Monday, July 15, 2013

जोहार घाटी से ऊँटा धूरा दर्रा के दोनों ओर

जोहार घाटी से ऊँटा धूरा दर्रा के दोनों ओर

Team-who-went-for-trekking'मामा अब नहीं आएंगे हम ट्रैकिंग में….!'' मिलम गाँव से मुनस्यारी को वापस आते वक्त नितिन के ये शब्द मुझे मुनस्यारी पहुँचने तक कचोटते रहे। ऐसा नहीं था कि नितिन इस ट्रैक में शारीरिक रूप से थक गया था। कम उम्र होने के बावजूद पीठ में रूकसैक लादे वो हर रोज हमारी टीम के साथ मीलों पैदल रास्ता नाप रहा था। दरअसल इस ट्रैक में बार्डर के बे-सर पैर के नियम कानूनों व उलझनों से परेशान हो नितिन मानसिक रूप से थक गया था। और इस बात का गुस्सा वो मुझ पर निकाल रहा था। देर सायं मुनस्यारी पहुँचने पर सकून सा मिला जब उसने कहा, ''मामा अगले साल कहाँ का ट्रैक है, मुझे भूलना मत।''

उत्तराखंड में हिमालय से लगी तिब्बत की सीमा कैसी होती होगी, वहाँ बार्डर में कैसी जो हलचल होती होगी, हमारे जाबाँज सिपाहियों का जीवन वहाँ क्या होता होगा, पहले जब सीमाओं का बंधन नहीं होता था तो कैसे लोगों का काफिला दर्रों को पार कर आते-जाते होंगे, वो दर्रे कैसे होते होंगे…जैसी कई जिज्ञासा बचपन से ही मन में रहती थी। कई हिमालयी यात्राएं करने के बाद बार्डर की साहसिक यात्रा करने को मन में कुलबुलाहट मचने लगी तो व्यास व दारमा घाटी का रुख किया। व्यास घाटी में ऊँ पर्वत तथा छोटा कैलाश के दर्शनों के साथ ही सिनला पास करने के बाद भी बार्डर की जिज्ञासा की हमारी प्यास नहीं बुझी। हालांकि हम व्यास व दारमा घाटी की अद्भुत सुंदरता व इतिहास से रूबरू जरूर हुए।

दसकों पहले अल्मोड़ा बारामंडल का जोहार में छोटे-बड़े 500 मकानों का गाँव था मिलम। जोशीमठ के मलारी गाँव व मिलम के ग्रामीणों का सदियों पहले तिब्बत से व्यापार के लिए ऊँटाधूरा दर्रा पार करके आना-जाना लगा रहता था। तिब्बत की संस्कृति की झलक इनमें अभी भी मिलती है। मिलम तब एक बड़ी व्यापारिक मंडी थी। अब मिलम गाँव खंडहर हो चुका है। कुछ ही ग्रामीण प्रवास में वहाँ जाते हैं। 1998 में हमारा एक दल मिलम से मलारी अभियान पर निकला। गाईड का स्वास्थ्य बिगड़ जाने पर बुढ़ा दुंग से हमें वापस लौटना पड़ा था। ऊँटा धूरा दर्रा पार कर मलारी ना जा पाने का मलाल रह गया। हमारे साथी भुवन चौबे ने कलकत्ता के एक दल के साथ मिलम-मलारी अभियान पर 2011 के अगस्त माह में जाने की पेशकश रखी तो हमें तो जैसे मुँह मांगी मुराद मिल गई। कलकत्ता के दल का इंतजार करते अगस्त भी गुजरने को हुआ कि इस बीच पता लगा कि उनका दल अब सिनला पास को जा रहा है। सिनला दर्रा हमारे दल ने 2007 में पार किया था इसलिए मना कर दिया। मिलम-मलारी अभियान के अचानक फेल होने से हमने इस पर खुद ही जाने के लिए जो मन बनाया तो योगेश परिहार, संजय पांडे व नितिन भट्ट समेत चार लोग जुड़ गए।

सात सितंबर 2011 को हमारा दल बागेश्वर से मुनस्यारी को निकला। बस से हमारा सफर थल तक का ही था। थल में मुनस्यारी के लिए जीप लगी थी। सड़क कई जगह ध्वस्त होने की वजह से बस नहीं जा पा रही थी। पिथौरागढ़ के बुजुर्ग साहित्यकार बी.डी. कसनियाल व नाचनी के केवल जोशी से भी यात्रा की शुभकामनाएं ले ली। बादल फटने से दफ्न हो चुके ला-झेकला गाँवों की जमीन में घास उग चुकी थी। अगस्त 2009 में बादल फटने से ये गाँव भूस्खलन की चपेट में आ बह गए। इस भयानक हादसे में गाँव में रह रहे 42 लोगों की मौत हो गई थी। जीप चढ़ाई में मध्यम रफ्तार से चल रही थी। बिर्थी गाँव के पास ही 125 मीटर की ऊँचाई से लहराते हुए नीचे गिरता झरना अपनी ओर खींच रहा था। यहाँ झरने के पास ही कुमाऊँ मंडल विकास निगम का सुंदर डाक बंगला है। जीप सर्पाकार सड़क में धीरे-धीरे ऊँचाई को जा रही थी। सड़क की सेहत काफी दुबली दिखी। किनारे में पैराफिट नहीं के बराबर हैं। राज्य समेत देश के शीर्ष पदों पर शासन चला रहे कई दिग्गजों का मुनस्यारी, जोहार आदि में गाँव हैं। वो भी अकसर इसी सड़क से यहाँ पहुँचते हैं। आश्चर्य होता है कि उन्हें ये सब क्यों नहीं दिखाई देता होगा। शायद भ्रष्टाचार ने दिमाग की परतों के साथ ही उनकी आँखें भी बंद कर दी हों!

kala-muni-topजीप झटके से रुकी। घंटी बजने की आवाज पर बाहर देखा तो ये 2700 मी. की ऊँचाई पर कालामुनि टॉप था। जीप की कैद से बाहर निकल मंदिर में चले। भोटिया कुत्ते के चार पिल्ले दौड़ते हुए अपनी गरजदार आवाज में भौंकते हुए हमारी ओर लपके। हम उन्हीं के साथ काफी देर तक खेल में मस्त हो गए कि जीप का हाॅर्न सुनाई दिया। जीप अब उतार में थी। सड़क के नीचे वन विभाग का हर्बल गार्डन दिखाई दे रहा था। सुनने में आया कि इस गार्डन में कुछ बड़े घोटाले हुए हैं, जिन्हें ले-देकर खत्म किया जा रहा है। सामने पँचाचूली में बादलों की लुका-छिपी हो रही थी। जीप मुनस्यारी में पांडे लॉज के पास रुकी। सरल स्वभाव के पांडेजी हमारा सामान रखने में खुद भी मदद करने लगे। मुनस्यारी में उनका लॉज उनके मीठे स्वभाव की तरह काफी चर्चित और सकूनदायक है। इस यात्रा के लिए पांडेजी ने ही हमारे लिए गाईड मनोज कुमार को तय कर रखा था। मनोज के आने के बाद हम सभी आईटीबीपी कैम्प में गए। मिलम क्षेत्र में जाने के लिए प्रशासन के साथ ही आईटीबीपी की भी परमिशन जरूरी है। आईटीबीपी कैम्प में गए तो वहाँ के साहब ऊँटा धूरा के लिए ना-नुकुर करने लगे। हमने अपने मित्र एवरेस्टर हीरा राम जो कि आईटीबीपी में पिथौरागढ़ में सुबेदार मेजर पद पर थे का परिचय देने के साथ ही अपनी यात्रा का उद्देश्य (साहसिक) बताया तो बमुश्किल उन्होंने परमिट में साइन किए।

मौसम थोड़ी देर के लिए खुला तो सामने पँचाचूली का भव्य रूप देख हम सभी चौंके। पँचाचूली मुनस्यारी से काफी खूबसूरत दिखता है। इसकी चोटियाँ चिमनी की तरह खूबसूरत दिखीं। मुनस्यारी में पँचाचूली से जुड़ी एक पुरानी कहावत सुनी। हमें एक गाईड ने बताया कि पांडव जब स्वर्ग को जा रहे थे तब उन्होंने यहीं पंचाचूली में ही आँखरी बार भोजन बनाया था। यह कैसे संभव हुआ होगा अब ये तो पांडव और उस जमाने के लोग ही जानें। हमें यकीन करना जरा संभव नहीं जान पड़ा। मुनस्यारी अब काफी दूर तक फैल गया है। नीचे दूर जड़ में बहती गोरी गंगा की आवाज अपने होने का एहसास कराती है। मुनस्यारी से मिलम के साथ ही रालम, नामिक सहित अनगिनत ग्लेशियरों व बुग्यालों को जाने के लिए टै्किंग मार्ग हैं। रालम ग्लेशियर जाने के लिए मुनस्यारी से लगभग 45 किमी की यात्रा लीलम, पटाण गाँव, सूफिया उड्यिार होते हुए साहसिक मार्ग है।

मुनस्यारी को जोहार घाटी का प्रवेश द्वार भी कहा जाता है। मुनस्यारी से तिब्बत जाने का काफी पुराना रास्ता है। उस वक्त जब तिब्बत से व्यापार होता था तो मुनस्यारी को व्यापारी लोग गोदाम की तरह प्रयोग करते थे। जोहार घाटी के दोनों ओर बीहड़ इलाकों में कई छोटे-बड़े गाँव बसे हैं। जोहार घाटी में रहने वाले जोहारियों को शौका कहा जाता है। वैदिक रीति-रिवाजों को मानने वाले शौका लोगों का आजादी से पूर्व व्यापार ही आजीविका का मुख्य सहारा था। दुस्साहसिक यात्राएं करना जोहारियों की पहचान हुआ करती थी। 1947 से पहले जोहारियों की प्रमुख व्यवसायिक मंडियाँ मुनस्यारी, मदकोट, बागेश्वर, हल्द्वानी, रामनगर, टनकपुर तथा तिब्बत में ग्यानिमा, तरचौन, गरतोक आदि प्रमुख थे। तिब्बत की मंडियों में मध्य एशिया के कई देशों के व्यापारियों का जमावड़ा रहता था। नमक, सुहागा व ऊन की आपूर्ति जोहारी व्यापारियों के द्वारा ही की जाती थी। आजादी के बाद भी तिब्बत के साथ छिट-पुट व्यापार चलता रहा। 1962 में चीन के आक्रमण के बाद तिब्बत के साथ व्यापार बंद होने से जोहार के गाँव सूनसान हो गए और शौका लोग आजीविका के लिए अन्य जगहों में बस गए। 1967 में भारत सरकार ने शौका समुदाय को भोटिया जनजाति घोषित कर दिया।

भोटिया लोग भी एक तरह से बुद्ध से प्रभावित रहे। कहा जाता है कि 13वीं तथा 14वीं शताब्दी में भारत में मंगोलों के आक्रमण होने पर हिन्दू ब्राह्मण हिंसा से बचने के लिए पहाड़ी इलाकों में चले गए। बाद में उनमें से कुछ वहीं बस गए और तिब्बती समाज के साथ घुल-मिल जाने से उनके बीच व्यापारिक संबंध बन गए।

मुनस्यारी से लगा दरकोट एक छोटा गाँव है। मुनस्यारी से 6 किमी दूर। यहाँ सौ साल पुराने खिड़कियों व दरवाजों में नक्काशी वाले पुराने आकर्षक मकान हैं। यहाँ हाथ की बुनाई से बने पशमीने व अंगूरा के शॉल के साथ ही भेड़ की ऊन के बने कंबल भी मिलते हैं। मुनस्यारी के नानसेन गाँव में डा. एस.एस. पांगती के घर में उनका बनाया एक अनोखा म्यूजियम है। यह म्यूजियम काफी प्रसिद्ध है। लोग उन्हें मास्टरजी बोलते हैं। उन्होंने बीते जमाने की ढेर सारी यादगार तिब्बत के साथ व्यापार के वक्त की चीजों को अपने पास संजो रखा है। जिनमें से रोजमर्रा की जिंदगी में काम आने वाली 'माचिस' चकमक पत्थर तथा सूखी काई, कप, बरतन, छोटा चमड़े का बैग, पारंपरिक आभूषण, हिरन की खाल का बैग सहित सौ साल पुरानी कई अद्भुत चीजें हैं। कुमाउनी भोटियाओं के तिब्बती खम्पा और डोक्पासों के आपसी व्यापार के वक्त के सामान को बचाकर रख खत्म होती संस्कृति को बचाना ही पांगतीजी ने अपनी जिंदगी का उद्देश्य बना लिया है। पांगतीजी के पास कई कहानियों में से प्रसिद्व पर्वतारोही हरीश चन्द्र सिंह रावत तथा हुकुम सिंह पांगती की भी साहसिक कहानियाँ बताने को हैं। मुनस्यारी, पर्वतारोही मलिका विर्धी की भी जन्म स्थली है। 1997 में भारत-भूटान-नेपाल के हिमालयी दर्रों को महिलाओं के एक दल ने पार किया। इस अभियान की लीडर मलिका थी। यही गाँव तीन बार एवरेस्ट फतह करने वाले लवराज धर्मशक्तू का पैतृक गाँव तथा उनकी पत्नी रीना कौशल धर्मशक्तू का ससुराल भी है। रीना कौशल साउथ पोल पर जाने वाली पहली भारतीय महिला हैं।

Nain-Singh-Stamp-The-Great-Trigonometrical-Surveyतिब्बती भाषा के जानकार और मिलम गाँव के स्कूल मास्टर 33 वर्षीय नैन सिंह रावत को 1863 में ईस्ट इंडिया कम्पनी ने त्रिकोणमितीय सर्वे के लिए नियुक्त किया। इस महान सर्वेक्षण कार्य के लिए पंडित नैन सिंह को रॉयल ज्योग्रेफिकल सोसाइटी लंदन द्वारा 1877 में 'पैट्रन्स मैडल' तथा ब्रिटिश शासन द्वारा 'सीआइई' से सम्मानित किया गया। पंडित नैन सिंह की स्मृति में भारत सरकार ने 2004 में एक डाक टिकट भी जारी किया। पंडित नैन सिंह रावत के साथ ही 1855 से 1882 तक जोहार के किशन सिंह, कल्याण सिंह, मानी, दोलपा ने भी छद्म रूप में तिब्बत, चीन, तुर्किस्तान तथा मंगोलिया के कई क्षेत्रों का त्रिकोणमितीय सर्वेक्षण कार्य किया। 1885 में ब्रिटिश सरकार ने पंडित किशन सिंह को 'रायबहादुर' के अलंकरणों से विभूषित किया।

दरअसल ईस्ट इंडिया कम्पनी का तिब्बत से ऊन, सोहागा तथा सोना प्राप्त करने का स्वार्थ था। 1857 में स्लागिन्टवाइट बंधु एडोल्फ के काशगर में हत्या किये जाने तथा 1863 में तुर्गन विद्रोह के कारण विदेशियों का तिब्बत में प्रवेश बंद हो गया था। जिससे अंग्रेजों ने तिब्बत में सोने की खानों की खोज के साथ ही चीनी-साइबेरियन मार्गों के सर्वेक्षण कार्य करने के लिए 1861 में एक योजना बनाकर जोहार घाटी के रावत बंधुओं को सर्वे ऑफ इंडिया में प्रशिक्षण दिया। पंरपरागत व्यापार की वजह से इन्हें तिब्बत में प्रवेश करने की किसी भी प्रकार की कठिनाई नहीं थी। ये लोग तिब्बती भाषा तथा संस्कृति से पूर्णतः भिज्ञ होने के साथ ही मंगोल मुखमुद्रा के कारण छद्म रूप से कार्य कर सकते थे।

2200 मी. की ऊँचाई पर मुनस्यारी में टीआरसी के साथ ही बारह लॉज हैं। पर्यटकों की यहाँ खूब आवाजाही रहती है। पँचाचूली के दर्शन करने के लिए। जोहार के शौकाओं ने मुनस्यारी के आस-पास अपने आसियाने बना लिए हैं। ज्यादातर मौसम सुबह-शाम का ठंडा है। जाड़ों में बर्फ की सफेद चादर चारों ओर बिछी रहती है। जाड़ों में बर्फ गिरने पर बेटूली धार व खलिया टॉप में स्कींइग भी होती है, जो कि मुनस्यारी से मात्र सात किमी की दूरी पर हैं।

शाम होते-होते मेघ फिर से बरसने लगे थे। हम सभी कल की तैयारी में जुटे थे। तभी हमारा पुराना मित्र वीरू बुग्याल मिलने आ गया। वीरू का मुनस्यारी में रेस्टोरेंट है और वो टूर आपरेटिंग का काम भी करते हैं। वीरू प्रशासन व आईटीबीपी द्वारा पर्यटकों को परेशान किये जाने से बहुत ही खिन्न था। वीरू ने बताया, 'लीलम गाँव को जाने वाला पैदल रास्ता तो धापा से सड़क बनाने वालों ने खत्म कर दिया है। घोड़े भी एक साल से ऊपर जोहार में ही हैं। पर्यटन तो खत्म ही कर दिया है सबने। मुनस्यारी में तहसील प्रशासन और आईटीबीपी की कारगुजारी ऐसी है कि यहाँ पर्यटक दोबारा आने से कतराने लगा है। पासपोर्ट होने के बावजूद भी पर्यटकों को परेशान किया जाता है। मिलम तक जाने के लिए जो परमिट बनता है उससे ज्यादा आसान तो पासपोर्ट बनाना है।'' वीरू के यह सब दु:खड़ा सुनाने तक हम अपना सामान पैक कर सुबह चलने की तैयारी कर चुके थे।

3गोरी नदी के किनारे-किनारेसुबह बारिश ने जोर पकड़ लिया था तो रुकने का इंतजार करने लगे। लखनऊ की ज्योलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया की टीम भी बगल में ही रुकी थी। दो माह मिलम ग्लेशियर में शोध करने के बाद अभी वो नीचे उतरे थे। कुछ दिनों बाद मार्तोली को जाएंगे।

बारिश हल्की हो गई थी। मुनस्यारी से धापा और आगे चिलम धार तक के लिए जीप कर ली थी। यहाँ सड़क को काट कर भारी भरकम बोल्डर व मिट्टी को नीचे फैंकने से मुख्य पैदल रास्ता बंद हो गया था। बोल्डरों के मलवे में ही जो रास्ता मजबूरी में लोगो के चलने से बना है वो इस ट्रेक का एक तरह से शुरुआत में ही परीक्षा ले लेता है। गोरी नदी के किनारे जिमघाट तक पहुँचने के लिए बोल्डरों में फिसलने की मार, कीचड़ व जोंक के हमले से बचने के लिए शरीर के जो नाना आसन बनाने पड़े वो अद्भुत थे।

जारी है

http://www.nainitalsamachar.in/johar-to-oonta-pass-by-keshav-bhatt-1/

No comments:

Post a Comment