Saturday, January 16, 2016

कभी कभी मैं सोचता हूं क्या गाली - गलौज और धमकियों से डरकर मैं लिखना बंद कर दूंगा? या अपना एकाउंट समेट लूंगा? या रोना-धोना शुरू कर दूंगा? क्योंकि गालियां तो हर दिन आती हैं. धमकियां भी. आपको भी मिलती होंगी. सोशल मीडिया में यह कौन सी बड़ी बात है.

Dilip C Mandal
13 hrs
कभी कभी मैं सोचता हूं क्या गाली - गलौज और धमकियों से डरकर मैं लिखना बंद कर दूंगा? या अपना एकाउंट समेट लूंगा? या रोना-धोना शुरू कर दूंगा? क्योंकि गालियां तो हर दिन आती हैं. धमकियां भी. आपको भी मिलती होंगी. सोशल मीडिया में यह कौन सी बड़ी बात है.
फिर याद आती है माता सावित्रीबाई फुले की. बीसेक साल की एक मासूम महिला. लगभग डेढ़ सौ साल पहले, पुणे के भिडेवाड़ा में देश के पहले गर्ल्स स्कूल में पढ़ाने जा रही है. लोग उनपर गोबर और गंदगी फेंक देते हैं, क्योंकि लड़कियों को पढ़ाना धर्म विरुद्ध है. उन्हें गालियां दी जाती हैं. सावित्रीबाई रुआंसी घर लौटती है. लेकिन हिम्मत नहीं छोड़ती. वह मानवतावादी मिशन पर है. अगले दिन वे फिर स्कूल जाती हैं.
आज उनके पास एक थैली है, जिसमें एक सेट एक्स्ट्रा साड़ी है. गालियों के साथ आज भी उनपर गोबर और नाली की गंदगी फेंकी जाती है. वे सब सह लेती है. स्कूल आकर साड़ी बदलती हैं और फातिमा शेख के साथ मिलकर लड़कियों को पढ़ाती हैं. महीनों तक हर दिन यह सिलसिला चलता है. फिर ब्राह्मणवादी लोग थक जाते हैं. मिशन की जीत होती है.
इसे मिशन की ताकत कहते हैं. इसे विचारों की ताकत कहते हैं.
यह निजी मान, सम्मान, अपमान वगैरह से बहुत कीमती चीज है.
सावित्रीबाई इतिहास की महानायिका हैं.
उन पर गोबर और गंदगी फेंकने वाले इतिहास के कूड़ेदान में हैं.
गाली और आलोचनाओं के डर से चुप बैठ जाने वाले लोग चाहे जो कुछ हों, फुले-आंबेडकरवादी तो कतई नहीं हैं. आलोचना से घबरा कर रुक जाना इस परंपरा का हिस्सा नहीं है.
चुप बैठ जाने वाले भयभीत लोग दया के पात्र हैं. वे फैशन में हिस्सा लेने आए हैं. मानवतावादी मिशन से उनका कोई लेना देना नहीं है. वे फैशन परेड में आए थे. चले गए. फिर आ जाएंगे. फिर चल देंगे.

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