Sunday, June 20, 2021

रघुवीर सहाय और हम

 मैं डीएसबी कालेज नैनीताल का छात्र था। तभी पन्तनगर गोलीकांड हुआ था। शेखर पाठक गिर्दा और मैंने रपट लिखी और रघुवीर सहाय जी ने छाप दी यह साझा रपट। उसके बाद विविध मुद्दों पर लिखने के लिए उनके पत्र आ जाते थे।


अब याद आया,पंतनगर गोलीकांड से पहले हमारे खास दोस्त पवन राकेश ने मेरे लेख धर्मयुग और दिनमान दोनों जगह भेजें थे,दोनों जगह ये लेख छप गए।उं दिनों पत्र पत्रिकाओं में हर रचना का पारिश्रमिक मिलता था। नैनीताल जैसे हिल स्टेशन में 1973 से 1975 तक हमारे खर्चे एक डेढ़ हजार तक हो जाते थे।लेकिन BA में पहुंचते ही वैचारिक असर में हमने गैर जरूरी खर्च बन्द कर दिए। गुरुजी के घर मोहन निवास में जाने के बाद 1976 से खर्च और कम हो गए।फिर पत्र पत्रिकाओं से इतना पारिश्रमिक आने लगा कि बीए एमए में ही हमने घर से पैसे लेने बन्द कर दिए।


1979 में एमए पास करने के बाद एमफिल के लिए इलाहाबाद विश्विद्यालय होकर जेएनयू पहुँचा तो उर्मिलेश के कमरे में पूर्वांचल होस्टल में डेरा डाला। जब भी दिनमान के दफ्तर गए, मुझे अपनी गाड़ी में बैठाकर जेएनयू गेट पर छोड़ते थे। रोक लेते थे। काम देते थे। एडवांस पेमेंट करते थे।


धनबाद गया तो खान दुर्घटनाओं और आदिवासियों पर लिखवाया। जब भी दिल्ली गए, उन्होंने दिमान में बैठकर लिखवाया।


कहते थे,धनबाद से आये हो, खर्च तो निकलना चाहिए।लिखवाने के बाद वाउचर से एडवांस पेमेंट।


हमारे अनेक सहकर्मियों का यही अनुभव रहा है।

हमेशा नए लोगों से लिखवाते रहने,उन्हें निखारने की जितनी बेचैनी उनमें देखी,वही हममें भी जाने अनजाने संक्रमित होती रही।


मेरे तमाम मित्र दिनमान के लेखक रहे हैं। जिनसे अबभी चार दशक के बाद भी वही मित्रता है,जो दिनमान से शुरू हुई।


पेशेवर पत्रकारिता में प्रभाष जोशी को छोड़कर बाकी लोग बॉस थे या विशुद्ध मैनेजर या विशुद्ध दलाल। 


दैनिक आवाज़,धनबाद के सम्पादक ने जरूर सम्पादन सीखने में मेरी पूरी मदद की। कोयला खानों और आदिवासियों,झारखण्ड आंदोलन पर लिखने की पूरी आजादी दी,जो मुझे अन्यत्र कहीं नहीं मिली,जनसत्ता में भी नहीं।

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