इलाके के तमाम प्राइमरी स्कूल रिलायंस को सौंपे जा रहे हैं। क्या यह कोई सामाजिक राजनीतिक मुद्दा है?


नौकरीपेशा लोगों के लिए समस्या यह है कि पूरी ज़िंदगी उनकी नौकरी बचाने की जुगत में बीत जाती है। चंदा देकर सामाजिक दायित्व पूरा कर लेते हैं। नौकरी जाने के डर से न बोलते हैं और न लिखते हैं।कोई स्टैंड नहीं लेते। लेकिन रिटायर होते ही वे किताबें लिखते हैं और समाज को, राजनीति को बदलने का बीड़ा उठा लेते हैं।


सामाजिक काम के लिए बहुत कुछ खोना पड़ता है। जैसे मेरे पिता पुलिनबाबू ने खोया। हासिल कुछ नहीं होता।


 राजनीति से कुर्सी मिलती है लेकिन सामाजिक सांस्कृतिक काम में हासिल कुछ नहीं होता। इसमें सिर्फ अपनी ज़िंदगी का निवेश करना होता है और उसका कोई रिटर्न कभी नहीं मिलता।


समाज या देश को झटपट बदल नहीं सकता कोई। यह लम्बी पैदल यात्रा की तरह है। ऊंचे शिखरों, मरुस्थल और समुंदर को पैदल पार करने का अग्निपथ है।


इस अग्निपथ पर साथी मिलना मुश्किल है।


जो हाल समाज का है, जो अधपढ अनपढ़ नशेड़ी गजेदी अंधभक्तों का देश हमने बना लिया, युवाओं को तैयार कैसे करेंगे।


मुझे लगता है कि इस मुद्दे पर भी सार्वजनिक सम्वाद जरूरी है।


मेरे भाई,समीर, निराश मत होना।हम साथ हैं और हम लड़ेंगे। लेकिन यह लड़ाई सामाजिक मोर्चे की है और यह संस्थागत लड़ाई है,जिसे जारी रखना है।


तुम्हारे मेरे होने या न होने से कोई फर्क नहीं पड़ता।

Sunday, August 15, 2021

आदिवासी भूगोल में 1757 से ही अंग्रेज़ी हुकूमत के खिलाफ लड़ाई शुरू हो गयी थी,पलाशी युद्ध के ठीक बाद से।पलाश विश्वास

 आदिवासियों का इतिहास हमारा इतिहास है

पलाश विश्वास




1957 में पलाशी के युद्ध में लार्ड क्लाइव की जीत के अगले ही दिन से मेदिनीपुर के जंगल महल से आदिवासियों ने ईस्ट इंडिया के लहिलाफ़ जल जंगल जमीन के हक हकूक और आज़ादी की लड़ाई शुरू कर दी।


मेदिनीपुर में एक के बाद एक तीन0 अंग्रेज़ कलेक्टरों की आदिवासियों ने हत्या कर दी। इसे बंगाल और। छोटा नागपुर में भूमिज विद्रोह कहा जाता है। 


जल जंगल जमीन की लड़ाई में शामिल जनजातियों को अंग्रेजों ने स्वभाव से अपराधी जनजाति घोषित कर दिया। 


बंगाल, झारखण्ड, ओडिशा, मध्य प्रदेश,छत्तीसगढ़ में तब आदिवासी ही जंगल के राजा हुए करते थे। जहां आदिवासियों का अपना कानून चलता था।जिसके तहत धरती पर जो भी कुछ है,वह आदिवासी समाज का है।किसी की निजी या किसी हुकूमत की जायदाद नहीं।


 अंग्रेज़ी हुकूमत आफ़ीवासियों से जल जंगल जमीन छीनना चाहती थी।उनकी आजादी और उनकी सत्ता छीनना चाहती थी। 


समूचे आदिवासी भूगोल में इसके खिलाफ 1757 से ही विद्रोह शुरू हो गया।


अंग्रेज़ी सरकार आदिवासियों को अपराधी साबित करने पर तुली हुई थी, इसलिए इसे चोर चूहाड़ की तर्ज पर चुआड़ विद्रोह कहा गया और हम भद्र भारतीय भी इसे चुआड़ विद्रोह कहते रहे। 


जल जंगल जमीन की इस लड़ाई को आदिवासी भूमिज विद्रोह कहते हैं,जो सही है। 


इसी सिलसिले को आगे बढ़ाते हुए बिहार बंगाल में बाउल फकीर विडतोह हुए,जिसमे आदिवासियों की बड़ी भूमिका थी। लेकिन इसे सन्यासी विद्रोह कहा गया।


 तमाम किसान विद्रोह की अगुआई नील विद्रोह से अब तक आदिवासी ही करते रहे। शहीद होते रहे लेकिन हमलावर सत्ता के सामने कभी आत्म समर्पण नहीं किया।


 संथाल विद्रोह, मुंडा विद्रोह ,भील विद्रोह से पहले चुआड़ विद्रोह, बाउल विद्रोह और नील विद्रोह तक के समय पढ़े लिखे भद्र जन अंग्रेजों के साथ और आदिवासियों के खिलाफ थे।


संथाल विद्रोह, मुंडा विद्रोह,भील विद्रोह,गोंदवाना विद्रोह से लेकर आज तक जल जंगल जमीन की लड़ाई में किसिन विद्रोह की अगुआई आदिवासी करते रहे हैं शहादतें देते रहे हैं। जबकि गैर आदिवसी पढ़े लिखे लोग जमींदारी के पतन होने तक बीसवीं सदी की शुरुआत तक अंग्रेज़ी हुकूमत का साथ देते रहे हैं।


मुंडा, संथाल और भील विद्रोह की चर्चा होती रही है। लेकिन चुआड़ विद्रोह,बाउल फकीर सन्यासी विद्रोह और नील विद्रोह में आफ़ीवासियों की आज़ादी की लड़ाई हमारे इतिहास में दर्ज नहीं है।


यह काम हमारा है।


प्रेरणा अंशु के सितम्बर अंक से आदिवासियों पर हमारा फोकस जारी रहेगा। किसिन आंदोलनों में आदिवादियों की नेतृत्वकारी भूमिका और चुआड़, संथाल,तुतिमीर, भील,गोंडवाना विद्रोह से लेकर बाउल फ़कीर सन्यासी नील विद्रोह और 1857 की क्रांति के बारे में प्रामाणिक लेख आमंत्रित है।


आदिवासियों का इतिहास हमारा इतिहास है।

Mail-prernaanshu@gmail.com

Saturday, August 14, 2021

स्वतंत्रता दिवस पर लाल किले से आदिम सभ्यता की गंध क्यों आ रही है? पलाश विश्वास

 लाल किले से राष्ट्र को सम्बोधन से आदिम युग की गंध क्यों आ रही है?

पलाश विश्वास



पहले और दूसरे खाड़ी युद्ध के बाद दुनिया सिरे से बदल गयी। भारतीय राजनय की असफलता और निष्क्रियता का सिलसिला शुरू हुआ और अब अफगानिस्तान से जब सारे समीकरण बदल रहे हैं,भारतीय राजनय फिर फेल है। 


मुक्त बाजार और अंधी राजनीति ने राजनय को फेल करके भारत की स्वतंत्रता और सम्प्रभुता गहरे खतरे में डाल दिया। दुनिया फिर बदल रही है। हम आदिम युग में वापस लौट रहे हैं। स्वतंत्रता दिवस पर टाइम मशीन का यह सफर मुबारक हो।


जनता को बेरोजगार करके,बाज़ारबमें मरने छोड़कर,चिकित्सा,शिक्षा समेत सारी बुनियादी सुविधाओं और सेवाओं से वंचित कर, जल जंगल जमीन समता न्याय स्वयंत्रता,सम्प्रभुता और मानवाधिकार से बेदखल कर भीख पर जीने को मजबूर किया जा रहा है।


कमाई है नहीं,कमरतोड़ महंगाई,भीख पर कितने दिन जिएंगे?


लाल किले से राष्ट्र को सम्बोधन से आदिम सभ्यता की गंध क्यों आ रही है?