THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS ON NEPALI SENTIMENT, GORKHALAND, KUMAON AND GARHWAL ETC.and BAMCEF UNIFICATION!
Published on Mar 19, 2013
Palas Biswas, a journalist, spoke to us today from Kolkota, India and shared his views on Nepali sentiment, Gorkhaland, Kumaon, Garhwal etc. He also criticized New Delhi's interference in Kathmandu's internal affairs.
Published on 19 Mar 2013
Palas Biswas, a journalist who works for Indian Express, spoke to us today from Kolkota, India and shared his views on All India Backward (SC, ST, and OBC) and Minority Communities Employees' Federation, known as BAMCEF, Nepali sentiment, Gorkhaland, Kumaon, Garhwal etc. He also criticized New Delhi's interference in Kathmandu's internal affairs.
-- https://www.youtube.com/watch?feature=player_embedded&v=dOHvRbwZBBo#!
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" If you give me six lines written by the hand of the most honest of men, I will find something in them which will hang him."
- Cardinal Richelieu, Minister of Louis XIII
( (Qu'on me donne six lignes écrites de la main du plus honnête homme, j'y trouverai de quoi le faire pendre.) YouTube - Videos from this email
Published on Mar 19, 2013
Palas Biswas, a journalist, spoke to us today from Kolkota, India and shared his views on Nepali sentiment, Gorkhaland, Kumaon, Garhwal etc. He also criticized New Delhi's interference in Kathmandu's internal affairs.
Published on 19 Mar 2013
Palas Biswas, a journalist who works for Indian Express, spoke to us today from Kolkota, India and shared his views on All India Backward (SC, ST, and OBC) and Minority Communities Employees' Federation, known as BAMCEF, Nepali sentiment, Gorkhaland, Kumaon, Garhwal etc. He also criticized New Delhi's interference in Kathmandu's internal affairs.
http://youtu.be/oLL-n6MrcoM
http://youtu.be/CZSX3YZ65pY
अगर लोकतन्त्र और धर्मनिरपेक्षता में आस्था हैं तो अंबेडकर हर मायने में प्रासंगिक हैं
अगर लोकतन्त्र और धर्मनिरपेक्षता में आस्था हैं तो अंबेडकर हर मायने में प्रासंगिक हैं
हिन्दू राष्ट्र का संकट माथे पर है और वामपंथी अंबेडकर की एक बार फिर हत्या करना चाहते हैं!
अंबेडकर की एक बार फिर हत्या की तैयारी
समाज सुधारने की सोच से बदलेगा समाज
पलाश विश्वास
`हिन्दू राष्ट्र का संकट माथे पर है और वामपंथी अंबेडकर की एक बार फिर हत्या करना चाहते हैं!' शीर्षक आलेख मेरा आलेख छापते हुए हस्तक्षेप के संपादक अमलेंदु उपाध्याय ने खुली बहस आमंत्रित की है। इसका तहेदिल से स्वागत है। भारत में विचारधारा चाहे कोई भी हो, उस पर अमल होता नहीं है। चुनाव घोषणापत्रों में विचारधारा का हवाला देते हुये बड़ी-बड़ी घोषणायें होती हैं, पर उन घोषणाओं का कार्यान्वयन कभी नहीं होता।
विचारधारा के नाम पर राजनीतिक अराजनीतिक संगठन बन जाते हैं, उसके नाम पर दुकानदारी चलती है। सत्ता वर्ग अपनी सुविधा के मुताबिक विचारधारा का इस्तेमाल करता है। वामपन्थी आन्दोलनों में इस वर्चस्ववाद का सबसे विस्फोटक खुलासा होता रहा है।सत्ता और संसाधन एकत्र करने के लिये विचारधारा का बतौर साधन और माध्यम दुरुपयोग होता है।
इस बारे में हम लगातार लिखते रहे हैं। हमारे पाठकों को याद दिलाने की आवश्यकता नहीं है। हमने ज्ञानपीठ पुरस्कार विजेता साहित्यकार और अकार के संपादक गिरिराज किशोर के निर्देशानुसार इसी सिलसिले में अपने अध्ययन को विचारधारा की नियति शीर्षक पुस्तक में सिलसिलेवार लिखा भी है। इसकी पांडुलिपि करीब पाँच-छह सालों से गिरिराज जी के हवाले है। इसी तरह प्रसिद्ध कवि केदारनाथ सिंह के कहने पर मैंने रवींद्र का दलित विमर्श नामक एक पांडुलिपि तैयार की थी, जो उनके पास करीब दस साल से अप्रकाशित पड़ी हुयी है।
भारतीय राजनीति पर हिन्दुत्व और कॉरपोरेट राज का वर्चस्व इतना प्रबल है कि विचारधारा को राजनीति से जोड़कर हम शायद ही कोई विमर्श शुरू कर सकें। इस सिलसिले में इतना ही कहना काफी होगा कि अंबेडकरवादी आन्दोलन का अंबेडकरवादी विचारधारा से जो विचलन हुआ है, उसका मूल कारण विचारधारा, संगठन और आन्दोलन पर व्यक्ति का वर्चस्व है। यह बाकी विचारधाराओं के मामले में भी सच है।
कांग्रेस जिस गांधी और गांधीवादी विचारधारा के हवाले से राजकाज चलाता है, उसमें वंशवादी कॉरपोरेट वर्चस्व के काऱण और जो कुछ है, गांधीवाद नहीं है। इसी तरह वामपन्थी आन्दोलनों में मार्क्सवाद या माओवाद की जगह वर्चस्ववाद ही स्थानापन्न है। संघ परिवार की हिन्दुत्व विचारधारा का भी व्यवहार में कॉरपोरेटीकरण हुआ है। कॉरपोरेट संस्कृति की राजनीति के लिये किसी एक व्यक्ति और पार्टी को दोषी ठहराना जायज तो है नहीं, उस विचारधारा की विवेचना भी इसी आधार पर नहीं की जा सकती।
बहरहाल यह हमारा विषय नहीं है। सत्ता में भागेदारी अंबेडकर विचारधारा में एक क्षेपक मात्र है, इसका मुख्य लक्ष्य कतई नहीं है। अंबेडकर एकमात्र भारतीय व्यक्तित्व हैं, जिन्होंने अपने भोगे हुये अनुभव के तहत इतिहासबोध और अर्थशास्त्रीय अकादमिक दृष्टिकोण से भारतीय सामाजिक यथार्थ को सम्बोधित किया है। सहमति के इस प्रस्थान बिन्दु के बिना इस सन्दर्भ में कोई रचनात्मक विमर्श हो ही नहीं सकता और न निन्यानब्वे फीसद जनता को कॉरपोरेट साम्राज्यवाद से मुक्त करने का कोई रास्ता तलाशा जा सकता है।
गांधी और लोहिया ने भी अपने तरीके से भारतीय यथार्थ को सम्बोधित करने की कोशिश की है, पर उनके ही चेलों ने सत्ता के दलदल में इन विचारधाराओं को विसर्जित कर दिया। यही वक्तव्य अंबेडकरवादी विचारधारा के सन्दर्भ में भी प्रासंगिक है। उन्होंने जो शोषणमुक्त समता भ्रातृत्व और लोकतान्त्रिक समाज, जिसमें सबके लिये समान अवसर हो,की परिकल्पना की, उससे वामपंथी वर्गविहीन शोषणमुक्त समाज की स्थापना में कोई बुनियादी अन्तर नहीं है। अन्तर जो है, वह भारतीय यथार्थ के विश्लेषण को लेकर है।
भारतीय वामपन्थी जाति व्यवस्था के यथार्थ को सिरे से खारिज करते रहे हैं, जबकि वामपन्थी नेतृत्व पर शासक जातियों का ही वर्चस्व रहा है। यहाँ तक कि वामपन्थी आन्दोलन पर क्षेत्रीय वर्चस्व का इतना बोलबाला रहा कि गायपट्टी से वामपन्थी नेतृत्व उभारकर भारतीय सन्दर्भ में वामपन्थ को प्रासंगिक बनाये रखे जाने की फौरी जरूरत भी नज़रअंदाज़ होती रही है, जिस वजह से आज भारत में वामपन्थी हाशिये पर हैं। अब वामपन्थ में जाति व क्षेत्रीय वर्चस्व को जस का तस जारी रखते हुये जाति विमर्श के बहाने अंबेडकर विचारधारा को ही खारिज करने का जो उद्यम है, उससे भारतीय वामपन्थ के और ज्यादा अप्रासंगिक हो जाने का खतरा है।
शुरुआत में ही यह स्पष्ट करना जरुरी है कि आरएसएस और बामसेफ के प्रस्थान बिन्दु और लक्ष्य कभी एक नहीं रहे। इस पर शायद बहस की जरुरत नहीं है। आरएसएस हिन्दू राष्ट्र के प्रस्थान बिन्दु से चलकर कॉरपोरेट हिन्दू राष्ट्र की लक्ष्य की ओर बढ़ रहा है। वहीं जाति विहीन समता और सामाजिक न्याय के सिद्धान्तों के आधार पर सामाजिक बदलाव के लिये चला बामसेफ आन्दोलन व्यक्ति वर्चस्व के कारण विचलन का शिकार जरूर है, पर उसका लक्ष्य अस्पृश्यता और बहिष्कार आधारित समाज की स्थापना कभी नहीं है। हम नेतृत्व के आधार पर विभाजित भारतीय जनता को एकजुट करने में कभी कामयाब नहीं हो सकते। सामाजिक प्रतिबद्धता के आधार पर जीवन का सर्वस्व दाँव पर लगा देने वाले कार्यकर्ताओं को हम अपने विमर्श के केन्द्र में रखें तो वे चाहे कहीं भी, किसी के नेतृत्व में भी काम कर रहे हों, उनको एकताबद्ध करके ही हम नस्ली व वंशवादी वर्चस्व,क्रयशक्ति के वर्चस्व के विरुद्ध निनानब्वे फीसद की लड़ाई लड़ सकते हैं।
प्रिय मित्र और सोशल मीडिया में हमारे सेनापति अमलेंदु ने इस बहस को जारी रखने के लिये कुछ प्रश्न किये हैं, जो नीचे उल्लेखित हैं। इसी तरह हमारे मराठी पत्रकार बंधु मधु कांबले ने भी कुछ प्रश्न मराठी `दैनिक लोकसत्ता' में बामसेफ एकीकरण सम्मेलनके प्रसंग में प्रकाशित अपनी रपटों में उठाये है, जिन पर मराठी में बहस जारी है। जाति विमर्श सम्मेलन में भी कुछ प्रश्न उठाये गये हैं, जिनका विवेचन आवश्यक है।
य़ह गलत है कि अंबेडकर पूंजीवाद समर्थक थे या उन्होंने ब्राह्मणविद्वेष के कारण साम्राज्यवादी खतरों को नज़रअंदाज़ किया।
मनमाड रेलवे मैंस कांफ्रेंस में उन्होंने भारतीय जनता के दो प्रमुख शत्रु चिन्हित किये थे, एक ब्राह्मणवाद और दूसरा पूँजीवाद। उन्होंने मजदूर आन्दोलन की प्राथमिकताएं इसी आधार पर तय की थीं। अनुसूचित फेडरेशन बनाने से पहले उन्होंने श्रमजीवियों की पार्टी बनायी थी और ब्रिटिश सरकार के श्रममंत्री बतौर उन्होंने ही भारतीय श्रम कानून की बुनियाद रखी थी। गोल्ड स्टैंडर्ड तो उन्होंने साम्राज्यवादी अर्थव्यवस्था के प्रतिकार बतौर सुझाया था। बाबा साहेब के अर्थशास्त्र पर एडमिरल भागवत ने सिलसिलेवार लिखा है, पाठक उनका लिखा पढ़ लें तो तस्वीर साफ है जायेगी।
न सिर्फ विचारक बल्कि ब्रिटिश सरकार के मन्त्री और स्वतन्त्र भारत में कानून मन्त्री, भारतीय संविधान के निर्माता बतौर उन्होंने सम्पत्ति और संसाधनों पर जनता के हक-हकूक सुनिश्चित करने के लिए संवैधानिक रक्षा कवच की व्यवस्था की, नई आर्थिक नीतियों और कॉरपोरेट नीति निर्धारण, कानून संशोधन से जिनके उल्लंघन को मुक्त बाजार का मुख्य आधार बनाया गया है। इसी के तहत आदिवासियों के लिए पाँचवी और छठीं अनुसूचियों के तहत उन्होंने जो संवैधानिक प्रावधान किये, वे कॉरपोरेट राज के प्रतिरोध के लिये अचूक हथियार हैं। ये संवैधानिक प्रावधान सचमुच लागू होते तो आज जल-जंगल-जमीन आजीविका और नागरिकता से बेदखली का अभियान चल नहीं रहा होता और न आदिवासी अँचलों और देश के दूसरे भाग में माओवादी आन्दोलन की चुनौती होती।
शास्त्रीय मार्क्सवाद, पूँजीवाद और साम्राज्यवाद के विरुद्ध है, लेकिन वहाँ पूंजीवादी विकास के विरोध के जरिये सामन्ती उत्पादन व्यवस्था को पोषित करने का कोई आयोजन नहीं है। जाहिर है कि अंबेडकर ने भी पूँजीवादी विकास का विरोध नहीं किया तो सामन्ती सामाजिक व श्रम सम्बंधों के प्रतिकार बतौर, प्रतिरोध बतौर, पूँजी या पूँजीवाद के समर्थन में नहीं। वरना एकाधिकार पूँजीवाद या कॉरपोरेट साम्राज्यवाद के विरुद्ध संवैधानिक रक्षाकवच की व्यवस्था उन्होंने नहीं की होती।
अंबेडकर विचारधारा के साथ साथ उनके प्रशासकीय कामकाज और संविधान रचना में उनकी भूमिका की समग्रता से विचार किया जाये, तो हिन्दू राष्ट्र के एजंडे और कॉरपोरेट साम्राज्यवाद के प्रतिरोध में लोक गणराज्य भारतीय लोकतन्त्र और बहुलतावादी संस्कृति की धर्मनिरपेक्षता के तहत भारतीय संविधान की रक्षा करना हमारे संघर्ष का प्रस्थानबिन्दु होना चाहिये। जिसकी हत्या हिन्दुत्ववादी जायनवादी, धर्मराष्ट्रवाद और मुक्त बाजार के कॉरपोरेट सम्राज्यवाद का प्रधान एजंडा है।
समग्र अंबेडकर विचारधारा, जाति अस्मिता नहीं, जाति उन्मूलन के उनके जीवन संघर्ष, महज सत्ता में भागेदारी और सत्ता दखल नहीं, शोषणमुक्त समता और सामाजिक न्याय आधारित लोक कल्याणकारी लोक गणराज्य के लक्ष्य के मद्देनजर न सिर्फ बहिष्कार के शिकार ओबीसी, अनुसूचित जाति और जनजाति, धर्मांतरित अल्पसंख्यक समुदाय बल्कि शरणार्थी और गंदी बस्तियों में रहने वाले लोग, तमाम घुमंतू जातियों के लोग और कुल मिलाकर निनानब्वे फीसद भारतीय जनता जो एक फीसद की वंशवादी नस्ली वर्चस्व के लिए नियतिबद्ध हैं, उनके लिये बाबासाहेब के अलावा कोई दूसरा रास्ता नहीं है।
इसलिए अंबेडकरवादी हो या नहीं, बहिष्कृत समुदायों से हो या नहीं, अगर आप लोकतान्त्रिक व्यवस्था और धर्मनिरपेक्षता में आस्था रखते हैं,तो अंबेडकर आपके लिये हर मायने में प्रासंगिक हैं और उन्हीं के रास्ते हम सामाजिक व उत्पादक शक्तियों का संयुक्त मोर्चा बनाकर हिन्दुत्व व कारपोरेट साम्राज्यवाद दोनों का प्रतिरोध कर सकते हैं।
विचारधारा के तहत आन्दोलन पर व्यक्ति, वंश, क्षेत्रीय व समुदाय विशेष के वर्चस्व को खत्म करना इसके लिए बेहद जरूरी है। विचारधारा, आन्दोलन और संगठन को संस्थागत व लोकतान्त्रिक बनाये जाने की जरुरत है। बामसेफ एकीकरण अभियान इसी दिशा में सार्थक पहल है जो सिर्फ अंबेडकरवादियों को ही नहीं, बल्कि कॉरपोरेट साम्राज्यवाद व हिन्दुत्व के एजंडे के प्रतिरोध के लिये समस्त धर्मनिरपेक्ष व लोकतान्त्रिक ताकतों के संयुक्त मोर्चा निर्माण का प्रस्थान बिन्दु है। पर हमारे सोशल मीडिया ने इस सकारात्मक पहल को अंबेडकर के प्रति अपने अपने पूर्वग्रह के कारण नजरअंदाज किया, जो आत्मघाती है। इसके विपरीत इसकी काट के लिए कॉरपोरेट माडिया ने अपने तरीके से भ्रामक प्रचार अभियान प्रारम्भ से ही यथारीति चालू कर दिया है।
अमलेंदु के प्रश्न इस प्रकार हैः
'जाति प्रश्न और मार्क्सवाद' विषय पर चंडीगढ़ के भकना भवन में सम्पन्न हुये चतुर्थ अरविंद स्मृति संगोष्ठी की हस्तक्षेप पर प्रकाशित रिपोर्ट्स के प्रत्युत्तर में हमारे सम्मानित लेखक पलाश विश्वास जी का यह आलेख प्राप्त हुआ है। उनके इस आरोप पर कि हम एक पक्ष की ही रिपोर्ट्स दे रहे हैं, (हालाँकि जिस संगोष्ठी की रिपोर्ट्स दी गयीं उनमें प्रोफेसर आनंद तेलतुंबड़े, प्रोफेसर तुलसीराम और प्रोफेसर लाल्टू व नेपाल दलित मुक्ति मोर्चा के तिलक परिहार जैसे बड़े दलित चिंतक शामिल थे) हमने उनसे (पलाश जी) अनुरोध किया था कि उक्त संगोष्ठी में जो कुछ कहा गया है उस पर अपना पक्ष रखें और यह बतायें कि डॉ. अंबेडकर का मुक्ति का रास्ता आखिर था क्या और उनके अनुयायियों ने उसकी दिशा में क्या उल्लेखनीय कार्य किया।
मान लिया कि डॉ. अंबेडकर को खारिज करने का षडयंत्र चल रहा है तो ऐसे में क्या अंबेडकरवादियों का दायित्व नहीं बनता है कि वह ब्राह्मणवादी तरीके से उनकी पूजा के टोने-टोटके से बाहर निकलकर लोगों के सामने तथ्य रखें कि डॉ. अंबेडकर का मुक्ति का रास्ता यह था। लेकिन किसी भी अंबेडकरवादी ने सिर्फ उनको पूजने और ब्राह्मणवाद को कोसने की परम्परा के निर्वाह के अलावा कभी यह नहीं बताया कि डॉ. अंबेडकर का नुस्खा आखिर है क्या।
हम यह भी जानना चाहते हैं कि आखिर बामसेफ और आरएसएस में लोकेशन के अलावा लक्ष्य में मूलभूत अंतर क्या है।
पलाश जी भी "साम्राज्यवादी हिन्दुत्व का यह वामपंथी चेहरा बेनकाब कर देने का वक्त है" तो रेखांकित करते हैं लेकिन डॉ. अंबेडकर की सियासी विरासत "बहुजन समाज पार्टी" की बहन मायावती और आरपीआई के अठावले के "नीले कॉरपोरेटी हिन्दुत्व" पर मौन साध लेते हैं।
हम चाहते हैं पलाश जी ही इस "नीले कॉरपोरेटी हिन्दुत्व" पर भी थोड़ा प्रकाश डालें। लगे हाथ एफडीआई पर डॉ. अंबेडकर के चेलों पर भी प्रकाश डालें। "हिन्दू राष्ट्र का संकट माथे पर है" इस संकट में अंबेडकरवादियों की क्या भूमिका है, इस पर भी प्रकाश डालें। मायावती और मोदी में क्या एकरूपता है, उम्मीद है अगली कड़ी में पलाश जी इस पर भी प्रकाश डालेंगे।
बहरहाल इस विषय पर बहस का स्वागत है। आप भी कुछ कहना चाहें तो हमें amalendu.upadhyay@gmail.com पर मेल कर सकते हैं। पलाश जी भी आगे जो लिखेंगे उसे आप हस्तक्षेप पर पढ़ सकेंगे।
-संपादक हस्तक्षेप
इन सवालों का जवाब अकेले मैं नही दे सकता। मैं एक सामान्य नागरिक हूँ और पढ़ता लिखता हूँ। बेहतर हो कि इन प्रश्नों का जवाब हम सामूहिक रुप से और ईमानदारी से सोचें क्योंकि ये प्रश्न भारतीय लोक गणराज्य के अस्तित्व के लिये अतिशय महत्व पूर्ण हैं। इस सिलसिले में इतिहासकार राम चंद्र गुहा का `आउटलुक' व अन्यत्र लिखा लेख भी पढ़ लें तो बेहतर। अमलेंदु ने जिन लोगों के नाम लिखे हैं, वे सभी घोषित प्रतिष्ठित विद्वतजन हैं, उनकी राय सिर माथे। पर हमारे जैसे सामान्य नागरिक का भी सुना जाये तो बेहतर।
हमारा तो निवेदन है कि प्राकृतिक संसाधनों की खुली लूट खसोट पर अरुंधति राय और अन्य लोगों, जैसे राम पुनियानी और असगर अली इंजीनियर, रशीदा बी, रोहित प्रजापति जैसों का लिखा भी पढ़ लें तो हमें कोई उचित मार्ग मिलेगा। हम कोई राजनेता नहीं हैं, पर भारतीय जनगण के हक-हकूक की लड़ाई में शामिल होने की वजह से लोकतांत्रिक विमर्श के जरिये ही आगे का रास्ता बनाने का प्रयत्न कर रहे हैं।
भीमराव आम्बेडकर के चिन्तन और दृष्टि को समझने के लिये कुछ बिन्दु ध्यान में रखना जरूरी है। सबसे पहले तो यह कि वे अपने चिन्तन में कहीं भी दुराग्रही नहीं हैं। उनके चिन्तन में जड़ता नहीं है। वे निरन्तर अपने अनुभव और ज्ञान से सीखते रहे। उनका जीवन दुख, अकेलेपन और अपमान से भरा हुआ था, परन्तु उन्होंने चिंतन से प्रतिरोध किया। बाह्य रूप से कठोर, संतप्त, क्रोधी दिखायी देने वाले व्यक्ति का अन्तर्मन दया, सहानुभूति, न्यायप्रियता का सागर था। उन्होंने हमेशा अकादमिक पद्धति का अनुसरण किया। वे भाषण नहीं देते थे। सुचिंतित लिखा हुआ प्रतिवेदन का पाठ करते थे। जाति उन्मूलन इसी तरह का एक पाठ है। वे ब्राह्मणवाद के विरुद्ध थे लेकिन उनका ब्राह्मणों के खिलाफ विद्वेष एक दुष्प्रचार है। हमारे लिए विडम्बना यह है कि हम विदेशी विचारधाराओं का तो सिलसिलेवार अध्ययन करते हैं, पर गांधी, अंबेडकर या लोहिया को पढ़े बिना उनके आलोचक बन जाते हैं। दुर्भाग्य से लम्बे अरसे तक भारतीय विचारधारायें वामपन्थी चिन्तन के लिये निषिद्ध रही हैं, जिसके परिणामस्वरुप सर्वमान्य विद्वतजन, जिनमें घोषित दलित चिंतक भी हैं, अंबेडकर को गैरप्रासंगिक घोषित करने लगे हैं।
अंबेडकर ने भाषा का अपप्रयोग किया हो कभी। मुझे ऐसा कोई वाकया मालूम नहीं है। आपको मालूम हो तो बतायें।अंबेडकरवादियों के लिए भाषा का संयम अनिवार्य है। वर्चस्ववादियों और बहिष्कारवादियों की तरह घृणा अभियान से अम्बेडकर के हर अनुयायी को बचना होगा। तभी हम भारतीय समाज को जोड़ सकेंगे, जिसे वर्चस्ववाद ने खण्ड-खण्ड में बाँटकर अपना राज कायम रखा है।
आनंद तेलतुम्बडे का मत है कि निजी तौर मुझे नहीं लगता कि हिंदुस्तान में मार्क्स या आम्बेडकर किसी एक को छोड़कर या कुछ लोगों की `मार्क्स बनाम आम्बेडकर` जैसी ज़िद पर चलकर सामाजिक न्याय की लड़ाई लड़ी जा सकती है। वैसे भी सामाजिक न्याय की लड़ाई एक खुला हुआ क्षेत्र है जिसमें बहुत सारे छोड़ दिये गये सवालों को शामिल करना जरूरी है। मसलन,यदि औरतों के सवाल की दोनों ही धाराओं (मार्क्स और आम्बेडकर पर दावा जताने वालों) ने काफी हद तक अनदेखी की है तो इस गलती के लिए मार्क्स या आम्बेडकर को दोषी नहीं ठहराया जा सकता। आम्बेडकर और मार्क्स पर दावा जताने वाली धाराओं के समझदार लोग प्रायः इस गैप को भरने की जरूरतों पर बल भी देते हैं लेकिन बहुत सारी वजहों से मामला या तो आरोप-प्रत्यारोप में या गलती मानने-मनवाने तक सीमित रह जाता है। हमारे प्रिय फिल्मकार आनंद पटवर्धन ने तो एक विचारोत्तेजक फिल्म जयभीम कामरेड तक बना दी।
हमारा तो मानना है कि भारतीय यथार्थ का वस्तुवादी विश्लेषण करने की स्थिति में किसी भी वामपन्थी के अंबेडकरवादी होने या किसी भी अंबेडकरवादी के वामपन्थी बनने में कोई दिक्कत नहीं है, जो इस वक्त एक दूसरे के शत्रु बनकर हिन्दू राष्ट्र का कॉरपोरेट राज के तिलिस्म में फंसे हुये हैं।
आज बस, यहीं तक।
आगे बहस के लिए आप कृपया सम्बंधित सामग्री देख लें। हमें भी अंबेडकर को नये सिरे से पढ़ने की जरूरत है।
हिन्दू राष्ट्र का संकट माथे पर है और वामपंथी अंबेडकर की एक बार फिर हत्या करना चाहते हैं!
- because of the hatred for the Brahmanism, Ambedkar failed to understand the conspiracy of colonialism
- All experiments of Dalit emancipation by Dr. Ambedkar ended in a 'grand failure'
- Ambedkar's politics does not move an inch beyond the policy of some reforms
- दलित मुक्ति को अंजाम तक पहुँचाने के लिए अम्बेडकर से आगे जाना होगा
- ब्राह्मणवाद के विरुद्ध अपनी नफरत के कारण अंबेडकर उपनिवेशवाद की साजिश को समझ नहीं पाये
क्या अपने आर्थिक हितों के लिये यूरोप हिन्दूवादी फासीवादियों के साथ है??
यातना से पीड़िता सपना चौरसिया केस को लड़ने के प्रक्रिया में 16 जनवरी, 2013 सुबह 11:52 बजे मेरे मोबाईल न0- 9935599333 पर 09452302585 से धमकी भरा कॉल आया। उसके तुरन्त बाद मैंने इस घटना के सम्बंध में राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग तथा वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक महोदय, वाराणसी को तत्काल रजिस्ट्रर्ड डाक तथा ईमेल के माध्यम से सूचना प्रदान किया। लेकिन इसके बावजूद राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग तथा वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक, वाराणसी की तरफ से न कोई प्रत्युत्तर दिया गया और न ही कोई प्रभावी कार्यवाही की गयी।
यहाँ यह ध्यान देने कि जरुरत है कि सपना के केस में राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग को 5 दिसम्बर, 2012 को पीड़िता का शिकायत प्रार्थना पत्र भेजा गया था। इसके बाद (इस प्रयास में लगातार संघर्ष करने के पश्चात्) वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक, वाराणसी की तरफ से हमें नोटिस प्राप्त हुआ और अन्ततः दिनाँक 13 मार्च, 2013 को वाराणसी पुलिस द्वारा एफआईआर दर्ज किया गया।(http://www.pvchr.net/2012/03/breaking-silence-hope.html )
कृपया मेरे बेटे के जन्मदिन (24 जनवरी, 2013) को दिये गये मेरे टेस्टीमनी को देखे, "मैं बहुत भली-भांति जानता हूँ कि पुलिस व माफिया मिलजुलकर मुझे व मेरे परिवार को मारना चाहते है और लगातार मुझे फर्जी केस में फंसाने की कोशिश में लगे हुये हैं।"
20 दिसम्बर, 2012 एवं 16 जनवरी, 2013 को मुझे धमकियाँ दी जाती रहीं। इसलिये मैं यह निवेदन चाहता हूँ कि मेरे परिवार वालों तक पीड़िता सपना में जान-माल की सुरक्षा किया जाये तथा इस सम्बंध में सी0बी0सी0आई0डी0 या सी0बी0आई0 की एक उच्च स्तरीय जांच कमेटी बैठायी जाये। जिससे की इस प्रकरण में संलिप्त भ्रष्टाचारियों जैसे कि मीडि़या, पुलिस, एन0जी0ओ0, वकील तथा संबन्धियों का भी पता लगाया जाये क्योकि इस प्रकरण में मुझे इस केस से हटने व केस वापस लेने के लिये काफी फोन आया तथा काफी लोगों ने अपनी सलाह दिया। (इस केस) पहली बार अपनी जिन्दगी में मैंने इसके पहले यह महसूस किया कि मेरी मौत काफी करीब है। मै जीन्दगी में यह महसूस करता था। मैं अपनी मौत की परवाह किये बिना ज़िन्दगी के आखरी साँस तक भ्रष्टाचार एवं पितृसत्तात्मक तत्वों व मानसिकता से लड़ने जा रहा हूँ।
अगर मैं मर जाऊॅ तो कृपया PVCHR के लोगों का सहयोग करें और मेरे बेटे की देख-भाल करें, उसका ध्यान रखे। यह स्व0 व्यथा कथा (टेस्टीमोनी) मैं अपने बेटे कबीर कारुनिक के जन्मदिन 24 जनवरी, 2013 पर व्यक्त कर रहा हूँ। PVCHR ने इस घटना में अर्जन्ट अपील दायर की है। (http://www.pvchr.net/2013/01/india-threats-to-human right-defenders.html ) और उसे UN, NHRC एवं अन्य सभी मानवाधिकार मुद्दों पर काम करने वाली बड़ी संस्थाओं को भेजा। हमें केवल एक सहयोग व संवेदन "मानव अधिकार कार्यकर्त्ता सर्तकता" जो कि पीपुल्स वॉच से संचालित होता हैं। श्री बाधमबर पटनपायक जोकि NHRC, NGOs कार्यकारी समूह के सदस्य भी है, ने भी समर्थन किया और नीदरलैण्ड सरकार से भी समर्थन प्राप्त हुआ। लेकिन अभी तक न तो UN, NHRC व अन्य मानवाधिकार संस्थाओं व कार्यकर्ताओ की तरफ न ही कोई प्रत्युत्तर दिया गया और न ही सहयोग व संवेदना प्रदान किया गया। लेकिन पूरे विश्व समुदाय से हमें काफी लोगों से वैयक्तिगत स्तर पर सहयोग संवेदना व प्राप्त हुआ। (http://www.pvchr.net/2013/03/case-reflect7atrocities-india-woman.html) लेकिन सिर्फ नीदरलैण्ड दूतावास ने हमें फोन किया तथा घटना के सम्बंध में तथ्य भी पूछा।
अभी तत्काल मुझे इलाहाबाद हाईकोर्ट से इस केस के सम्बंध में एक नोटिस प्राप्त हुआ है। जिससे कि मुझे 18 मार्च, 2013 को माननीय उच्च न्यायालय, इलाहाबाद की सामने प्रस्तुत होने का निर्देश प्राप्त हुआ। क्योंकि सपना के पति ने मुझे संदिग्ध व गैरकानूनी तौर पर उसकी पत्नी अपने कब्जे में रखा बताया था।
मैं श्रुति, फरहद, तनवीर अहमद (एडवोकेट), मनोज मिश्रा (एडवोकेट), नम्रता तिवारी, उच्च न्यायालय के कोर्ट 49 में प्रस्तुत हुये। माननीय न्यायधीश महोदय ने पीडि़ता सपना तथा उसके भाई से सभी वास्तविक तथा सत्य तथ्य के बारे में पूछा और पूरे तथ्यों व वास्तविक सच्चाई को देखते हुये पूरी इमानदारी से हमारे हक़ में फैसला सुनाया (कुछ दिनों में फैसले की कॉपी उपलब्ध करा दिया जायेगा) अभी हमने कोर्ट की कॉपी के लिये प्रार्थना दाखिल किया है। लेकिन बहस के दौरान, दोषी पति के वकील ने माननीय न्यायधीश के सामने बहुत ही संकीर्ण एवं प्रत्तसत्तात्मक व्यवहार प्रदर्शित किया। माननीय न्यायाधीश महोदय ने उसके किसी भी गलत अनैतिक तथ्यों व व्यवहार को संज्ञान में न लेते हुये पीड़िता के जीवन जीने का गरिमा पूर्ण अधिकर का उल्लघंन माना।
यहाँ पर कोई भी गैर जिम्मेदार व ताकतवर व्यक्ति को यह अधिकार नही है कि वह न्यायिक प्रक्रिया व प्रणाली का गलत व गैर जिम्मेदाराना प्रयोग एक गरीब महिला के खिलाफ करें। मैं बहुत आश्चर्यचकित हूँ कि मानव अधिकार विषयों व मुद्दों की रक्षा करने वाली प्रमुख संस्थाएं UN, NHRC, EU एवं अन्य राष्ट्रीय-अन्तर्राष्ट्रीय मानव अधिकार संस्थाओं ने इस घटना पर न तो कोई सहयोग दिया और न ही कोई संवेदना प्रकट की है। जो कि मानव अधिकार कार्यकर्त्ताओं की रक्षा सुरक्षा के लिये कार्य करती हैं। हमारे कुछ यूरोप के गणमान्य साथी जो कि हमारी संस्थाओं से जुड़कर काम कर रहे, वह भी पूर्णतया शान्त व मूकदर्शन बने हैं। क्या यूरोप को भारत के बाजार की आवश्यकता है? यूरोप भारत के हिन्दू फासीवादियों व उनकी सोच को अपने आर्थिक हित के लिये प्रयोग व सहयोग चाहती हैं?
कहाँ पर है यूरोप का मानवीय मूल्य एवं अन्तर्राष्ट्रीय मानव गरिमा का मूल्य? हम अन्तर्राष्ट्रीय मूल्यों की सुरक्षा व प्रगति के लिये खतरों, धमकियों तथा दबाव का नित्य सामना कर रहे हैं। जर्मनी शीना की (अभी न्यूजीलैण्ड में है) और PVCHR जुड़े सभी लोगों को बहुत शुक्रिया, जिन्होंने इस गम्भीर समय में मुझे मनोवैज्ञानिक सहयोग व अपना हार्दिक संवेदना प्रदान किया।
मैं अभी बॉब मेयरली को सुन रहा हूँ। उठ जाओं और खडे हो जाओ।
( http://www.youtube.com/watch?vJum )
http://hastakshep.com/?p=30674
हमारा जंगल : हमारा अधिकार
हमारा जंगल : हमारा अधिकार
(एक्शनएड इंडिया द्वारा भारत में वन अधिकार अधिनियम 2006 के क्रियान्वयन के स्थिति पर शोध अध्ययन )
सारांश
वनों में रहने वाले लोगों, आदिवासियों, जनजाति समूहों और जंगलों के बीच रिश्ता कुछ इस तरह का है कि एक के बिना दूसरा नहीं रह सकता। इसका मुख्य कारण भौगोलिक, पारिस्थितिक, सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक और सांस्कृतिक रूप से एक दूसरे का जुड़ा हुआ होना है। हमारे देश की जमीन के लगभग 23 प्रतिशत हिस्से में जंगल है और 20 करोड़ से ज्यादा लोग सीधे तौर पर या अप्रत्यक्ष रूप से इन जंगलों पर निर्भर हैं। इन जंगलों में और आस पास रहने वाला समुदाय पुरखों से इन प्राकृतिक संसाधनों को संरक्षित करने, उनका उपयोग करने और उनको प्रबन्धित करने लगा हुआ है। आजादी से पहले और उसके बाद भी इन समुदायों के जंगल पर अधिकार को नहीं पहचाना गया। देश की वन नीति ने उन संसाधनों को वहाँ के लोगों द्वारा प्रबन्धित करने के अधिकार के बजाय हमेशा उन्हें वहाँ से हटाने की कोशिश की। यहाँ तक की इन लोगों पर अपनी ही जमीन को कब्जाने का आरोप तक लगाया गया।
पर 90 के दशक से इस सोंच में व्यापक बदलाव देखने को मिला। इस दौरान देश में कई प्रगतिवादी कानून, जैसे पंचायत अधिसूचित क्षेत्रों का विस्तार अधिनियम, सूचना का अधिकार, महात्मा गाँधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजनाऔर वन अधिकार अधिनियम बने ।
वन अधिकार अधिनियम 2006, जहाँ एक तरफ समुदाय के जंगल पर अधिकार को तरजीह देता है वहीँ लोगों के व्यक्तिगत अधिकार को भी। यह कानून 2008 से प्रभाव में आया, जब वन अधिकार नियमावली बनी। वनों में रहने वाले समुदायों के उनकी जमीन पर अधिकार को पुख्ता करने के लिये वन अधिकार समिति सहित कई राज्यों में राज्य स्तरीय निगरानी समितियां गठित की गयीं। पर सरकार द्वारा इस कानून को इसके सही अर्थों में लागू करने में काफी कोताही बरती गयी। लोगों के व्यक्तिगत अधिकार को तो कई मामलों में तवज्जो मिली पर समुदाय के अधिकार तो कानून बनने के बाद भी नदारद ही रहे।
इसी क्रम में, यह शोध अध्ययन आठ राज्यों आंध्र प्रदेश, गुजरात, झारखण्ड, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, ओडिशा, राजस्थान,और पश्चिम बंगाल में वन अधिकार अधिनियम 2006 के क्रियान्वयन की स्थिति को समझने के लिये किया गया है। इस अध्ययन में आठ राज्यों के 26 जिलों की 219 ग्राम पंचायतो के 400 गाँवों ( प्रत्येक राज्य से 50 गांव), 219 ग्राम पंचायतों को शामिल किया गया है।
इस अध्ययन में रैंडम सैम्पलिंग को कई स्तरों पर प्रयोग करते हुए आँकड़े एकत्रित किये गये हैं।
प्रत्येक राज्य में, तीन से चार जिलों का चयन नीचे लिखे मानकों के आधार पर किया गया है।
- अधिकतम वन क्षेत्र
- नेशनल पार्क या अभयारण्य का क्षेत्र
- 40 प्रतिशत से अधिक जनजातीय आबादी वाला क्षेत्र
- उस प्रखंड या जिले में हमारी उपस्थिति
मन्त्रालय की वेबसाइट पर उपलब्ध आँकड़े, तथा ब्लॉक एवं जिला पर स्तर पर उपलब्ध सरकारी दस्तावेजों को भी एकत्र कर उनका विश्लेषण किया गया है।
यदि आर्थिक पैमाने की बात करें तो 75.17 प्रतिशत ऐसे घरों में सर्वे किये गये हैं जो गरीबी रेखा से नीचे रह रहे हैं, बाकि 24.83 प्रतिशत सैम्पल गरीबी रेखा से ऊपर के लोगों के हैं। कुल गरीबी रेखा से नीचे रहने वाले परिवारों में भी सबसे ज्यादा सैम्पल 89.27 प्रतिशत गुजरात से, 89.27 प्रतिशत ओडिशा से, 88.77 प्रतिशत पश्चिम बंगाल से लिए गये। यदि मनरेगा जॉब कार्ड की बात करें तो इनमें से 82.61 प्रतिशत लोगों के पास जॉब कार्ड मिले थे।
प्राथमिक आंकड़ों का विश्लेषण और निष्कर्ष
व्यक्तिगत दावों की पहचान
400 गांवों में हमारे प्राथमिक सर्वे में यह निकलकर आया कि वन अधिकार समितियों का गठन 86 प्रतिशत यानि कि 344 गाँवों में हुआ है। यदि इस समिति के सदस्यों की बात करें तो इनमें 88.67 प्रतिशत अनुसूचित जनजाति के, 5.09 प्रतिशत अनुसूचित जाति के, 3.16 प्रतिशत अन्य पिछड़ी जातियों के और तीन प्रतिशत अन्य जातियों से हैं।
कुल 4873 समिति सदस्यों में से 75.85 प्रतिशत पुरुष और 24.15 प्रतिशत महिलाएं है।
ग्राम सभा के स्तर पर जमीन पर व्यक्तिगत दावों की बात करें तो अध्ययन में यह निकल कर आया कि ग्राम सभा द्वारा औसतन 3.08 एकड़ जमीन का सुझाव दिया था जबकि जिला स्तरीय समिति ने 2.48 एकड़ जमीन अनुमोदित की है।
सामुदायिक स्तर पर वन अधिकार अधिनियम के अन्तर्गत दावे
अध्ययन में निकलकर आया कि जिन 344 गाँवों में वन अधिकार समितियों का गठन हुआ है,उनमें से सिर्फ 109 (31.68 प्रतिशत) समितियों ने 91803 एकड़ वन भूमि पर सामुदायिक दावे प्रस्तुत किये हैं। पश्चिम बंगाल में कोई भी सामुदायिक दावा प्रस्तुत नहीं किया गया।
यदि दावे के अधिकार योग्य समुदाय की बात करें तो सामुदायिक दावों के अन्तर्गत ओडिशा में सबसे ज्यादा जनजाति समुदाय यानि के 76.51 प्रतिशत, उसके बाद राजस्थान,51.82 प्रतिशत है। यदि मध्य प्रदेश (40.85 प्रतिशत) को छोड़ दे तो अन्य सभी राज्यों में कम से 50 प्रतिशत जनजातीय जनसंख्या है। यह अध्ययन बताता है की 717.42 एकड़ भूमि प्रति सामुदायिक दावे के हिसाब से दी गयी जिसमें सभी तरह की जैसे राजस्व भूमि, संरक्षित भूमि और रिजर्व वन भूमि शामिल हैं।
यदि आंकड़ों पर गौर करें तो पता चलता है कि आंध्र प्रदेश, गुजरात, राजस्थान और ओडिशा जैसे राज्यों में सामुदायिक दावों का निपटारा सिर्फ रिजर्व जमीन के मामलों में किया गया है। जबकि झारखण्ड में, जैसा कि ग्राम सभा में प्रस्तावित किया गया था, सामुदायिक दावों के माध्यम से निपटायी गयी 100 प्रतिशत भूमि संरक्षित श्रेणी की थी।
शोध अध्ययन के प्रमुख निष्कर्ष
एक प्रमुख तथ्य यह निकल कर आया कि वन अधिकार समितियों का गठन अधिकतर मामलों पर गाँव स्तर पर किया गया है न कि टोला स्तर पर। यहाँ तक कि आंध्र प्रदेश, गुजरात, राजस्थान, पश्चिम बंगाल और मध्य प्रदेश में तो ये समितियां पंचायत स्तर पर बनायी गयी है।
सब डिविजन स्तरीय और जिला स्तरीय समितियों द्वारा आवश्यक कार्य जैसे कि नियत समय अंतराल पर बैठकें, प्रार्थना पत्रों को छाँटना, दावों की क्षेत्र में जाकर जाँच करना और विभागों के बीच आपसी समन्वय स्थापित करना आदि काम इन समितियों द्वारा नहीं किये जा रहे। जिन जगहों पर पलायन करके आये परिवार रह रहे हैं, वन अधिकार अधिनियम के अन्तर्गत उनके प्रार्थना पत्रों को नहीं लिया जा रहा।
पश्चिम बंगाल, आंध्र प्रदेश, झारखण्ड और ओडिशा जैसे राज्यों में वन विभाग के कर्मचारियों द्वारा जाँच कार्य में और राजस्व विभाग द्वारा नक्शे बनाने में न तो समुदाय को और न ही वन अधिकार समिति के लोगों को शामिल किया जा रहा है। इसके चलते समुदाय की आवश्यकताओं के हिसाब से भूमि का आवंटन नहीं हो पा रहा।
सब डिविजन पर या जिला स्तर पर शिकायत करने और उसके निवारण की कोई प्रणाली नहीं है। जिसके परिणाम स्वरूप लम्बे समय तक लोगों को अपनी सही शिकायतों का कोई जवाब नहीं मिलता।
एकल महिला वाले घरों के दावों को अक्सर या तो नकार दिया जाता है या फिर तरजीह नहीं मिलती। कई ऐसे गाँवों में जहाँ सर्वे नहीं हुआ था, क्योंकि वहाँ दावे की भूमि सम्बन्धी कुछ भी आधिकारिक दस्तावेज मौजूद नहीं थे, अधिकारियों ने उन मामलों को देखा तक नहीं था।
बदल-बदल कर खेती करने वाले विशेष रूप से कमजोर जनजातीय समूह को भी खेती में बदलाव के कारण मान्यता नहीं दी गयी है। उन्हें जमीन सम्बंधी मामलों के निपटारों के लिये सामुदायिक दावों के स्थान पर व्यक्तिगत दावों के लिये कहा गया है, जिसके लिये वे अभी तक तैयार नहीं है।
यदि जंगलों की जमीन को विकास परियोजनाओं के लिए बदलने के मामलों को देखें, जैसा कि ओडिशा के कालाहांडी जिले के नियामगिरी के मामले में हुआ, रिजर्व जंगलों पर सामुदायिक दावों को जान बूझकर निरस्त कर दिया गया। प्रस्तावित खनन और उद्योग को यदि इस क्षेत्र में लागू किया गया तो इसका सीधा असर वन अधिकार अधिनियम के क्रियान्वयन पर पड़ेगा। सरकार की विभिन्न योजनाओं के अन्तर्गत वन विभाग द्वारा जंगल की जमीन और सामुदायिक भूमि पर की जाने वाली पौधारोपण की गतिविधियों को भी रोका जा रहा है।
साथ ही , जंगल के कुछ हिस्सों को पौधारोपण के लिए संरक्षित कर दिया गया है और इसे वन अधिकार अधिनियम के अन्तर्गत वितरण की परिधि से बाहर कर दिया गया है। और वन क्षेत्रों पर सामुदायिक वन अधिकार के लिये दिये गये कागज जमीन पर असल दावों से मेल नहीं खाते।
ओडिशा के सिमिलिपाल नेशनल पार्क में, टाइगर संरक्षित क्षेत्र से ग्रामीणों का हटाते वक्त वन अधिकार अधिनियम के अन्तर्गत उनके वन पर व्यक्तिगत और सामुदायिक दोनों अधिकारों की पूर्णतः अनदेखी की गयी है।
राजस्थान के सीतामाता अभयारण्य में वन विभाग, वन्य जीवों के संरक्षण के लिए बहुत बड़ी दीवार बनवा रहा है, पर इस अभयारण्य में पिछले चार दशकों से रहने वाले हजारों लोगों के अधिकारों की अनदेखी की जा रही है।
शोध अध्ययन क्षेत्र में लगभग 68 प्रतिशत एकल महिलाओं ने वन अधिकार अधिनियम के अन्तर्गत व्यक्तिगत दावे प्रस्तुत नहीं किये हैं। इसका मुख्य कारण जहाँ एक तरफ वे इस बारे जानते नहीं हैं वहीँ दूसरी और वन अधिकार अधिनियम के अंतर्गत दावे की जटिल प्रक्रिया पूरी करना भी उनके लिए मुश्किल है। बातचीत के दौरान उन्होंने बताया कि वे इस सम्बन्ध में सारी प्रक्रियाएं पूरी करना चाहती हैं ताकि इस अधिकार के अन्तर्गत उन्हें जमीन मिल सके। इस अधिकार के क्रियान्वयन के विभिन्न स्तरों पर स्वयंसेवी संगठनों के सक्रिय रूप से शामिल न होने के कारण भी व्यक्तिगत दावों की संख्या नहीं बढ़ पा रही है।
सुझाव
वन अधिकार समिति की सिफारिशों पर अमल करने के लिए ग्राम सभा का आयोजन जरूरत पड़ने पर होते रहना चाहिये।
दावों को किसी भी मामले में निरस्त नहीं करना चाहिये, बल्कि उन्हें सब डिविजन और जिला स्तरीय समिति के फीडबैक के बाद पुनः प्रस्तुत करना चाहिये।
वन अधिकार अधिनियम के अन्तर्गत दावों के निराकरण के लिए समयावधि निश्चित होनी चाहिये और सूचना अधिकार कानून की तर्ज पर यदि समयावधि में कार्यवाही न हो तो पेनाल्टी का प्रावधान होना चाहिये।
समुदाय द्वारा प्रयोग की जाने वाली भूमि को वन विभाग द्वारा पौधारोपण, खनन या औद्योगिक विकास के नाम पर नहीं छीनना चाहिये।
जमीन सम्बन्धी विवादों के निपटारों के दौरान ग्लोबल पोजिशनिंग सिस्टम (जीपीएस) प्रणाली प्रयोग करते वक्त, समुदाय को भी उसमें शामिल किया जाना चाहिये और समुदाय द्वारा प्रयोग की जा रही भूमि के नक्शे एकदम सही बनाये जाने चाहिये।
कृषि पूर्व जनजातीय समूह के आवास के अधिकार को समुदाय के अधिकार के तहत निराकरण किया जाना चाहिये। अभयारण्य और संरक्षित वन क्षेत्र के मामलों में लोगों के दावे बर्बर प्राथमिकता के साथ निपटाए जाने चाहिये।
वन अधिकार अधिनियम के अन्तर्गत जमीन सम्बन्धी मामलों को सुलझाने के दौरान महिला प्रमुख घरों को प्राथमिकता दी जानी चाहिये।
जिन गांवों का सर्वे नहीं हुआ है, वहाँ दावों के निराकरण के दौरान पूर्व से चली आ रही व्यवस्था को मानना चाहिये, क्योंकि इनके जमीन के व्यक्तिगत रिकॉर्ड उपलब्ध नहीं है।
ग्रामसभा को और अधिक सशक्त बनाने की जरूरत है ताकि वन अधिकार अधिनियम का सफल क्रियान्वयन सुनिश्चित हो सके। साथ ही राजस्व, वन और जनजातीय विभाग तथा पंचायत को आपस में समन्वय के साथ काम करने की अवश्यकता है।
जहाँ संभव हो वहाँ वन अधिकार अधिनियम को उसे पंचायती राज अनुसूचित क्षेत्रों में विस्तार अधिनियम 1996 के साथ प्रयोग किया जाना चाहिये।
सभी वन गांवों को निश्चित समय अवधि के अन्तर्गत राजस्व गाँव में परिवर्तित किया जाना चाहिये ताकि विकास की विभिन्न सरकारी योजनाएं इनमें संचालित हो सकें।
प्रत्येक राज्य में वन अधिकार अधिनियम पर एक संसाधन केन्द्र स्थापित किया जाना चाहिये और फिर राष्ट्रीय स्तर पर भी। इस केन्द्र के माध्यम से वन अधिकार अधिनियम के क्रियान्वयन को सुनिश्चित किया जाना चाहिये तथा विभिन्न घटकों के बीच तालमेल स्थापित करने में भी यह केन्द्र सहयोग करे।
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