Monday, July 15, 2013

हरेले की चिट्ठी मेघ के नाम

हरेले की चिट्ठी मेघ के नाम

harela-wishes-2012स्वस्तीश्री सर्वोपमायोग्य नैनीताल समाचार वालो! इस बार आषाढ़ सूखा रह गया। पानी नहीं बरसा और सावन के साथ जब बरसना शुरु हुआ तो पहली ही बरसात ने उत्तराखण्ड की धरती पर तबाही का मंजर बरसाना शुरु कर दिया। मुनस्यारी से लेकर चमोली की बिरही घाटी और उत्तरकाशी की असी गंगा के भीतरी इलाकों तक तबाही ही तबाही। डरा देने वाला मंजर !

मैंने महाकवि कालिदास रचित मूल मेघदूत के दो चार संस्कृत श्लोक ही पढ़े हैं, वह भी सातवीं-आठवीं की अनिवार्य संस्कृत की पाठ्य पुस्तकों में। लेकिन विष्णु प्रभाकर द्वारा अनूदित मेघदूत का जो पाठ मैंने पढ़ा है उसमें दक्षिण भारत के रामगिरि पर्वत पर एक शाप के कारण निर्वासित अलकापुरी का यक्ष आषाढ़ के प्रथम दिन उत्तर दिशा की ओर जाने वाले मेघ को अपनी यक्षिणी के लिये संदेश देते हुये कहता है, ''हे मेघ तुम दुःखियों को शरण देने वाले हो.. खेती का होना या न होना सब तुम्हारे ऊपर निर्भर है.. वहाँ मालदेश के उन खेतों पर, जो अभी-अभी जोते गए होंगे और जिनसे सौंधी-सौंधी सुगंध उठ रही होगी, बरस कर तुम पश्चिम की ओर घूमना और झटपट उत्तर की ओर बढ़ जाना। जब तुम आम्रकूट के जंगलों में मूसलधार जल बरसा चुकोगे तो वह तुम्हारा उपकार मानकर, बड़े प्रेम और आदर से मित्र के समान तुम्हें अपनी चोटी पर ठहराएगा.. जल बरसा देने से तुम्हारा बदन हल्का हो जायेगा और तुम्हारी चाल बढ़ जायेगी..।"

मेघदूत के उसी यक्ष की तरह इस बार काफी देरी से उत्तर दिशा की ओर जा रहे बादलों के जरिए हरेले की यह चिट्ठी भेजते हुए मैं उन बादलों से कहना चाहता हूँ कि हे मेघो जब तुम उत्तर प्रदेश की सीमा पार कर बहेड़ी से कुछ आगे बढ़ोगे तो तुम्हें सितारगंज नाम की एक रियासत मिलेगी। इस रियासत ने अभी-अभी अपना रंग बदला है। यहाँ के जागीरदार ने कुछ करोड़ लेकर अपनी प्रजा का भला करने के नाम पर सत्ता की चाभी एक बहुत बड़े जागीरदार को सौंप दी है। रियासत की जनता इस रंग परिवर्तन से गदगद है। तुम्हें भी साफ दिखाई देगा कि वहाँ अब केसरिया की जगह लाल, हरे और सफेद रंग की धूम मची हुई है। किसी को जमीनों पर लोटते हुये तुम देखो तो समझ जाना कि यह वही बलिदानी संत है जिसने अपनी प्रजा को जमीनों पर अधिकार दिलाने के लिये इतना बड़ा त्याग किया है। हो सकता है कि जब तक तुम वहाँ पहुँचो तब तब यह त्यागमूर्ति लालबत्ती लगे किसी शाही रथ पर सवार भी हो चुकी हो। वहाँ के हर बालिग नर-नारी के हाथों में तुम्हें बड़े-बड़े पात्र और संग्राहक दिखाई देंगे। उन बरतनों को देख कर तुम यह सोचकर भ्रमित मत हो जाना कि उन नर-नारियों ने यह बरतन तुम्हारा अमृत जल संग्रह करने के लिये पकड़े हुये हैं। दरअसल यह पात्र उन लोगों ने उन वायदों को भरने के लिये पकड़े हैं जो यहाँ सिंहासन तैंतीसी के खेल के खिलाडि़यों ने बरसाये हैं। तुम्हें साफ दिखेगा कि ये वायदे नर नारियों के बरतनों से छलक-छलक कर जहाँ तहाँ बिखरते जा रहे हैं। रंग परिवर्तन के इस खेल का असल हाल तो तुम अगले कुछ वर्षों में देख सकोगे, जब तुम्हें बरतन पकड़े यही नर-नारी किसी और रंग के वायदों से अपने खाली पड़े बरतन भरने को उत्सुक दिखाई देंगे। शायद कुछ वर्ष पहले भी ऐसा ही कोई दृष्य तुमने कोसी के किनारे रामनगर से कुछ आगे बढ़ते हुये भी देखा होगा। बहरहाल उत्तराखंड में दूसरी ओर से प्रवेश करने के लिये कुरूक्षेत्र से आगे बढ़ कर जब तुम कनखल पहुँचोगे तो वहाँ तुम्हें पहले की भांति, '' महाराज सगर के साठ हजार पुत्रों को मुक्ति देने वाली हिमालय की गोद से उतरती हुई गंगा जी मिलेंगी। यदि तिरछे होकर तुम उनका जल पीना चाहोगे तो तुम्हारी चलती हुई छाया गंगाजी की धारा में पड़कर ऐसी लगेगी जैसे प्रयाग पहुँचने से पहले ही गंगा जी में यमुना जी मिल गयी हों'।

माफ करना हे यक्ष मैं तुम्हें कालिदास के मेघदूत के शब्दों में ही संदेश देने लग गया था। दरअसल इस युग में अब जब तुम कनखल पहुँचोगे तो तुम्हें ऐसा लगेगा कि गंगा जी वहाँ हैं ही नहीं। वहाँ बहने वाली नहरों और नालियों का पानी देखकर तुम नाक भौं न सिकोड़ना। पीछे जिस यमुना जी को तुम छोड़ आए हो वह तो इस महादेश की राजधानी तक पहुँच कर ही दम तोड़ देती है। प्रयाग में जो पहुँचता है वह तो राजधानी के भद्रलोक के पापों को धो-धो कर कीचड़ हो गया सीवर और उसको गतिमान रखने वाला विंध्यांचल की दिशा से आती सदानीरा नदियों का पानी होता है। अस्तु हे मेघ तुम कनखल या हरिद्वार को देखकर भ्रमित मत होना और प्यास लग भी जाए तो इन स्थानों का पानी पीने की जुर्रत मत करना। कहीं वो पानी पीकर तुम्हारा पाचनतंत्र गड़बड़ा गया तो तुम मेरी देवभूमि तक पहुँचने से पूर्व ही फूट पड़ोगे और मेरा संदेश वहाँ तक नहीं पहुँच पाएगा।

नीचे तुम्हें कोलाहल सुनाई दे तो जरा भी विचलित नहीं होना। वहाँ इन दिनों तरह-तरह की दुकानें लग रही हैं जिनमें गंगा की अविरल धारा को बचाये रखने का आंदोलन बिक रहा है। इस माल के खरीददार भी बहुत हैं। लेकिन इस दुकानदारी के कारण ठेकेदार, दलाल, नेता और लुण्ड-लफण्ड बुद्धिजीवी तथा बेरोजगार बाहुबलियों के पेट पर लात पड़ने लगी है। इसलिए वे भी जवाबी कोलाहल पर उतारू हैं। इस कोलाहल के जोर में तुम्हें कुछ अवाक-अचंभित और असहाय मानवीय चेहरे दिखाई दें तो उन पर तुम अपना नेह जरूर बरसा देना। आगे बढ़ने पर यदि तुम्हें गंगा की धारा गुम होती हुई दिखाई दे या उसके पानी में बड़ा सा कोई ठहराव दिख पड़े तो उसे देखकर परेशान मत हो जाना कि तुम मार्ग भटक गये हो। हिमालय अस्थिर है, अभी निर्माण की प्रक्रिया में ही है और भूगर्भीय कंपनों के लिहाज से खतरनाक है आदि-आदि तमाम तर्कों को दरकिनार कर बड़े-बड़े बांधों, टनलों का निर्माण वहाँ का एक बड़ा खेल बन गया है। सैकड़ों करोड़ फूँकने के बाद अचानक किसी योजना को बंद करने की आकाशवाणी हो जाती है। पर्याप्त शोध और छानबीन किए बिना बांध बनने लगते हैं। फिर अचानक उन्हें रोक दिया जाता है, फिर अचानक उनकी ऊँचाई बढ़ा दी जाती है, फिर अचानक आकाशवाणी होती है कि कई नई योजनाएं शुरू की जाएंगी। एक जागीरदार उद्घाटन करते हैं, दूसरे जागीरदार रोक लगा देते हैं, तीसरे जागीरदार पुनः काम चालू करवाने की जुगत में जुट जाते हैं। मेरी देवभूमि में इन दिनों सारी अशांति इसी कारण छायी हुई है। धरती की कोख के एक- एक रहस्य को जानने का गुमान रखने वाले कुछ महामुनियों ने कई वर्ष पूर्व टिहरी नामक एक स्थान पर, (जिसे शायद तुम त्रिहरि के नाम से जानते रहे होंगे) गंगा की राह रोकने का जो काम शुरू किया था, उसका वहीं रहने वाले कुछ अज्ञानियों ने बड़ा विरोध किया था। एक महा अज्ञानी तो वहीं आश्रम बना कर रहने की धृष्टता कर बैठै थे। मगर जैसी कि भू लोक की परम्परा है कि जीत हमेशा विकास की ही होती है। इसलिए वो अज्ञानी भैंस के आगे बीन बजाते रहे गए और ज्ञानियों का नक्कारखाना गुंजायमान होता रहा। इस कारण पिछले कुछ सालों से तुम देख रहे होंगे कि टिहरी नाम की वो सारी बसासत विकास के आगे नतमस्तक हो चुकी है। इसलिए अगले कुछ वर्षों में तुम्हें कोई और नगर या कोई और काशी इसी तरह नतमस्तक होती दिख जाए तो तब भी तुम परेशान मत होना। टिहरी बांध की जगमगाती रोशनियों की चुंधियाहट में एक अदद मोटर पुल की बाट जोहते नदी पार के दर्जनों गाँवों के लोगों का करुण क्रन्दन तुम्हें भले ही सुनाई दे जाए मगर मेरी देवभूमि के मनसबदारों-जागीरदारों के कानों तक वह पहुँच ही नहीं पाता। इसलिए इस तरह की बातों से भी तुम कतई परेशान न होना। कालिदास के यक्ष ने तुमसे कहा था '' हे मित्र ! वहाँ रहने वाली अप्सराएं बड़ी विनोदप्रिय हैं। वे अपने नग-जड़े कंगनों की नोक तुम्हारे बदन में चुभोकर तुममें से पानी की धाराएं निकालेंगी और तुम्हें फौवारा बना लेंगी। उनसे छुटकारा पाने के लिये तुम जोर से गरज कर उन्हें डरा देना।' लेकिन मित्र मेघ मैं तुम्हें ऐसी कोई सलाह नहीं देने वाला। इन दिनों उस देवभूमि के ज्ञानी लोग अति उत्साह से लबरेज हो चुके हैं। मैं उन्हें असहिष्णु या अविवेकी कहने की धृष्टता तो कतई नहीं कर सकता इसलिए तुम्हें यह मित्रवत सलाह दे रहा हूँ कि उनकी राह में आने की जरा भी कोशिश न करना। क्योंकि कालिदास से भी बड़े एक महात्मा कवि और अद्धे-पौवौं से शक्ति हासिल करते चिन्तक-रचनाकारों के ये अनुयायी इन दिनों अज्ञानी लोगों का मुँह काला करने का आनंद प्राप्त कर अपना जीवन धन्य कर रहे हैं और इन दिनों मेरी देव भूमि में इसे राजकीय खेल भी घोषित कर दिया गया है।

मित्र मेघ क्योंकि गंगा से तुम्हारा गहरा रिश्ता है इसलिए तुम्हें मैं गंगा से जुड़े किसी भी प्रसंग से बचने की सलाह एक बार पुनः देना चाहता हूँ। चाहो तो तुम इसे मेरी सलाह भरी चेतावनी भी समझ सकते हो। मित्र मेघ तुमने सोने का अण्डा देने वाली मुरगी के बारे में जरूर सुना होगा कि किस तरह सारे अण्डे एक साथ निकाल लेने की लालसा में उसके मालिक ने मुर्गी का पेट ही चीर डाला था और हमेशा के लिये अपनी मुर्गी से ही हाथ धो लिया था। उसी तरह मेरी देवभूमि को फटाफट विकसित कर देने में जुटे ज्ञानी जन भी इन दिनों हर नदी की एक-एक बूँद से बिजली बना लेना चाहते हैं। अंजाम चाहे जो भी हो उन्हें तो बस बिजली चाहिये। एक बड़े मनसबदार तो इसी मकसद से जन्तर-मन्तर नामक स्थल पर एक दिन भरतमुनि को धन्य करने जा पहुँचे थे। वे वहाँ सबका मन मोहने वाले महाज्ञानी जन से भी मेरी देवभूमि को फटाफट विकसित करने में मदद देने का अनुरोध कर चुके हैं। उन्होंने जन्तर-मन्तर में अपने अत्यंत ज्ञानपूर्ण प्रवचन में बताया कि उत्तराखंड में बाहर के लोग वहाँ के विकास को बाधित करने के लिये गंगा की अविरलता के नाम पर बाधों का विरोध कर रहे हैं। उन लोगों को उत्तराखंड की कतई चिन्ता नहीं है और वे वहाँ का दुख दर्द भी नहीं समझते। चूँकि वे टोपीधारी ज्ञानी महात्मा ठहरे इसलिए उन्हें भला यह कैसे पता होगा कि गोपेश्वर के एक महा अज्ञानी बीसियों वर्षों से विष्णुप्रयाग परियोजना नामक तीर्थ का लगातार हर स्तर पर विरोध करते आ रहे हैं। जोशीमठ के एक लाल झंडा धारी अज्ञानी तो विरोध करते-करते भू लोक से ही विदा हो गये। केदार घाटी के गाँवों में वहाँ बन रहे नए-नए परियोजना रूपी तीर्थों का विरोध अनपढ़ महिलाएं और बूढ़े बुजुर्ग ग्रामीण दो तीन साल से लगातार कर रहे हैं, यह भी टोपी वाले महाज्ञानी को शायद न दिखाई देता होगा। न ही कभी उन्होंने इसके बारे में सुना ही होगा। क्योंकि उनका ज्ञान संसार अपने वोटों और नोटों से आगे जा ही नहीं सकता। मगर हे मित्र मेघ तुम इस सबमें जरा भी टाँग मत अड़ाना क्योंकि मेरी देव भूमि के ज्ञानी लोग तुम्हें भी बाहरी ठहरा सकते हैं और तुम्हारे प्रवेश पर प्रतिबंध लगा सकते हैं या तुम्हें राजशक्ति के प्रयोग से उत्तराखंड से बाहर भी खदेड़ सकते है। मैं तुम्हारा मुँह काला होते हुये भी नहीं देखना चाहता क्योंकि ऐसा हुआ तो मेरी देव भूमि की असली प्रजा पर भारी दुःखों को पहाड़ टूट पड़ेगा। क्योंकि उन्हें तुम्हारी बेहद जरूरत है।

तुम वहाँ हिमालय के नाजुक मिजाज के बारे में अपना ज्ञान मत बधारने लग जाना क्योंकि अब वहाँ के कण-कण में ज्ञान का प्रवाह हो चुका है। वहाँ के नए नए बने जागीरदार ने राज्य की आय बढ़ाने के लिये उत्तर प्रदेश नामक धर्मराज्य की पिछली महाप्रतापी जनसेविका के खजाने को भरने में महासहायक रहे एक महासंत को अभी अभी अपना सलाहकार बनाया है। यह महासंत पिछले राज्य में उस निर्माण मकहमे का मुखिया था जिसे पत्थरों को सोने में बदलने की कला आती थी और उस राज्य का खुफिया तंत्र अब भी इस महासंत की तलाश कर रहा है ताकि वह रहस्य जाना जा सके। लेकिन यह महासंत अब मेरी देव भूमि का निर्माण सलाहकार बना दिया गया है इसलिए वहाँ चहुंओर अब निर्माण की ही धूम मचने वाली है। इस वक्त वहां बाँध परियोजनाओं की ठेकेदारी ने बच्चे बच्चे को ऊर्जावान बना दिया है। इसलिए मुम्बइया भाषा में कहूँ तो तुम वहाँ पंगा मत ही लेना। गंगा को 'रन ऑफ द रिवर' जैसे नए नए आभूषणों से सुशोभित करने वाले महाज्ञानी जन 1978 में उत्तरकाशी की कनोडिया गाड़ में खुद बन गयी झील के महात्म्य के बारे में कदाचित कोई जानकारी नहीं रखते होंगे या फिर अब उन्होंने निश्चित ही इतना ज्ञान प्राप्त कर लिया होगा कि वे अब भविष्य में मेरी देव भूमि में कोई गौनाताल या कनोडिया-डबरानी झील बनने ही नहीं देंगे। कोई मालपा या कोई भूकंप आने ही नहीं देंगे। अब तो उनके पास आपदा प्रबंधन महकमा भी है और आपदा के बाद घटनास्थल तक पहुँचकर घडि़याली आँसू बहाने के लिये उड़नखटोले भी। उन ज्ञानियों के पास तकनीक है। अपनी ताकत से वे हिमालय को भी चीर सकते हैं (ध्यान रहे मैंने फाड़ सकते हैं नहीं कहा है)। वे नदियों को बाँध सकते हैं। उनका रास्ता रोक सकते हैं, उनकी राह बदल सकते हैं। वे अजेय हैं, उनके पराक्रम के आगे प्रकृति नतमस्तक हो गई है। वे जो चाहें सब कुछ कर सकते हैं और उनके सामने कोई तर्क किया ही नहीं जा सकता क्योंकि ज्ञान उन्हीं से प्रवाहित होता है। उन्हें तो इस वक्त सिर्फ ऊर्जा चाहिये और वो ऊर्जा इस वक्त परियोजनाओं के निर्माण से जुड़े धंधों से निकल रहे नोटों के रूप में मेरी देवभूमि में सर्वत्र विचर रही है। तुम्हारी तरह वह भी अपना रूप बदलने में सक्षम है और कहीं वह परियोजनाओं के रूप में होती है तो कहीं वह एनजीओ के रूप में। कहीं वह रेता बजरी के रूप में विचरण कर रही है तो कहीं कहीं वह खनन के रूप में भी। जमीनों की खरीद फरोख्त के धंधे में तो वो मेरी देव भूमि में सर्वत्र विराजमान है ही। इस ओजस्वी ऊर्जा से ना टकराने में ही, हे मेघ तुम्हारी भलाई है।

उत्तरमेघ-

"हे मेघ अलकापुरी के ऊँचे-ऊँचे भवन सब बातों में तुम्हारे जैसे हैं।" यह बात तुमसे कालिदास के यक्ष ने कही थी किन्तु मैं तुम्हें यह बताना चाहता हूँ कि अब मेरी देवभूमि में कोई अलकापुरी नहीं रह गयी है। स्थाई अलकापुरी को मेरे ज्ञानीजन बसने ही नहीं देते और जो अस्थाई अलकापुरी है उसके वैभव के आगे मेघ होते हुये भी तुम पानी नहीं भर पाओगे। वहाँ ऊर्जा है। वहां फाइलों में नोटों की खेती होती है। वहां रंग बदलने वाले राजदरबार हैं। धन धान्य से परिपूर्ण दरबारी और दलालादि गण हैं। वहाँ नगर वधुएँ भी हैं और मदिरा आदि की नदियाँ भी बहती ही रहती हैं। वहाँ भोग विलास का इतना इंतजाम है कि तमाम जागीरदार मनसबदार वहीं स्थाई रूप से निवास करने में ही कुल का अहोभाग्य मानने लगे हैं। ऐसे में किसी दुःखियारी यक्षिणी को ढूँढने में तुम्हें अवश्य अत्यंत कष्ट होगा क्योंकि गाँव-गाँव रूपी मेरे सब मंदिर अब उजाड़ हो रहे हैं। उनकी सुधि लेने वाला कोई बचा नहीं है। सबको ऊर्जा चाहिये। अपने गाँव तक की सड़क सही ढंग से बनाने की तकनीक भले ही वहाँ विकसित नहीं हो पाई हो, (बार्डर रोड आर्गनाइजेशन का आभार कि उसके कारण हे मेघ तुम्हारे वहाँ प्रवेश के बाद टूटने-फूटने वाली सड़कों की मरम्मत तो हो ही जाती है) मगर नदियों को बाँध-बाँध कर और पहाड़ों को कोर-कोर कर फटाफट ऊर्जावान होने को लालायित मेरी देवभूमि के महाज्ञानियों की जमात के लिये उन गाँवों का होना या न होना कोई मायने नहीं रखता। वहाँ के निष्पाप ग्रामीण अपने उजड़ने, अपना पर्यावरण तबाह होने या अपने गाँव को बर्बाद होने से बचाने के लिये अगर आवाज उठाते भी हैं तो उसे कौन सुनता है? बडी बड़ी कंपनियों के कारपोरेट कल्चर और दिल्ली दरबार तक को साधने की महारत रखने वालों तथा उनके सलाहकार ज्ञानाश्रियों के गठजोड़ के आगे कुछ अदद माताओं, कुछ बहनों या कुछ पूर्व फौजियों की क्या बिसात ? फिर भी हे मेघ भले आदमियों की रीति यही है कि जब कोई उनसे कुछ माँगता है तो वे मुँह से कुछ नहीं कहते बस उसका काम पूरा कर देते हैं। इसीलिए मैं तुमसे विनम्रता पूर्वक अनुरोध करता हूँ कि तुम मेरा संदेश चाहे न पहुँचाओ मेरी देव भूमि में आना कभी मत छोड़ना। वहाँ जो कुछ भी शेष बचा है वह सब तुम्हारी ही कृपा है। तुम्हारी कृपा नहीं होगी तो मेरे महाज्ञानियों की ऊर्जा भी बनते बनते रह जायेगी। तुम आओगे तभी हमारा हरेला कायम रहेगा, तभी हमारा बसंत कायम रहेगा।


कालिदास के यक्ष ने तुमसे कहा था कि मैं कामना करता हूँ कि तुम्हारी बिजली तुमसे कभी अलग न हो। लेकिन मुझे इस सलाह पर चिन्ता हो रही है क्योंकि मेरी देवभूमि के ज्ञानीजन इस समय जिस तरह बिजली के लिये मतवाले हो रहे हैं, उसमें कहीं वे गंगा की तरह तुम्हारी बिजली देख तुम्हें भी बाँधने का यत्न न करने लगें। यह भी हो सकता है कि भविष्य में किसी और कनोडिया गाड या बेलाकूची के लिये वे तुम्हारी ही बिजली को जिम्मेदार ठहरा दें। इसलिए हे मेघ तुम आना तो जरूर मगर बिजली के सौदागरों और गंगा की अविरलता के बाजीगरों से सावधान रहते हुये। तुम आना। हमेशा सही वक्त पर आना और मेरे गाँवों को जिन्दगी दे जाना। मेरे सोतों को जीवन दे देना। मेरे जंगलों को, मेरे बुग्यालों को, मेरे सेरों को और मेरे खेतों को सबको हरा-भरा कर जाना। ताकि मेरी देवभूमि को कुछ साँसे और मिल सकें, मेरे गाँवों को कुछ उम्र और मिल सके।

- गोविन्द पन्त 'राजू'

http://www.nainitalsamachar.in/harela-letter-through-cloud-2012/

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