Tuesday, September 2, 2014

सियासत के धुंधलकों में डूबता जनपद: पहली किस्‍त अभिषेक श्रीवास्‍तव / ग़ाज़ीपुर से लौटकर

सियासत के धुंधलकों में डूबता जनपद: पहली किस्‍त

अभिषेक श्रीवास्‍तव / ग़ाज़ीपुर से लौटकर 


चीनी भाषा में 'चिन-चू' का मतलब होता है रणबांकुरों का देश। संभवत: पहली बार भारत के संदर्भ में अगर इस शब्‍द का कभी प्रयोग हुआ तो वह मशहूर चीनी यात्री ह्वेन सांग के यात्रा वृत्‍तान्‍त में मिलता है। ह्वेन सांग अपनी भारत यात्रा के दौरान उत्‍तर प्रदेश के छोटे से जि़ले ग़ाज़ीपुर आए थे। उस वक्‍त हालांकि ग़ाज़ीपुर इतना भी छोटा नहीं था। ग़ाज़ीपुर के जि़ला बनने से पहले बलियाचौसासगड़ीशाहाबादभीतरीखानपुरमहाइच आदि परगने गाजीपुर में सम्मिलित थे। उन दिनों बलिया गाजीपुर का तहसील हुआ करता था। ह्वेन सांग से पहले मशहूर चीनी यात्री फाहियान भी ग़ाज़ीपुर होकर गए थे। फाहियान और ह्वेन सांग के बाद भी यहां आने वालों का सिलसिला नहीं थमा। यहां के गुलाबों के बारे में सुनकर गुरुदेव रबींद्रनाथ टैगोर भी ग़ाज़ीपुर आकर रुके। 

इसी जि़ले में एक मशहूर पवारी बाबा हुआ करते थे जिनके पास शिष्‍य बनने के लिए कभी स्‍वामी विवेकानंद आए थे। विवेकानंद के पत्रों में इस घटना का जि़क्र है कि जिस रात उन्‍होंने पवारी बाबा के मठ में रुककर दीक्षा लेने का फैसला किया, उसी रात उनके सपने में रामकृष्‍ण परमहंस आए जो काफी दुखी दिख रहे थे। सपने से संकेत लेते हुए विवेकानंद यहां नहीं रुके, वे आगे बढ़ गए।

ये बातें कहने का आशय यह है कि ग़ा़ज़ीपुर में ऐसा कौन है जो नहीं आया, कौन है जिसके नाम के साथ इस जिले का नाम न जुड़ा हो, लेकिन यह जिला एक शाश्‍वत सराय बना रहा। कभी किसी ने यहां ठहर कर इसके बारे में सोचने की ज़हमत नहीं उठायी। रणबांकुरों की इस धरती ने हालांकि कभी इसका अफ़सोस नहीं पाला। अंग्रेज़ों के खिलाफ़ सिपाहियों की पहली बग़ावत (मंगल पांडे) से लेकर 1942 की अगस्‍त क्रांति (जिसके बाद बलिया आज़ाद हुआ था) तक और वीर अब्‍दुल हमीद की शहादत से लेकर 1974 में ज़मींदारों के खिलाफ भूमिहीनों के उभार तक यह धरती लगातार खून बहाकर अपना कर्ज चुकाती रही। यह परंपरा आज भी कायम है। 

अफ़सोस सिर्फ इस बात का है जिन खेत-खलिहानों ने अपने लड़कों को निस्‍वार्थ भाव से समाज की सेवा के लिए बलिदान किया, आज वे गंगा में डूब रहे हैं और मौजूदा सियासत स्‍थानीय शहीदों की चिंताओं पर मेले लगाकर अपना राजधर्म निबाह रही है। इसी डूबते जिले की रस्‍मी यात्रा करने वालों की फेहरिस्‍त में 18 अगस्‍त 2014 को ग़ाज़ीपुर के सांसद मनोज सिन्‍हा का नाम नया-नया जुड़ा है।

उस दिन सवेरे से ही मुहम्‍मदाबाद के शहीद स्‍मारक तक आने वाली सड़कों पर चूना डाला जाने लगा था, शामियाना ताना जाने लगा था और भारतीय जनता पार्टी के कार्यकर्ता अपने मुख्‍य अतिथि की अगवानी में मोटरसाइकिलों पर हुड़दंग करते इकट्ठा होने लगे थे। दस बजते-बजते चौराहे पर जाम लग गया। ख़बर आई कि रेल राज्‍यमंत्री मनोज सिन्‍हा श्रद्धांजलि देने पहुंचने वाले हैं। 

कुछ और लोग थे जो भीड़ के साथ उधर जाने के बजाय उधर से वापस आ रहे थे। जैसे-जैसे चौराहे पर भीड़ जुटी, एक छोटा सा समूह चौराहे से दूर एक जगह इकट्ठा हुआ। किसी ने दूसरे से पूछा, ''डाक साब, आप वहां हो आए?'' डाक साब ने जवाब दिया, ''हां भइया, हम तो सकराहे फूल-पत्‍ती चढ़ाकर निकल लिए। कौनो बैंड बजाने थोड़े वहां रुकना है।'' तब तक किसी ने जानकारी दी कि सांसद महोदय इस बार किसी भूमिहार के घर नहीं जाएंगे। उनका कार्यक्रम एक यादव के घर जाने का तय है। 

बात-बात में इंटर कॉलेज के एक रिटायर्ड प्रिंसिपल साहब बोले, ''बताइए! जिन्‍हें शहीदों की रत्‍ती भर कद्र नहीं है वे शहादत को श्रद्धांजलि देने आए हैं। वतन पर मिटने वालों का यही बाकी निशां होगा...।'' बहरहाल, मनोज सिन्‍हा आए और चले भी गए। दिन के अंत में शहीद स्‍मारक पर सिर्फ चूना और गेंदे के फूल बिखरे हुए थे जबकि शेरपुर गांव के लोग किसी भी वक्‍त घटने वाली अप्रत्‍याशित घटना को लेकर सहमे हुए थे क्‍योंकि गंगा में पानी लगातार बढ़ता जा रहा था। 

(जारी) 

सियासत के धुंधलकों में डूबता जनपद: दूसरी किस्‍त

अभिषेक श्रीवास्‍तव । ग़ाज़ीपुर से लौटकर



ग़ाज़ीपुर में बहादुरी के सिर्फ किस्‍से बचे हैं या इसकी कोई ठोस ज़मीन भी मौजूद है, यह हम बाद में देखेंगे लेकिन एक निगाह यहां के गौरवशाली अतीत पर डाल लेना ज़रूरी है। दस्‍तावेज़ बताते हैं कि ग़ाज़ीपुर के इंकलाबियों ने अगर शहादत नहीं दी होती तो यह देश आज़ाद न हुआ होता।


ग़ाज़ीपुर जनपद के मुहम्‍मदाबाद तहसील मुख्‍यालय की ऐतिहासिक शहादत पर प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने एक बार कहा था, ''अगर डॉ. शिवपूजन राय नहीं होते तो गांधीजी की अहिंसा विधवा हो गई होती।'' दस्‍तावेज़ बताते हैं कि ग़ाज़ीपुर के तत्‍कालीन जिलाधीश मुनरो ने इस शहादत की रिपोर्ट लंदन भेजी थी और भारत के स्‍वतंत्रता अधिनियम पर बहस करते हुए चर्चिल ने कहा था, ''अब हमें भारत को आज़ाद कर देना चाहिए। भारतीय अपने अधिकारों के लिए सीने पर गोलियां खाते हैं और लड़ते हैं।'' (मुनरो रिपोर्ट) यह संदर्भ 18 अगस्‍त 1942 की उस ऐतिहासिक घटना का था जिसमें डॉ. शिवपूजन राय के नेतृत्‍व में 11 लोग शहीद हो गए थे और सैकड़ों घायल हुए व गिरफ्तार किए गए थे।

शहीद स्‍मारक, मुहम्‍मदाबाद 
कहानी यह है कि 9 अगस्‍त 1942 को महात्‍मा गांधी समेत कांग्रेस के तमाम नेताओं की गिरफ्तारी की सूचना मिलते ही इलाहाबाद, बनारस, आज़मगढ़, बलिया और ग़ाज़ीपुर के नौजवानों में हलचल मच गई। अधिकतर जगहों पर स्‍वत: स्‍फूर्त आंदोलन शुरू हो गए। जनपद के 14 थानों पर जनता ने कब्‍ज़ा कर लिया और यूनियन जैक की जगह तिरंगा फहरा दिया। गांधीजी के आह्वान से प्रेरित होकर 17 अगस्‍त 1942 को ब्रिटिश हुकूमत को जड़ से उखाड़ फेंकने के लिए मुहम्‍मदाबाद से दो किलोमीटर पश्चिम में स्थित गांव हरिहरपुर में स्‍थानीय युवकों के साथ गांव शेरपुर के युवकों के आह्वान पर एक सभा हुई। सभा में लिए गए निर्णय के अनुसार उसी दिन युवकों ने गौसपुर के हवाई अड्डे को नष्‍ट कर दिया। इस घटना में शेरपुर के श्री जमुना को गोली लगी। आंदोलनकारियों ने मुहम्‍मदाबाद डाकघर, मुंसिफ अदालत, थाना और यूसुफपुर स्‍टेशन को क्षतिग्रस्‍त कर दिया और उन भवनों पर तिरंगा झण्‍डा फहरा दिया। सामूहिक निर्णय हुआ कि अगले दिन यानी 18 अगस्‍त को तहसील मुख्‍यालय पर तिरंगा फहराना है। 18 अगस्‍त की सुबह ग्राम शेरपुर में डॉ. शिवपूजन राय के आह्वान पर एक सभा बुलाई गई। हज़ारों की संख्‍या में युवक गीत गाते हुए मुहम्‍मदाबाद के लिए गांव से निकले। दूसरा जुलूस डॉ. तिलेश्‍वर राय के नेतृत्‍व में आगे बढ़ा। नौजवानों को रोकने के लिए तहसील पर पुलिस ने गोलियां चलाईं। तहसील के बारामदे में ऋषेश्‍वर राय, राजनारायण राय, नारायण राय, रामबदन उपाध्‍याय, वंशनारायण राय, वशिष्‍ठ नारायण राय और वंशनारायण राय (द्वितीय) शहीद हो गए। अहिंसक क्रांति की इस अनूठी ऐतिहासिक घटना के बाद अंग्रेज़ों की फौज ने शेरपुर गांव में कहर बरपाया और बदला लिया। तीन लोगों रमाशंकर लाल, खेदन यादव और राधिका पांडे को शेरपुर में गोली मार दी गई। अंग्रेज़ों का यह दमन चक्र 29 अगस्‍त तक ग़ाज़ीपुर में चलता रहा जिसमें कुल 11 लोग मारे गए, 25 लोग पकड़े गए तथा सैकड़ों घायल हुए।

इस घटना के बाद न सिर्फ ग़ाज़ीपुर और मुहम्‍मदाबाद बल्कि विशेष रूप से शेरपुर गांव का नाम लोक-इतिहास के पन्‍नों में दर्ज हो गया। स्‍थानीय लोगों में हालांकि इस बात का अब तक रोष है कि कांग्रेस ने बहुत सुनियोजित तरीके से ग़ाज़ीपुर के शहीदों के ऐतिहासिक अध्‍याय को औपचारिक रूप से स्‍थापित नहीं होने दिया। बस इतना भर हुआ कि एक शहीद स्‍मारक मुहम्‍मदाबाद के बीचोबीच बना दिया गया जिस पर हर बरस जलसे होने लगे। कुछ लोगों का मानना है कि शिवपूजन राय को स्‍वतंत्रता के इतिहास में वाजिब जगह न मिलने का कारण कांग्रेस के डॉ. मुख्‍तार अहमद अंसारी के साथ उनका विवाद रहा है, जिसकी जड़ें इतनी फैल गई हैं कि आज के मुहम्‍मदाबाद की राजनीति में भी उसके फल तलाशे जा सकते हैं। यह बात हालांकि जितनी पुरानी है, उस हिसाब से इस बारे में कुछ भी कहना संभव नहीं है। वामपंथी आंदोलन से जुड़े कुछ स्‍थानीय लोग भले डॉ. शिवपूजन राय को वाम विचारधारा का बताते हैं, लेकिन बहादुरी और इंकलाब की इस विरासत के साथ कोई विचारधारा कथित तौर पर नत्‍थी नहीं थी। स्‍वाभाविक नतीजा यह हुआ कि इस क्षेत्र में गहुत ग‍हरे जड़ जमाए हुए जातिगत वर्चस्‍व और सामंतवाद के मूल्‍यों ने शहीदों की चिताओं पर लगने वाले सालाना मेले पर धीरे-धीरे कब्‍ज़ा जमा लिया। सन 1967 के नक्‍सलबाड़ी आंदोलन के बाद यहां से सटे भोजपुर के इलाके में जो आंदोलन उभरा, उसका बक्‍सर से सटे होने पर कुछ शुरुआती असर यहां भी दिखा। संयोग से इमरजेंसी से ठीक पहले के दौर में ग़ाज़ीपुर के सांसद भारतीय कम्‍युनिस्‍ट पार्टी के यशस्‍वी नेता सरजू पांडे हुआ करते थे और भोजपुर आंदोलन की कमान उस समय भूमिगत पार्टी भाकपा(माले) के हाथ में थी। तब तक ग़ाज़ीपुर में वाम आंदोलन के शुरुआती प्रयोग चालू हो चुके थे। इमरजेंसी से ठीक पहले 1974 में अचानक एक विवाद के चलते शेरपुर गांव में दलित टोला जलाए जाने की घटना ने तीस साल बाद एक बार फिर शेरपुर और मुहम्‍मदाबाद को चर्चा के केंद्र में ला दिया और बहादुरी के लिए विख्‍यात इस धरती का असल सामंती चेहरा दुनिया के सामने आ गया।

भाकपा(माले)-लिबरेशन के नेता रामजी राय याद करते हुए बताते हैं, ''यह घटना एक तरह से 'निप इन द बड' थी... मतलब आंदोलन ने अभी शेरपुर के इलाके में प्रवेश ही किया था। इससे पहले यहां से सटे बलिया के नारायणपुर में हमारी पार्टी के कामरेड मोती की हत्‍या हो चुकी थी। यह इलाका खतरनाक सामंतों का था। शेरपुर में एक दलित ने तबियत खराब होने के कारण काम पर जाने से इनकार कर दिया था। इसके बदले में उसके साथ मारपीट की गई और बात इतनी बढ़ गई कि भूमिहारों ने दो दलितों को नक्‍सली बताकर जान से मार दिया। उसके बाद भूमिहारों ने फैसला किया कि दलितों के एक टोले में आग लगा दी जाए। उन्‍होंने पूरे टोले को फूंक दिया। लोग तो नहीं, हालांकि जानवर मारे गए। यह बहुत बड़ी घटना थी। ग़ाज़ीपुर में वामपंथी आंदोलन के स्‍थापित होने से पहले ही उसे ऊंची जातियों ने कुचलने में कामयाबी हासिल कर ली थी।'' रामजी राय स्‍मृति के आधार पर बताते हैं कि इस घटना के बाद 1984 तक प्रतिरोध में शेरपुर गांव में दलित कभी भी भूमिहारों के यहां काम करने नहीं गए। यह बात अलग है कि इस विरोध का कोई स्‍थायी मूल्‍य नहीं बन सका क्‍योंकि एक तो पार्टी का आधार क्षेत्र बदल गया और दूसरे, शहीदों के तकरीबन एक ही जाति से होने के कारण उन्‍हें ऊंची जातियों ने जाति के आधार पर 'एप्रोप्रिएट' कर लिया। रामजी राय कहते हैं, ''शिवपूजन राय हों या सहजानंद, सब अंतत: राय थे!"

मनोज सिन्‍हा की अध्‍यक्षता में इस साल 18 अगस्‍त को हुए शहीद स्‍मृति कार्यक्रम में शहीद स्‍मारक समिति द्वारे बांटे गए परचे पर लिखे नाम देखें तो बात आसानी से समझ में आ सकती है: अध्‍यक्ष: श्री अभयनारायण राय, व्‍यवस्‍थापक: श्री लक्ष्‍मण राय, संयोजक: प्रो. रामाज्ञा राय और प्रयास: संजय राय। इसी महीने मुहम्‍मदाबाद के इंटर कॉलेज से सेवानिवृत्‍त हुए प्रिंसिपल डॉ. शंकर दयाल राय इन स्थितियों पर टिप्‍पणी करते हैं, ''दरअसल, यहां प्रतिक्रियावादी ताकतों का एक ऐसा जटिल जाल है जिसमें यह तय करना बहुत मुश्किल है कि कौन किसके साथ है।'' और हंसते हुए उन्‍होंने अपनी पसंदीदा पंक्ति दुहरा दी, ''आप देख रहे हैं न...यही बाकी निशां होगा...।'' 

(जारी)

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